Book Title: Shrenik Charitra Bhasha
Author(s): Gajadhar Nyayashastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ibollebic 10% દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ ૩૦૦૪૮૪s Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगंबरजैनबंधमाला सं. ३१ ॥श्री परमात्मने नमः ॥ 36४ श्रेणिकचरित्र भाषा। -LIP जिसको श्रीयुत पं. गजाधरलाल न्यायशास्त्रीने संस्कृतसे अनुवाद किया और मूलचंद किसनदास कापड़ियाने छपाकर प्रकाशित किया। वीरनिर्वाण सं. २४४१] सूरत. . [ईस्वी सन् १९१४ प्रथमावृत्ति प्रति १००० न्योछावर रु. १-१२-० ( All rights reserved. ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by: Pandit Atmaramji Sharma at the "George Printing works" Benares City from page 1 to page 320 and Matubhai Bhaidas at the .Surat Jain" Printing Press, Khapatia Chuckla, Surat from page 321 to page 376 and preface &c. దాంంంంంంంంందిం0000000000 Published by Moolchand Kisondas Kapadia, Proprietor, “Digamber Jain Poostakalaya" and. Hon. Editor “ Digamber Jain ” Published from, Khapatia Chakla, Chaodawadi, Surat. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ เอวเด้ออะไร भूमिका । Here eASTRAMACHAR सहृदय पाठक ! यो तो यह संसार है अनेक मनुष्य आकर इसमें जन्मधारण करते हैं और यथायोग्य अपने जीवनका निर्वाह कर चले जाते हैं परंतु जन्म उन्हीं मनुष्योंका उत्तम सार्थक एवं प्रशंसा. भाजन गिना जाता है जो निस्वार्थ और परहितार्थ हो । मनुष्योंकी निस्स्वार्थता और परहितार्थता उन्हें अजर अमर बना देती है। पूर्वकालमें जिन २ मनुष्यों की प्रवृत्ति निस्वार्थ और परहितार्थ रही है यद्यपि वे पुरुष इस समय नहीं हैं तथापि उनका नाम अब भी बड़े आदरसे लिया जाता है और जब तक संसारमें अंशमात्र भी गुणग्राहिता रहेगी बराबर उन महापुरुषोंका नाम स्थिर रहेगा। ___ यह जो मनोज्ञ ग्रंथ आपके हाथमें विराजमान है इसका नाम श्रेणिकचरित्र है। इस चरित्रके नायक प्रातःस्मरणीय महाराज श्रेणिक हैं । जैन जातिमें महाराज श्रेणिकका परम आदर है । जैनियोंका बच्चा२ महाराज श्रेणिक के गुणों से परिचित है और उनके गुणोंके स्मरणसे अपनी आत्माको पवित्र मानता है यहां तक कि जैनियों के बड़े २ आचार्योंका भी यह मत है कि यदि महाराज श्रेणिक इस भारतवर्षमें जन्म न लेते तो इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ~~..camw-mahamnxnxx कलिकाल पंचमकालमें जैनधर्मका नामनिशान भी सुनना कठिन होजाता; क्योंकि वर्तमानमें इस भरतक्षेत्रमें कोई सर्वज्ञ रहा नहीं । जितने भर जैन सिद्धांत हैं उनके जानने का उपाय केवल शास्त्र रह गये हैं और उनका प्रकाश भगवान् महावीर अथवा गणाधर गौतमसे अनेक विषयों में गूढ२ प्रश्नकर महाराज श्रमिककी कृपासे हुआ है। महाराज श्रेणिक कब हुए इस विषयमें सिवाय इनके चरित्रको छोड़कर कोई पुष्ट प्रमाण दृष्टिगोचर नहीं होता। जैनसिद्धांतके आधारसे भगवान् महावीरको निर्वाण गये २४४० वर्ष हुए हैं और भगवान महावीरके समयमें महाराज श्रेणिक थे। इसलिये इस रीतिसे भगवान् महावीर और महाराज श्रेणिक समकालीन सिद्ध होते हैं। कहीं२ पर यह किंवदंती सुननेमें आती है कि महाराज श्रेणिक राजा चंद्रगुप्तके दादे वा परदादे थे। श्रेणिकचरित्र । ___ यह संस्कृत ग्रंथ भट्टारक शुभचंद्रका बनाया हुआ है। और यह भाषा श्रेणिकचरित्र उसीका अनुवाद है । ग्रंथकारपरिचय।। श्रेणिकचरित्रकी अंतिम प्रशस्तिमें भट्टारक शुभचंद्रने मूलसंघकी प्रंशसा की है इसलिये यह जान पड़ता है कि महाराज शुभचंद्र मूलसंघके भट्टारक थे एवं इसी प्रशस्तिमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnAAAAAAAAAAAAAAAAAAA इन्होंने प्रथम ही भगवत्कुंदकुंदको नमस्कार किया है पीछे उन्हींके वंशमें पद्मनंदी, सकलकीर्ति, भुवनकी, भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीर्ति भट्टारकोंका उल्लेख किया है और निम्न लिखित श्लोकोंसे अपनेको विजयकीर्ति भट्टारकका शिष्य बतलाया है। जगति विजयकीर्तिर्भव्यमूर्तिः सुकीर्तिजयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः नयनलिनहिमांशुनिभूषस्य पट्टे विविधपरविवादे क्ष्माधरे वज्रपातः॥१॥ तच्छिष्येण शुभेदुना शुभमनः श्री ज्ञानभावेन वै पूतं पुण्यपुराणामानुषभवं संसारविध्वंसकं नो कीर्त्या व्यरचि प्रमोहवशतो जैने मते केवलं नाहंकारवशात् कवित्वमदतः श्री पद्मनाभेरिदं ॥२॥ अर्थ:-नय (प्रमाणांश) रूपी कमलिनियोंको प्रकाशित करनेमें चन्द्र के समान महाराज ज्ञानभूषणके पट्टपर अनेक परविवाद रूप पर्वतोंपर वज्रपात,अनेक राजाओंसे पूजित,उत्तम कीर्तिके धारक भव्यमूर्ति यतिराज श्री विजयकीर्ति संसारमें जयवंत रहो ॥१॥ भट्टारक विजयकीर्तिके शिष्य शुभचंद्रने शुभ मन और ज्ञानकी भावनासे पुराणसे उद्धृत पवित्र एवं संसारका नाश करनेवाला यह श्री पद्मनामतीर्थकरका चरित्र रचा है । मेरा जैनमतपर अटूट स्नेह है इसी लिये यह रचना की गई है किंतु कीर्ति अहंकार और कवित्वके मदसे नहीं की गई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (४) www.rr........www.marriawar भट्टारक शुभचंद्रके विषयमें जो पट्टावली मिली है उसमें भी यह उल्लेख पाया गया है कि भट्टारक शुभचंद्र भट्टारक विजयकीर्तिके ही शिष्य थे एवं भट्टारक शुभचंद्र भगवान् कुंदकुंद पद्मनंदी सकलकीर्ति आदिके आम्नायमें हुए हैं। उसी प्रकार नीचे लिखी पांडवपुराणकी प्रशस्तिके श्लोकोंसे भी यह बात जानी गई है कि भट्टारक शुभचंद्र भट्टारक विजयकीतिके ही शिष्य और कुंदकुंदादि आचार्योंकी ही आम्नायमें थे। श्री मूलसंप्रेऽजनि पद्मनंदी तत्पट्टधारी सकलादिकीर्तिः कीर्तिः कृता येन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थकी सकला पवित्रा॥६७।। भुवनकीर्तिरभृद्भवनाद्भूतैर्भुवनभासनचारुमतिः स्तुतः। वरतपश्चरणोद्यतमानसो भवभयाहिखगेट क्षितिवत्क्षमी ॥६८॥ चिद्रूपवेत्ता चतुरश्चिरंतनश्चिद्भू पणश्चर्चितपादपद्मकः सूरिश्च चद्रादिचयेश्चिनोतु वै चारित्रशुद्धिं खलु नः प्रसिद्धिदां ॥६९॥ विजयकीर्तियतिर्मुदितात्मको जितनतान्यमनः सुगतैः स्तुतः। अवतु जैनमतं मुमतो मतो नृपतिभिभवतो भवतो विभुः ॥७॥ पट्टे तस्य गुणांबुधितधरो धीमान् गरीयान् वरः श्रीमच्छ्रीशुभचंद्र एष विदितो वादीभसिंहो महान् । तेनेदं चरितं विचारसुकरं चाकारि चंचद्रुचा पांडोः श्रीशुभसिद्धिसातजनक सिद्धयै रतुतानां सदा ॥७१॥ अर्थः-मूल संघमें मुनि पद्मनंदी हुए और उन्हीके पट्टपर अनेक मुनियों के बाद सकलकीर्ति मुनि हुए । भट्टारक सकलकीर्तिने मर्त्यलोक में शास्त्रके अभिप्रायको भले प्रकार विवेचन करनेवाली समस्त कीर्तिका प्रसार किया ॥६७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrma (५) भट्टारक सकलकीर्तिके पट्टपर भट्टारक भुवनकीर्ति हुए। भट्टारक भुवनकीर्ति समस्त लोकको आश्चर्य करनेवाले थे, संसारके स्वरूप प्रकाश करनेमें चतुरमति थे, स्तुत थे, उत्कृष्ट तपस्वी थे, संसारभयरूपी सर्पके लिये गरुड एवं पृथ्वीके समान क्षमाशील थे ॥६॥ आत्मस्वरूपके ज्ञाता चतुर चिरंतन चंद्र आदिसे पूजित चरणकमलोंसे युक्त आचार्य श्री ज्ञानभूषण कीर्ति प्रसार करनेवाली चारित्रशुद्धि हमें प्रदान करें ॥ १९ ॥ ___ अन्य मनुष्यों के चित्तोंको जीतने एवं नम्रीभूत करनेवाले बौद्धोंसे स्तुत पवित्र आत्माके धारक बुद्धिमान अनेक राजाओंसे पूजित एवं प्रभु-भट्टारक विजयकीर्ति जैन मतकी रक्षा करै एवं संसारसे आप लोगोंका वचायें ॥ ७० ॥ भट्टारक विजयकीर्तिके पट्टपर गुणोंका समुद्र, व्रती, बुद्धिमान, अतिशय गुरु, उत्कृष्ट, प्रसिद्ध, वादीरूपी हस्तियों के लिये सिंह एवं महान् श्री शुभचंद्राचार्य हुए । तेजस्वी श्री शुभचंद्रने यह सरल सदा भव्योंको सिद्धि प्रदान करनेवाला पांडवचरित्र रचा ।। ७१ ॥ इसप्रकार उक्त तीन प्रमाणोंसे यह बात निर्विवाद सिद्ध हो चुकी कि भट्टारक शुभचंद्र मूलसंघके भट्टारक हुए हैं और वे विजयकार्तिके शिष्य और भगवत्कुदकुंदके आम्नायमें हुए हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (५) शुभचंद्रकी प्रशस्तियोंमें जगह २ शाकवाटपुरके उल्लेखसे यह बात जानी जाती है कि शुभचंद्र सागवाड़ाकी गद्दीके भट्टारक थे। यह गद्दी सकलकार्तिके बाद इडरकी गद्दीसे जुदी हुई है और तबसे उसके जुदे २ भट्टारक होते आये हैं। पांडवपुराणकी प्रशस्तिमेंश्रीमाद्वक्रमभूपतेर्दिकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते रम्येऽष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातिथौ श्रीमद्वाग्वरनितीदमतुले श्रीशाकवाटे पुरे श्रीमच्छीपुरुषाभिधे विरचितं स्थयात्पुराणं चिरं ॥८६॥ इस श्लोकसे यह बात बतलाई गई है कि यह पांडवपुराण ( शाकवाट ) सागवाड़ामें विक्रम संवत् सोलहसौ आठ १६०८ भादों द्वितीया के दिन बनाया गया है। इससे यह साफ मालूम पड़ता है कि भट्टारक शुभचंद्र विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दिमें हुए हैं। ___पांडवपुराणकी प्रशस्तिमें भट्टारक शुभचंद्रने अपने बनाये ग्रंथोंके नाम दिये हैं वे ये हैं-- ___चंद्रप्रभचरित्र पद्मनाभचरित्र प्रद्युम्नचरित्र जीवंधरचरित्र चंदनाकथा नांदीश्वरीकथा पं. आशाधरकृत आचार शास्त्रकी टीका, तीसचौवीसीविधान सद्वृत्तसिद्धपूजा ( सिद्ध चकपूजा) सारस्वतयंत्रपूजा चिंतामणीतंत्र कर्मदहनपाठ | गषधरवलयपूजन पार्श्वनाथकाव्यकी पंजिका पल्यव्रताद्यापन - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) चारित्रशुद्धित्रतोद्यापन अपशब्दखंडन तत्त्वनिर्णय तर्कशास्त्र तर्कशास्त्रकी टीका सर्वतोभद्रपूजा अध्यात्मपदवृत्ति चिंतामणिव्याकरण अंगप्रज्ञप्ति जिनेंद्रस्तोत्र षड़ाद और पांडवपुराण | श्रेणिकचरित्र इन्हीं भट्टारकका बनाया हुआ है परंतु उपर्युक्त पांडवपुराणकी सूची में श्रेणिक चरित्रका उल्लेख नहीं किया गया है इसलिये मालूम होता है श्रेणिक चरित्र पांडवपुराण के पीछे अर्थात् विक्रम संवत् १६०८ के पीछे बनाया गया है तथापि कब बनाया गया यह निर्णय नहीं होता । भट्टारक शुभचंद्रके बनाये और भी अनेक ग्रंथोंके नाम मिलते हैं नहीं मालूम वे भी श्रेणिक चरित्र के पीछे बने है या पहिले ? विज्ञप्ति - विज्ञपाठक ! मुझे अतिशय कठिन कार्य ' सनातन जैन ग्रंथमाला 'का संपादन करना पड़ता है और अवशिष्ट समय में परीक्षाकेलिये पढ़कर कोर्स पूरा करना पड़ता है इससे अतिरिक्त मुझे काफी समय नहीं मिलता जिसमें में तीसरा काम कर सकूं तथापि श्रीयुत मान्यवर परमसज्जन, जैनधर्मकी उन्नतिमें सदा दत्तचित्त, मित्रवर, सेठि मूलचंदजी किसनदासजी कापड़िया के आग्रह से मुझे इस श्रेणिकचरित्रका हिंदी अनुवाद करना पड़ा है । पहिले मैं पद्मनंदिपंचविंशतिकाका अनुबाद कर चुका हूं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और यह मेरा द्वितीय काम है। भाषाके लिखते समय मेरा बराबर लक्ष्य नहिं रहा है । मुझे विश्वास है इस अनुवादमें मेरी बहुतसी त्रुटियां रह गई होंगी। इसलिये यह सविनय प्रार्थना है कि विज्ञपाठक मुझे उन त्रुटियोंकलिये क्षमा करें। मित्रवर मूळचंदजी किसनदासजी कापडियाको परम धन्यवाद है कि जिनके उद्योगसे जैनधर्मको उन्नत करनेवाले बहुतसे काम हो रहे हैं और स्वयं भी आप रातदिन परार्थ काम करते रहते हैं। मुझे विश्वास है आगे भी कापडियाजी इसीप्रकार काम करते चले जायगे और जैनियोंमे उच्चादर्श बननेका दावा रक्खेंगे। काशी । वीर सं. २४४१ ।। विद्वत्कृपाभिलाषीमार्गशीर्ष शुक्ल ७ । गजाधरलाल । 566 तात KIR Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची पृष्ट प्रथम सर्ग-महाराज उपश्रोणकको राज्यकी प्राप्तिका वर्णन। १ द्वितीय सर्ग-महाराज उपश्रेणिकके नगरप्रवेशका वर्णन । १८ तीसरा सर्ग-कुमार श्रेणिकका राजग्रहनगरसे निष्कासनका वर्णन । ... ... ... ... ... ३५ चौथा सर्ग-श्रोणिकका कुमारी नंदश्रीके साथ विवाहका वर्णन। ६१ पांचवा सर्ग-श्रोणिकको राज्यकी प्राप्तिका वर्णन । ८१ छठवा सर्ग-कुमार अभयका राजग्रहमें आगमनका वर्णन। ९७ सातवा सर्ग- अभयकुमारकी उत्तम बुद्धिका वर्णन । १३७ आठवा सर्ग-चेलनाके साथ विवाहका वर्णन । १५५ नवम सर्ग-महाराज श्रेणिकको मुनिराजके समागमका वर्णन । १७५ दशवां सर्ग-मनोगुप्ति वचनगुप्ति दोनों गुप्तिओंकी कथाका वर्णन । ... ... ... ... ... २१३ ग्यारहवां सर्ग-..कायगुप्ति कथाका वर्णन। ... ... २४७ बारहवां सर्ग-महाराज श्रेणिकको क्षायिक सम्यक्दर्शनकी उत्पत्तिका वर्णन । ... ... ... ३०८ तेरहवां सर्ग--देवद्वारा अतिशयप्राप्तिका वर्णन । ३३१ चौदहवां सर्ग-श्रेणिक चेलना आदिकी गतिका वर्णन । ३४५ पंद्रहवां सर्ग--भावष्यत कालमें होनेवाले भगवान पद्मनाभ के पंचकल्याणका वर्णन। ... ... ... ३६३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JEEEEEEEEEEEEEEGG RESEO939999999999999999999 Jeeeeee दिगंबरजैनग्रन्थमाला-सूरतके हिन्दी ग्रन्थों GEEee JEETER श्री हनुमानचरित्र (भाषा) ) श्री महावीरचरित्र (निर्वाणकांड भाषा-गाथा और निर्वाणपूजनसह) .-।। श्री श्रीपालचरित्र भाषा (नंदिश्वरव्रतमहात्म्य पृ.२०० पक्की जिल्द)१)-) श्री जम्बुस्वामीचरित्र ( भाषा ) ।) प्रातःस्मरणमंगलपाठ श्री दशलक्षणधर्म श्री श्रेणिकचरित्र भाषा १॥) सब प्रकारके जैन ग्रन्थों और "पवित्र काश्मीरी केसर" ०)-) Seeeeeee66seeGBGEGECSCCESCCEEGe@EGOGGEEGeeGEECer geeeeeeeeeeecCCEEG66CCCCeEECerceeceCEECGeeeeeeee मिलनेका पता-- मैनेजर, दिगंबर जैन पुस्तकालय, चंदावाडी--सूरत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * समर्पण । पवित्र MA-9 श्रेणिकचरित्र । आजन्मब्रह्मचारी अनेक महनीयगुणधारी निर्लोभजातीयकार्यकारी परमोपकारी जैनसिद्धांतप्रचारकतती प्रातःम्मरणीय श्रीमान् पंडित पन्नालालजी बाकलीवाल के पावन कर___ कमलोंमें उनके अनेक उत्तमोत्तम । उपकारभारावनत प्रकाशक व " अनुवादक द्वारा सादर . समर्पित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ २७ २ श्रेणिकचरित्र ••• जैन सिद्धांतोद्धारक बालब्रह्मचारी पंडित पन्नालालजी बाकलीवाल जैन, बनारस सीटी .. super=" ➖ 1449 < idar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकचरित्र श्रीवर्द्धमानमानंदं नौमि नानागुणाकरं । विशुद्धध्यानदीप्तार्चिहुतकर्मसमुच्चयं ॥ शुक्लध्यानरूपी देदीप्यमान अग्निसे समस्तकर्मोंके समूह को जलानेवाले, अनेकगुणोंके आकर आनंदके करनेवाले श्रीवर्द्धमान स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ जिस भगवानने वाल्यअवस्थामें ही मुनियोंका संदेह दूर करनेसे श्रेष्ठ विद्वत्ताको पाकर सन्मतिनामको धारण किया। जिस भगवानने वाल्य अवस्थामें ही मायामयी सर्पके मर्दन करनेसे महाबीरनाम को प्राप्त किया,और जो वाल्य अवस्थामें ही अत्यंत बलको पाकर वीरों के वार कहलाये । जिसभगवानने मनुष्यलोकसंबंधी बड़े भारी राज्यको भी, जीर्णतृणके समान समझकर, छोड़ दिया एवं जो दीक्षा धारण कर समस्तलोकके वंदनीय हुये । तथा जो महावीर भगवान केवलज्ञान केवलदर्शनको प्रकाशकर धर्मरूपी संपत्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से शोभित हुये । ऐसे समस्तलोकमें आनंद मंगल करने वाले श्रीमहावीरभगवानको मैं (ग्रंथकार ) अपने हृदयमें धारण करता हूं। तत्पश्चात् ज्ञानरूपी भूषणके धारक, धर्मखपी तीर्थके स्वामी, श्रीऋषभदेव भगवानसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत तीर्थकरों को भी मैं अपनी इष्टसिद्धिकेलिये इस ग्रंथकी आदिम नमस्कार करता हूं । इनसे भी भिन्न जो ज्ञानरूपी संपत्तिके धारी हैं उनको भी नमस्कार करता हूं। तथा ध्यानसे देदीप्यमान शरीर के धारी, गणोंके स्वामी, एवं उत्कृष्टस्वामी ( आदिगणधर ) श्रीवृषभसेन गुरूको भी मैं अपन हितकी प्राप्तिके लिये नमस्कार करता हूं। तत्पश्चात् मुनि अर्जिका श्रावक और श्राविका इन चारों गणोंसे सेवित, धीर, समस्तपृथ्वीतलमें श्रेष्ठ, जिनसे मिथ्यावादी लोग डरते हैं, और जो तीनों लोकके प्रकाशकरनेवाले हैं, ऐसे ( अंतिमगणधर ) श्रीगौतम स्वामीको भी मैं नमस्कार करता हूं। ___इनके पश्चात् जिस भगवती वाणीके प्रसादसे संसारमें जीव समस्त हिताहितको जानते हैं, और जो श्री केवली भगवानके मुखसे प्रकट हुई है उस वाणीको भी मैं नमस्कार करता हूं ___तत्पश्चात् नो गुरु हितकारी, श्रेष्ट बचनरूपी संपत्तिसे शोभित ज्ञानरूपी भूषणके धारक, अत्यंत तेजस्वी अहंकाररूपी हस्तीके मर्दन करनेवाले हैं, , ऐसे कमरूपी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) वैौरियों के विजयसे कीर्तिको प्राप्त करने वाले, हितैषी, और पुण्परूपी मेरुपर्वत के शिखरपर निवास करनेवाले अर्थात् अत्यंत पुण्यात्मा गुरूओं को भी मैं नमस्कार करता हूं । तथा इस भरत क्षेत्र में आगे होनेवाले, समस्ततीर्थंकरोमें उत्तम, अत्यंत तेजस्वी, श्रीपद्मनाभ तीर्थंकरको भी मैं समस्त विघ्नोंकी शांतिकेलिये नमस्कार करता हूं, जो पद्मनाभभगवान, उत्सर्पिणीकालके कुछ समयके व्यतीत होने पर, इस भरतक्षेत्र में, पांचप्रकारके अतिशयोंकर सहित, सैकड़ों इंद्र और देवोंसे पूजित, उत्पन्न होवेंगे, और चिरकालसे विद्यमान पापरूपी वृक्ष केलिये वज्र के समान होंगे। तथा चतुर्थकालकी आदिमें जब समस्त धर्ममार्गों का नाश होजायगा, अहंकार व्याप्त होगा, उससमय जो भगवान समस्तजीवोंके अज्ञानांधकारको नाशकर, मोक्षके मार्गके प्रकाशनपूर्वक धर्मकी और उन्मुख करेंगे । और जिस पद्मनाभभगवानने पहिले अपने श्रोणिक भव में ( श्रेणिकअवतार में ) श्रीमहावीरस्वामी भगवानके समीपमें, अनादिकालसे विद्यमान मिथ्यात्वको शीघ्र ही दूर किया तथा अतिशय मनोहर निर्मल समस्तदोषोंसे रहित क्षायिक सम्यक्त्वको धारण किया और समस्त इन्द्रियोंको संकोचकर शुद्ध सम्यग्दर्शन से विभूषित हुये । जिस भगवानने महावीर स्वामीके सामने तीर्थंकर प्रकृतिका बंध किया, और जिस पुण्यात्मा पद्मनाभभगवानने समस्तलोक में सर्वथा आश्चर्य 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेवाले आस्तिक्यगुणको प्राप्त किया । तथा जिस पद्मनाभ तर्थिकरके श्रेणिक अवतारके समय, उनके किये हुये प्रश्नके उत्तरमें श्री महावीरस्वामीने समस्त पापोंके नाशकरने वाले तथा इस श्रेणिकचरित्रके भी प्रकाश करने वाले वचनोंको प्रतिपादन किया, और जिस पद्मनाभभगवानके जीव, श्रेणिक महाराज,के प्रश्नके प्रसादसे, पुराण व्रत संख्यान आदिके वर्णन करनेवाले, समस्त विवादियोंके अभिमानको नाश करनेवाले, इससमय भी अनेक ग्रंथ विद्यमान है, जो श्रेणिक महाराज महाश्रोता, महाज्ञाता, महावक्ता, धर्मकी वास्तविक परीक्षा करने वाले, भविष्यतकालमें होनेवाले समस्ततीर्थंकरोंमें प्रथम व मुख्य तीर्थंकरभगवान होंगे ऐसे ( श्रेणिकमहाराजके जीव ) श्रीपद्मनाभ तीर्थकरको भी मैं मस्तक झुकाकर नमस्कारपूर्वक उनके संसारसंबंधी समस्त चरित्रका वर्णन करता हूं। ___ग्रंथकार शुभचंद्राचार्य अपनी लघुता प्रकाश करते हुये कहते हैं कि कहां तीर्थकरका यह चरित्र जिसके विस्तारका अंत नहीं, और कहां अनेकप्रकारके आवरणोंसे ढकी हुई मेरी बुद्धि तथापि जिसप्रकार सतमहले उत्तम मकानके ऊपर चढ़नेकी इच्छा करनेवाला पंगुपुरुष, प्रशंसाका भाजन होता है, उसीप्रकार इस गंभीर विस्तृतचस्त्रिके वर्णनकरनसे मैं भी प्रंशसाका भाजन हूंगा इसमें किसीप्रकारका संदेह नहीं। । यदि कोई विद्वान मुझे वावदूक अर्थात् अधिक बोलने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला बाचाल कहे तो भी मुझे किसीप्रकारका भय नहीं क्योंकि जिसप्रकार कोयल वंसत ऋतुमें ही बोलती है और शुक सदा ही बोलता रहता है फिरभी शुकका बोलना किसीको आर्थयका करनेवाला नहीं होता, उसीप्रकार यद्यपि पूर्वाचार्य परीिमत तथा समयपर ही बोलने वाले थे और मैं सदा बोलने वाला हूं तो भी मेरा बोलना आश्चर्य जनक नहीं। जिसप्रकार पुप्पदंतनक्षत्रके अस्त होजानेपर अल्पप्रभाववाले तारा गणभी चमकने लगते हैं उसी प्रकार यद्यपि पूर्वाचार्योंके सामने मैं कुछ भी जाननेवाला नहीं हूं तो भी इस चरित्रके कहनकोलिये मैं उद्धतहोकर उद्योग करता हूं। ___ यद्यपि शब्दशास्त्रके जाननेवाले अधिक बोलनेवाले होते हैं तो भी वे वचन शुभ ही बोलते हैं उसीप्रकार यद्यपि हमारी वाणी स्खलित है तो भी हम शुभवचन बोलनेवाले हैं इसलिये हम पूर्वाचार्योंके समानही हैं । जिसप्रकार वड़े २ जहाज वाले सुखपूर्वक अभीष्ट स्थानको चले जाते हैं और उनके पीछे २ चलनेवाले छोटे जहाज वाले भी सुखपूर्वक अपने इष्ट स्थानको प्राप्त हो जाते हैं ठीक उसीप्रकार पूर्वा चार्योंके पीछे २ चलने वाले हमको भी इष्टसिद्धिकी प्राप्ति होगी। तथा जिसप्रकार दरिद्री पुरुष धनिक लोगोंके महलों, उनके उदय तथा उनकी अन्य अनेक विभूतियोंको देखकर विषाद नहीं करते उसीप्रकार सूत्रके अनुसार पूर्वाचार्योंकी कृतिको देखकर हमको भी वाक्योंकी रचनामें कभी भी विषाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) नहीं करना चाहिये, क्योंकि शक्तिके न होनेपर ईर्षा द्वेष करना विना प्रयोजन का है । जिसप्रकार सिंह ही अपने शब्दको कर सकता है परन्तु उस शब्दको मेढ़क नहीं कर सकता अर्थात् सिंहके शब्द करनेमें मेढ़क असमर्थ है, उसीप्रकार यद्यपि पूर्वाचार्योंने ग्रंथोकी रचना की है तो भी मैं वैसेग्रंथों की रचना करनेमें असमर्थ ही हूं । जिसप्रकार अत्यंत छोटे देहका धारक कुंथु जीव भी देहधारी कहाजाता है और पर्वतके समान देहका धारणकरनेवाला हाथी भी देहधारी कहाजाता है उस प्रकार पुराण न्याय काव्य आदि शास्त्रोंको भलीभांति जानने वाला भी कवि कहाजाता है और अल्प शास्त्रोंका जाननेवाला मैं भी कवि कहागया हूं । मूंकपुरुष भले ही उत्तम न बोलता हो तभी वह बोलने की इच्छा रखता है, उसीप्रकार यद्यपि मैं समस्तशास्त्रा के ज्ञान से रहित हूं तौभी मैं इसचरित्रके वर्णनकरनेमें प्रयत्न करता हूं । जिसप्रकार चरित्रके सुननेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है उसीप्रकार चात्रिके कथन करनेसे भी पुण्यकी प्राप्ति होती है। इसप्रकार भलीभांति विचारकर मैन इस श्रेणिकचरित्रका कथन करना प्रारंभ किया है । अथवा चरित्रोंके सुननसे भव्यजीवोंको संसारमें तीथकर इंद्र चक्रवर्ती आदि पदोंकी प्राप्ति होती है यह भलेप्रकार समझ और तीर्थंकर आदिके गुणोंका लोलुपी होकर, दृढ श्रद्धानी हो, मैं शुभद्राचार्य सारभूत उत्कृष्ट, और पवित्र श्रेणिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) चरित्रको कहता हूं । परन्तु जिसप्रकार, अधिक विस्तारवाले कच्चे धान्येंाकी अपेक्षा पक्रा हुवा थोड़ासा धान्य भी उत्तम होता है उसीप्रकार विस्तृत चरित्रकी अपेक्षा संक्षिप्तचरित्र उत्तम तथा मनुष्यों के मनको हरण करनेवाला होता है इसलिये मैं इस श्रेणिकचरित्रका संक्षिप्तरीतिसे ही वर्णन करता हूं । समस्त लोकका मन हरनेवाला, लाखयोजन चौड़ा, गोल, और तीनलोकमें अत्यन्त शोभायमान जम्बूद्वीप है । यह जम्बद्वीप कमलके समान मालूम पड़ता है क्योंकि जिसप्रकार कमलमें पत्ते होते हैं, उसीप्रकार भरतादि क्षेत्ररूपी पत्ते इसमें भी मौजूद हैं, जिसप्रकार कमलमें पराग होती है, उसीप्रकर नक्षत्ररूपी पराग इसमें भी मौजूद हैं । जिसप्रकार कमलमें कली रहती है, उसीप्रकार इस जम्बूद्वीपमें भी मेरुपर्व तरूपी कली मौजूद है । जिसप्रकार कमलमें मृणाल ( सफेद तंतु ) रहता है, उसीप्रकार इसजंबूद्वीप में भी शेषनागरूपी मृणाल मौजूद है । तथा जिसप्रकार कमलपर भ्रमर रहते हैं उसीप्रकार इस जम्बूद्वीपमें भी अनेक मनुष्यरूपी भ्रमर मोजूद हैं । यह जम्बूदीप दूधके समान उत्तम निर्मल जल से भरे हुवे तलावोंसे जीवोंको नानाप्रकारके आनंदप्रदान करनेवाला है । यह जम्बूदीप राजाके समान जान पड़ता है क्योंकि जिसप्रकार राजा अनेक बडे बडे राजाओं से सेवित होता है उसीप्रकार यह द्वीप भी अनेक प्रकारके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीधरोंसे अर्थात् पर्वतोंसें सेवित है । जिसप्रकार राजा कुलीन उत्तमवंशका होता है, उसीप्रकार यह जबूंदीप भी कुलीन अर्थात् (कु) पृथ्वीमें लीन है और जिसप्रकार राजा शुभस्थिति वाला होता है उसीप्रकार यह भी अच्छी तरह स्थित है, तथा राजा जिसप्रकार रामालीन अर्थात् स्त्रियोंकर संयुक्त होता है, उसीप्रकार यहभी, रामालीन, अनेक बन उपबनोंसे शोभित है । जिसप्रकार राजा महादेशी अर्थात् बड़े बड़े देशोंका स्वामी होता है उसीप्रकार यहभी महादेशी अर्थात् विस्तीर्ण है, यद्यपि यह द्वीप नदीनजड़संसव्यः अर्थात् उत्कटजड़ मनुष्योंसे सेवित है तथापि 'नदीनजड़संसेव्यः' अर्थात् समुद्रोंके जलोंसे वेष्टित है इसलिये यह उत्तम है । यद्यपि यह जबूंद्वीप, निम्नगास्त्रीविराजितः, अर्थात् व्यभिचारिणी स्त्रियोंकर साहत है तथापि अनिम्नगास्त्रीविराजितः अर्थात् पतिव्रता स्त्रियोंकर शोभित है इसलिये यह उत्तम है। तथा यद्यपि यह द्वीप द्विजराजाश्रितः अर्थात् वरुणसंकर राजाओं के आधीन है तोभी उत्तम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्योंका निवास स्थान होनेके कारण यह उत्तमही है। और पर्वतोंसे मनोहर, पुण्यवान उत्तमपुरुषोंका निवासस्थान, यह जम्बूद्वीप अनेकप्रकारके उत्तम तलावोंसे, तथा बड़े बड़े कुंडोंसे तीनोंलोकमें शोभित है। जिस जम्बूद्वीपकी उत्तम गोलाई देखकर लज्जित व दुःखित हुवा, यह मनोहर चंद्रमा रात दिन आकाशमें घूमता फिरता है । तथा जिसप्रकार लोक अलोकका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भाग है उसीप्रकार यह जम्बूद्वीप भी समस्तद्वीपोंमें तथा तीनलोकके मध्यभागमें है ऐसा बड़े बडे यतीश्वर कहते हैं। इस जम्बूद्वीपके मध्यमें अनेक शोभाओंसे शोभित, गले हुवे सोनेके समान देह वाला, देदीप्यमान, अनेक कान्तियोंसे व्याप्त, सुवर्णमय मेरु पर्वत है । यह मेरु साक्षात् विष्णुके समान मालूम पड़ता है। क्योंकि जिसप्रकार विष्णुके चार भुजा हैं, उसीप्रकार इसमेरुपर्वतके भी चार गजदंत रूपी चार भुजा हैं और जिसप्रकार विष्णुका नाम अच्युत है उसीप्रकार यह भी अच्युत अर्थात् नित्य है। जिसप्रकार विष्णु श्रीसमान्वित अर्थात् लक्ष्मीसहित हैं, उसीप्रकार यह मेरुपर्वत भी श्रीसमन्वित अर्थात् नानाप्रकारकी शोभाओंसे युक्त है । इस मेरु पर्वतपर सुभद्र, भद्रशाल, तथा स्वर्गके नदंन वनके समान नदनवन, और अनेकप्रकारके पुष्पोंकी सुगंधिसे सुगंधित करनेवाले सौमनस्य वन, हैं । यह मेरु अपांडु अर्थात् सफेद न होकर भी पाण्डुकशिलाका धारक सोलह अकृत्रिम चैत्यालयोंकसे युक्त अपनी प्रसिद्धिसे सवको व्याप्त करनेवाला अर्थात् अत्यंत प्रसिद्ध और नानाप्रकारके देवोंसे युक्त है । बड़े भारी ऊंचे परकोटेका धारण करने वाला, सुर्वण मय और नाना प्रकारके रत्नोंसे शोभित, यह मेरु, निराधार स्वर्गके टिकनेके | लिये मानो एक ऊचा खंभा ही है ऐसा जान पड़ता है। यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुपर्वत तीनोंलोकमें अनादिनिधन, अकृत्रिम, स्वभावसे ही सिद्ध और अनेकपर्वतोंका स्वामी अपने आपही सुशोभित है । यह पर्वत अत्युतम शोभाको धारण करनेवाले जम्बूद्वीपके मध्यभागमें अनुपम सुख मोक्षको जानेकी इच्छाकरनेवाले भव्यजीवों को मोक्षके मार्गको दिखाता हुवा, और जिनेन्द्रभगवानके गंधोदक से पवित्र हुवा, एक महान तीर्थपनेको प्राप्त हुवा है । चारण ऋद्धिकें धारण करनेवाले मुनियोंसे सदा सेवनीय है, समस्त पर्वतों का राज़ा है । श्रेष्ठ कल्पवृक्षोंके फूलोंसे स्वर्गलोकको भी जतिने वाले इस मेरुपर्वतपर स्वर्गको छोड़कर इन्द्र भी अपनी इन्द्राणियों के साथ क्रीड़ा करने को आते हैं। यह मेरुपर्वत आधिक ऊंचा होनेके कारण अत्युच्च कहा गया है, स्वयंसिद्ध होनेसे अकृत्रिम कहा गया है, और पृथ्वीका धारण करनेवाला होने के कारण धराधीश, अर्थात् पृथ्वीका स्वामी कहा गया है । इस मेरुपर्वतके ऊपर विराजमान चैत्यालयोंके और स्तुतिकरनेयोग्य परमात्माके ध्यान करनेवाले योगीन्द्रोंके स्मरणसे मनुष्योंके समस्त पाप नष्ट होजाते हैं । इस मेरुपर्वतके माहात्म्यका हम कहांतक वर्णन करें इस मेरुपर्वतके महात्म्यका विस्तार बड़े बड़े करोड़ों ग्रन्थोंमें भले प्रकार वर्णन किया गया है । ____ इसी मेरुपर्वतकी दक्षिणदिशामें जहां उत्तम धान्य | उपजाते हैं मनोहर, अनेकप्रकारकी विद्याओंसे पूर्ण, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सुखोंका स्थान भरतक्षेत्र है । यह भरतक्षेत्र साक्षात् धनुष के समान है क्योंकि जिसप्रकार धनुषमें वाण होते हैं उसी प्रकार इसमें गंगा सिन्धु दो नदी रूपी बाण हैं । इस भरतक्षेत्रके मध्यभागमें रूपाचल नामका विशाल पर्वत है जो चारो ओरसे सिंधुनदीसे वेष्ठित है और जिसकी दोनो श्रेणी सदा रहने वाले विद्याधारोंसे भरी हुई हैं । यह भरतक्षेत्र, अत्यंत पवित्र है और गंगा सिंधु नामकी दो नदियोंसे तथा विजयार्द्ध पर्वतसे छै खंडोंमें विभक्त अतिशय शोभा को धारण करता है । इसी भरतक्षेत्रमें तीन खंडोंसे व्याप्त, पुण्यात्मा भव्यजीवोंसे पूर्ण, दक्षिण भागमें आर्यखंड शोभित है । इस देदीप्यमान आर्यखंडमें सुख तथा दुःखसे व्याप्त, पुण्य पापरूपी फलको धारण करनेवाला, सुखमासुखमादि छै कालोका समूह सदा प्रवर्तमान रहता है । इन छै प्रकारके कालोंमें प्रथमकाल सुखमा सुखमा है, जोकि शरीर आहार आदिकसे देवकुरू भोगभूमिके समान है । दूसराकाल सुखमा नामका है जिसमें मनुष्यके शरीरकी उचाई दो कोशके प्रमाण की रहती है, यह काल, स्थिति आहार आदिकसे हरिवर्ष क्षेत्रके समान है तथा शुभ है । तथा तीसराकाल दुखमा मुखमा नामक है, इसमें मनुष्योंके शरीरकी उचाई एक कोशके प्रमाण है । इसकी रचना जघन्य भोगभूमिके समान होती है । चौथा काल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुखमासुग्वमा है जिसकी रचना विदेह क्षेत्रके समान होती है, तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्र नारायण आदि महापुरुषोंकी उत्पत्ति भी इसी कालमें होती है । पांचवां काल मुखमा है जिसमें पुण्य तथा पापसे शुभाशुभगतिकी प्राप्ति होती है, यह दुःखोंका भंडार है तथा इस पंचमकालमें मनुष्योंकी आयु शरीर धर्म सब कम होजाते हैं । इसके पश्चात् धर्मकर रहित, पापस्वरूप, दुष्टमनुष्योंसें व्याप्त, और थोड़ी आयुवाले जीवोंसाहित, छठवां दुःखमनुःखम काल आता है । इसप्रकार मोक्षमार्ग साधन करनेकेलिये दीपकके समान, नानाप्रकारकी शुभ क्रियाओंसहित, और पुण्यके स्थान, इस आर्यखंडमें उक्त प्रकारके काल सदा प्रवर्तमान रहते हैं। __ऐसा यह अर्यखंड नानाप्रकारके बड़े २ देशोंसे घ्याप्त, पुर और ग्रामोंसे सुशोभित, बहुतसे मुनियोंसे पूर्ण, और पुण्यकी उत्पत्तिका स्थान, अत्यंत शोभायमान है। इस आर्यखंडके मध्यमें जिसप्रकार शरीरके मध्यभागमें नाभि होती है उसीप्रकार इस पृथ्वीतलके मध्यभागमें मगध नामक एक देश है जो अनेक जनोंसे सावेत, और विशेषतया भव्यजनोंसे सेवित, है । इस मगधदेशमें धन धान्य और गुणोंके स्थान मनुप्योंसे व्याप्त, प्रकट रीतिसे संपत्तिके धारी, अनेक ग्राम पास पास वसे हुये हैं । | इस मगधदेशमें, फलकी इच्छा करनेवाले मनुष्योंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) उत्तमोत्तमफलोंको देनेवाले उत्कृष्ट वृक्ष, कल्पवृक्षोंकी शोभाकी धारण करते हैं । उसदेश में वहांके मनुष्य, पके हुये धान्यों के खेतो में गिरते हुये सूवोंको कल्पवृक्षके फलोंके समान जानते हैं । वहां अत्यंत निर्मल जलसे भरे हुये, काले काले हाथियोंसे व्याप्त, सरोवर ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो स्वयं मेघ ही आकर उनकी सेवा कर रहे हैं । वहांके तालाव साक्षात् कृष्णके समान मालूम पड़ते हैं क्योंकि जिसप्रकार श्रीकृष्ण कमलाकर अर्थात् लक्ष्मीके (कर) हाथ सहित है, उसीप्रकार तालाव भी कमलाकर अर्थात् कमलों से भरेहुये हैं । जिसप्रकार श्रीकृष्ण सुमनसों (देवों) से मंडित हैं, उसीप्रकार तालाव भी (सुमनस) अर्थात् नाना प्रकारके फूलोंसे पूर्ण हैं । जिसप्रकार श्रीकृष्ण हस्तियों के मदको चकना चूर करनेवाले हैं उसीप्रकार तालाव भी हत्तियोंके मदको चकनाचूर करनेवाले हैं अर्थात् इनके पास आते ही हत्ती शांत होजाते है । और जिसदेशमें वनमें, पवर्तके मस्तकोंपर, ग्राम में, देश में, पुरमें, खोलारोंमें, नदियों के तटोंपर, सदा मुनिगण देखनेमें आते हैं और धर्मके उपदेशमें तत्पर, निर्मल, असंख्याते गणधर, बड़े बड़े संघोंके साथ दृष्टिगोचर होते हैं उसदेशमें कहीं पर अनेक प्रकारके विमानोंमें बैठे हुवे उत्तमदेव, अपनी अपनी अत्यंत सुंदरी देवां गनाओं केसाथ केवलोभगवानको पूजाकरनेकोलये आते हैं और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) कहीपर मनोहर बागों में, पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा प्राप्त करने योग्य, अपनी मनोहर स्वर्गपुरीको छोड़ देवतागण अपनी देवांगनाओंके साथ कोड़ा करते हैं । वहां गोपालोंकी रमणियों द्वारा गायेहुवे मनोहर गीतरूपी मंत्रोंसे मंत्रित तथा उनके गीतोमें दत्तचित्त, और भयरहित हिरणोंका समूह निश्चल खड़ा रहता है और भगानेपर भी नहीं भागता है । और वहां जब तलावों में प्याससे अत्यंत व्याकुल हो अनेक हाथी पानी पीने आते हैं तब हथिनियोंको देखकर उनके विरहसे पीडित होकर अपना जीवन छोड़ देते हैं । यह मगधदेश नानाप्रकार के उत्तमोत्तम तीर्थोकर सहित, नानाप्रकारके देव विद्याधरोंसे सेवित, और विशेषरीतिले अनेक मुनिगणोंकर शोभित है इसका कहां तक वर्णन करें । इसी मगधदेश में राजघरोंसे शोभित, अनेक प्रकारकी शोभाओंसे मंडित, धनसे पूर्ण तथा अनेक जनासे ध्याप्त, राजग्रह नामक एक नगर है। राजग्रहनगरमें न तो अज्ञानी मनुष्य हैं, और न शीलरहित स्त्रियां हैं, और न निर्धन पुरुष बसते हैं । वहां पुरुष उत्तम कुवरके समान ऋद्धिके धारण करनेवाले और स्त्रियां देवांगनाओंके समान हैं । जगह २ पर कल्प वृक्षोंके समान बृक्ष हैं । और स्वगोंके विमानोंके समान सुवर्णसे घर बने हुये हैं । बहांका राजा इन्द्रके समान अत्यंत बुद्धिमान है । वहां ऊंचे २ धान्योंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) I बृक्ष, ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो वे मूर्तिमान अत्यंत शोभा है और अपने पराक्रमसे इस लोकको भलीभांति जीतकर स्वर्गलेके जतिनकी इच्छासे स्वर्गलोकको जारहे हैं। उसनगर के रहने वाले भव्यजीव मनुष्य नानाप्रकारके व्रतोंसे भूषित होकर केवल - ज्ञानको प्राप्तकर तथा समस्तकर्मोंको निर्मूलनकर परमधाम मोक्षको प्राप्त होते हैं । और बहांकी स्त्रियोंके प्रेमी अनेक पुरुष भी व्रतोंके संबंधसे श्रेष्ठ चारित्रको प्राप्त कर स्वर्गको प्राप्त होते हैं क्योंकि पुण्यका ऐसा ही फल है । वहांके कितने एक सुखके अर्थी भव्यजीव, उत्तम, मध्यम, जघन्य, तीनप्रकारके पात्रोंको दांनदेकर भोगभूमिनामक स्थानको प्राप्त होते हैं और जीवन पर्यंत सुखसे निवास करते हैं । राजमहनगरके मनुष्य ज्ञानबान है इसीलिये वे विशेषरीतिसे दान तथा पूजामें ही ईर्षा द्वेष करना चाहते हैं और ज्ञानमें ( कला कौशलोंमें कोई किसीके साथ ईर्षा तथा द्वेष नहीं करता । उसमें जिनमंदिर तथा राजमंदिर सद् जय जय शब्दोंसे पूर्ण, उत्तम सभ्यमनुष्यासे आकीर्ण, याचकोंको नानाप्रकारके फल देनेवाले, शोभित होते हैं । राजग्रहनगरका स्वामी नानामकारके शुभ लक्षणोंसे युक्त शरीर और देदीप्यमान यशका धारण करनेवाला, उपश्रोणिक नामका राजा था । बह उपश्रेणिकराजा अत्यंतज्ञानवान, कल्पवृक्षके समान दानी, चंद्रमाके समान तेजस्वी, सूर्यके समान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापी, इन्द्रके समान परम ऐश्वर्यशाली, कुवेरके समान धनी, तथा समुद्रके समान गंभीर था । इनके अतिरिक्त उसमें और भी अनेक प्रकारके गुण थे, त्यागी था, वह भोगी था, सुखी था, धर्मात्मा था, दानी था, वक्ता था, चतुर था,शूर था, निर्भय था, उत्कृष्ट था, धर्मादि उत्तम कार्यों में मान करनेवाला ज्ञानवान और पवित्र था, इसीलिये अनेक राजाओंसे सेवित उपणिक महाराजको न तो चतुरंग सेनासे ही कुछ काम था और न अपने बलसे ही कुछ प्रयोजन था । महाराज उपश्रेणिकके साक्षात् इन्द्रकी इन्द्राणीके समान, जो उत्तमरूप तथा लावण्यसे युक्तथी, इन्द्राणी नामकी पटरानी थी । वह तनूदरी इन्द्राणी, अनेकप्रकारके गुणोंसे युक्त होनेके कारण अपने पतिको सदा प्रसन्न रखती रहती थी । उसके स्तन, अमृत कुंभके समान मोटे, कामदेवको जिलानेवाले, उत्तम हाररूपी सर्पसे शोभित, दो कलशोंके समान जान पड़ते थे । और उस के उत्तम स्तनोंके संबंधसे मदन ज्वर तो कभी होता ही नहीं था । जैसे रसायनके खानेसे ज्वरदूर होजाता है वैसेही उसके स्तनोंके रसायनसे मदन ज्वर भी नष्ट होजाता था । वह इन्द्राणी अत्यंत पवित्र, और नानाप्रकारकी शोभाओंकर सहित, उपभोणिक राजाको आनन्द देती थी तथा वह राजा भी इस पटरानाके साथ सदा भोगविलासको भे.गता हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _इसप्रकार परम्पर अतिशय प्रेयुमक्त, अत्यंत निर्मल सुख रूपी सरोवरमें मग्न, अत्यंत पवित्र और महान, जिनके चरणों की बंदना बड़े बड़े राजा आकर करते थे, चारों और जिन की कीर्ति फैल रही थी, और समस्त प्रकारके दुःखोंसे रहित, तथा पुण्य मूर्ति वे दोनो राजा रानी इंद्रके समान पुण्यके फलस्वरूप राज्यलक्ष्मीको भोगते थे। राजा उपश्रोणिकने राज्यको पाकर उसे चिरकाल पर्यंत भोग किया और समस्त पृथ्वीको उपद्रवोंसे रहित कर दिया, और उसकेराज्यमें किसी प्रकार के वैरी नहीं रहगये। उनकेलिये ऐसे राज्यये महाराणी इन्द्रीणीके साथ स्थित होना ठीक ही था क्योंकि भव्यजीवाको धर्मकी कृपा से ही राज्यसंपदाकी प्राप्ति होती है, धर्मसे ही अनेक प्रकारके कल्याणोंकी प्राप्ति होती है, धर्मसे उत्तमोत्तम स्त्रियां तथा चक्रवर्तिलक्ष्मी मिलती है और धर्मसेही स्वर्गके विमानोंके समान उत्तमोत्तम घर, आज्ञाकारी उत्तम पुत्र भी मिलते हैं, इसलिये भव्यजीवोंको श्री जिनेद्र भगवानके सारभूत उत्कृष्ट धर्मकी अवश्यही आराधना करनी चाहिये । इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनवाले श्रीपद्मनाभतीर्थंकरके पूर्वभवके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्रमें महाराज उपश्रेणिकको राज्यकी प्राप्तिका वर्णन करने पाला प्रथम सर्ग समाप्त हुवा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) पद्मकी शोभाको धारण करनेवाले जिनेश्वर, ताथा भविष्य में तीर्थों की प्रवृतिकरनेवाले ईश्वर, श्री पद्मनाभभगवानको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं । अनंतर इसके उन दोनो राजा रानीके महान् पुण्यके उदयसे, अनेक सुखका स्थान, भले प्रकार मातापिताको संतुष्ट करनेवाला, परम ऋद्धिधारक, श्रेणिक नामका पुत्र उत्पन्न हुवा | कुमार श्रेणिक सर्वोत्तम गुण थे, उसका रूप शुभ था और अतिशय निर्मल था । वह अत्यंत भाग्यवान् और लक्ष्मीवान् था । कुमार श्रेणिकके कामिनी स्त्रियोंके मनको लुभानेवाले काले काले केश ऐसे जान पड़ते थे मानो उसके मुख कमलकी सुगंधि सर्पही आकर इकट्ठे हुवे हैं । उसका विस्तीर्ण सुंदर और अतिशय मनोहर तिलकसे शोभित ललाट, ऐसा मालूम पड़ता था मानों ब्रह्माने तीनोंलोकके आधिपत्यका पट्टकही रचा है । वालकके दोनो नेत्र नलिकमलके समान विशाल अतिशय शोभित थे । दोनों नेत्रोंकी सीमा बाँधने के लिये उन के मध्य में अतिशय मधुर सुगंधिको ग्रहण करनेवाली नासिका शोभित थी । स्फुरायमान दाप्तिधारी बालक श्रेणिकका मुख यद्यपि चंद्रमाके समान देदीप्यमान था तथापि निर्दोष, सदा प्रकाशमान, और समस्त प्रकारके कलंकोंसे रहित ही था । विशाल एवं अतिशय मनोहर हारोंसे भूषित उसका वक्षःस्थल राज्य भारके धारण करनेके लिये विस्तीर्ण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था और अनेकप्रकारकी शोभाओंसे अत्यंत सुशोभित था । कामिनी स्त्रियोंके फँसानेके लिये ज़ालके समान उसकी दोनों भुजाएँ ऐसी जान पड़ती थी मानों याचकोंको अभीष्ट दानकी देनेवाली दो मनोहर कल्पवृक्षकी शाखा ही हैं। उस के कटिरूपी वृक्षपर, करधनीमें लगी हुई छोटी २ घंटियोंके व्याजसे शब्द करता हुवा, कामदेव सहित, करधनी रूपी महासर्प निवास करता था । श्रेणिकके शुभ आकृतिके धारक, अनेकप्रकारके उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त, और अतिशय कांतिके धारण करने वाले, दोनों चरण अत्यंत शोभित थे । तथा उस पुण्यात्मा एवं भाग्यवान कुमार श्रेणिकके अतिशय मनोहर शरीररूपी महलमें संपत्तिके साथ विवेक वढ़ता था, और अनेकप्रकारकी राजसंबंधी कलाओंके साथ ज्ञान वृद्धिको प्राप्त होता था । यद्यपि कुमार श्रेणिक वालक था तथापि बुद्धिकी चतुराईसे वह बड़ा ही था और सजनोंका मान्य था वह हर एक कार्यमें चतुर, और सौभाग्य बुद्धि आदि असाधारण गुणोंका भी आकर था । इसने बिना परिश्रमके शीघ्र ही शास्त्ररूपी समुद्रको पार करलिया था और क्षत्रिय धर्मकी प्रधानताके कारण अनेक प्रकारकी शस्त्रविद्याएं भी सीखलीं थीं। तथा भाग्य शाली जिसवालक श्रेणिकके अनेक प्रकारके गुणोंसे मंडित उत्तम ज्ञान; बुद्धिसे भूषित था, उसके हाथ दानसे शोभित थे । इसप्रकार यौवन अवस्थाको प्राप्त, अत्यंत वलवान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक अपनी सुन्दरता आदि संपदाओंसे संपन्नथा। जिसे देख उसके माता पिता अत्यंत तुष्ट रहते थे। श्रेणिकके अतिरिक्त महाराज उपश्रेणिकके पाँच सो पुत्र और भी थे जो अत्यन्त पुण्यात्मा और उमत्तोत्तम शुभ लक्षणोंसे भूषित थे । महाराज उपश्रेणिकके देशके पासही उस का शत्रु चन्द्रपुरका राजासोमशा रहता था जो अपने पराक्रमके सामने समस्तजगतको तुच्छ समझता था । जिस समय सहाराज उपश्रेणिकको यह पता लगा कि चन्द्रपुरका स्वामी सोमशर्मा अपने सामने किसीको पराकमी नहीं समझता, तो उन्होंने शीघही उसे अपने अधीन करनेका विचार कर अनेक उपायों से उसे अपने अधीन तो करलिया पर उसे पुनः ज्योंका त्यों राज्या धिकार दे दिया । सोमशर्मा जब महाराज उपश्रेणिकसे हारगया तो उसको बहुत दुःख हुवा और उसने मनमें यह बात ठानली कि महाराज उपश्रेणिकसे इस अपमान का वदला किसी न किसी समय पर अवश्य लूंगा । तदनुसार उसने एकदिन यह चालकी कि सुवर्ण धन धान्य मनोहर वस्त्र और उत्तमोत्तम आभूषणकी भेट महाराज उपश्रेणिककी सेवामें भेजी उसकेसाथ एक वीतनामका घोड़ाभी भेजा । यह घोडा देखनमें सीधा पर सर्वथा अशिक्षित अतिशय दुष्ट एवं अत्यंत ही धोखेबाज था । जिससमय महाराज उपश्रेणिकने चन्द्रपुरके राजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) सोमशर्माकी भेजी हुई भेंटको देखा तो वे सोमशर्मा के मनके भीतरी अभिप्रायको न समझ उसके विनय भाव पर आतिशय मुग्ध होकर उसकी बारंबार प्रशंसा करनेलगे और भेंटसे अपनेको धन्यभी मानने लगे। ___ ऊपरसे ही मनोहर घोड़ाको देख वे मुक्त कंठसे यह कहने लगे कि अहा यह राजा सोमशर्मा का भेजाहुआ घोड़ा सामान्य घोड़ा नहीं है किंतु समस्त घोड़ाओंका शिरोमणि अश्वरत्न है । मेरी घुड़सालमें ऐसा मनोहर घोड़ा कोई हैं ही नहीं । ऐसा कहते कहते उस घोड़ाकी परीक्षा करनेकेलिये वे अपने आप उसपर सवार होगये, और चढ़कर मार्गमें अनेक प्रकारकी शोभाओंको देखते हुवे एक वनकी और रवाने हुये । जिससमय महाराज उपश्रेणिक बनके मध्यभागमें पहुंचे और आनंदमें आकर घोड़ेके कोड़ा लगाया फिर क्या था ? कोड़ा लगते ही वह अशिक्षित एवं दुष्ट धोड़ा उछलकर वातकी वातमें ऐसे भयंकर वनमें निर्भयतासे प्रवेश करगया जहां अजगरोंके फूत्कार शब्द होरहे थे, रीछभी भंयकर शब्द कर रहे थे, बड़े बड़े हाथी भी चिंघार रहे थे और वंदर वृक्षोंसे गिरपड़नेपर भयंकर चीत्कार शब्द कररहे थे एवं जहां तहा भांति भांतिके पक्षियोंके भी शब्द सुनाई पड़ते थे । घोडेने उसवनमें प्रवेशकर, महाराज उपश्रेणिकको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ummmmmmm ( २ ) ऐसे अंधकार मय भयंकरगड्ढ़ेमें, जहां सूर्यकी किरण प्रवेश नहीं कर सकती थी पटकदिया और बातकी बातमें दृष्टिसे लुप्त होगया । ___ अतिशय वलवान पुरुषोंको भी दुर्वल मनुष्योंके साथ कदापि वैर नहीं करना चाहिये क्योंकि दुर्बलके साथ भी किया हुवा वैर मनुष्योंको इससंसारमें अनेक प्रकारका अचिंतनीय कष्ट देता है। ____ अहा! दुखोंका समूह कैसा आश्चर्यका करनेवालाहै । देखो ! कहांतो मगधदेशका स्वामी राजा उपश्रोणिक ? और कहां अनेकप्रकारके भयंकर दुःखोंका देनेवाला महानबन ? तथा कहां अतिशय मनोहर राजग्रहनगर? कहां अंधकार मय भयंकर गड्ढ़ा ? क्या कियाजाय वरैका फलही ऐसाहै, इस लिये उत्तमपुरुषोंको चाहिये कि वे उभयलोक दुःख देनेवाले इस परमवैरी वैर विरोधको अपने पास कदापि न फटकने दें। ___ जब लोगोंने महाराज उपश्रेणिकके लापता होनेका समाचार सुना तो सेनामें, देशमें, अनेक जनोंसे सर्वथा पूर्ण राजग्रह नगरमें, एवं अन्यान्यनगरोमें भी शोक और चिंता छागई और हाहाकार मच गया । रनवांसकी समस्त रानियां यह समाचार सुनते ही मुर्छित होगई और महाराजके वियोगमें एकदम करुणा जनक रोदन करने लगी । जितने केशविन्यास हार आदिक शृंगार थे उन सबको उन्होंने तोड़कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलग फैंकदिया। चतुरंगिनीसेनाने और महाराज उपश्रेणिकके पुत्रोंने महाराजके ढूड़ने के लिये अनेक प्रयत्न किये किंतु कहीं परभी उनका पता न लगा। किंतु'णमोअरिहंताणंणमोसिद्धाणं' इत्यादि महामंत्रको ध्यान करते हुवे महाराज उपश्रेणिक अंधकार मय एवं दुःखोंके देनेवाले उसी गड्ढ़े में पड़े हुए अनेक प्रकारके कष्टोंको भोगते रहे । जिसवनके भीतर भयंकर गड्ढे में महाराज उपश्रेणिक पड़े थे उसी वनमें एक अत्यंत मनोहर भालोंकी पल्ली थी। उस पल्ली का स्वामी, समम्तभीलोंका अधिपति क्षत्रिय यमदंड नामका राजा था। उसकी विद्युन्मती पटरानी अतिशय मनोहर और रूप एवं सौभाग्यकी खानि थी । इनदोनों राजारानीके चंद्रमाके समान उत्तम मुखवाली तिलकवती नामकी एक कन्या थी। ___क्रीड़ा करनेका अत्यंत प्रेमी राजा यमदंड, इधर उधर अनकेप्रकारकी क्रीड़ाओंको करता हुवा उसी गड्ढेके पास आया जिसगड्ढे में महाराज उपश्रेणिक पडे नानाप्रकार के कष्टोंको भोग रहे थे । गड्ढेके अत्यत समीप आकर जब महाराज उपश्रेणिकको उसने भयंकर गड्ढे में पड़ा देखा तो वह आश्चर्यसे अपने मनमें यह विचार करनेलगा कि यह कोंन है ? यह कैसे इसदशाको प्राप्त हुवा ? और इसे किसने इसप्रकारका भयंकर कष्ट दिया है ? कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NNNNN W ( २४ ) समय इसीप्रकार विचार करते करते जब उसको यह बात मालूम होगई कि ये राजग्रहनगर के स्वामी महाराज उपश्रेणिक हैं तो झट वह अपने घोड़े परसे उतरपड़ा और अत्यंत विनयसे उसने महाराज उपश्रेणिकके दोनों चरणोंको नमस्कार किया और विनयपूर्वक उनके पास बैठिकर यह पूछने लगा-कि हे प्रभो किस दुष्ट वैरीने आपको इस भयंकर गड्ढे में लाकर गिरा दिया ? और हे मगधेश ऐसी भयंकर दशाको आप किस कारणसे प्राप्त हुवे ? कृपाकर यह समस्त समाचार सुनाकर मुझै अनुगृहीत करें। आपकी इसप्रकार दुःखमय अवस्थाको देखकर मुझे अत्यंत दुःख है । जिससमय महाराज उपश्रेणिकने भीलोंके स्वामी यमदंडका इसप्रकार भाक्त भरा बचन सुना तो उनका चित्त अत्यंत प्रसन्न हुवा और उन्होंने प्रियवचनोंमें राजा यमदंडके प्रश्नका इसप्रकार उत्तर दिया और कहा-मित्र यदि तुमको अत्यंत आश्चर्य करनेवाले मेरे वृत्तांतके सुननेकी अभिलाषा है तो ध्यान पूर्वक सुनो में कहता हूं । मेरे देशके समापदेशमें रहनेवाला सोमशर्मा नामका एक चंद्रपुरका स्वामी है । वह अपने पराक्रमके सामने किसीको भी पराक्रमी नहीं समझाता था और बड़े अभिमानसे राज्य करता था । जिससमय मुझै उसके इसप्रकारके अभिमानका पता लगा तो मैंने अपने पराक्रमसे वातकी वातमैं उसका अभिमान ध्वंस करदिया और उसे अपना सेवक बनाकर पुनः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैने ज्योंका त्यों उसे चंद्रपुरका स्वामी वनादिया । यद्यपि उसने मेरी अधीनता स्वीकार तो करली पर उसने अपने कुटिल भावोंको नहीं छोड़ा इसलिये एक दिन उस दुष्टने नानाप्रकारके आभूषण उत्तम वस्त्र एवं धन धान्य सुवर्ण आदिक पदार्थ मेरी भेंटकेलिये भेजे, और इनपदाथों के साथ एक घोड़ा भी भेजा । यद्यपि वह घोड़ा ऊपरसे मनोहर था पर आशिक्षित एवं आतिशय दुष्ट था। जिससमय उस की भेजी हुई भेंट मैंने देखी तो मैं उसके कुटिलभावको तो समझ नहीं सका किंतु विना विचारे ही मैं उसके इस प्रकारके वर्तावको उत्तम वर्ताव समझकर प्रसन्न होगया । भेटमें भेजेहुवे उन समस्तपदार्थोंमें मुझै घोड़ा बहुत ही उत्तम मालूम पडा, इसलिये विना विचारे ही उस घोड़ेकी परीक्षा करने के लिये मैं उसपर सवार होकर वनकी और चलपड़ा। जिससमय मैं वनमें आया तो मैंने तो आनंदमें आकर उसके कोड़ा मारा किंतु वह घोड़ा कोड़के इशारेको न समझकर एकदम ऊपर उछला और मुझे इसभयंकर गड्ढ़े में पटककर न जाने कहां चला गया । इसी कारण मैं इसगड्ढ़ेमें पड़ा हुआ इसप्रकारके कष्टों को भोगरहा हूं। ___जब महाराज उपश्रेणिकने अपना समस्त वृत्तांत सुनादिया तो उन्होने राजा यमदंडसे भी पूछा कि हे भाई तुम कोन हो ? और कैसे तुम्हारा यहां आना हुवा? और तुम्हारी क्या जाति है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज उपश्रेणिकके समस्त वृत्तांतको जानकर और भले | प्रकार उनके प्रश्नको भी सुनकर राजा यमदंडने विनय भावसे उत्तर दिया कि हेप्रभो समस्तभीलोंका स्वामी मैं राजा यमदंडहूँ और क्रीड़ा करता २ मैं इस स्थान पर आपहुंचा हूं। मेरी जाति क्षत्रिय है और अपने राज्यसे भ्रष्ट होकर मैं इस पल्लीमें रहता हूं, इसलिये हे महाभाग कृपाकर आप मेरे घर पधारिये और अपने चरण कमलोंसे मेरे घरको पवित्रकर मुझै अनुगृहीत कीजिये। ____ महाराज उपश्रेणिक तो अपने दुःखके दूरकरनेके लिये ऐसा अवसर देखही रही थे इसलिये जिससमय राजा यमदंडने महाराज उपश्रेणिकसे अपने घर चलेनेके लिये प्रार्थना की तो महाराज उपश्रेणिकने उसे विनीत समझकर शीघ्रही उसकी प्रार्थना को स्वीकार करलिया और उसके साथ साथ उसके घरकी और चल दिया। ___यद्यपि राजा यमदंड क्षत्रियवंशी राजा था और उसका आचार बिचार उत्तम गृहस्थांके समान होना चाहिये था किं तु उसका संबंध अधिक दिनोंसे भीलोंके साथ होगया था इसलिये उसकी क्रिया गृहस्थों की क्रियाओंके समान नहीं रही थीं, भीलोंकी क्रियाओंके समान होगई थीं। महाराज उपश्रेणिकने जब उसके घर जाकर उसके गृहस्थाचारको देखा तो वे एक दम दंग रहगये और राजा यमदंडसे कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) कि हे यमदंड यद्यपि तुम क्षत्रिय राजा हो तथापि अव तुम्हारा गृहस्थाचार क्षत्रियोंके समान नहीं रहा है ? और मैं शुद्ध गृहस्थाचारपूर्वक वनेहुवे ही भोजनको खा सकता हूं । पवित्र एवं विशुद्ध ज्ञानी होकर मैं आपके घरमें भोजन नहीं कर सकता। जिससमय राजा यमदंडने महाराज उपश्रेणिकके इस प्रकारके वचनोंको सुना तो उसने तत्क्षण इसभांति विनय पूर्वक कहा कि हे प्रभो यदि आप ऐसे गृहस्थाचार संयुक्त मेरे धरमें भोजन करना नहीं चाहते हैं तो आप घबड़ायें न गृहस्थाचार पूर्वक भोजनकोलिये मेरे यहां दूसरा उपाय भी मौजूद है । वह उपाय यही है कि मेरे अत्यंत शुभ लक्षणोंको धारणकरनेवाली, भलेप्रकार गृहस्थाचारमें प्रवीण, एक तिलकवती नामकी कन्या है वह कन्या शुद्ध क्रियापूर्वक भोजन पानी आदिसे आपकी सेवा करेगी ____ भिल्लोंके स्वामी यमदंडके इसप्रकारके विनम्रवचनोंको सुनकर मगधदेशाधिप महाराज उपश्रेणिक अत्यंत प्रसन्न हुवे । और उसी दिनसे अपने पिताकी आज्ञासे कन्या तिलकवतीने भी महाराज उपश्रेणिककी सेवाकरनी प्रारंभ करदी। कभी वह कन्या एक प्रकारका और कभी दूसरे प्रकारका मिष्ट भोजन बनाकर महाराजको प्रसन्न करने लगी । कभी महाराजके रोगको भली भांति पहिचान वह उत्तम औषधियुक्त उनको भोजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराती और कभी कभी अतिशय मधुर शीतल जलसे महाराजके मनको संतुष्ट करती । इसप्रकार कुछ दिनोंके वाद औषधिसंयुक्त भोजनोंसे विशेषतया उसकन्याके हाथसे भोजन करनेसे महाराज उपश्रेणिकका स्वास्थ्य ठीक होगया तथा महाराज उपश्रेणिक पूर्वकी तरह ज्योंके त्यों नीरोग होगये । ___जब तक महाराज सरोग रहै तव तक तो मैं किसप्रकार नीरोग हूंगा' ? मेरा यह रोग किसरीतिसे नष्ट होगा ? इत्यादि चिन्ता सिवाय महाराजके चित्तमें किसी विचारने स्थान नही पाया, किंतु नीरोग होते ही नारोगताके साथ २ उसकन्याके स्नेह, सेवा, रूप एवं सौंदर्यपर अतिशय मुग्ध होकर वे विचारकरने लगे कि इसकन्याका रूप आश्चर्य कारक है । और इसके मनोहर वचन भी आश्चर्य करनेवाले ही हैं । तथा इसकी यह मंद मंद गतिभी आश्चर्य ही करने वाली है । इसकी बुद्धि अतिशय शुभ है । इसके दानों नेत्र चकित हारणीके समान चंचल एवं विशाल हैं । अर्ध चन्द्रके समान मनोहर इसका ललाट है । और इसका मुख चंद्रमाकी कांतिके समान कांतिका धारण करने वाला है। यह कोकिलाके समान अतिशय मनोहर शब्दोंको बोलने वाली है, रूप एवं सौभाग्यकी खानि है, आतिशय मनोहर इसकन्याके ये दोनो स्तन, खजानेके दो सुवर्णमय कलशोंके समान उन्नत, कामदेवरूपी सर्पसे कलंकित, आतशय स्थूल हैं, और हरएक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यको सर्वथा दुर्लभ हैं । और इसके दोनों स्तनोंके मध्यमें अत्यंत मनोहर, कामदेवरूपी ज्वरको दमन करनेवाली नदी है । इसके समस्त अंगोंकी ओर दृष्टि डालनेसे यही बात अनुभवमें आती है कि इसप्रकार सुन्दराकार वाली रमणीरत्न नतो कभी देखने में आई और न कभी सुनने में आई, और न आवेगी। ____ महाराज उपश्रेणिक इसप्रकार कन्याके स्वरूपकी उधेड बुनमें लगे थे कि इतने ही राजा यमदंड उनके पास आये और उनसे महाराज उपश्रेणिकने कहा कि हे भिल्लोंके स्वामी यमदंड यह तुह्मारी तिलकवती नामकी कन्या नानाप्रकारके गुणोंकी खानि एवं अनेक प्रकारके सुखोंको देनेवाली है आप इसकन्याको मुझे प्रदान कीजिये क्योंकि मेरा विश्वास है कि मुझे इससे संसारमें सुख मिलसकता है। ____ महाराज उपश्रेणिकके इसप्रकारके वचनोंको सुनकर राजा यमदंडने इस विनयभावसे कहा कि हे प्रभो कहां तो आप समस्त मगधदेशके प्रतिपालक ? और कहां मेरी अत्यंत तुच्छ यह कन्या ? हे महाराज देवांगनाओंके समान अतिशय रूप और सौभग्यकी खानि आपके अनेक रानियां हैं। तथा कुमार श्रेणिकको आदिले आपके अनेकही पुत्र हैं जो अतिशय वलवान, धीर और समस्त पृथ्वीतलकी भलेप्रकार रक्षा करनेवाले हैं । इसलिये अत्यंत तुच्छ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) यह मेरी प्यारी पुत्री प्रथमतो आपके किसी काम की नहीं । यदि देवयोगसे इसका संबंध आपसे हो भी जाय ? तो हे प्रभो क्या यह अन्य रानियों द्वारा घृणाकी दृष्टिसे देखी जानेपर उस अपमान से उत्पन्न हुई पीड़ाको सहन करसकेगी ? और हे प्रजापालक प्रथमतो मुझे विश्वास नहीं कि इसके कोई पुत्र होगा ? कदाचित् दैवयोगसे इसके कोई पुत्र भी उत्पन्न होजाय और श्रेणिक आदि कुमारोंका वह सदा दास बना रहै, तो भी उसको अवश्य दुःख ही होगा, और पुत्रके दुःखसे दुःखित यह मेरी प्राणस्वरूप पुत्री अन्य रानियों द्वारा अवश्यही अपमानित रहेगी ? इसलिये उपरोक्त दुःखोंके भयसे मैं अपनी इस प्यारी पुत्रीका आपके साथ विवाह करना उचित नहीं समझता । हां यदि आप मुझे इसप्रकारका वचन देवें कि जो इससे पुत्र उत्पन्न होगा वही राज्यका उत्तराधिकारी वनैगा तो मैं हर्ष पूर्वक आपकी सेवामें अपनी पुत्रीको समर्पण कर सकता हूं । जो उचित आप न्याय एवं अन्याय समझे सो करें आप मेरे स्वामी है और मैं आपका सेवक हूं । राजा यमदंडके इसप्रकारके वचन सुनकर महाराज उप श्रेणिकने उसकी समस्त प्रतिज्ञाओंको स्वीकार किया और प्रसन्नता पूर्वक उसकी तिलकवती पुत्री के साथ विवाहकर, उसके साथ भांति भांतिकी क्रीड़ा करते हुवे महाराज उपश्रेणिक बिशाल संपत्ति के साथ राजग्रहनगर को रवाना हुए और www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) मार्गमें अनेकप्रकार वन उपवनोंकी शोभाओंको देखते राजग्रहनगरके समीप आ पहुंचे । महाराज उपश्रेणिकके आनेका समाचार सारे नगरमें फैलगया । महाराज उपश्रेणिकके शुभागमन सुनते ही समस्त नगरनिवासी मनुष्य, राजसेवक एवं महाराज के समस्त पुत्र, अपनेको धन्य और पुण्यात्मासमझकर, उनके दर्शनोंकलिये अतिशय लालायित होकर शीघ्रही उनके सामने स्वागतकेलिये आये और आकर विनय पूर्वक महाराजके चरणों को नमस्कार किया । चिरकालसे महाराजके वियोगसे दुःखित उनके दर्शन से संतुष्टहो समस्तजन उपश्रेणिक महाराजकी और प्रेमपूर्वक टकटकी लगाकर देखने लगे और अतिशय प्रेमपूर्वक वार्तालापकरते हुवे उन लोगोंने कुछ समय तक वही ठहरकर पीछे महाराजसे नगरमें प्रवेश करनेके लिये प्रार्थनाकी । तथा महाराजके चलने पर समस्त नगर निवासी जनोंने महाराजके पीछे पीछे राजग्रह नगरकी ओर प्रस्थान किया । ___महाराज उपश्रेणिकके नगरमें प्रवेश करते ही उनके शुभागमनके अपलक्ष अतिशय उत्सव मनाया गया । पटह शंख, काहल, दुंदुभि, आदि मनोहर बाजे बाजने लगे, तथा उत्तमोत्तम हावभावोंके दिखानेमें प्रवीण, नृत्यकलामें अतिचतुर देवांगनाओंके मदको चूर करनेवाली, और अति सुंदर वेश्यायें अधिक आनंद नृत्यकरनेलगी।महाराज उपश्रेणिक बहुत दिनोंकवाद नगरके देखनेसे अति आनंदित हुये और सर्वागसुदरी महाराणी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) तिलकवती के साथ साथ अनेकप्रकारके तोरणोंसे शोभित, नीली पीली आदि ध्वजाओंसे सुशोभित, चित्तको हरणकरनेवाले, नानाप्रकारके चौकोंसे मंडित, राजग्रहनगरमें प्रवेशकिया । राजगृहनगरके राजमार्गमें जातेहुवे महाराज उपश्रेणिकको देखकर अनेक नगरनिवासी अपने मनमें इसप्रकार कल्पना करते कहते थे कि अहा पुण्यका महात्म्य विचित्र है देखो कहां तो अत्यंत धारवीर महाराज उपश्रेणिक ? और कहां उत्तमांगी, चन्द्रमुखी, मृगाक्षी, लक्ष्मीके समान अतिमनोहर, स्थूल उन्नत स्तनोंसे मंडित, कन्या तिलकवती? कहां महाराज उपश्रेणिकका विशालवनमें गड्ढेमें गिरना और निकलना ? और कहां पीछे इसकन्याके साथ साथ विवाह ? जानपड़ता है इसीकन्याकी प्राप्तिके लिये महाराज उपश्रेणिकको समस्तपुण्य मिलकर वहां लेगये थे। इसमें संदेह नहीं जो मनुष्य पुण्यवान हैं उनकेलिये विपत्ति भी संपत्ति स्वरूप और दुःख भी सुखस्वरूप होजाता है। बुद्धिमान मनुष्योंको चाहिये कि वे सदा पुण्यका ही संचयकरें । ___इसप्रकार नगरवासियोंके कथा कौतूहलोको सुनते महाराज उपभोणकने रानी तिलकवतीके . साथ साथ अनेक प्रकारकी शोभाओंसे सुशोभित राजमंदिर में प्रवेशकिया। राजमंदिरमें प्रवेशकरने पर महाराज उपश्रेणिकने तिलकवाके उत्तमोत्तम गुणोंसे मुग्धहो उसे अतिशय मनोहर क्रीड़ा योग्य मकानमें ठहराया और नवोढ़ा तिलकवत के साथ अनेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .DATE ( ३३ ) मकारकी क्रीड़ा करने लगे। कभी कभी तो महाराज कमलके रस लोलुप भँवरेके समान रानी तिलकवतीके मुखकमलके रसका आस्वादन करते, और कभी कभी चंदन लता पर गंधलोलुप भ्रमर के तुल्य उस के साथ उत्तानक्रीडा करते । जानपड़ाता था कि स्तनरूषी दो मनोहर क्रीड़ा पर्वतोंसे युक्त महाराणी तिलकवतीका वक्षः स्थल वन है और महाराज उपश्रेणिक उस बनमें विहार करनेवाले मनोहर हिरण हैं । जब उपश्रेणिक अपने हाथोंसे महाराणी तिलकव के स्तनोंपरसे अति मनोहर वस्त्रको खींचते थे तब जान । पडता था कि उसके स्तनरूपी खजानेके कलशोंपर उनकी रक्षार्थ दो सर्पही बैठे थे । महाराणी तिलकवीके, मैथुनरूपी जलसे युक्त कामदेवरूपी मनोहर कमलके आधारभूत, दोनों जंघारूपी सरोवरके बीच महाराज उपश्रेणिक ऐसे मालूम पड़ते थे मानों। सरोवरमें हंस ही क्रीडा कर रहा है । रानी तिलकवती के साथ । अनेक प्रकारको क्रीड़ा कर महाराज उपश्रेणिकने उसे केवल क्रीड़ाके ताड़नोंसे व्याकुल ही नहीं किया था किंतु र्निदयताके साथ वे उसे चुंबनोंसे भी व्याकुल करते थे। ___इसप्रकार प्रेमपूर्वक चिरकाल क्रीड़ा करनेसे रानी तिलकवतीके चलाती ( चलातकी ) नामका उत्तम पुत्र उत्पन्न हुचा और अत्यंत भाग्यशाली वह चलातकी थोड़ेहो कालमें बडा होगया। इसरीतिसे पुण्यके माहात्म्यसे अत्यंत मनोहर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmm mnnnnnn ( ३४ ) नवीन, स्त्रियोंमें उत्तम, अत्यंत उज्ज्वल, हर एक कलामें प्रवणि, समस्त पुण्योफलोंसे उत्पन्ना, उत्तमरूपवाली, और समस्त देवांगनाओंके समान अत्यंत उत्कृष्ट, भाग्यक्ती तिलकवतीको महाराज उपोणिक नानाप्रकारकी क्रीड़ाओं से तुष्ट करते । थे तथा मोहसे नानाप्रकारकी काम को पैदा करनेवाली चेष्टाओंको करनेवाली, अत्यंत मनोहर, अपने शरीरको दिखानेवाली, अत्यंत प्रौढा, देदीप्पमान वस्त्रोसे शोभित, मुकट जडित मणियोंकी किरणोसे अधिक शोभायमान, अत्यंत निर्मलरूपवाली और पुण्यकी मूर्ति, तिलकवती भी अपने हाव भावोंसे, नानाप्रकारके भोग विलासोंसे महाराज उपश्रेणिकके साथ क्रीड़ा कर उन्हें तृप्त करती थी। सच है:-धर्मात्मा प्राणियोंको धर्मकी कृपासे ही उत्तम कलमें जन्म मिलता हैं, धर्मकी कृपासे ही उत्तमोत्तम राजमंदिर मिलते हैं, धर्मके महात्म्यसें ही मनोहर रूपवाली भाग्यवती सती सर्वोत्तम स्त्रीरत्न की प्राप्ति होती है, धर्मसे ही समस्त प्रकारकी आकुलतारहित विभूति प्राप्त होती है, एवं अत्यंत आनन्दको देने वाले धर्मसे ही मोक्ष सुख भी मिलता है। इसलिये उत्तम मनुष्योंको उचित है कि वे उत्तमोत्तम राज्य, स्वर्ग, मोक्ष इत्यादि सुखों के प्राप्तकरानेवाले धर्मके फलों को भलीभांति जानकर धर्ममें । अपनी बुद्धिको स्थिरकर धर्मको धारण करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार महाराज श्रेणिकके जीव भविष्यकाल होनेवाले श्री पद्मनाभतीर्थकरके चरित्रमें महाराज उपश्रेणिक के नगरप्रवेशको कहने वाला द्वितीय सर्ग समाप्त हुवा तीसरा सर्ग समरत कर्मोंसे रहित, प्राचीन, मनोहर, अखंड केवलज्ञान रूपो सूर्यके धारक, प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं। । अनतर इसके महाराज मगधेश्वर उपश्रेणिकके मनमें इसप्रकार की चिंता हुई कि मेरे वहुतसे पुत्र हैं इनमेंसे मैं किस पुत्रको राज्यका भार दूं? इसप्रकार अतिशय दूरदर्शी महाखज उपश्रेणिकचे इसबातको चिरकाल तक बिचारकर, और इसबातको भी भली भांति म्मरणकर कि तिलकवती के पुत्र चलातकीको मैंने राज देदिया है। किसी ज्योतिषीको एकांतमें बुलाकर पूछा हे नैमित्तिक तू ज्योतिष शास्त्रका जाननेवाला है इसवातको शीघ्र विचार कर कह कि मेरे बहुतसे पुत्रोंमें राज्यका भोगनेवाला कोंन पुत्र होगा? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजकी इसबातको सुनकर ज्योतिर्विद नैमित्तिक अष्टांग निमित्तोंसे भलीभांति महाराजके प्रश्नको विचारकर बोला महाराज मै ज्योतिषशास्त्र के बलसे "आपके पुत्रोमेंसे राज्यका भोगनेवाला कोनसा पुत्र होगा” कहता हूं आप ध्यान लगाकर सुनिये ____उसके जाननेका पहिला निमित्त तो यह हैं:-- कि आपके जितने पुत्र हैं सब पुत्रोंको आप एक एक घड़ेमें शक्कर भरके दीजिये उनमें जो पुत्र किसी दूसरे मनुष्य पर उस घड़ाको रखकर निर्भय सिंहके द्वारमें प्रवेशकर अपने घरमें खेलता हुवा चला आवे जानिये कि वही पुत्र राज्यका अधिकारी होगा। दूसरा निमित्त यह है कि आप अपने सब कुमारोंको एक एक नवीन घड़ा दीजिये और उनसे कहिये कि हरएक ओसके जलसे उस घड़ेको भरकर ले आवे जो पुत्र ओससे घड़ाको भरकर लेआवेगा अवश्य वही पुत्र राजा होगा। तीसरा निमित्त यह भी है:-- कि आप अपने सब पुत्रोंको एकसाथ भोजन करनेकेलिये बैठालिये और आप उन पुत्रोंको खीर सक्कर पूर्व और दाल भात आदि सर्वोत्तम स्वादिष्ट पदार्थोको एक साथ बैठाकर खिलाइये जिस समय वे भोजनके म्वादमें अत्यंत लीन हो जावें उस समय भयंकर डाढ़ावाले अत्यंत क्रूर तथा वाघोंके समान मत्त कुत्तोंको धीरेसे छुड़वादीजिये । उससमय जो पुत्र उन भयंकर कुत्तों को हटाकर आनंदपूर्वक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) निमयतासे भोजन करेगा वही पुत्र आपके समान इस मगधदेश का निःसन्देह राजा हो सकेगा। चौथा निमिच यह समझिये:-- जिससमय नगरमें आग लगे उससमय जो पुत्र सिंहासन छत्र चवर आदि पदार्थोको अपने सिरपर रखकर नगरसे बाहिर निकले समझ लीजिये कि - मुकुटका धारण करनेवाला वही राज्यका भोगनेवाला होगा। और हे महाराज राज्यकी प्राप्तिका पांचवां निमित्त यह भी है:- कि थोड़े से पिटारोंको उत्तमोत्तम लड्डू तथाखाजे आदि मिष्टान्नों से भरवाकर, उनके मुँह को अच्छी तरहसे बंद करा कर और मुहर लगवाकर हर एक के घरमें रखवादीजिये तथा उनपिटारोंके साथ शुद्ध निर्मल मधुर जलसे पूर्ण एक एक उत्तम घडेको भी मुँह वंदकर उसी तरह प्रत्येक घरमें रखवा दीजिये फिर प्रत्येककुमारको एक एक घड़ेसे पानी तथा एकरपिटारेमें से लड्डु आदिके खानेकी आज्ञा दीजिये। उनमें से जो कुमार जलसे भरे हुवे घड़ेके मुखको खोलेही विना पानी पीलेवे तथा पिटारे से विनाखोले ही लड्डु आदि पदार्थोको खा लेवे समझ लीजिये कि वही पुत्र राज्यका भोगनेवाला होगा। ___ इस प्रकार नैमित्तिकके वताये हुवे पांच निमित्तोंको सुनकर महाराजने उस नैमित्तिकको विदा किया और ज्योतिषी के बतलाये हुवे उननिमिोंसे कुमारोंकी परीक्षा करनेकेलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ( ३८ ) स्वयं ऐसा विचार करने लगे कि आश्चर्यकी बात है कि राज्यतो मैंने चलातकीको देनेकेलिये दृढ़ संकल्प करलिया है लेकिन अब नहीं जानसकता कि इननिमित्तोंसे परीक्षा करने पर राज्यका कौन भोगनेवाला ठहरैगा ? कुछ समय बीतजानेपर महाराजने एकसमय अपने समस्तपुत्रोंको सभामें. कुलाया. और सरलस्वभावसे वे लोग महाराजकी आज्ञाके अनुसार सभामें आकर अपने २ स्थानोंपर वैटगये। उनको भलीभांति वैठेहुवे देखकर महाराजने कहा हे पुत्रों मैं जो कहता हूं सुनोः-- आप लोग एक २ शक्करका घडा लेकर सिंह द्वारकी ओर जाइये । महाराजके इसवचनको सुनकर महाराजकी आज्ञाके पालन करनेवाले सब कुमार महाराजकी आज्ञासे एक एक शक्करके घड़ेको स्वयं लेकर सिंहद्वारकी ओर गये तथा थोड़ी देर वहांपर टहरकर अपने अपने घरोंको चले आये। पर चतुर कमार श्रेणिक किसी अन्यसेक्कके सिरपर घड़ेको रखवाकर सिंहद्वार में गया तथा पीछे खेलता हुवा अपने घरको चला आया । जब महाराज उपश्रेणिकने यहवात सुनी तब वे चकित होकर रहगये और अपने मनमें विचार करने लगे निःसन्देह भाग्यशाली श्रेणिककुमारही राज्यका अधिकारी होगा | अब मैं अपने राज्यको चलाती कुमारकेलिये कैसे देसकूँगा ? इस प्रकार कुछ समय तक विचार करते २ महाराजने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marrrrrrrrammaan ( ३९ ) दूसेर निमित्तकी परीक्षाकरनेके लिये अपने पुत्रोंको बुलाया | और कहा हे पुत्रों, तुम सब आज फिर मेरी बातको सुनो सब लोग एक २ नवीन घड़ा लो और उसको अपनी चतुरतासे ओसके जलसे मुहतक. भरकर लाओ। महाराजका वचन सुनते ही वे समस्त राजकुमार सवेरा होते ही बड़े उत्साहके साथ ओसके जलसे घड़ोंको भरने के लिये अनेक प्रकारके तृणयुक्त जगहोंपर गये और वहांपर ओसके जल से भीगे तृणों को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो बड़े प्रयत्नसे तृणोंके जलको ग्रहणकरनेके लिये अलग अलग वैठिगये ।। जिससमय वे उस ओसके पानीको नवीन घड़ामें भरते थे घड़ेके । मीतर जाते ही क्षणभरमें वह ओस का पानी सूख जाता था। इस तरह ओसके जलसे घड़ा भरनेके लिये उन्होंने यथाशक्ति वहुत परिश्रम किया और भांति भांति के प्रयत्न किये किंतु उनमेंसे एकभी कुमार घड़ाको न भरसका किंतु एकदम घवड़ाकर सव के सब कुमार अपने २ स्थानोंमे चुपचाप वैठिगये ॥ बहुतकाल वैठनेपर जब उन्होंने यह बात निश्चय समझिली कि घड़ा नहीं भरे जा सकते तव चलाती आदि सब राजकुमार महाराज की इसपरीक्षामें अनुत्तीर्ण हो लज्जाके मारे मुखनीचे किये हुवे अपने अपने घरोंको चलेगये । परंतु अत्यंत बुद्धिमान कुमार श्रेणिक महाराजको आज्ञा पालन करनेके लिये जिस प्रदेशमें ओसके जलसे भीगे हुवे बहुत तृण थे गया औ उन तृणोंपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने एक कपड़ा डालदिया। जिस समय वह कपड़ा ओसके जलसे भीगगया तब उस भीगे कपड़ेको निचोड़कर उस जलसे घड़ाको अच्छी तरह भरकर वह अपने घरले आया और ओसके जलसे भरे हुवे उसघड़ेको महाराज उपश्रेणिकके सामने रख दिया। महाराजने जिससमय कुमार श्रेणिक द्वारा लाये ओसके जलसे भरे हुवे घड़ेको देखा तो श्रेणिकको अत्यंत बुद्धिमान समझकर चिंतासे व्याकुल होगये और मनमें विचार करने लगे कि अवश्य यह श्रेणिकही राज्यका भोगने वाला होगा, किंतु मैंने जो यह वचन देदिया है कि राज्य चलाती कुमारको ही दिया जायगा, न जाने इस वचनकी क्या गति होगी ! ____ इसप्रकार कुमार उपश्रेणिकको दोनो परीक्षा में उत्तीर्ण देखकर पुनः राज्यकार्यकी परीक्षाके लिये महाराज उपश्रेणिकने श्रेणिक आदि समस्तपुत्रोंको भाजनके लिये अपने घरमें बुलाया । जिससमय समस्तकुमार एकसाथ भोजन करनेलिये बैठिगये तब बड़े आदरके साथ उनके सामने सुवर्णों के बड़े बड़े थाल रखदिये गये और उन थालमे उनके लिये खाजे घेवर मोदक खीर मोटामाड़ घी मूंगका मिष्ट स्वादिष्ट चूरा उत्तम दही और अनेकप्रकारके पके हुवे अन्न तथा मीठाभात और भी अनेक प्रकारके भोजन तथा पूवा मिगोड़े आदिक अनेक मनोहर मिष्टान्न परोसे गये । जिससमय क्षुधासे पीड़ित तथा स्वादके लोलुप सब कुमार भोजन करने लगे और भोजनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) स्वाद के आनंद में मन हुये, तब महाराज उपश्रेणिककी आज्ञा से राज सेवकोंने भयंकर कुत्तोको छोडदिया फिर क्या था ? वे भयंकर कुत्ते सुगंधित उतम भोजनको देखकर उसी ओर झुके और भोंकते हुवे समस्त कुत्ते राजकुमारोंके भोजनपात्रोंपर बाकी बात में टूटपड़े । भोजनपात्रोंके ऊपर उनकुत्तोंको टूटते हुवे देखकर मारे भयके कांपते हुए राजकुमार अपने अपने भोजनके पात्रोंको छोड़कर एक दम वहांसे भगे और आपस में हंसी करते हुवे तितरवितर होकर अपने २ घरोंको चले गये । बुद्धिमान कुमार श्रेणिकने जब यह दृश्य देखा कि ये कुत्ते आगे बढ़े चले ही आरहे हैं और काटनेके लिये उद्यत है तब उसने अपनी बुद्धि से उन सब कुत्तोंको दूर हटाया और दूसरे २ कुमारोंकी पत्तरोंको उन कुत्तोंके सामने फेककर उन्है बहुत दूर भगादिया और आनंदसे भोजन करने लग गया । इसबात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक फिर भी अत्यंत चिंतासागर में निमग्न होगये और बिचारने लगे कि मैं अब इस उत्तम राज्यको चलातीकुमारको किस रीति से प्रदान करूं ? एक समय जब नगर में भयंकर आगलगी आगलगी तथा ज्वालासे समस्त नगर जलने लगा और नगरके लोग जहां तहां भागने लगे तब कुमार श्रेणिक तो झट सिंहासन छत्र आदि सामानको लेकर वनको चलागया । शेष राजकुमार कोई हाथ में भाला लेकर बनको गया और कोई खङ्गलेकर कोई घोड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) आदि लेकर वनको गये । इसबातको सुनकर फिरभी महाराज उपश्रेणिक मनमें अत्यंत दुःखित हुवे तथा सोचने लगे कि चलाती पुत्र किसरीतिसे इसराज्यका भोगनेवाला वने ? ___ज्योतिषी के बतलाये हुवे इतनी पराक्षाओं में कुमार श्रेणिकको उत्तीर्ण देख महाराज उपश्रीणकको संतोष न हुवा अतएव उन्होंने ज्योतिषी के वतलाये हुवे अंतिम निमित्तकी परीक्षाकोलिये फिर भी किसी समय अपने राजकुमारोंको बुलाया तथा | प्रत्येक घरमें महाराज उपश्रोणकने अत्यंत मधुर लड्डुओंसे भरे हुवे एक : पिटारेका मुख बंद कर रखवा दिया और उसके साथमें अत्यंत निर्मल जलसे भरा हुवा एक २ नवीन घड़ा भी रखवा दिया। इन सब बातों के पीछे लडुओके खाने के लिये और पानी पनिके लिये समस्त राजकुमारों को महाराज उपश्रीणकने आज्ञा भी दी। कुमार श्रोगिकके अतिरिक्त जितने राजकुमार थे सवेन उन लड्डुओंसे भरे हुवे पिटारेको एकदम हाथमेंलेकर विनाविचारेही शीघ्र खोलडाला और अपनी भूखकी शांतिकेलिये लड्ड खाना प्रारंभ कर दिया तथा प्यास लगने पर घडोंके मुंह खोल कर उनसे पानी पिया । परंतु कुमार श्रेणिक, जो उनसवकुमारोंमें अत्यंत बुद्धिमान था चट महाराजके मनका तत्पर्य समझ पिटारेकं मुखको विनाही उघाड़ें उसको लेकर इधर उधर हिलाने लगा और इस प्रकार उसपिटारेसे निकले हुवे चूर्णको खाकर उसने अपनी क्षुधाकी शान्तिकी तथा जहांपर घड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खा था वहां जोजल घड़ेसे बाहिर एकठा हुवा था उसीस अपनी प्यास बुझाई किंतु घड़ेके मुखको खोलकर पानी नहीं पीया। अनंतर महाराज उपश्रेणिकने समन्तराजकुमारोंको अपने २ घर जानके लिये आज्ञादी। परीक्षासे राज्यकी प्राप्तिके सब चिन्ह धीर वीर भाग्यशाली कुमार श्रेणिकमें देखकर महाराज श्रेणिक अपने मनमें इसप्रकार चिंता करनेलगे, कि ज्योतिषी के वतलाये निमित्तोंसे कुमार श्रेणिक सर्वथा राज्यके योग्य सिद्ध होचुका अब मैं किस रीतिसे चलाती पुत्र को राज्यदूं ? मैं पहिले यह बचन देचुका हूं कि यदि राज्य दूंगा तो चिलातीको ही दूंगा, किंतु ज्योतिषीद्वारा बतलाये हुवे निमित्तोंसे राज्यकुमार श्रेणिक ही उपयुक्त ठहता है । अबमे पहिले दिये हुवे अपने वचनकी कैसे रक्षा करूं ? हां यह वात विलकुल ठीक है कि जिसका भाग्य बलवान होता है उसको राज्य मिलता है इसमें जराभी संदेह नहीं । इसप्रकार अत्यंत भयंकर चिंता सागर गोतालगाते हुवे महाराज उपश्रेणिकने अत्यंत वुद्धिवान सुमति तथा अतिसागर नामके मंत्रियोंको तथा इनसे अतिरिक्त अन्य मंत्रियों को भी बुलाया और उनसे इस प्रकार अपने मनका भाव कहाः - हे मंत्रियो आप सब लोग अत्यंत बुद्धिमान तथा श्रेष्ठ हैं । मेरे मनमें एक बड़ी भारी चिंता है जिससे मेरा सवशरीर सूखाजाता है उसचिंताकी निवृत्ति किस रीतिसे होगी इसपर विचारकरो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) महाराजकी इस विचित्र वातको सुनकर अन्य मंत्रियाने तो कुछ भी उत्तर न दिया पर अत्यंत बुद्धिमान सुमतिनामक मंत्रीने कहा । हे प्रभो ! हे राजन् ! हे समस्त प्रथ्वीकेस्वामी ! हे समस्त वैरियोंकेमन्तकोंको नीचे करनेवाले ! महाभाग! आप सरीखे नरेद्रोंको किस वातकी चिंता होसकती है । हे प्रभो देवोंके घोड़ोंको भी अपने कला कौशलसे जीतनेवाले अनेक घोड़े आपके यहां मोजूद हैं, जो कि अपने खुरोंके बलसे तमाम पृथ्वीका चूणकरसकते हैं, और आपकी भक्तिमें सदा तत्पर रहते हैं । अपने दांतरूपी खगोसे तमाम पृथ्वीको विदारण करनेवाले अंजन पर्वतके समान लम्बे चोड़े आपके यहां अनेक हाथी मोजूद हैं । हे राजेन्द्र आपके मंदिरमें भली मांति आपकी आज्ञाके पालनकरने वाले अनेक पदाति · सेना) भी मोजूद हैं । और रथी शूरवीर भी आपके यहां वहुत हैं, जो कि संग्राममें भली भांति आपकी आज्ञाके पालन करनेवाले हैं । आपको किसी वैरीकी भी चिंता नहीं है क्योंकि आपके देशमें आपका कोई वैरीभी नजर नहीं आता, आपके धन तथा राज्यका कोई वांटने वाला ( दायाद भी नहीं है और आपके पुत्रभी आपकी आज्ञाके पालन करनेवाले हैं। आपके राज्यमें कोई आपको विरोधी कुटिल भी दृष्टिगो| चेर नहीं होता फिर हे प्रभो आपके मनमें किस बात की चिंता है ? आप उसे शीघ्र प्रकाशित करें उसके दूरकरनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ revrevrvNAN लिये अनेक उपाय मोजद हैं उसकी शीघ्र ही निवृत्ति हो सकती हैं । यदि आप इससमय उसको नहीं बतलायेंगे तो ठीक नहीं, क्योंकि राजाके चिंताग्रस्तहोनेसे पुरवासीमंत्री आदिक सवही चिताग्रस्त होजाते हैं उनको भी दुःख उठाना पड़ता है क्योंकि यथा राजायथा प्रजा अर्थात् जिस प्रकारका राजा हुवाकरता है उसकी प्रजाभी उसी प्रकारकी हुआकरती है । इसप्रकार अत्यंत बुद्धिमान सुमतिनामक मंत्रीकी इस बातको सुन महाराज उपश्रेणिक वोले कि हे सुमते मुझै देश आदि अथवा पुत्र आदिकी ओरसे कुछ भी चिंता नहीं है, किंतु चिंता मुझे इसीबातकी है कि मैं इस राज्यको किस पुत्रको प्रदान करूं। मंत्रीने उत्तर दिया । हे अत्यंत बुद्धिमान महाराज आपका सुयोग्य पुत्र कुमार श्रेणिक हैं उसीको वेधड़क राज्यदेदीजिये । मंत्रीकी इसबातको मुनकर महाराज उपश्रेणिकने कहा हे मंत्रिन् जिस समय मेरे शत्रुद्वारा भेजेहुवे घोड़ा ने मुझै वनमें गढ़े पटकदिया था उससमय यमदंड नामक मिल्लराजाने वनमें मेरी सेवाकी थी, तथा उसकी पुत्री तिलकवतीने अपनी अतुलनीय सेवासे एकतरह मुझै पुनः जीवितकिया था । अकस्मात उसी पुत्रीके साथ मेरा विवाहहोगया। विवाह के समय तिलकवती के पिताने यह मुझसे कौल करलिया था कि, यदि आप इस पुत्रीके साथ अपना विवाहकरनाचाहते हैं तो मुझे यह बचन - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) दीजिये कि, इससे जो पुत्र होगा वही राज्यका अधिकारी होगा, नहीं तो मैं अपनी इस पुत्रीका विवाह आपके साथ नहीं करूंगा । मैं ने उस तिलकचतीके सौंदर्य एवं गुणोंपर मुग्ध होकर उसके पिताको उसप्रकारका वचन ददिया था कि मैं इसीके पुत्रको राज्य दूंगा । किंतु मैंने राज्य किसको देना चाहिये, यहबात जिससमय ज्योतिषी से पूछी तो उसने अपनी ज्योतिषविद्यासे यही कहा कि इस महाराज्यका अधिकारी कुमार श्रेणिकही है । अब बताइये ऐसी दशा में मैं क्या करूं और राज्य किसको दूं । यदि मैं चलाती कुमारको राज्य न देकर कुमार श्रेणिकको राज्यप्रदानकरूं और अपने वचनका खयाल न रक्खूं तो संसार में मेरा जीवन सर्वथा निष्फल है । मुझे ऐसा मालूम होता है कि यदि मैं अपने चचनका पालन न करसकूँगा तो मेरा पहिले कमाया हुवा सब पुण्यभी बिना प्रयोजन का हैं क्योंकि मल मूत्र आदि सातधातुओंसे चनाहुवा यह शरीर पुण्यरहित निस्सार है अर्थात् किसीकामका नहीं। इसमें किसप्रिकारका संदेह नहीं कि चंचलजीवनकी अपेक्षा इसशरीरमें सत्य बचनही सार है, अर्थात् जो कहकर बचन का पालन करता है वही मनुष्य आर्य है और उत्तम है किंतु जो अपने बचन को पालन नहीं करता है वह उत्तम नहीं क्योंकि जिसमनुप्य ने संसार में अपने बचनकी रक्षा नहीं की उसने उपार्जन किये हुवे पुण्यका सर्वथा नाश कर दिया । और यहबात भी हैं कि संसार में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर सर्वथा विनाशीक है जीवन विजलीके समान चंचल है और सब प्रकारकी संपदायभी पलभरमें नष्ट होने वाली हैं, यदि स्थिर है तो एक वचनही है ऐसा सब स्वीकार करते हैं । ऐसा समझकर हे मंत्रिन् सुमते मैंने जो वचन कहा है उस बचन पर तुझे भली भांति विचारकरना चाहिये जिससे कि संसारमें मेरा जीवन सार्थक समझा जावे निरर्थक नहीं । इसप्रकार जब महाराज श्रेणिकने कहा तब मतिसागर नामक मंत्री बोला, कि हे महाराज इस थोड़ी सी बातके विचारनमें आप क्यों चिंता करते हैं ? क्योंकि चिंता स्वर्गराज्यकी लक्ष्मी को विकारयुक्त बना सकती है फिर इस थोड़ीबिातके लिये चिंता करना क्या बड़ी बात हैं ? मैं अभी कुमार श्रेणिकको देशसे बाहिर निकाले देता हूं आप चिंता छोड़िये इस चिंतामें क्या रखखा है। मतिसागर मंत्रीकी अपने अनुकूल इस बातको सुनकर महाराज उपश्रेणिक मनमें अत्यंत प्रसन्न हुवे तथा उसमंत्रीसे यह बात भी कहते हुवे कि ___ हे मंत्रिन इसकायको तुम शीघ्र करो इसमें देरी करना ठीक नहीं है इसप्रकार महाराज उपश्रेणिककी आज्ञाको शिर पर धारणकर वह मति सागर नामका मंत्री कुमारश्रेणिकके समीपमें गया जिससमय वह कुमारके पास गया तो अपने पास बुद्धिमान मतिसागरमंत्री को आते देखकर अत्यंत चतुर कुमार श्रेणिकने उसका बड़ा भारी सन्मान किया और परम्परमें बड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेहसे उनदोंनोंने कुशल भी पूछा थोडी देर तक कुमार उपश्रेणिकके पास बैठिकर तथा कुमारको भलीभांति प्रणामकर मंत्री मतिसागरने यह बचन कहा कि हे कुमार आप मेरे मनोहर तथा हितकारी बचनको सुनिये आपके अपराधसे महाराज उपश्रेणिकको बड़ा भारी क्रोध उत्पन्न हुवा है वे आप पर सख्त नाराज है न जाने वे आप को क्या दंड न देवेंगे? और क्या अहित न करपाड़ेंगे क्यों कि राजाके कुपित होनेपर आपको यहां पर नहीं रहना चाहिये मंत्री मतिसागरके इसप्रकार अश्रत पूर्व बचन सुनकर कुमार श्रेणिकने उत्तर दिया कि ____ कृपकर आप बता मेरा क्या अपराध हुवा है इसप्रकार कुमारके बोलने पर मंत्री मतिसागरने उत्तरदिया कि ___जिससमय तुम सब कुमारोंके भोजन करते कुत्ते छोड़े गये थे और जिससमय समन्त पात्रोंको झूठा करदिया था उससमय तुमसे भिन्न सबकुमारतो भोजन छोड़कर चले गये थे और यह कहो तुन अकेले क्यों भोजन करते रहगये थे ? इसलिये ऐसा मालूम होता है कि महाराज की नाराजीका यही कारण हैं और यह बात ठीक भी है क्योंकि नीचताका कारण कुत्तोंसे छुवा हुवा भोजन अपवित्र भोजननही कहलाता हूं मंत्री मतिसागर की इसबातको सुनकर और कुछ हंसकर कुमारने मनाहर शब्दोंमें उत्तरादिया कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) __ हे मंत्रिन् कुत्ताओंको बुद्धिपूर्वक हटाकर मुझे यत्नसे भलेप्रकार रक्षित भोजन करना ही योग्य था इसीलिये मैंने ऐसा किया था क्योंकि जो कुमार अपने भोजनपात्रोंकी, न कुछ वलवान कुत्तोंसे भी रक्षा नहीं करसकते वे कुमार राजसंतान अर्थात् प्रजाकी क्या रक्षाकरसकते हैं । इसलिये जो आपने यह बात कही है कि तुमने कुत्तोंका छूवाहुवा भोजनकिया इसलिये महाराज तुम पर नाराज हैं यह बात तुम्हें बुद्धिमान नहीं सूचित करती। कुमारके इसप्रकार न्याययुक्त वचन सुनकर समस्तदुष्कार्योंका भलेप्रकार जानकार भी वह मंत्री फिर अतिशय बुद्धिमान श्रेणिक कुमारसे वोला। __ हे बुद्धिमान कुमार तुम्हें इससमय न्याय एवं अन्यायके विचारनेकी कोई आवश्यकता नहीं। महाराज का क्रोध इससमय अनिवार्य और आश्चर्यकारी है अब तुम यही काम करो कि थोड़े दिनके लिये इसदेशसे चलेजाओ और राजमंदिरमें न रहो क्योंकि यह नियम हैं कि संसारमें राजाके क्रोधके सामने, कुलीन भी नीच कुलमें उत्पन्न हुवा कहलाता है। नीतियुक्त अनीतियुक्त कहाजाता है । और पंडितभी बज्रमूर्ख कहाजाता है । प्यारे कुमार श्रेणिक । यदि तुम राज्य ही प्राप्तकरना चाहते हो तो न तो तुम्हें. देशसे अलगहोनेमें किसीबातका विचार करनाचाहिये, और न किसी प्रकारकी भावना ही करनी चाहिये किं तु जैसे वने वैसे इससमय शीघ्र ही इस देश से तुम्हें चलाजाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये । हे कुमार ! परदेशमें कुछदिन रहकर फिर तुम इसी देशमें आजाना पीछे राज्य आपको जरूर ही मिलेगा क्योंकि राज्य आपका ही है। ____ मंत्री मतिसागरके ऐसे कपटभरे वचन सुनकर, राजाका क्रोध परिणाममें दुःखदेनेवाला है इसवातको जानकर, और अपनी माता आदिको भी न पूछकर, अत्यंतदुःखित हो कुमार श्रेणिक राजग्रहनगरसे निकल पड़े। तथा महाराज उपश्रेणिक द्वारा भेजेहुवे रक्षाके बहानेसे गूढ़वेष धारणकरने वाले पांच हजार जासूस योधाओंके साथ साथ एकदम नगरसे बाहिर होगये । कुमारकी माता महाराणी इन्द्राणीके कानतक यहवात पहुंची कि कुमार श्रेणिकको देशनिकाला हुवा है सुनते ही वह इसप्रकार भयंकर रुदन करने लगी-हा पुत्र ! हा महाभाग ! हे कमलके समान नेत्रोंको धारणकरनेवाले! हा कामदेवके समान ! हा अत्यंत पुण्यात्मा ! हा अत्यंतशुभलक्षणोंको धारणकरनेवाले ! हा गजेन्द्रकी सूड़के समान लम्बे २ हाथाके धारक ।हा कोकिलके समान प्यारी वोलकि वोलनेवाले ! हा कमलके समान उत्तम मुखके धारक ! हा उत्तम एवं ऊंचे ललाटसे शोभित ! हा कामदेवके समान मनोहर शरीरके धारक ! हा कामदेवके समान विलासी । हा सुंदर ! हा शुभाकर ! हा नेत्रप्रिय ! हा संतोषके देनेवाले! हा शुभ! हा राज्यके धारणकरनेमें शूरवीर ! हा प्रिय! हा सुंदर आकृतिके धारणकरनेवाले! कुमार,मुझदुःखिनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माको छोड़कर तू कहां चलागया ? जो वन अनेकप्रकारके भयंकर सिंह व्याघ्रोंसे भराहुआ है उस बनमें तू कहांपर होगा। हाय पूर्वभवमें मैंने ऐसा कोनसा धोरपाप किया था ? जिससे इस भवमें मुझे ऐसे उत्तम पुत्ररूपी रत्नका वियोग सहना पड़ा। हाय क्या पूर्वभवमें मैंने किसी मातासे पुत्रका वियोग करदिया था ? । अथवा श्रीजिनेंद्र भगवानकी आज्ञाका मैंने उल्लंघनकिया था ?। वा भैने अपने शीलका मर्दन किया थाव्यभिचारका आश्रय किया था। अथवा मैंने किसी तालावका पुल नष्टकिया था। वा मलिनजलसे मैंने वस्त्र धोये थे । किंवा अग्निसे मैंने किसी उत्तम वनको भम्म किया था ? वा मैंने ब्रतका भंग करदिया था ? अथवा मैंने रातमें भोजन किया था ? अथवा मुझसे किसी दिगम्बर मुनिकी निंदा होगई थी ? किं वा मैंने किसीसे द्रोह किया था? वा परके बचनकी मैंने अवज्ञाकरदीथी ? अथवा मैंने इसमवमें पाप किया है ? जिससे मुझै ऐसे उत्तम पुत्ररत्नसे जुदा होना पड़ा। इसप्रकार वारंवार कुमार श्रेणिककी माता इन्द्राणी का करुणाजनक भयंकर रुदन सुनकर समस्त नगरमें हाहाकार मचगया । समस्त पुरवासी लोग करुणा जनकस्वरसे कुमार श्रेणिककोलिये रोनेलगे और परस्परमें कहने लगे किं ____ राजाने जो कुमारको नगरसे निकालदिया है सो अज्ञानसे ही निकाला है क्योंकि बड़े खेदकी बात है कि कुमार श्रेणिक | तो अद्वितीयभाग्यवान सर्वथा राज्यके योग्य, अद्वितीय दाता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) और भोक्ता था विना विचारे महाराज उपश्रेणिकने उसै कैसे नगरसे निकाल दिया ? इसप्रकार कुमार श्रेणिकके नगरसे चले जाने पर अत्यंत उन्नत कोलाहलयुक्तभी नगर शांत होगया । कुमारके शोकसे समस्तपुरवासी दुःखसागरमें गोता लगाने लगे। वह कोनसा दुःख न था जो कुमारके वियोग में पुरवासियों को न सहना पड़ा हो । इधर पुरतो कुमारके शोक सागरमें मग्न रहा उधर कुमार श्रेणिक मार्गमें जाते २ कुछ दूर चलकर अत्यंत दुःखित, एवं अपमान जन्य दुःखके प्रवाहसे जिनका मुखफीका हो गया है, माको स्मरण करने लगे । तथा और भी आगे कुछ धीरे धीरे चलकर बुद्धिमान कुमार श्रेणिक, मयूरशब्दोंसे शोभित किसी निर्जन अटवी में जा पहुंचे। वहांसे अनेकप्रकारके धान्योंसे शोभित, चित्र विचित्र ध्वजाओंसे मंडित, एवं राजमंदिर से भी शोभित कोई मनोहर नंदिग्राम उन्हें दीख पड़ा । महाधीर वीर कुमार धीरे धीरे उसी नगरकी ओर रवाने होकर उसनगर के द्वार पर आ पहुँचे । द्वारकी अपूर्व शोभा निरखते हुवे वहां पर ठहर गये पीछे उसनगर में प्रवेशकर कुमार श्रेणिक अनेकप्रकार के माला घंटा तोरण आदिकर शोभित, अत्यंतमनोहर, श्रेष्टसंपत्ति के धारक राजमंदिरके पास पहुंचे और वहां उन्होंने अत्यंतवृद्ध नानाप्रकार के गुणोंकरमंडित, मनोहर, अतिशय प्रीतिकरनेवाले, उत्कृष्ट, किसी इन्द्रदत्तनामके सेठिको देखा और उससे कहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) श्रेष्ठिन आप यहां न वैठिये मेरे साथ आइये यहांपर कोई नदिग्रामका स्वामी ब्राह्मण निश्चयसे रहता है । हमदोनों भोजनकी प्राप्तिकेलिये भ्रमण कररहे हैं आइये उसके पास चल वह हमै अवश्य भोजनादि देगा। ऐसा कहकर कुमार श्रेणिक और सेठि इन्द्रदत्त दोनों उसन्ब्राह्मणके पासगये और उससे कहा कि हे विप्र नंदिनाथ तू महाराज उपश्रेणिकके सन्मानका पात्र राज्यसेवाके योग्य है और तू राज्यकार्यकेलिये महाराज द्वारा दिये हुवे मालका मालिक है इसलिये हमदोनोंको पीनेकेलिये कुछ जल और भोजनकोलिये कुछ धान्यदे क्योंकि राज्य के कार्यमें चतुर हम दोनों राजदूत हैं और भ्रमण करते २ यहांपर आपहुंचे हैं । कुमार श्रेणिकके इसप्रकार वचन सुनकर क्रोध से नेत्रों को लाल करता हुवा एवं सदा परके ठगनेमें तत्पर उस ब्राह्मणने क्रोधसे उत्तर दिया । कहांके राजसेवक ? कोंन ? किसकारण से कहांसे यहां आगये ? मैं तुम्हें पीनेकेलिये पानीतक न दूंगा भोजनादिककी तो वातही क्या है जाओ २ शाघ्रही तुम मेरे घर से चले जाओ जरा भी तुम यहांपर मत ठहरो यदि तुम राजसेवक भी हो तोभी मुझे कोई परवा नहीं । ब्राह्मणके इसप्रकार मूर्खता भेरे वचन सुनकर कोपसे जिनका गात्र कपरहा है कुमार श्रेणिकने कहा- अरे दयाहीन भिक्षुक हम कौन हैं ? तुझे इससमय कुछभी मालूम नही तुझे पीछे मालूम होगा । तेरे ऐसे दया रहित वचनों पर मैं पीछे विचार करूंगा जो कुछ तुझे उससमय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maaamanaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaamwww - दंड दियाजायगा इससमय उसके कहनेकी विशेष आवश्यकता नहीं । ऐसा कहकर कुमार श्रेणिक और सेठि इन्द्रदत्त जहां बौद्धसन्यासी रहते थे वहां गये और वहांपर उन्होंने रक्तवस्त्रोंको धारणकरनेवाले अनेक बौद्धसन्यासियोंको देखा । कुमार श्रेणिकके लक्षणोंको राजाके योग्य देखकर, यह राजकुमार है इस बातको जानकर और यह शीघ्रही राजा होगा यह भी समझ कर उनमेंसे एक सन्यासीने राजकुमार श्रेणिकसे पूछा। हे मगध देशके स्वामी महाराज उपश्रेणिकके पुत्र, बुद्धिमान कुमार श्रेणिक तुम कहां जा रहे हो ? अकेले यहांपर आप कैसे आये ?। कुमारने उत्तर दिया राजाने कोपकर हमे देशसे निकाल दिया है। फिर बौद्धसन्यासियोंके आचार्यने कहा हे कुमार अब आप पहले भोजनादि कीजिये फिर मेरे हितकर वचनोंको सुनिये । कुमार ! आप कुछ दिनबाद नियमसे मगध देशके राजा होवेंगे इसमें आप जरा भी संदेह न करें । मेरे बचनों पर आप विश्वास कीजिये और आप सुखकी प्राप्तिके लिये शीघ्रही बौद्ध धर्मको ग्रहण कीजिये । इसबौद्ध धर्मकी कृपासे ही आपको निस्संदेह राज्यकी प्राप्ति होगी। विश्वास कीजिये व्रतोंकें करनेसे तथा उपवासोंके आचरण करनेसे हमारे समस्त कार्योंकी सिद्धि होती हैं हमारा यह उपदेश है कि आप राज्यकी प्राप्ति के लिये निश्चल रीतिसे बौद्ध धर्मकोधारण करें । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmwwwwwwwwwwwww हे कुमार किसीसमय जब संसारमें यह प्रश्न उठा था कि धर्म क्या है ? उससमय समस्त विज्ञानके पारगामी महादेव भगवान बुद्धने यह वचन कहा था कि हे चतुराय, जो धर्म वास्तविकरीतिसे सच्चे आत्माके स्वरूपको वतलाने वाला है, और समस्त पदार्थोके क्षणिकत्वको समझानेवाला है वही धर्म वास्तविक धर्म है। एवं वही सेवन करने योग्य है उससे भिन्न कोई भी धर्म सेवने योग्य नहीं। हे राजकुमार विज्ञान वेदना संस्कार रूप नाम ये पांच प्रकारकी संज्ञायें ही तीनों लोकमें दुःख स्वरूप हैं पांचप्रकारके विज्ञान आदिक मार्गसमुदाय और मोक्ष ये तत्त्व हैं अष्टांग मोक्षकी प्राप्ति केलिये इन्ही तत्त्वोंको समझना चाहिये । यह समस्तलोक क्षणभंगुर नाशमान है, कोई पदार्थ स्थिर नहीं । चित्त में जो पदार्थ सदाकाल रहनेवाला नित्य मालूम पड़ता है वह स्वप्नके समान भ्रम स्वरूप है। तथा जो ज्ञान समस्तप्रकार की कल्पनाओंसे रहित निर्धात अर्थात् भ्रम भिन्न और निर्विकल्पक हो, वही प्रमाण है किंतु सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है वह मृगतृष्णाके समान भ्रम जनक ही है । जिन तत्त्वोंका वर्णन बौद्ध धर्ममें किया है वे ही वास्तविक तत्त्व हैं। इसलिये यदि तुम अपने पिताके राज्यकी प्राप्तिके लिये उत्सुक हो--मगध देशके राजा बनना चाहते हो तो आप समस्त इष्ट पदार्थो का सिद्ध करनेवाला बौद्धधर्म शीघ्रही ग्रहण करें। हे कुमार! यदि आप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) को राजा बनने की इच्छा है तो आप बौद्ध धर्मको ही अपना मित्र बनायें क्योंकि इस धर्मसे बढ़कर दुनियां में दूसरा कोई भी मित्र नहीं है । बौद्धाचार्य के इनबचनोंने कुमार श्रेणिकके पवित्र I 1 हृदयपर पूरा प्रभाव जमादिया, कुमार श्रेणिकने बौद्धाचार्यके कथनानुसार बौद्धधर्म धारण किया एवं उसबौद्धाचार्यके चरणोंको भक्ति पूर्वक नमस्कार कर वौद्ध धर्मके पक्के अनुयायी वन गये । अतिशय निर्मल चित्तके धारक कुमार श्रेणिकने उसी बौद्धाश्रममें इन्द्रदत्त सेठिके साथ साथ स्नान अन्न पानादिसे मार्गकी थकावट दूरकी । तथा राज्यकी ओरसे जो उनका अपमान हुवा था और उस अपमानसे जो उनके चित्तपर आघात हुवा था उस आघातको भी वे भूलने लगे और उस बौद्धाचार्य के साथ कुछ दिन पर्यंत वहीं पर रहे । अनंतर इसके अब यहांपर अधिक रहना ठीक नहीं यह विचारकर, अतिशय हर्षित चित्त, बौद्धधर्मके सच्चे अनुयायी, कुमार श्रेणिक उसस्थान से चले । यह समाचार सेठि इन्द्रदत्त ने भी सुना सेठि इंद्रदत्त भी यह जानकर कि कुमार श्रेणिक अत्यंत पुण्यात्मा हैं कुमारके पीछे पीछे चल दिये। इसप्रकार वनमार्गों को देखते हुवे, अनेकप्रकारकी पर्वत गुफाओंको निहारते हुवे, मत्तमयूरोंके नृत्यको आनंदपूर्वक देखते हुवे वे दोनों महादय जब कुछ थकगये तब कुमार श्रेणिकने अति मधुर वाणी से सेठि इन्द्रदत्त से कहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) "हे श्रष्ठिन ( मातुल ) चलते चलते इस मार्गमें मैं और आप थकगये हैं इसलिये चलिये जिहारूपी रथपर चढ़कर चल। कुमारकी इस आकस्मिक बातको सुनकर अचंभे में पड़कर सेठि इंद्रदत्तने विचारा कि संसारमें कोई जिहारथ है ? यहबात न तो हमने आजतक सुनी और न साक्षात् जिहारूपी रथ ही देखा मालूम होता है यह कुमार कोई पागल मनुष्य है ऐसाः थोड़ी देर तक विचारकर सेठि इन्द्रदत्त चुप होगये उन्होंने कुमार श्रेणिकसे बात चीत करना भी बंद करदिया एवं दोनों चुपचापही आगेको चलने लगे। थोड़ी दूर आगे जाकर, अपने निर्मल जलसे पथिकों के मन तृप्त करनेवाली, अत्यंत निर्मल जलसे भरी हुई एक उत्तम नदी उन दोनोने देखी, नदीको देखते ही कुमार श्रेणिक ने तो अपने जूते पहिनकर नदीमें प्रवेश किया । और सेठि इन्द्रदत्तने पैरोसे दोनों जूतोंको पहिले उतारकर हाथ में लेलिया वाद वे नदीमें घुसे । मगध देशके कुमार श्रेणिकको जूते पहिनकर जब उन्होंने नदीमें प्रवेश करते हुवे देखा तो सेठि इन्द्रदत्त और भी अचंभा करनेलगे और उनको इसबात का पक्का निश्चय होगया कि कुमार श्रेणिक ज़रूर कोई पागल पुरुष है । तथा कुमार श्रेणिकके कामसे उन्होने अपने मनमें यह विचार किया कि अन्यबुद्धिमान पुरुष तो यह काम करते है कि जलमें जूता उतारकर घुसते हैं किंतु कुमार श्रेणिकने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) जूता पहिने ही नदीमें प्रवेश किया मालूम होता है कि यह साधारण मूर्ख नहीं वड़ा भारी मूर्ख है - इसप्रकार विचार करने २ सेठि इन्द्रदत्त फिर कुमार श्रेणिक के पीछे पीछे आगे चले । कुछ दूर चलकर उन्होंने अत्यंत शीतल छाया युक्त एक वृक्ष देखा मार्गमें धूप आदिसे अतिशय श्रांत कुमार श्रेणिक और सेठि इन्द्रदत्त दोनो ही उस वृक्षके पांस पहुंचे । कुमार श्रेणिक तो उस वृक्षकी छाया में अपने शिरपर छत्री तानकर बैठे और सेठि इंद्रदत्त त्री बंदकर । कुमारको छत्री ताने हुवे बैठा देखकर सेठि इंद्रदत्त फिर भी मनमें गहरा विचार करनेलगे कि संसारमें और और मनुष्य तो छत्रीको धूपसे बचनेके लिये शिरपर लगाते हैं किंतु यह कुमार अत्यंत शीतल वृक्षकी छायामें भी छत्री लगाये बैठा है यह तो बड़ा मूर्ख मालून पड़ता है ॥ इसप्रकार विचार करते करते फिरभी सेठि इन्द्रदत्त कमारके साथ - आगे चले आगे चलकर उन्होंने अनेकप्रकास्के उत्तमाधमनुष्योंसे व्याप्त, अनेकप्रकारके हाथी घोड़ा आदि पशुओसे भराहुवा अतिशय मनोहर, एक नगर देखा । नगरको देखकर कुमारश्रेणिकने सेठि इन्द्रत्तसे पूछा कि हे मामा कृपाकर कहैं यह उत्तम नगर वसाहुवा है कि उजड़ाहुवा ? कुमारके इन बचनोंको सुनकर सेठि इन्द्रदत्तने उत्तर नहीं दिया किंतु अति शय चतुर कुमारोणिक और इन्द्रदत्त फिरभी आगेको चलदिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आगे कछही दूरजाकर उन्होंने एक अत्यंतसुंदर पुरवासी मनुष्य अपनी स्त्रीको मारामार मारते हुवे देखा देखकर फिरि कुमारश्रेणिकने सेठि इन्द्रदत्तसे प्रश्नकिया कि हेष्टिन बताइये कि जिसस्त्रीको यह सुंदरमनुष्य माररहा है वह स्त्री बंधीहुई है अथवा खुलीहुई कमारके इसप्रकारके वचन सुनकर इन्द्रदत्त ने विचारा कि यह कुमार अवश्य पागल है इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं। ____इसप्रकार अपने मनमें कुमारके पागलपनेका दृढविश्वास कर फिरभी दोनों आगेको बढ़े आगे चलते चलते उन्होंने जिसको मनुष्य जलानेकेलिये लेजारहथे एक मरे हुवे मनुष्यको देखा। मृतमनुष्यको देखकर फिरभी कुमारश्रेणिकको शंकाहुई और शीघ्रही उन्होंने सेठि इद्रदत्तसे धरपूछा कि हेमाम मुझै शीघ्र वतावें कि यह मुर्दा आज मरा है कि पहिले का मराहुवा है। आगे बढ़कर कुमार श्रेणिकने भलेप्रकार पके हुवे फलों से रम्य, फलोंकी उत्तमसुगंधिसे जिसके ऊपर भोरा गुंजार शब्द कर रहे हैं। जो जलसे भीगे हुवे फलोंसे नीचेको नब रहा है एक उत्तम शालिक्षेत्र देखा। शालिक्षेत्र देखकर कुमार ने फिर सेठि इन्द्रदतसे प्रश्न किया कि हेमाम शीघू बताइये इसक्षेत्रका मालिक इसक्षेत्रके फलोंको खावेगा कि खाचुका ? । आगे चलकर किसी एक नवीन क्षेत्रमै हल चलाता हुवा एक किसान मिला उसको देखकर फिर कुमार श्रेणिकने प्रश्न किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि हे श्रेष्ठिन् जल्दी वताइये इस हलपर हलके स्वामी कितने है । तथा आगे बढ़कर एक वदरी वृक्ष, दृष्टि गोचर हुवा उसै देखकर फिर भी कमारने सेठि इन्द्रदत्तसे पछा कि हे मातुल कृपाकर मुझै बताइये कि इस वेरिया के पेड़में कितने कांटे हैं। इसप्रकार कुमार श्रेणिक तथा सेठि इद्रदत्त दोनों जनों की जिह्वारथ, जूता, छत्री, ग्रामका निश्चय, स्त्री, मुर्दा, शालिक्षेत्र, हल, कांटेके विषयमें बातचीत हुईं । पुण्यके फलसें अत्यंत विशदबुद्धिके धारक कुमार श्रेणिकने अपने स्नेह युक्त बचनों से, शब्दोके अर्थको भली भांति नहीं समझने वाले भी सेठि इन्द्रदत्तके कानोंको तृप्तकर दिया । और उत्तम बुद्धिको प्रकट करनेवाले बचन कहे । तथा नानाप्रकारकी शास्त्र कथाओंमें प्रवीण, चंद्रमाके समान शोभा को धारण करनेवाला, तेजस्वी, लक्ष्मीवान, अपने पुण्यसे जितेन्द्रिय पुरुषोंको भी अपने अधीन करनेवाला, पृथ्वीमें सुंदर, कुमार श्रेणिकने सेठि इन्द्रदत्तके साथ उत्तमोत्तम तलावोंसे शोभित वेणपद्म नगरमें प्रवेश किया। देखो कर्मका फल कहां तो मगधदेश? कहांराजगृहनगर ? और नंदिग्राम कहां ! तथा कहां बौद्धमतका सेवन ? और कहां सेठि इन्द्रदत्तके साथ मित्रता ! संसारमें कर्मोंका फल विचित्र और अलक्ष्य है, किंतु यह नियम है कि जीवोंके समस्त अशुभ कार्योका नाश धर्मसे ही होता है, धर्मसे ही शुभ कर्मोको प्राप्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) होता है । संसारमें धर्मसे प्रिय वस्तुओं का समागम होता है इसलिये जिन मनुष्योंकी उपर्युक्त बस्तुओंके पानेकी अभिलाषा है उन्हें चाहिये कि वे सदा अपनी बुद्धिको धर्ममें ही लगावें इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनेवाले श्रीपद्मनाभ तीर्थंकरके जीव श्रीमहाराज श्रेणिक चरित्रमें कुमार श्रेणिकका राजग्रनगर से निष्कासन कहनेवाला तीसरा सर्ग समाप्त हुवा अनंतर इसके जिससमय सेठि इंद्रदत्त वेणपद्म नगरके तलाबके पास पहुंचे तो वहीं से उन्होंने वेणपद्म नगरको देखा । तथा जिस वेणपद्म नगरकी स्त्रियोंके मुखचंद्रमा मनोहर, कामीजनोंके मन तृप्त करनवाले थे, उनकी मनोहरताके सामने चंद्रमा अपने को कुछ भी मनोहर नही मानता था और लज्जित हो रात दिन जहां तहां घूमता फिरता था । तथा जिसनगर के निवासी मनुष्य सदा पुण्यकर्ममें तत्पर, दानी, भोगी, धीर वीर, और जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा के भलीभांति पालन करने वाले थे, ऐसे उस सर्वोत्तम नगरकी शोभा देखकर वे अति प्रसन्न हुवे | और कुमार श्रोणिकसे कहने लगे हे कुमार इसनगरमें आप क्या करेंगे ? कहां पर निवास करेंगे ? मुझे कहैं । इंद्रदत्तकी यहबात सुनकर कुमार श्रेणिकने उत्तर दिया कि हे वणिकस्वामी इन्द्रदत्त में भांति भांति के कमलोंसे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmarrinmarathi ~ ~~ शोभित इसी तलाबके किनारे रहूंगा आप अपने मनोहरपुरमें ज़ाकर निवास करें। ___कुमारके मुखसे ऐसे उत्तम बचन सुनकर सेठि इन्द्रदत्तने फिर कहा कि हे राजकुमार यदि आप यहां रहना चाहते हैं तो मेरा एक निवेदन है, वह यही है कि जब तक मेरी आज्ञा न होबे आप.इसतालाबको छोड़कर कहीं न जाय । इन्द्रदत्तके उसप्रकारके बचनोंको सुनकर कुमार श्रेणिक तो तालाबके किनारे बैठि गये और सेठि इन्द्रदत्तने अपने नगर की ओर गमन किया । ज्योंही इंद्रदत्त अपने घरमें पहुंचे और जिससमय वे अपने कुटुम्बियोंसे मिले तो उनको अति आनंद हुवा, मारे आनंदके उनके दोनो नेत्र फूलगये, अंगरो मांचित होगया और मुख भी कांति मान होगया । तथा जिससमय स्त्री पुत्र पुत्रियोंने उनका सन्मान किया और प्रेम की दृष्टिसे देखा तो उन्होने पूर्वोपाजित धर्मके प्रभावसे अपना जन्म सार्थक जाना और अपनेको कृतकृत्य समझा। ____ महोदय सेठि इंद्रदत्त के पीन एवं उन्नत स्तानोंसे शोभित, चंद्रमुखी कोकिलाके समान मधुर बोलनेवाली--पिकनी नंदश्री नामकी कन्याथी । उसकन्याने अपने गनोहर कंठसे कोकिलाको जीत लिया था वह मुखसे चंद्रमाको नेत्रोंसे कमल पत्रको और हाथसे कमल पल्लवको जीतनेवाली थी । उसके केशोंके सामने मनोहर नीलमाणभी तुच्छ मालूम पड़ती थी गतिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) वह हंसिनीकी चाल नाची करनेवाली थी । एवं स्तनोंसे उसने सुवर्णकलशों को नितवोंसे उत्तमोशिलाको, रूपसे कामदेवकी स्त्री रतिको निस्कृत कर दिया था । जिससमय इस कन्याने अपने पिता इन्द्रदत्तको देखा तो शीघ्रही उसने प्रमाण पूर्वक कुशल क्षेम पूछी । तथा कुशल क्षेम पूछनेके वाद अपनी मनोहर वाणी से यह कहा कि हे पूज्यपिता आपके साथ कोई भी उत्तम बुद्धिमान मनुष्य आयाहुवा नहीं दीखता । परदेशसे आप किसी मनुष्यके साथ२ आये हैं अथवा अकेले ? पुत्री के ऐसे बचन सुनकर एवं उन बचनोंके तात्पर्य को भी भलीभांति समझकर सेठि इन्द्रदत्तने हर्षपूर्वक उत्तर दिया कि हे पुत्री मेरे साथ एकमनुष्य अवश्य आया है और वह अत्यंतरूपवान युवा गुणी मनोहर तेजस्वी और बुद्धिमान है। तथा वह मनुष्य अपनेको मगध देशके स्वामी महाराज उपश्रेणिकका पुत्र कुमार श्रेणिक वतलाता है यद्यपि वह तेरेलिये सर्वथा वरके योग्य है तथापि उसमें एक बड़ाभारी दोष है कि वह विचार रहित वचन बोलनेके कारण मूर्ख मालूम पड़ता है । ध्यान पूर्वक पिताके इसप्रकार के बचन सुनकर मनोहरांगी, दातोंकी दीप्तिसे सर्वत्र प्रकाश करनेवाली, कठिनस्तनी नताङ्गी कुमारी नंदश्रीने कहा कि हे पिता कृपाकर आप मुझसे कहैं जो मनुष्य आपके साथ आया है उसकी आपने क्या क्या चेष्टा देखी है ? उसकी उम्र क्या है ? और किसलिये वह यहां पर आया है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रीके इसप्रकार बचन सुनकर सेठि इन्द्रदत्तने कहा कि हे पुत्रि यदि तेरी लालसा उसके विषयमें कुछ जानने की है तो मैं उस मनुष्यके सब वृत्तांतको कहता हूं तू ध्यान पूर्वक सुन--मैं लौटकर घर आरहाथा वीचमार्गमें नंदिग्रामके समीप मेरी उससे भेंट हुई उसीसमयसे उसने मुझे मामा वनालिया और मार्गमे भी मामा कहकरही मुझे पुकारा सो यह वता कि कौंन ? और कहां का रहने वाला तो वह ? और मैं कहांके रहने वाला ? फिर उसने मुझे मामा कहकर क्यों पुकारा ? । दूसरे कुछ चलकर फिर उसने कहा कि हम दोनों थकगये हैं इसलिये चलो अब जिह्वारूपी रथपर सवार होकर गमन करे हे पुत्रि यह बात बिलकुल उसने मिथ्या कही थी क्योंकि जिहारथ संसारमें कोई है यह बात आजतक न सुनी न देखी । पुनः कुछ चलकर एक नदी पड़ी उसमें इसने जूते पहिन कर प्रवेश किया। तथा अत्यंत शीतल वृक्षं की छायाके नीचे यह छत्री तानकर बैठा । तथा आगे चलकर एक अनेकप्रकारके मनोहर घरोंसे शोभित, मनुष्य एवं हाथी घोड़ा आदि पशुओंसे व्याप्त, एक नगर पड़ा उस नगरको देख कर इसने मुझसे पूछा कि हे मातुल यह नगर उजड़ा हुवा है कि बसा हुवा ? हे पुत्रि यह प्रश्न भी उसका मनको आनंद देनेवाला नहीं होसकता। आगे चलकर मार्गमें कोई एक मनुष्य किसी स्त्री को माररहा था उस स्त्री को देखकर फिर उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे पूछा कि हे मामा यह स्त्री बंधी हुई है कि खुली हुई है। उसीप्रकार आगे चलकर एक मरा हुवा मनुष्य मिला उसे देखकर फिर उसने पूछा कि यह आज मरा है अथवा पहिलेका ही मरा हुवा है ? । आगे चलकर अतिशय पके हुवे उत्तम धान्योसे व्याप्त एक क्षेत्र पड़ा उसे देखकर उसने यह कहा कि हे मामा इस खेतका मालिक इसके फलोंको खावेगा या खाचुका ? । इसोप्रकार हल चलाते हुवे किसी एक किसान को देखकर उसने पूछा कि इस हलपर हलके चलाने वाले कितने मनुष्य हैं ? । तथा आगे चलकर एक बेरीका वृक्ष पड़ा उसको देखकर उसने यह कहा कि हे मातुल इसमें कितने कांटे हैं इत्यादि उसके द्वाग किये हुवे अयोग्य, पूर्वापर विचार रहित प्रश्नोसे मुझै पूर्ण विश्वास है कि वह कुमार अवश्य पागल है। पिताके मुखसे कुमार श्रेणिक द्वारा की हुई चेष्टाओंको सुनकर बुद्धिमती नंदश्रीने जवाव दिया कि हे पिता उस कुमार को,जो उपर्युक्त चेष्टाओसे आपने पागल समझ रक्खा है सो वह कुमार पागल नहीं है, किंतु वह अत्यंत चतुर एवं अनेक कलाओंमें निपुण है ऐसा नित्संशय समझिये क्योंकि-जो उस कुमारने आपको मामा कहकर पुकारा था उसका मतलब यह था कि संसारमें भानजा अत्यंत माननीय एवं प्रिय होता है इसलिये मामाके कहनेसे तो उस कुमारने आरके प्रेमकी आकांक्षाकी थी। तथा निहारथका अर्थ कथा कौतूहल है। कुमारने जो जिहारथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) 1 कहा था वह भी उसका कहना वहुतही उत्तम था क्योंकि जिससमय सज्जन पुरुष मार्गमें थक जाते हैं उससमय वे उस थकावटको अनेक प्रकारके कथा कौतूहलोंसे दूर करते हैं । कुमारका लक्ष्य भी उससमय थकावटके दूर करनेकेलियेही था । तथा जो कुमार नदीके जलमें जूते पहनकर घुसा था वह कामभी उसका एक वड़ी भारी बुद्धिमानी का था क्योंकि जलके भीतर बहुत से कंटक एवं पत्थरोंके टुकड़े पड़े रहते हैं, सर्प आदिक जीव भी रहते हैं । यदि जलमें जूता पहिनकर प्रवेश न किया जाय तो कंटक एवं पत्थरोंके टुकड़ों के लगजानेका भयरहता है । सर्प आदि जीवोंके काटने का भी भयरहता है । इसलिये कुमारका जल में जूता पहनकर घुसना सर्वथा योग्यही था । तथा हे पिता ! कुमार, वृक्षकी छायामें जो छत्री लगाकर बैठा था उसका वह कार्य भी एक बड़ी भारी बुद्धिमानीको प्रकट करने वाला था क्योंकि वृक्ष की छाया में छत्रीलगाकर न बैठे जाने पर पक्षी आदि जीवोंकी वीट गिरनेकी संभावना रहती है इसलिये वृक्षकी छायामें छत्री लगाकर बैठना भी कुमारका सर्वथा योग्य था । तथा अति मनोहर नगरको देखकर कुमारने जो आपसे यह प्रश्नकिया था कि 'हे मातुल यह नगर उजड़ा हुवा है कि बसा हुवा ? उसका आशय भी बहुत दूरतक था क्योंकि भलेप्रकार वसा हुवा नगर वहीं कहाजाता है, जो नगर उत्तम धर्मात्मा मनुष्योंसे जिन प्रतिनिम्ब, जिन चैत्यालय, एवं उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीश्वरोंसे अच्छतरह परिपूर्ण हो । किंतु उससे भिन्न नगर उजड़ा हुवा कहा जाता है। इसलिये यह नगर वसाहुवा है अथवा उजड़ा हुवा' ? यह प्रश्नभी कुमारका विचार परिपूर्ण था। तथा हे पिता स्त्रीको मारते हुवे किसी पुरुषको देखकर जो कुमारने. 'यह स्त्री बंधी हुई है अथवा खुली हुई है ? आपसे यह प्रश्न किया था वह प्रश्नभी उसका अत्युत्तम प्रश्न था। क्योंकि बंधी हुई स्त्री विवाहिता कही जाती हैं और छूटी हुई का नाम अविवाहिता है । कुमारका प्रश्न भी इसी आशयको लेकर था कि यह स्त्री इसपुरुषकी विवाहिता है अथवा अविवाहिता हैं ? अतः कुमारका यह प्रश्नभी उसकी चतुरताको ज़ाहिर करता है । तथा मरे मनुप्यको देख कर जो कुमारने यह प्रश्न किया था कि "यह मराहुवा मनुष्य आजका मरा हुवा अथवा पहिलेका मराहुवा है? यह प्रश्नभी उसका वड़ी चतुरता परिपूर्ण था । क्योंकि हे पूज्य पिता ! जो मनुष्य धर्मात्मा, दयावान. ज्ञानवान् विनयसे उत्तमपत्रोंको दान देनेवाला. एवं समस्त जगतमें यशस्वी होता है और वह मरजाता है उसको तो हालका मराहुवा कहते हैं। और इससे भिन्न जो मनुष्य दानरहित कामी पापी होता है उसको संसारमें पहिलेसे ही मरा हुआ कहते हैं। कुमारका यह जो प्रश्न था कि “यह मराहुवा मनुष्य हालका मराहुवा हैं अथवा पहिलेका ! वह प्रश्न भी कुमारको अत्यंत बुद्धिमान एवं चतुर वतलाता है" तथा हे पिता कमारने धान्यपरिपूर्ण खेतको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) देखकर आपसे जो यह पूछा था कि इसक्षेत्रके स्वामीने इस क्षेत्र धान्यका उपभोग कर लिया है अथवा करेगा ? वह प्रश्नभी कुमारका बड़ी बुद्धिमानीका था। क्योंकि कर्ज लेकर जो खेत वोया जाता है उसके धान्यका तो पहिले ही उपभोग करलिया जाता है। इसलिये वह भुक्त कहाजाता है । और जो खेत विना कर्ज के वोया जाता है उस खेत के धान्यको उस खेतका स्वामी भोगेगा ऐसा कहा जाता है । कुमारके प्रश्नका भी यही आशय था कि यह खेत कर्जलकर कोया गया है अथवा विनाकर्ज के ? इसलिये इस प्रश्नसेभी कुमारकी बुद्धिमानी वचनागोचर जान पड़ती है । तथा हे तात कुमारश्रेणिकने जो यह प्रश्न किया था कि हे मातुल इस वेरीके वृक्षके ऊपर कितने कांटे हैं ? सो उसका आशय यह है कि कांटे दो प्रकार के होते हैं एक सीधे दूसरे टेड़े । उसीप्रकार दुजनों के भी वचन होते हैं इसलिये यह पश्चमी कुमारश्रेणिका सर्वथा सार्थक ही था । इसलिये उक्त प्रश्नोंसे कुमार श्रेणिक अत्यंत निपुण, विद्वानोंके मनोंको हरण करनेवाला, समस्तकलाओं में प्रवीण, और अनेकप्रकार के शास्त्रों में चतुर है ऐसा समझना चाहिये । हे तात आप धैर्यरक्खें कुमार श्रेणिकको बुद्धिकी परीक्षा मैं और भी करलेती हूं किंतु कृपाकर आप मुझे यह बतावें — अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम विचारोंसे परिपूर्ण, सर्वोत्तम गुणोंकों मंदिर, वह कुमार ठहरा कहां है नंदी के इसप्रकार संतोष भरे बचन सुनकर इंद्रदत्तने उत्तर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) दिया है सुते ! जिसकुमारके विषय में तूने मुझे पूछा है अतिशय रूपवान एवं युवा वह कुमार इसनगरके तलाब के किनारे पर ठहरा हुवा है । मुखसे ऐसे वचन सुनतेही कुमारको ताला - के किनारे ठहरा हुवा जानकर नंदश्री शीघ्रही भगती भगती जो पर मनुष्य के मनके अभिप्रायों के जाननेमें अतिशय प्रवीण थी अपनी प्यारी सखी निपुणमती के पासगई । और निपुणमती के पास पहुंचकर यह कहा कि हे लम्बे लम्बे नखोंको धारण करने वाली प्रियसखी निगुणमती ! जहांपर अत्यंत रूपवान कुमार श्रेणिक वैठे हैं वहांपर तू शोघ्र जा । और उनको आनंद पूर्वक यहां लिवाले आ । प्रियतमा सखी ! इसबात में जरा विलम्ब न हो । कुमारी नंदश्री की यह बात सुनकर प्रथमतो निपुणमती सखीने खूब अपना शृंगार किया । पश्चात् वह न खमे तेलभरकर कुमारीकी आज्ञा नुसार जिसस्थानपर कुमार श्रमिक विराजमानथे वहां पर गई । वहां कुमारको बैठे हुवे देखकर एवं उनके शरीरकी अपूर्व शोभाको निहारकर उसने अति मधुर वाणी से कुमारसे कहा हे कुमार आप प्रसन्न तो हैं ? क्या पूर्णचंद्रमा के समान मुखको धारण करनेवाले आपही सेठि इंद्रदत्त के साथ आये हैं ? | 1 निपुणमतीके इसप्रकार चित्ताकर्षक बचन सुन कुमार चुप न रहसके | उन्होने शीघ्र ही उत्तर दिया कि हे चन्द्रवदनी ! आवले ! मैं ही सेठि इंन्द्रदत्त के साथ आया हूं जो कुछ काम होवे वेरोकटोक आप कहैं और किसी बातका विचार न करें । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारके इसप्रकार आनंद प्रद एवं मनोहर बचन सुन निपुणमती ने उत्तर दिया हे कुमार जिस सेठि इन्द्रदत्तके साथ आप आये हैं उसी सेठिको अपने रूपसे रतिको भी तिरस्कार करनेवाली सर्वोत्तम नंदनी नामकी पुत्री है। उस पुत्रीका कोठभाग, दोनों म्तनोंके भारसे अत्यंत कृश है। अतिशय कृश काटभागको रक्षार्थ उसके दो स्थून नितम्ब हैं. जोकि अत्यंत मनोहर हैं। भाते भांतिके कौशलों से अनेक स्त्रियांका विधाता ब्रह्माभी इस नंदश्रीकी रूस आदि संपदा देखकर इसके समान दूसरी किसी भी स्त्री को उत्तम नहीं मानता है। उसका मुख कामी जनाके चित्तरूपी रात्रिविकासी कमलोंको विकास करने वाला एवं समस्त अंधकारके नाश करने वाला पूर्णचंद्रमा है और वह अतिशय देदीप्यमान नखोंसे शोभित है। हेमार! उसी समस्त कामीजनोंके चित्तको हरण करनेवाली कुमारी नंदश्रीने, अपनी सुगंधिसे भ्रमरोंको लुभानेवाला, सर्वोत्तम, एवं आनंदका देनेवाला यह नखभर तेल मेरे द्वारा आपके लगानेके लिये भेजा है हे महाभाग ! जितनी जल्दी होसके इसको लगाकर आप मुखपूर्वक स्नानकरैं । तथा मेरे साथ अनेक प्रकारकी शोभाओंसे व्याप्त सेठि इंद्रदत्तके घर शीघ्र चलें। जिससमय कुमारने निपुणवतीके बचन सुने और जब नखभर तेल देखा तो उनके मनमें गहरी चिंता होगई । वे मन ही मन यह कहने लगे कि यह न कुछ तेल है इसको सर्वा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) गमें लगाकर स्नान कैसे किया जा सकता है ? मालूम होता है सुगंधके लोभी भ्रमरोंसे चुम्बित, एवं उत्तम, यह थोड़ा तेल मेरी बुद्धिकी परीक्षाके लिये कुमारी नंदश्रीने भेजा है । तथा ऐसा क्षण एक भले प्रकार विचारकर गुरुओंके भी गुरु कुमारने अपने पांव के अंगूठेसे जमीनमें एक उत्तम गढ़ा खोदा । और मुंह तक उसको जलसे भरकर दीर्घ नख धारणकरनेवाली सखी निपुणवतीसे कहा कि हे उन्नतस्तनी सुभगे ! तू इस जलके भरे हुवे गढ़े नखमें भरे हुवे तेलको डाल दे। कुमार श्रेणिककी इसप्रकार आज्ञा पाते ही अतिम्नेहकी दृष्टिसे कुमारकी ओर देखकर और मन ही मनमें अति प्रसन्न होकर निपुणवतीने जलसे भरेहुवे उस गढ़ेमें तेल छोड़ दिया । और अनेक प्रकारकी कलाओंमें प्रवीण वह चुप चाप अपने घरकी ओर चलदी ।निपुणवतीको इसप्रकार जाते हुवे देखकर कुमारने पूछ कि हे अवले ! सेठि इन्द्रदत्तका घर कहां और किस जगह पर है ? किंतु कुमारके इसप्रकारके उत्तम प्रश्नको सुनकर भी निपुणवतीने कुछ भी जवाब नहीं दिया और विनययुक्त वह निपुणवती कानमें स्थित तालवृक्ष के पत्तेका भूषण दिखाकर चुपचाप चलीगई। ... कुमारके चातुर्यके देखनेसे प्रफुल्लित कमलोंके समान नेत्रोंसे शोभित सखी निपुणमतीने शीघ्र ही अत्यंत मनोहर सेठि इन्द्रदत्तक घरमें प्रवेश किया और कुमारी नंदांके पास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) जाकर जो जो कुमार श्रेणिकका चातुर्य उसने देखा था । सब कह सुनाया । कुमारी नंदश्री निपुणवतीसे कुमारके चातुर्यकी प्रशंसा सुनकर शीघूही अपने पिताके पासगई और जो कुमार श्रेणिकका चातुर्य उसके पिताका आश्चर्यका करने वाला था उसै सेठि इंद्रदत्तको जा सुनाया। और यह कहा कि हे तात कुमार श्रेणिक अत्यंत गुणा हैं, ज्ञानवान हैं, समस्त जगतके चातुर्योमे प्रवीण हैं, कोक शास्त्रके भी ज्ञाता हैं और अनेक प्रकारकी कलाओं को भी जानने वाले हैं इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं । इसलिये आप कुमार के पास जांय और शीघ्रही यहांपर उनको लिवाकर लेआवे । आप उन्हें पागल न समझे क्योंकि जिससमय आप कुमारके साथ साथ आये थे उससमय जिह्वारथ आदि वाक्योंसे कुमार क्रीड़ा करते हुवे आपके साथमें आये थे । और उन वाक्योंसे कुमारने अपना चातुर्य आपको जतलाया था। उनमें स्वाभाविक, मनोहर, एवं अनेक प्रकारके कल्याणोंको करनेवाले अनेक गुण विद्यमान हैं। ___ इधर कुमारके विषयमें नंदश्री तो यह कह रही थी उधर कमारने तिलकमताके चले जानेपर पहिले तो उस तेलसे अपने शरीरका अच्छी तरह मदन किया । अंजनके समान काले वालोंमें उसे अच्छी तरह लगाया। और इच्छा पूर्वक उस तलाबमें स्नान किया पीछे वहांसे नगरकी और चल दिये। स्वर्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) पुरके समान उत्तम शोभा धारण करनेवाले उसपुरमें घुसकर वे यह विचारने लगे कि सेठि इन्द्रदत्तका घर कहां ? और किस ओर है ! सुझे किस मार्ग से सेठि इन्द्रद्र के घर जाना चाहिये ? इसीविचारमें वे इधर उधर बहुत घूमे। अनेक घर देखे । बहुतसी गलियों में भ्रमण किया । किं तु इंद्रदत्तके घरका उन्हें पता न लगा अतम घूमते घूमते जब वे श्रांत होगये और ज्योंही उन्होंने श्रम दूर करने के लिये किसी स्थानपर बैठना चाहा त्योंही उन्हें निपुणवती के इशारेका स्मरण आया। वे अपने मन में विचारने लगे कि जिससमय निपुणवती तलाबसे गई थी उससमय मैंने उसे पूछा था कि सेठि इन्द्रदत्तका घर कहां है ? उससमय उसने कुछ भी जबाब नहीं दिया था। किंतु तालवृक्षके पत्तेसे वने हुवे भूषणसे मंडित वह अपना कान दिखाकर ही चली गई थी। इसलिये जान पड़ता है कि जिस घरमें तालका वृक्ष हो नित्संशय बही सेठि इन्द्रदत्तका घर है । अब कुमार तालवृक्ष सहित घरका पता लगाने लगे । लगाते लगाते उन्हे एक ताल वृक्षसे मंडित सतखना महल नजर पड़ा । तथा लालसा पूर्वक वे उसीकी ओर झुक पड़े । इधर कुमारके आनेका समय जानकर कुमारको और भी बुद्धिकी परीक्षाकेलिये कुमारी नंदश्रीने द्वारके सामने घोटू पर्यंत कीचड़ डलवा रक्खी थी । और उसमें एक एक पैर के फासलेसे एक एक ईंट भी रखवादीं थी तथा अपनी प्रिय सखां से वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) यों अपना विचार प्रकटकर कह रहीथी कि हे आलि अव मैं कुमारकी बुद्धिकी परीक्षा जव स्वयं अपने नेत्रोंसे करलूंगी तव मैं उस कुमारके साथ अपने विवाहकी प्रतिज्ञा करूंगी। नंदश्रीकी यहवातसुनकर कुमारकें बुद्धिचातुर्यके देखनेकेलिये वह निपुअवती सुंदरीभी उसके पासवैठिगई । इसप्रकार अनेक कथा कौतूहलोंको करतीहुईं वे दोनों कुमारके आगमनका इंतजार करही रहीं थी कि इतने में कुमार श्रेणिकभी दरवाजेके पास आ पहुंचे। आतेही जव उन्होंने द्वारपर घोंट्रपर्यंत भरीहुई कीचड़ देखी और उसकीचड़के ऊपर एक एक पैरके फासलेसे रक्खीहुई ईंटे भी जब उनके नजर पड़ी तो यह विचित्रदृश्य देखकर वे एकदम दंग रहगये! और अपनेमनमें विचारनेलगे कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि नगरभरमें और कहींपर भी कीचड़ देखने में नहीं आई। कीचड़ वर्षा कालमें होता है । वर्षांका मोसमभी इससमय नहीं । फिर इस द्वारके सामने कीचड़ कहांसे आई ? । मालूम होता है नंदश्रीने मेरी बुद्धिकी परीक्षाकेलिये यह द्वारपर कीचड़ भरवाई है। और कीचड़के मध्यमे ईंटे रखवाई हैं। दूसरा कोईभी प्रयोजन नजर नहीं आता। मुझे अब इसघरके भीतर जाना आवश्यकीय है यदि मैं इनईटोंपर पांवरखकर भीतर जाता हूं तो अवश्य गिरता हूं। और कीचड़मे गिरनेपर मेरी हंसी होती है । हंसी संसारमें अत्यंत दुःखकी देनेवाली है । इसलिये मुझै कीचड़में होकरही जाना चाहिये यदि मेरे पांव कीचड़में जानेसे लिथड़ भी जाय तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मेरा कोई नुक्सान नहीं। ऐसा क्षण एक अपने मनमें पक्का निश्चय कर अतिशय बुद्धिमान, भलेप्रकार लोकचातुर्यमें पंडित, कुमार श्रेणिकने, उसकीचड़में होकर ही महल में प्रवेश किया। ___कुमारके इस उत्तम चातुर्यको देखकर कुमारी नंदश्री दम रहगई। किं तु कुमारकी बुद्धिकी परीक्षाका कौतूहल अभीतक उसका समाप्त नहीं हुवा । इसलिये जिससमय कुमार उस कीचड़को लांघकर महलमें घुसे । और जिससमय नंदश्रीने उनके पावं कीचड़से लिथड़े हुवे देखे । तो फिरभी उसने किसी सखी द्वारा कीचड़ धोनेकेलिये एक चुल्लू पानी कुमारके पास भेजा । __कुमारने जिससमय कुमारी नंदश्रीद्वारा भेजा हुवा थोड़ासा पानी देखा तो देखकर उनको वड़ा आश्चर्य हुवा। वे अपने मनमें पुनः विचारने लगे कि कहांतो इतना अधिक कीचड़ ! और कहां यह न कुछजल ? इससे कैसे कीचड़ धुल सकतीहै ? । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर । और एक वांसकी फच्चटलेकर पहिले तो.उससे उन्होंने पैरमें लगे हुवे कीचड़को खुर्चकर दूरकिया पश्चात उसनंदश्री द्वारा भेजेहुवे पानीके कुछ हिम्समें एक कपड़ा भिंगोकर उस थोड़ेसे जलसे ही उन्होने अपने पांव धोलिये और अपने महनीय बुद्धिवलसे अनेक आश्चर्य करानेवाले कुमारने उसमेंसे भी कुछजल वचाकर कुमारीके पास भेजदिया । कुमारके इस चातुर्यको अपनी आखोंसे देख कुमारी नंदश्रीसे चुप न रहा गया वह एक दम कहने लगी-अहा जैसा को - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wuuuuuuuuuuuuu शल एवं ऊंचे दर्जेका पांडित्य कुमार श्रेणिकमें है वैसा कौशल पांडित्य अन्यत्र नहीं । तथा ऐसा कहती कहती अपने रूपसे लक्ष्मीकोभी नीचैकरने वाली. कमारके गुणोंपर अतिशय मुग्ध कुमारी नंदश्रीने कामदेवसे भी अतिमनोहर, कुमार श्रेणिको भीतर घरमें जाकर ठहरादिया और विनयपूर्वक यह निवेदनभी किया कि हे महाभाग कृपाकर आज आप मेरे मंदिरमें ही भोजन करें। हे उत्तमकांतिको धारणकरनेवाले प्रभो आज आप मेरे ही अतिथि बने । मुझपर प्रसन्न हों। अयि प्राज्ञवर हमारे अत्यंत शुभभाग्यके उदयसे आपका यहां पधारना हुवा है। हे मेरी समन्त अभिलाषाओंके कल्पद्रुम ! आप मेरे अतिथि वनकर मुझपर शीघ्र कृपाकरें । संसारमें बड़े भाग्यके उदयसे इष्टजनोंका संयोग होता है । जो मनुष्य अत्यंत दुर्लभ इष्टजनको पाकर भी उनकी भलेप्रकार सेवा सत्कार नहीं करते उन्हे भाग्यहीन समझना चाहिये इसलिये हे पुण्यात्मन् भोजनके लिये मेरे ऊपर आप प्रसन्न होवे मैं आपसे भोजनके लिये आदरपूर्वक आग्रह कर रही हूं। कुमारीके ऐसे अतिशय आदर पूर्ण वचन सुन कुमार श्रेणिकने अपनी मधुरवाणीसे कहा-सुभगे ! संसारमें तू अति चतुर सुनी जाती है हे उत्तमलक्षणेको धारण करनेवाली पंडिते! हे वाले! तथा हे मनोहरांगी ! मैं भोजन जव करूगा जव मेरी प्रतिज्ञानुसार भोजन बनेगा। वह मेरी प्रतिज्ञा यहीहै मेरे हाथमें ये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) वत्तीस ३२ चावल हैं इनवत्तीसचावलोंसे भांतिभांतिकेपकेहुवे अन्नसे मनोहर भोजन बनाकर, दूध दही हवि आदिसे परिपूर्ण, औरभी अनेक प्रकारके व्यजनोंकरयुक्त, सरस, स्वादिष्ट, पूर्वा आदिपदार्थ सहित, उत्तम भोजन जो मुझै खवावेगा उसीके यहां मैं भोजन करूंगा दूसरी जगह नहीं। ____कुमारके ऐसे प्रतिज्ञा परिपूर्ण एवं अपनी परीक्षा करनेवाले वचन सुनकर कुमारी प्रथमतो एकदम विस्मित होगई । पश्चात् उसने वड़े विनयसे कहा कि लाइये, अपने चावलोंको कृपाकर मुझे दीजिये। ____ कुमारीके आग्रहसे कुमारको चावल देने पड़े। तथा कुमार से वत्तीस चावल लेकर उनको पीसकूट कर कुमारीने उनके पूवे वनाये। उनपूर्वोको वेचनेकेलिये अपनी प्रियसखी निपुणमती को देकर वजार भेजदिया । कुमारीकी आज्ञानुसार सखी निपुणमती उनपोंको लेकर सफेद वस्त्रपहिनकर वजारकी ओर गई । और जहांपर जूवा खेला जाता था वहां पहुंचकर और किसी ज्वारीके पास जाकर उनपूवोंकी उसने इसप्रकार तारीफ करना प्रारंभ किया कि ये पूर्व अति पवित्र देवमयी हैं। जो भाग्यवान मनुष्य इनको खरीदेगा उसै अवश्य अनेक लाभ होंगे । सर्व खिलाड़ियों मैं ये पूवे खाने वालाही विशेष रीतिसे जीतेगा इसमें संदेह नहीं । निपुणमतीके इसप्रकार आश्चर्य भरे बचनों पर विश्वास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - aaaaaaaaaaamannamam ( ७८ ) कर एवं उन पूवों को सच ही देवमयी जानकर ज्वारियोंके मनमें उनके खरीदने की इच्छा हुई । और खेलमें विजय एवं अधिक धनकी आशासे उनमें से एक ज्वारीने मुहमांगी कीमत देकर पूर्वोको तत्काल खरीद लिया । और कीमत अदाकरदी। कीमतका रूपया लेकर, और कुमारकी प्रतिज्ञानुसार भोजनकेलिये उसे पर्याप्त जानकर निपुणमतीने उसीसमय नंदश्रीको जाकर चुपचाप दे दिया। ____ जिससमय नंदश्रीने पूोंकी कीमतको देखा तो उस को बड़ी प्रसन्नता हुई । और उसने भांति भांतिके मधुर भोजन बनाना प्रारंभ कर दिया । जिससमय वह भोजन बना चुकी उसने भोजन के लिये कुमारको बुला भी लिया। भोजनका बुलावा मुन नंदश्रीका रूप देखनके अति लोलुपी, अपने मनमें अति प्रसन्न, कुमार पाकशालामें चट जा धमके । कुमारीने कुमार को देखतेही आदर पूर्वक आसन दिया और प्रेम पूर्वक भोजन कराना आरंभ कर दिया । कभी तो वह कुमारी भोजन में भग्न कुमार को खैरि आदि पदार्थोंके उतम रसोंसे परि पूर्ण, अनेक मसालोंसे युक्त, अति मधुर वरों के टुकड़ों को खिलाती हुई। और कभी अपनी चतुरता से भांति भांतिके फलोंका उसने भोजन कराया। तथा कभी कभी उसने दूध दही मिश्चित नानाप्रकार के व्यंजन बनाकर कुमार को खिलाये । एवं कमार भी उसके चातुर्यपर विचार करते करते भोजन करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) रहे । तथा जिससमय कुमार भोजन करचुके उससमय कुमारने पान खाया । इस प्रकार कुमारके चातुर्यसे अतिप्रसन्न, उनके गुणोंमें अतिशय आसक्त, कुमारी नंदश्री जिसप्रकार राज हंसके पास बैठी हुई राजहंसी शोभित होती है कुमारके समीपमें बैठी हुई अत्यंत शोभित होने लगी । T इन समस्त बातोंके बाद कुमारीके मनमें फिर कुमार की बुद्धिकी परीक्षाका कौतूहल उठा उसने शीघ्र एक अति टेड़े छेद का मूंगा कुमारको दिया और उसमें डोरा पोने के लिये निवेदन किया, कुमारी द्वारा दियेहुवे इस कार्यको कठिन कार्य जान क्षणभर तो कुमार उसके, पोनेकेलिये विचार करते रहै पीछे भले प्रकार सोचविचार कर उस डोरे के मुख पर थोड़ा गुड़ लपेट दिया और अपनी शक्ति के अनुसार मूंगा छेद में उसको प्रविष्ट कर चीटियों के विलेपर उसे जाकर रख दिया। गुड़की आशासे जब चीटियोंने डोरे को खींचकर पार कर दिया तव डोरा पार हुवा जान कर कुमार श्रेणिकने मूंगेको लाकर नंदश्रीको दे दिया । कुमारी नंदश्री कुमार श्रोणिकका यह अपूर्व चातुर्य देख अति प्रसन्न हुई उसका मन कुमार में आसक्त होगया । यहांतक कि कुमारके श्रेष्ठगुणोंसे, उनकी रूप संपदा से कामदेव भी बुरीरीति से उसे सताने लग गया । सेठ इन्द्रदत्त को यह पता लगा कि कुमारी नंद श्री कुमार श्रेणिक पर आसक्त है । कुमार श्रोणिक को वह अपना बल्लभ बना चुकी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीघ्र ही राजा के समान संपत्तिके धारक इन्द्रदत्तने कुमारी के विवाहार्थ बड़े आनंदसे उद्योग किया । ____ कुमार कुमारीके विवाहका उत्सव नगरमें बड़े जोर शोरसे प्रारंभ हुवा समन्त दिशाओंको बधिर करने वाले घंटे बजने लगे, नगर अनेकप्रकारको ध्वजाओंसे व्याप्त, मनोहर तोरणों से शोभित, कल्याणको सूचन करनेवाले शुभ शब्दोंसे युक्त हो गया । उससमय भेरियों के बड़े बड़े शब्द होने लगे। शंख काहल अदि बाजे बजने लगे । नक्काड़ोंके शब्द भी उससमय खूब जोर शोरसे होने लगे समस्तजानों के सामने भांति भांति की शोभाओंसे मंडित कुमार कुमारीका विवाह मंडप प्रीतिऍक्क बनाया गया। वंदीगग कुमार श्रोणकके यशको मनोहर पद्योंमें रचनाकर गान करने लगे। कुमार श्रोणक और कुमारी नंदश्रीके विवाहके देखनेसे दर्शकजनोंको बचनागोचर आनदं हुवा । उन दोनोंके रूप देखनेसे दोनोंके गुणों पर मुग्ध दोनोंकी सबलोग मुक्तकंठ से तारीफ करने लगे। दंपती का रूप देख समन्त लोक इस भांति कहने लगा कि आश्चर्य कारी इनकी गति है तथा आश्चर्यकारी इनका रूप और मधुरवचन हैं ये सब बात पुर्व पुण्यसे प्राप्त हुई हैं । नंदश्रीको देखकर अनेक मनुष्य यह कहने लगे कि चन्द्रके समान कांतिको धारणकरनेवाला तो यह नंदी का मुख है । फूले कमलके समान इसके दोनों नेत्र है। और अत्यंत विस्तीर्ण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका ललाट है । कुमार श्रोणकका संसारम अद्भुत पुण्य मालूम पड़ता है जिससे कि इस कुमारको ऐसे स्त्रीरत्नकी प्राप्ति हुई है। तथा कुमारको देखकर लोग यह कहने लगे कि इस नंदश्रीने पूर्व जन्ममें क्या कोई उत्तम तप किया था ! अथवा किसी उत्तम व्रतको धारण किया था ! वा इष्टपदार्थोंके देनेवाले शीलका इसने परभवमें आश्रय किया था ! अथवा इसने उत्तम पात्रों में पवित्र दान दिया था ! जिससे इसको ऐसे उत्तम रूपवान गुणवान पतिकी प्राप्ति हुई है । इसप्रकार धर्मके प्रभावसे समातलोक द्वारा प्रशंसित, अतिशय हर्पितचित्त अत्यंत दीप्ति युक्त देहके धारक, वे दोनों स्त्री पुरुष भली भांति सुखका अनुनय करने लगे। इसमकार होनेवाले श्रीपद्मनाभभगवानके पर्वभवके जीव महाराज श्रेणिकका कुमारी नदंश्रीके साथ विवाह वर्णनकरनेवाला चौथा सर्ग समाप्त हुवा । पांचवां सर्ग जित उत्तप्त धर्मकी कृपासे संसारमें उनदोनों दंपतीको अतिशय सुख मिला । धर्माला पुरुषों को अनेक विभूतिदेने वाले उस परम पवित्र धर्मको मैं मस्तक झुका कर नमस्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ man करता हूं। ___ इसप्रकार विवाह के अनंतर कुमार श्रेणिकने पके हुवे ताल फलके समान उत्तम स्तनोंसे मंडित, मनको भले प्रकार संतुष्ट करनेवाली, कांता नंदश्रीके साथ क्रीड़ा करनी प्रारंभ कर दी । कभी नो कुमार उसके साथ मनोहर उद्यानोंके लता मंडपोंमे रमनेलगे।कभी उन्होने नदियोंकेतट अपने क्रीडास्थल बनाये। तथा कभी कभी वे उत्तम स्तनोंसे विभूषित नंदश्रीके साथ महलकी अटारियोंमे क्रीड़ा करने लगे । जिसप्रकार दरिद्री पुरुष खजाना पाकर अति मुदित हो जाता है और उसे अपने तन बदनका भी होश हवास नहीं रहता । उसीप्रकार कुमार उस नंदश्रीके देहस्पर्शसे आतेशय आनंद रसका अनुभव करने लगे । मनोहरांगी नंदश्री भी सूर्यको किरणस्पर्शस जैसे कमलिनी आनंदित होती है उसीप्रकार कुमारके हाथके कोमलम्पर्शसे अनन्यप्राप्त सुखका आस्वादन करने लगी।कमी तो वे दोनों दंपती चुंबन जन्य सुखका अनुभव करने लगे। और कभी स्वाभाविक रसका आस्वादन करने लगे। तथा कभी कभी दानोंने परस्पर रूपदर्शन एवं रतिसे उत्पन्न आनंदका अनुभव किया।और कभी हाम्योत्पन्न रस चाखा। कभी कभी स्तनस्पर्शसे उत्पन्न एवं कथाकोतूहलसे जानत सुखका भी उन्होंने भोगकिया । इसप्रकार मानसिक कायिक वाच निक अभीष्ट सुखको अनुभव करने वाले, भांति भांतिकी क्रीडाओंमें मग्न, सुखसागरमें गोते मारने वाले, कुमार श्रेणिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N और नंदश्रीको जातेहुवे कालका भी पता न लगा। बाद कुछ दिनके उत्तमगुणयुक्त कुमारके साथ क्रीड़ा कर ते करते रानी नंदश्रीके धर्मके प्रभावसे गर्भ रह गया।तथा सुंदर आकारका धारक शुभलक्षणोंकर युक्त वह उदर में स्थित जीवदिनों दिन बढ़ने लगा।गर्भके प्रभावसे रानी नंदश्रीके आतेशय मनोहर अंग पर कुछ सफेदी छागई।स्तनोंके अग्रभाग ( चुचुक ) काले पड़ गये।उसे किसी प्रकारके भूषण भी नहीं रुचने लगे। तथा भूषण रहित वह ऐसी शोभित होने लगी जैसा नक्षत्रोंके अस्त होजानेपर प्रभात शोभित होता है । एवं गर्भके भारसे नंदश्रीको गतिभी अधिक मंद होगई । भोजन भी बहुत कम रुचने लगा । और उसको अपने अंगमें ग्लानिभी होने लगी । एवं मतवाले हाथोंके समान गमनकरनेवाली, मुखरूपी चंद्रमासे शोभित, मनोहरांगी नंदश्रीके अंगमें गर्भसे होनेवाले मनोहरचिह्नभी प्रकटित होनेलगे । कदाचित् नंदश्रीको सात दिन पर्यंत अभयदानका सूचक उत्तम दोहला हुवा।अपने घरकी स्थिति देख उस दोहलाकी पूर्ति अतिकठिन जानकर वह भारी चिता करने लगी।और जैसी पानीके अभावसे उत्तम लता कुमला जाती है उसीप्रकार उस का अंग भी चिंता से सर्वथा कुम्हलाने लगा। किसीसमय कुमार श्रोणककी दृष्टि नंदश्री पर पड़ी।उदास एवं कांति रहित रानी नंदश्रीकी देख उन्हे अति दुःख हुवा। वे अपने मनमें विचार करने लगे-अतिशय मनोहर एवं देदीप्यमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) सुंदरी नंदश्रीके शरीर में अति वाधा देनेवाला यह दुःख कहां से टूट पड़ा इसकी यह दशा क्यों और कैसे हो गई ? तथा क्षण एक ऐसा विचार उन्होंने पास जाकर नंदश्रीसे पूछा, हे प्रिये! जिस कारण से आपका शरीर सर्वथा खिन्न कृश और फीका पड़ गया है वह कोनसा कारण है मुझे कहो ? कुमार के ऐसे हितकारी एवं मधुर बचन सुनकर और दीहले के पूर्ति सर्वथा कठिन समझकर पहिले तो नंदश्रीने कुछ भी उत्तर न दिया । किं तु जब उसने कुमारका आग्रह विशेष देखा तो वह कहने लगी है कांत ! मै क्या करूं मुझे सात दिन पर्यंत अभयनामक दानका सूचक दोहला हुवा है। इस कार्यकी पूर्ति अति कठिन जान मैं खिन्न हूं । मेरी खिन्नताका दूसरा कोई भी कारण नहीं । प्रियतमा नंदश्रीके ऐसे बचन सुन कुमारने गंभीरतापूर्वक कहा | प्रिये ! इसबात केलिये तुम जरा भी खेद न करो | मत व्यर्थ खेदकर अपने शरीरको सुखाओ । सुनते ! मैं शीघ्र ही तुम्हारी इस अभिलवाको पूरण करूंगा । चतुरे ! जो तुम इस कार्यको कटिन समझ दुःखित हो रहीं हो । एवं अपने शरीरको विना प्रयोजन सुखा रहीं हो सो सर्वथा व्यर्थ है । तथा मधुर भाषिणी एवं शुभांगी नंदश्रीको ऐसा आश्वासन देकर भलेप्रकार समझा बुझाकर, कुमार श्रेणिक किसी वनकी ओर चलपड़े। और वहां | पर किसी नदी के किनारे बैठ नंदी को इच्छा पूरण करने के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये बिचार करने लगे। ____उससमय उसी नगरके राजा वसुपालका ऊंचे ऊंचे दांतको धारणकरनेवाला एक मतवाला हाथी नगरसे बड़े झपाटेसे बाहिर निकला। तथा प्रत्येक घरके द्वारको तोड़ता हुवा, बहुतसे नगरके खंभोंको उखाड़ता हुवा, अनेकप्रकारके वृक्षोंको नीचे गिराता हुवा, उत्तमोत्तम लतामंडपोंको निमूल करता हुवा, अनेक सज्जन वीरों द्वारा रोकनपर भी नहीं रूकता हुवा, अपने चीत्कार से समस्तदिशाओंको बधिर करता हुवा, एवं अपनी सूड़को ऊपर उठा दिग्गजोंको भी मानों युद्धकरनकोलये ललकारता हुवा, और समस्त नगरको व्याकुल करता हुवा वह मत्त हाथी उसी नदीके ओर झपटा जहां कुमार बैठेथे । जिससमय पर्वतके समान विशाल, अति मत्त, अपनी ओर आता हुवा, वह भयंकर हाथी कुमारकी नजर पड़ा तो कुमार शघ्रिही उसके साथ युद्ध करनेके लिये तयार होगये । तथा उस मतवाले हाथीके सन्मुख जाकर अनेकप्रकारसे उसके साथ युद्ध कर, मारे मारे मुक्कोंके उसै मदरहित कर दिया । और निर्भयतापूर्वक कीडार्थ उसकी पीठपर चट सवार हो राज द्वारकी ओर चल दिये । ___ मतवाले हाथी पर बैठे हुवे कुमारको देखकर हाथीके कर्मोंसे भयभीत, कुमारका हाथीके साथ युद्ध देखने वाले, कुमारकी वीरतासे चकित, अनेक मनुष्य जय जय शब्द करने लगे । एवं परस्पर एक दूसरेसे यहभी कहने लगे-सेठि इंद्रदत्तके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमाई का पराक्रम आश्चर्य कारक है । रूप और नवयौवन भी बड़ाभारी प्रशंसनीय है । शक्तिभी लोकोत्तर मालूम पड़ती है। देखो जिस मत्त हार्थीको वलवानसे वलवानभी कोई मनुष्य नहीं जीतसकता था उस हाथी को इस कुमारने अपने बुद्धिवल और पुण्यके प्रभावसे बातकी बात में जीतालिया। तथा इधर मनुष्य तो इस भांति पवित्र शब्दोंसे कुमारकी स्तुती करने लगे उधर गजसे भी अतिशय पराक्रमी कमारने अनेक प्रकारकी लीली पीली ध्वजाओंसे शोभित क्रीडापूर्वक नगरमें प्रवेश किया। सुन्दर आकारके धारक असाधरण उत्तम गुणोंसे मंडित कुमार श्रेणिकको हाथी पर चढ़े हुवे देख नहाराज वसुपाल मनमें अति हर्षितहुवे । और बड़ी प्रीति एवं हर्षसे उन्होंने कुमारसे कहा। हे वीरोंके शिरताज हे अनेक पुण्य फलोंके भोगने वाले!कुमार जिसबातकी तुम्हें इच्छा हो शीघ्र ही मुझे कहो हे उत्तमोत्तम गुणोंके भंडार कुमार ! शक्त्यनुसार मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा। किंतु महाराजके संतोषभरे वचन सुनकर अन्य मनुष्यों द्वारा कुछ मागनेके लिये प्रेरित भी कुमारने लज्जा एवं अहंकारसे कुछ भी जबाव नहीं दिया महाराजके सामने वे चुपचाप ही खड़े रहे। सेठि इन्द्रदत्त भी ये सब वातें देख रहेथे । उन्होंने शीघ्रही कुमारके मनके भावको समझ लिया और इस भांति महाराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm से निवेदन किया महाराज यदि आप कुमारके कामको देखकर प्रसन्न हवे हैं और उनकी अभिलाषा पूर्ण करना चाहते हैं तो एक कामकरैं सात दिन तक इस नगर और देशमें सब जगह पर आप अभय दानकी ड्योड़ी पिटवादें । सेठि इन्द्रदत्तके ऐसे कुमारके अनुकल वचन सुन राजा बसुपाल अति संतुष्ट हुवे और उन्होंने वेधड़क कह दिया । आपने जो कुमारके अनुकूल कहा है वह मुझे मंजूर है । मैं सात दिनतक नगर एवं देशमें सब जगह अभयदानके लिये तयार हूं। तथा ऐसा कह कर उन्होंने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अभयदानके लिये नगर एवं देशमें सर्वत्र डंका भी पिटवा दिया। रानी नंदश्रीने यह बात सुनी कि कुमारकी बीरता पर मोहित होकर महाराज वसुपालनने सात दिन तक अभयदान देना स्वीकार किया है । सुनते ही वह अपने मनोरथको पूर्ण हुवा समझ, बहुत प्रसन्न हुई ।और जैसी नवीनलता दिनोंदिन प्रफुल्लित होती जाती है वैसी वह भी दिनोंदिन प्रफुल्लित होने लगी। शुभ लग्न शुभवार शुभनक्षत्र शुभादन एवं शुभयोगमें किसीसमय रानी नंदश्रीने अतिशय आनंदित, पूणचंद्रमा के समान मनोहर मुखका धारक, कमलके समान मनोहर नेत्रोंसे युक्त, उत्तम पुत्रको जना । पुत्रकी उत्पत्तिसे मारे आनंदके रानी नंदश्रीका शरीर रोमांचित होगया और वह सुख सागर में गोता लगाने लगी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) सेठि इंद्रदत्त के घर पुत्री नंदश्रीसे धेवता हुवा है यह समाचार सारे नगर में फैलगया। सेठि इंद्रदत्त के घर कामिनी मनोहर गति गाने लगीं । बंदीजन पुत्रकी स्तुति करने लगे । पुत्रके आनंद में मनोहर शब्द करनेवाले अनेक बाजे भीं बजने लगे । बालकके गर्भस्थ होनेपर नंदश्रीको अभयदानका दोहला हुवा था । इसलिये उस दिनको लक्ष्यकर सेठि इंद्रदत्त के कुटंबी मनुप्योंने बालकका नाम अभय कुमार रखदिया । एवं जैसा रात्रि बिकासी कमलोंको आनन्द देनेवाला चंद्रमा दिनों दिन बढ़ता चला जाता है वैसा ही अतिशय देदीप्यमान शरीरका धारक समस्त भूमंडलको हषार्यमान करनेवाला वह कुमार भी दिनोंदिन बढ़ने लगा । कुटंबजिन दूध पान आदिसे बालक की सेवा करने लगे । आनंदसे खिलाने लगे । इसलिये उस बालक से उसके पिता माताको और भी विशेष हर्ष होने लगा । कुछ दिनवाद अभय कुमारने अपनी बालक अवस्था छोड़ कुमार अवस्था में पदार्पण किया । और उससमय तेजस्वी कुमार अभयने थोड़ेही कालमें अपने बुद्धिबलसे बात की बात में समस्त शास्त्रोंका पार पालिया । वह असधारण विद्वान होगया । इसप्रकार कुमार श्रोणिकके साथ रानी नन्दश्री नाना प्रकार के भोग विलास करने लगी । एवं कुमार भी कांता नन्दीके साथ भांति भांति के भोग भोगने लगे तथा भोग विलास में मस्त, वे दोनों दंपती जाते हुवे कालकी भी परवा नहीं करने लगे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmw इधर कुमार श्रेणिक तो सेठि इंद्रदत्तके घर नन्दश्रीके साथ नानाप्रकारके भोग भोगतेहुवे सुखपूर्वक रहने लगे । उधर महाराजउपश्रेणिक अतिशय मनोहर,अनेकप्रकारकी उत्तमोत्तमशोभा शोभित राजगृह नगरमें आनन्द पूर्वक अपना राज्य कर रहे थे। अचानक ही जब उनको यह पता लगा कि अब मेरी आयु में बहुत ही कम दिन बाकी है—मेरा मरण अब जल्दी होने वाला है । शीघ्रही उन्होंने चक्रवर्तीके समान उत्कृष्ट, बड़े बड़े सामंतोंसे सेवित, विशाल राज्य चिलाती पुत्रको देदिया । तथा राज्यकार्यसे सर्वथा ममतारहित होकर पारमार्थिक कर्मों में वे चित्त लगाने लगे। . कुछ दिनके बाद आयुकर्मके समाप्त होजानेपर महाराज उप श्रेणिकका शरीरांत हो गया । उनके मरजानेसे सारे नगरमें हाहाकार मच गया । पुरवासी लोग शोक सागरमें गोता मारने लगे । रनवासकी रानियांभी महाराजका मरण समाचार सुन करुणा जनक रोदन करने लगीं । जितने भर सौभाग्य चिन्ह हार आदिक थे सब उन्होंने तोड़कर फैक दिये । और महाराजके मरनसे सारा जगत उन्हें अंधकार मय सूझने लगा। महाराज उपश्रेणिकके बाद रहा ठहा भी अधिकार राजा चलातीको मिल गया। महाराज उपश्रेणिकके समान वहभी मगध देशका महाराज कहा जाने लगा । किं तु राजनीतिसे सर्वथा अनभिज्ञ राजा चलातीने सामंत मंत्री पुरवासी जनोंसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलेप्रकार सेवित होनेपर भी राज्यमें अनेकप्रकारके उपद्रव करने प्रारंभ कर दिये। कभी तो वह विनाही अपराधके धनिकोंके धन जप्त करने लगा । और कभी प्रजाको अन्यप्रकारके भयंकर कष्ट पहुचाने लगा। जिनके आधारपर राज्य चल रहा था उन राजसेवकोंकी आजीविका भी उसने बंद करदी। राज्यमें इसप्रकार भयंकर आन्याय देख पुरवासी एवं देशवासी मनुष्य त्रस्त होने लगे । और खुले मैदान उनके मुखसे ये ही शब्द सुननेमें आने लगे-राजा चिलाती बड़ा भारी पापी है।अन्यायी है। और राज्य पालन करनेमें सर्वथा असमर्थ है । राजाका इस प्रकार नीच वर्ताव देख राजमंत्री भी दातोंमें उंगली दबाने लगे-राज्यको संभालनेके लिये उन्होंने अनेक उपाय सोचे किं तु कोई भी उयाय उनको कार्यकारी नजर न पड़ा । अंतमें विचार करते करते उन्हे कमार श्रेणिककी याद आई । याद आते ही चट उन्होने यह सलाह की-राजा चलाती पापी दुष्ट एवं राजनीतिसे सर्वथा अनभिज्ञ है । यह इतने विशालराज्यको चला नहीं सकता । इसलिये कमार श्रेणिकको यहां वुलाना चाहिये और किसी रीतिसे उन्हे मगधदेशका राजा बनाना चाहिये। समस्त पुरवासी एवं मंत्री आदिक कुमारके गणोंसे भली मांति परिचित थे इसलिये यह उपाय सबको उत्तम मालूम हुवा। एवं तदनुसार एक दूत जोकि राज्यकार्यमें अति चतुरथा, शीघ्रही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAANANA कुमारके पास भेज दिया और व्योरे वार एक पत्रभी उसै लिख कर दे दिया। जहां कुमार श्रेणिक रहते थे दूत उसी देशकी ओर चल दिया । और कछ दिन पर्यंत मंजल दर मंजलकर कुमारके पास जा पहुंचा । कुमारको देखकर दूतने विनयसे नमस्कार किया । और उनके हाथमें पत्र देकर जवानी भी यह कह दिया कि हे कुमार । अब तुम्हें शीघ्र मेरे साथ राजगृह नगर चलना चाहिये। दूतके मुखसे ऐसे वचन सुनकर एवं पत्र वांच उसके वचनों पर सर्वथा विश्वास कर, कुमार श्रेणिक अपने मनमें अति प्रसन्न हुवे । मारे हर्षके उनका शरीर रोमांचित हो गया । तथा पत्र हाथमें लेकर वे सीधे सेठि इंद्रदत्तके समीप चल दिये। वहां जाकर उन्होंने सेठि इंद्रदत्तको नमस्कार किया और यह समाचार सुनाया कि हे महनीय ! राजगृहपुरसे एक दृत आया है उसने यह पत्र मुझे दियाहै इससमय वहां जाना अधिक आवश्यक जान पड़ता है कृपा कर आप मुझे वहां जानेकेलिये शीघ्र आज्ञा दें। बिना आपकी आज्ञाके मैं वहां जाना ठीक नहीं समझता. ___ यकायक कुमारके मुखसे ऐसे वचन सुन सेठि इंद्रदत्त आश्चर्य सागरमें निमग्न हो गये। 'अव कुमार यहांसे चले जायगे, यह जान उन्हे बहुत दुःख हुवा । किं तु कुमारने उन्हे अनेक प्रकारसे आश्वासन दे दिया।इसलिये वे शांत होगये । और उन्हें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ जवरन कुमारको जानेके लिये आज्ञा देनी पड़ी सेठि इंद्रदत्तसे आज्ञा लेकर कुमार प्रियतमा नंदश्रीके पास गये । उससे भी उन्होने इसप्रकार अपनी आत्मकहानी कहनी प्रारंभ करदी । हे प्रिये ! हे वल्लभे ! हे मनोहरे ! हे चंद्रमुखि ! हे गजगामिनि ! मेरे परंपरासे आया हुवा राज्य है अचानक मेरे पिताके शरीरांत होजानेसे मेरा भाई उस राज्यकी रक्षा कर रहा है। किं तु प्रजा उसके शासनसे संतुष्ट नहीं है । इसलिये अव मुझै राजगृह जाना जरूर है । हे सुंदरि जब तक मैं वहां न पहुचूंगा,राज्यकी रक्षा भलेप्रकार नहीं हो सकेगी। इससमय मैं तुझसे यह कहे जाता हूं जवतक मैं तुझे न बुलाऊं कुमार अभयके साथ तू अपने पिताके घर ही रहना । राज्यकी प्राप्ति होने पर तुझे मैं नियमसे बुलाऊगा इसमें संदेह नहीं। ____ अचानक ही कुमारके ऐसे वचन सुन रानी नंदश्रीके आखोंसे टप टप आंसू गिरने लगे । मारे दुःखके,कमलके समान फूला हुवा भी उसका मुख कुम्हला गया । और कुमारको कुछ भी जवाव न देकर वह निश्चल काष्टकी पुतल के समान खड़ी रहगई।किन्तु उसकी ऐसी दशा देख कुमारने उसे बहुत कुछ समझा दिया। और संतोष देने वाले प्रिय वचन कहकर शांतकरदिया। इसप्रकार प्रियतमा नंदश्रीसे मिलकर कुमार वहांसे चल | दिये । और राजगृह जाने के लिये तयार होगये । कुमार अब जारहे हैं सेठि इंद्रदत्तको यह पता लगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mammaanaanaaaaaam w ( ९३ ) उन्होंने कुमारको न मालूम पड़े इसरीतिसे पांच हजार वलवान योधा कुमारके साथ भेजदिये । एवं पांच हजार सुभटोंके साथ कुमार श्रोणिकने राजगृह नगरकी ओर प्रन्थान करदिया । जिससमय वे मार्गमें जाने लगे उससमय उत्तमोत्तम फलोंके सूचक उन्हें अनेक शकन हुवे। और मार्गमें अनेक वन उपवनोंको निहारते हुवे कुमार श्रोणिक मगध देशके पास जा पहुंचे । ___कुमार श्रोणक मगध देशमें आगये यह समाचार सारे देशमें फैलगया । समस्त सामंत मंत्री एवं अन्यान्य देशवासी मनुप्य बड़े विनयभावसे कुमार श्रोणकके पास आये । और भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। कुछ समय वहां ठहर कर प्रेम पूर्वक बार्तालाप कर कुमार फिर आगेको चल दिये । मेरु पर्वतके समान लंबे चौड़े हाथी, अनेक बड़े बड़े रथ, और पयादे कमारके पीछे पीछे चलने लगे । कुमारके आगमनके उत्सवमें सारा देश वाजोंकी आवाजसे गूंज उठा, एवं कुछ दिन और चलकर कुमार राजगृह नगरके निकट जा दाखिल हुवे । इधर राजा चिलाताको यह पता लगा कि अब श्रेणिक यहां आगये हैं। उनके साथ विशाल सेना है। समस्त देशवासी और नगरवासी मनुष्य भी कुमार श्रोणकके ही अनुयायी हो गये हैं। नारे भय वहतो कपने लगाःतथा अब मैं लड़कर कुमार श्रेणिकसे विजय नहीं पातकता यह भले प्रकार सोच विचार कर अपनी कुछ संपत्ति लेकर किसी किली जा छिरा । उधर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momennon ( ९४ ) सूर्यके समान प्रतापी, बड़े बड़े सामंतोंसे सेवित, पुण्यात्मा, जिनके ऊपर क्षीरसमुद्रके समान सफेद चमर दुलरहे हैं, जिनका यश चौतर्फा वंदोजन गान कर रहे हैं, कुमार श्रेणिकने बड़े ठाठ वाटसे नगर में प्रवेश किया। नगरमें कुमारके घुसते ही बाजाके गंभीर शब्द होने लगे । बाजोंकी आवाज सुन जैसे समुद्रसे तंरग बाहिर निकलती है नगरकी स्त्रिया महाराजके देखनेके लिये घरोंसे निकल भगीं । कोई स्त्री अपने स्वामी को चौकेमें ही वैठा छोड़ उसे विनाही भोजन परोसे कुमारके देखने के लिये धर भगी। कोई स्त्री मठा बिलोड़ रही थी कुमारके दर्शनकी लालसासे उसने मठा विलोड़ना छोड़दिया । कोई कोई तो कमार के देखने में इतनी लालायित हो गई कि शृंगार करते समय उसने ललाटका तिलक आखोंमे लगालिया और आखोंका काजल ललाट पर आंज लिया,एवं विना देखे भालेही धरभगी.तथा किसी स्त्रीने शिरके भूषणको गले. पहिनकर गलेके भूषणको शिरमें पहिनकर ही कुमारके देखने के लिये दौड़ना शुरू कर दिया। और कोई स्त्री हारको कमरमें पहिनकर और करधनीको गलेमें डाल कर ही दोड़ी। कोई स्त्री अपने काम लग रही थी जिससमय सखियोंने उससे कमारके देखनेके लिये आग्रह किया तो वह एक दम धरभगी जल्दीमें उसे चोलीके उल्टे सीधेका भी ज्ञान नहीं रहा । वह उल्टी चोली पहिन करही कुमारको देखने लगी। तथा कोई स्त्री तो कुमारके देखनेकोलिये इतनी वेसुध हो गई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ कि अपने बालकको रोता हुवा छोड़कर दूसरे बालकको ही गोदमें लेकर धरभगी । तथा कोई कोई स्त्री जो कि नितंबके भारसे सर्वथा चलनेके लिये असमर्थ थी उसने दूसरी स्त्रियोंके मुखसे ही कुमारकी तारीफ सुन अपनेको धन्य समझा । कोई वृद्धा जो कि चलनेके लिये सर्वथा असमर्थ थी दूसरी स्त्रियोंसे यह कहने लगी कि ऐ वेटा ! किसी रीतिसे मुझे भी कुमारके दर्शन करादे मैं तेरा यह उपकार कदापि नहीं भूलूंगी।तथा कोई कोई स्त्री तो कुमार को देख ऐसी मत्त हो गई कि कुमारके दर्शनकी फूलमें दूसरी स्त्रियों पर गिरने लगी और जिस ओर कुमारकी सवारी जारही थी वेसुध हो उसी ओर दोड़ने लगी । तथा किसी किसी स्त्रीको तो ऐसी दशा हो गई कि एक समय कुमारको देख घर आकर भी वह फिर कुमारके देखने के लिये धर भागी। अनेक उत्तम स्त्रियां तो कुमारको देख ऐसा कहने लगी कि संसारमें वह स्त्री धन्य है जिसने इस कुमारको जना है, और अपने स्तनोंका दूध पिलाया है। तथा कोई कोई ऐसा कहने लगो हे आलि ! यह बात सुननेमें आई है कि इन कुमारका विवाह वेणुतट नगरके सेठि इंद्रदत्तकी पुत्री नंदश्रीके साथ हो गया है संसारमें वह नंदश्री धन्य है । तथा कोई कोई यह भी कहने लगी कि कुमार श्रेणिकके संबंधसे रानी नंदश्रीके अभय कुमार नामका उत्तम पुत्र भी उत्पन्न हो गया है।इत्यादि पुरवासी स्त्रियोंके शब्द सुनते हुवे तथा पुरवासियों के मुखसे जय जय शब्दोंको भी सुनते हुवे कुमार श्रेणिक, लीली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) पीली ध्वजा एवं तोरणोंसे शोभित राजमंदिर के पास जा पहुचें । राज मंदिर में प्रवेशकर कुमारने अपनी पूज्य माता आदिको भक्ति पूर्वक नमस्कार किया । तथा अन्य जो परिचित मनुष्य थे उनसे भी यथा योग्य मिले मैंटे। कुछ दिन बाद मंत्रियोंकी अनुमति पूर्वक कुमारका राज्याभिषेक किया गया । कुमार श्रेणिक अब महाराज श्रेणिक कहे जाने लगे । तथा अनेक राजाओंसे पूजित, अतिशयप्रतापी, समस्त शत्रुओंसे रहित, महाराज श्रेणिक, मगध देशका नीति पूर्वक राज्य करने लग गये । इस प्रकार अपने पूर्वोपार्जित धर्मके माहात्म्यसे राज्य विभूतिको पाकर समस्तजनों से मान्य, अनेक उत्तमोत्तम गुणों से भूषित, नीतिपूर्वक राज्य चलाने वाले, अतिशय देदीप्यमान शरीरके धारक, महाराज श्रोणिक अतिशय आनंदको प्राप्त हुवे, जीवों का संसार में यदि परममित्र हैं तो धर्म है देखो कहां तो महाराज श्रेणिकको राजगृह नगर छोड़कर सेठि इंद्रदत्त के यहां रहना पड़ा था और कहां फिर उसी मगधदेशके राजा वन गये । इसलिये उत्तम पुरुषों को चाहिये कि वे किसी अवस्था में धर्मको न छोड़े क्यों कि संसार में मनुष्यों को धर्मसे उत्तम बुद्धिकी प्राप्ति होती है । धर्मसे ही अविनाशी सुख मिलता है | देवेंद्र आदि उत्तम पदोंकी प्राप्ति भी धर्मसे ही होती है और धर्मकी कृपासे ही उत्तम कुलमें जन्म मिलता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनेवाले भगवान श्रीपद्मनाभके जीव महाराज श्रेणिकको राज्यकी प्राप्ति वतलानेवाला पांचवा सर्ग समाप्त हुवा - छठवा सर्गः केवलज्ञानकी कृपासे ससस्स जीवोंको याथार्थ उपदेश देनेवाले, परम दयालु, भलेप्रकार पदार्थोंके स्वरूपको प्रकाश करनेवाले, अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमान स्वामीको नमस्कार है___ अनंतर इसके समस्त शत्रुओंसे रहित, प्रजाके प्रेमपात्र, अनेक उत्तमोत्तम गुणोंसे मंडित, वे महाराज श्रेणिक भलेप्रकार नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे। उनके राज्य करते समय न तो राज्यमें किसीप्रकारकी अनीति थी । और न किसी प्रकारका भय ही था। किं तु प्रजा अच्छीतरह सुखानुभव करती थी । पहिले महाराज बौद्धमतके सच्चे भक्त हो चुके थे। इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उससमय भी बुद्ध देवका वरावर ध्यान करते रहते थे। और बुद्धदेवकी कृपासे ही अपनेको राजा हुवा समझते थे। किसीसमय महाराज राजसिंहासनपर विराजमान होकर अपना राज्यकार्य कर रहे थे। अचानक ही एक विद्याधर जो कि अपने तेजसे समस्त भूमंडलको प्रकाशमान करता था, सभामें आया और महाराज श्रेणिकको विनय पूर्वक नमस्कार कर यह कहने लगा। हे देव ! इसी जंबूद्वीपकी दक्षिणदिशामें एक केरला नामकी प्रसिद्ध नगरी है। उस नगरीका स्वामी विद्याधरोंका अधिपति राजा मृगांक है । राजा मृगांककी रानीका नाम मालतीलता है जो कि समस्त रानियोंमें शिरोमणि, एवं रूपादि उत्तमोत्तम गुणोंकी खानि हैं । और महाराणी मालती लतासे उत्पन्न अनेक शुभलक्षणोंसे युक्त विलासवनी नाम की उसके एक पुत्री है। किसीसमय पुत्री विलासवतीको यौवनावस्थापन्न देख राजा मृगांकको उसकेलिये योग्य वरकी चिंता हुई । वे शीघही किसी दिगम्बर मुनिके पास गये । और उनसे इसप्रकार विनय भावसे पूछा। हे प्रभो ? मुने : आप भूत भविष्यत वर्तमान त्रिकालवर्ती पदार्थोंके भलेप्रकार जानकर हैं । संसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो आपकी दृष्टि से बाह्य हो । कृपाकर मुझे यह वतावें पुत्री विलासवतीका वर कोंन होगा ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा मृगांकके ऐसे विनयभरे वचन सुन मुनिराजने कहा-राजन् ! इसीद्वीपमें आतशय उत्तम एक राजगृह नामका नगर है । राजगृह नगरके स्वामी, नीति पूर्वक प्रजाका पालन करनेवाले, महाराज श्रेणिक हैं । नियमसे उन्हीके साथ यह पुत्री विवाही जायगी। ___मुनिराजके ऐसे पवित्र वचन सुन, एवं उन्हें भक्तिपूर्वक नमम्कारकर, राजा मृगांक अपने घर लोट आये। और हे महाराजश्रेणिक ! तवसे राजा मृगांकने आपको देनेके लिये ही उसपुत्रीका दृढ़ संकल्प करलिया । अनेकवार मनाई करने परभी हंसदीपका स्वामी राजा रत्नचूल यद्यपि उस पुत्रीके साथ जवरन विवाह करना चाहता है । राजा मृगांकसे जवरन विलासवतीको छीन लेनेकेलिये रत्नचूलने अपनी सेनासे चौतर्फा नगरीको भी घेर लिया है। तथापि राजा मृगांक उसै पुत्री देना नहीं चाहता । मैंने ये बाते प्रत्यक्षदेखीं हैं । मैं यह समाचार सब आपको सुनाने आया हूं • अधिक समय तक मैं यहां ठहर भी नहीं सकता । अव आप जो उचित समझै सो करें। विद्याधर जंबुकुकारके वचन सुनते ही महाराज चुप चाप न बैठ सके। उन्होंने केरला नगरीको जानकेलिये शीघ्र ही तयारी करदी। एवं सेनापतिको बुला उसै सेना तयार करनेकेलिये आज्ञा भी दी। जंबुकुमारका उद्देश यह न था कि महाराज श्रेणिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) केरला नगरी चलें। और न वह महाराजको लिवानेकेलिये राज गृह आया ही था । किं तु उसका उद्देश केवल महाराजकी विवाह स्वीकारताका था । जिससमय उसने महाराजको सर्वथा चलनेकेलिये तयार देखा तो वह इसरीतिसे विनयसे कहने लगा - हे महाराज ! कहां तो आप ? और कहां केरला नगरी ? आप... भूमिगोचरी हैं। वहां आपका जाना कठिन है । आप यहीं रहैं | मुझे जल्दी जानेकी आज्ञादें । तथा ऐसा कहकर वह शीघ्र ही आकाश मार्गसे चलदिया। और बातकी बात में केरला नगरीमें जा दाखिल हुवा | 1 इधर महाराज श्रेणिकने भी केरला नगरी जाने के लिये प्रस्थान करदिया । एवं ये तो कुछदिन मंजल दरमंजलकर विंध्याचलकी अटवीमें पहुंच कुरलाचलके पास ठहरगये । उधर विद्याधर जंबु - कुमारने केरला नगरी में पहुंचकर रत्नचूलकी सेनाको ज्योंकी त्यों नगरी घेरे हुवे देखा । और किसीकार्यके वहानेसे रत्नचूल के पास जा उसने यह प्रतिपादन किया । हे राजन् रत्नचूल ! यह विलासवतीतो मगधेश्वर महाराज उपश्रेणिको दी जा चुकी है । आप न्यायवान होकर क्यों राजा मृगांक से विलासवतीकेलिये जोरावरी कर रहे हैं। आपसरीखे नरशोंका ऐसा वर्ताव शोभा जनक नहीं । रत्नचूलका काल तो शिर पर मड़रा रहा था । भला वह नीति एवं अनीति पर विचार करने कब चला । उसने जंबूक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) मारके वचनोंपर रत्तीभर भी ध्यान नहीं दिया । और उल्टा नाराज होकर जंबुकुमार से लड़नेकोलिये तयार होगया । जंबुकुमारभी किसी कदर कम न था वह भी शीघ्र युद्धार्थ तयार होगया । और कुछ समयपर्यंत युद्धकर जंबुकुमारने रत्नचूलको बांध लिया । उसकी आठ हजार सेनाको काट पीटकर नष्ट कर दिया । एवं उसे राजा मृगांके चरणोंमें डार जो कुछ वृतांत हुवा था सारा कह सुनाया । तथा यह भी कहा कि महाराज श्रेणिकभी केरला नगरीकी ओर आ रहे हैं । जंबुकुमारका यह असाधारण कृत्य देख राजा मृगांक अति प्रसन्न हुवे | उन्होने जंबुकुमारकी वारंवार प्रशंसाकी । एवं जंबुकुमारकी अनुमति पूर्वक राजा मृगांकने राजा रत्नचूल एवं पांचसों विमानोंके साथ कन्या विलासवतीको लेकर राजगृहकी ओर प्रस्थान कर दिया । महाराज उपश्रेणिक तो कुरलाचलकी तलहटीमें ठहरे ही थे । जिससमय राजा मृगांकके विमान कुरलाचलकी तलहटी में पहुंचे। जंत्र कुमार की दृष्टि राजा श्रेणिक पर पड़गई। महाराजको देख राजा मृगांक सबके साथ शीघ्रही वहां उतर पड़े । उन सबने भक्तिभावसे महाराज श्रेणिकको नमस्कार किया । और परस्पर कुशल पूछने लगे । तथा कुशल पूछने के बाद शुभ मुहूर्त में कन्या तिलकवती का महाराज श्रेणिकके साथ विवाह भी होगया । विवाह के बाद राजा मृगांकने केरला नगरीकी ओर लौट - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwAAAAN नेके लिये आज्ञा मांगी। एवं चलनेकेलिये तयार भी होगये। महाराज श्रेणिकने उन्हे जाते देख उनके साथ बहुत कुछ हित जनाया। और उन्हें सन्मान पूर्वक विदा करदिया । तथा स्वयं भी विद्याधर जंबुहुमारके साथ राजगृह आगये । राजगृह आकर महाराज श्रेणिकने विद्याधर जंबुकमारका बड़ा भारी सन्मान किया। और नवोढ़ा तिलकवतीके साथ अनेक भोग भोगते हुवे वे सुखपूर्वक रहने लगे। किसीसमय महाराज आनंदमें बैठे हुवे थे। अकस्मात् उहें नंदिग्रामके निवासी विप्र नंदिनाथका स्मरण आया। महाराज श्रेणिकका जो कुछ पराभव उसने किया था, वह सारा पराभव उन्हे साक्षात्सरीखा दीखने लगा। वे मनमें ऐसा विचार करने लगे-देखो नंदिनाथकी दुष्टता नचिता एवं निर्दय पना? राजगृहसे निकलते समय जब मैं नंदिग्राममें जा निकला याउससमय विनयसे मागने पर भी उसने मुझे भोजनका सामान नहीं दिया था । यदि मैं चाहता तो उससे जवरन खाने पीनेके लिये सामान ले सकता था। किंतु मैंने अपनी शिष्टतासे वैसा नहीं किया था । और दीन वचन ही वोलता रहा था। मुझे जान पड़ता है जब उसने मेरे साथ ऐसा कस्ताका वर्ताव किया है, तब वह दूसरोंकी आवरू उतारनेमें कव चूकता होगा ? राज्य की ओरसे जो उसै दानार्थ द्रव्य दिया जाता है नियमसे उसे | वही गटक जाता है। किसी को पाई भरभी दान नहीं देता।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब राज्यकी ओरसे जो उसे सदावर्त देनेका अधिकार देरक्खा है उसे छीन लेना चाहिये । और नंदिग्रामके ब्राह्मणोंको जो नंदिग्राम दे रक्खा है उसे वापिस लेलेना चाहिये । मैं अव अपना वदला विना लिये नहीं मानूंगा । नंदिग्राममें एक भी ब्राह्मणको नहीं रहने दूंगा । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर शीघ्र ही महाराज श्रेणिकने एक राजसेवक बुलाया । और उसे यह कहदिया जाओ अभी तुम नंदिग्राम चले जाओ और वहांके ब्राह्मगोंसे कह दो शीघही नंदिग्राम खाली करदें। इधर महाराजने तो नंदिग्रामके विप्रोंको निकालनेकेलिये आज्ञा दी उधर मत्रियोंके का नतक भी यह समाचार जा पहुंचा। वे दौड़ते दौड़ते तत्काल ही महाराजके पास आये । और विन यसे कहने लगे। राजन् आप यह क्या अनुचित काम करना चाहते हैं ? इससे बड़ी भारी हानि होगी । पीछे आपको पछिताना पड़ेगा । आप भलेप्रकार सोच विचार कर काम करें । मंत्रियोंके ऐसे वचन सुन महाराजके नेत्र और भी लाल होगये । मारे क्रोधके उनके नेत्रोंसे रक्तकी धारासी वहने लगी । और गुस्सामें भरकर वे यह कहने लगे। हे राजमंत्रियो ! सुनो नंदिग्रामके विषोंने मेरा बड़ा परा मव किया है । जिससमय मैं राजगृहसे निकल गया था, उस समय में नंदिग्राममें जा पहुंचा था । नंदिग्राममें पहुंचते ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखने मुझे बुरी तरह सताया। मुझे और तो वहां भूखकी निवृत्तिका कोई उपाय नहीं सूझा । मैं सीधा नंदिनाथके पास गया। और मैंने विनयसे भोजनकेलिये उससे कुछ सामान मांगा। किं तु दुष्ट नंदिनाथने मेरी एक भी प्रार्थना न सुनी वह एक दम मुझ पर नाराज होगया । दो चार गालियां भी दे मारी । मुझै उससमय अधिक दुःख हुवा था । इसलिये अब मैं उनसे विना वदला लिये न छोडूंगा।उन्हें नंदिग्रामसे निकालकर मानूंगा। इसप्रकार महाराजके वचन सुनकर, और महाराजका क्रोध अनिवार्य है यह भी समझकर, मंत्रियोंने विनयसे कहा। राजन् आप इससमय भाग्यके उदयसे उत्तमपदमें विराजमान हैं । आप सवोंके स्वामी कहे जाते हैं । आपको कदापि अन्याय मार्गमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिये । संसारमें जो राजा न्याय पूर्वक राज्यका पालन करते हैं । उन्हे कीर्ति धन आदि की प्राप्ति होती है । उनके देश एवं नगरभी दिनोंदिन उन्नत होते चले जाते हैं । हे प्रजापालक ! अन्यायसे राज्यमें पापियों की संख्या अधिक बढ़जाती है । देशका नाश होजाता है। समम्तलोकका प्रलय होना भी शुरु होजाता है। हे महाराज ! जिसप्रकार किसान लोग खेतमें स्थित धान्यकी वाढ़ आदि प्रयत्नोंसे रक्षा करते हैं । उसाप्रकार राजाको भी चाहिये कि वह न्याय पूर्वक बड़े प्रयत्नसे राज्यकी रक्षा करै। हे दीनबंधो ! संसारमें राजाके न्यायवान होनेसे समस्तलोक न्यायवाला होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) यदि राजा ही अन्यायी होवे तो कभी भी उसके अनुयायी लोग न्यायवान नहीं होसकते । वे अवश्य अन्याय मार्ग में प्रवृत्त होजाते हैं । कृपानाथ ! यदि आप नंदिग्राम के ब्राह्मणोंको नंदि ग्रामसे निकालना ही चाहते हैं तो उन्हें न्याय मार्ग से ही निकालें | न्याय मार्गके विना आश्रय किये आपको ब्राह्मणों का निकालना उचित नहीं । मंत्रियोंके ऐसे नीति युक्त वचन सुन महाराज श्रेणिकका क्रोध शांत होगया । कुछ समय पहिले जो महाराज ब्राह्मणोंको विना विचारे ही निकालना चाहते थे । वह विचार उनके मस्तक से हट गया । अब उनके चित्तमें ये संकल्प विकल्प उठने लगे । यदि मैं यही ब्राह्मणों को निकाल दूंगा तो लोग मेरी निंदा करेंगे । मेरा राज्य भी अनीतिराज्य समझा जायगा । इसलिये प्रथम ब्राह्मणों को दोषी सिद्ध कर देना चाहिये । पश्चात् उन्हे निकालने में कोई दोष नहीं । तथा तदनुसार महाराजने ब्राह्मणों को दोषी बनानेके अनेक उपाय सोचे। उन सबमें प्रथम उपाय यह किया कि एक बकरा मगवाया । और कई एक चतुर सेवकोंको बुला कर, एवं उन्हे वकारा सोंपकर, यह आज्ञा दी । जाओ इस वकरे को शीघ्र नंदिग्राम ब्राह्मणों को दे आओ। उनसे यह कहना यह वकरा महाराज श्रेणिकने भेजा है । इसे खूब खिलाया पिलाया जाय। किंतु इसबात पर ध्यान रहै। न तो यह लटने पावे और न अवाद ही होवे । यदि यह लटगया वा अवाद www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगया तो तुमसे नंदिग्राम छीन लिया जायगा। और तुम्हें उस से जुदा करदिया जायगा । महाराजके एसे आश्चर्यकारी वचन सुन सेवकोंने कुछ भी तीन पांच न की । वे बकरेको लेकर शीघ्र ही नंदिग्रामकी ओर चलदिये । तथा नादेग्राममें पहुंचकर बकरा ब्राह्मणोंकी सुपुर्द करादेया । और जो कुछ महाराजका संदेशा था। वह भी साफ साफ कह सुनाया। महाराजका यह विचित्र संदेशा सुन नंदिग्रामके ब्राह्मणों के होश उड़गये । वे अपने मनमें विचार करने लगे। यह वलाय कहांसे आपड़ी । महाराजका तो हमसे कोई अपराध हुवा नहीं है। उन्होंने हमारे लिये ऐसा संदेशा क्योंकर भेजदिया। हे ईश्वर ! यह बात बड़ी कठिन आ अटकी । कमती वढ़ती खवा नेसे यातो यह वकरा लट जायगा । या मोटा हो जायगा । इसका एकसा रहना असंभव है । मालूम होता है अब हमारा अंत आगया है। इधर ब्राह्मग तो ऐसा विचार करने लगे। उधर वेणतटमें सेठि इंद्रदत्तको यह पता लगा कि कुमार श्रोणिक अब मगधदेशके महाराज बन गये हैं। शीघही वे नंदश्री और कुमार अभयको लेकर राजगृहकी ओर चलदिये । और नंदिग्रामके पास आकर ठहरगये। सेठि इंद्रदत्त आदि तो भोजनादि कार्यमें प्रवृत्त हो गये। और नवीन पदार्थोंके देखनेके अतिप्रेमी कुमार अभय, नंदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) ग्राम देखनेके लिये चलदिये । उन्हें जाते देख परिवारके मनुप्योंने बहुत कुछ मनाई की। किं तु कुमारके ध्यानमें एक न आई। वे शीघ्र ही नंदिग्राममें दाखिल होगये । मध्य नगर में पहुंचते ही दैवसे उनकी मुलाकात नंदिनाथसे होगई उसै चिंतासे व्याकल एवं म्लान देख कुमारने चट घर पूछा । हे विप्रोंके सरदार! आपका मुख क्या फीका हो रहा है ! आप किस उधेड़ वुनमें लगे हुवे हैं ? इसनगर में सर्व मनुष्य चिंता ग्रस्त ही प्रतीत होते हैं यह क्या बात है ? । कुमारके ऐसे उत्तम वचन सुन, और वचनोंसे उसै बुद्धिमान भी जान, नंदिनाथने विनम्र वचनों में उत्तर दिया । महानुभाव ! राजगृहके स्वामी महाराज श्रेणिकने एक बकरा हमारे पास भेजा है। उन्होंने यह कड़ी आज्ञा भी दी है कि- नंदिग्राम के निवासी विप्र इस बकरेको खूब खिलावे पिलावे । किंतु यह वकरा एकासा ही रहै । नतो मोटा होने पावै, और न लटने पावे । यदि यह वकरा लटगया अथवा पुष्ट हो गया तो नंदिग्राम छीन लिया जायगा । हे कुमार ! महाराजकी इस आज्ञा का पालन हमसे होना कठिन जान पड़ता है । इसलिये इस गांव के निवासी हम सब ब्राह्मण चिंतासे व्यग्र हो रहे हैं । नंदनाथके ऐसे विनय युक्त वचन सुननेसे कुमार अभय का हृदय करुणासे गद गद हो गया । उन्होंने इस कामको कुछ काम न समझ ब्राह्मणोंको इस प्रकार समझा दिया । हे विप्रो ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAA आप इस कार्यके लिये किसी वातकी चिंता न करें। आप धैर्य रखें । आपके इस विघ्नके दूरकरनेकेलिये मैं भी उपाय सोचता हूं। तथा ऐसा विश्वास देकर वे भी उस चिंताके दूरकरनेका स्वयं उपाय सोचने लगे। कुमारकी बुद्धि तो अगम्य थी । उक्त विघ्न के दूरकरनेकेलिये उन्हें शीघ्र ही उपाय सूझ गया।उन्होंने शीघूही ब्राह्मणों को बुलाया । और उनसे इसप्रकार कहाहे विप्रो ! तुम एक काम करो वीच गांवमें एक खंभा गढ़वाओं। उससे कहीं से लाकर एक वाघ बांधदो । जिससमय चरानेसे वकरा मोटा मालूम पड़े। धीरेसे उसे वाधके सामने लाकर खड़ा करदो । विश्वास रक्खो इसरीतिसे वह बकरा न बढ़ेगा और न घटेगा । कुमारकी युक्ति ब्राह्मणोंके हृदयमें जमगई । उन्होंने शीघूही कुमारकी आज्ञानुसार वह काम करना प्रारंभ करदिया। प्रथम तो वे दिनभर खूब बकरेको चरावें। और पश्चात् सामको उसै बाघके सामने लेजाकर खड़ा करदें। इसरीतिसे उन्होंने कई दिन तक किया । वकरा वैसे का वैसाही बना रहा। तथा जैसा राजगृह नगरसे आया था वैसाही ब्राम्हणोंने जाकर उसै महाराजकी सेवामें हाजिर करदिया. विनके टलजाने पर इधर ब्राह्मणोंने तो यह समझा कि कुमारकी कृपासे हमारा विघ्न टलगया। हम वचगये। वे बारंबार कुमारकी प्रशंसा करने लगे। तथा कुमार अभयके पास आकर वे उनकी इसप्रकार स्तुति करनेलगे-हे दिव्यपुरुष ! हे पुण्यात्मन् ! हे समस्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) I जीवोंपर दयाकरनेवाले कुमार ! यह हमारा भयंकर विघ्न आपकी कृपासे ही शांत हुवा है । आपके सर्वोत्तम बुद्धिबलसे ही इस समय हमारी रक्षा हुई है । आपके प्रसादसे ही हम इससमय आनंदका अनुभव कर रहे हैं । आपने हमैं अमना समझ जीवन दान दिया है । यदि महाराजकी आज्ञाका पालन न होता तो नं मालूम महाराज हमारी क्या दुर्दशा करते - हमै क्या दंड देते । हे कृपानाथ कुमार ! हम आपके इस उपकारके बदले में क्या करैं । हम तो सर्वथा असमर्थ हैं । और आप समस्तलोकके विनाकारण बंधु है । हे कुमार ! जैसी आपके चित्तमें दया है । संसारमें वैसी दया कहीं नहीं जान पडती । हे महोदय ! आप संसारमें अलौकिक सज्जन हैं। आप मेघके समान हैं। क्योंकि जिसप्रकार मेघ परोपकारी, स्नेह (जल) युक्त, आर्द्र, एवं उन्नत, होते हैं उसीप्रकार आपभी परोपकारी हैं। समस्तजनोंपर प्रीतिके करने वाल हैं । आपका भी चित्त दया से भींगा हुआ है । और आप जगतमें पवित्र हैं । हे हमारे प्राणदाता कुमार ! आपकी सेवा में हमारी यह सविनय निवेदन है । जबतकराजाका कोप शांत न होमहाराज हमारे ऊपर संतुष्ट नहीं हों आप इस नगरको ही सुशोभित करें। आप neतक इस नगरसे कदापि न जांय । यदि आप यहांसे चले जायगें तो महाराज हमें कदापि यहां नहीं रहने देगें । | 1 इधर तो नंदिनाथ एवं अन्य विप्रोंकी इस प्रार्थनाने. कु. मार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ( १९० ) अभयके चित्त पर प्रभाव जमादिया । उन्हें जबरन प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी। और ब्राह्मणोंपर दयाकर नंदिगाममें कुछ दिन ठहरना भी निश्चित करलिया । उधर जिससमय महाराजने बकरेको ज्योंका त्यों देखा । वे गहरी चिंतामें पड़गये । अपने प्रयत्नकी सफलता न देख उन्हें अति क्रोध आगया।वे सोचने लगे। जब नंदिगाममें ब्राह्मण इतने बुध्दिमान हैं। तब उनको कैसे नंदिगामसे निकाला जाय? । तथा क्षण एक ऐसा सोचकर शीघ्र ही उन्होंने फिर एक दूत बुलाया। और उससे यह कहा-तुम अभी नंदिगाम जाओ। और वहांके निवासी ब्राह्मणोंसे कहो किमहाराजने यह आज्ञादी है कि नंदिगामनिवासी बाह्मण शीघ्र एक वावड़ी राजगृह नगर पहुंचादें । नहीं तो उनको कष्टका सामना करना पड़ेगा। ___महाराजकी आज्ञा पाते ही दूत चला। और नंदिगाम में पहुंचकर शीघ्र ही उसने ब्राह्मणोंसे कहा। हे विप्रो ! महाराजने नंदिगामसे एक वावड़ी राजगृह नगर मगाई है । आपलोगों को यह कड़ी आज्ञा दी है कि आप उसे शीघ्र पहुंचादे । नहीं तो तुम्हें नगरसे जाना पड़ेगा। दृतके मुखसे महाराजकीए सी कठिन आज्ञा सुन, नंदिग्राम निवासी विप्र दातोंमें उंगली दवाने लगे। वे विचारने लगे कि अवके महाराजने कठिन अटकाई । वावड़ीका जाना तो सर्वथा असंभव है। मालूम होताहै महाराजका कोप अनिवार्य है। अब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमैं नंदिग्राममें रहना कठिन जान पड़ता है । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर वे सब मिलकर कुमार अभयके पास गये। और सारा समाचार उन्हें जाकर कह सुनाया। ब्राह्मणोंके मुखसे वावड़ीका भेजना सुनकर, और नंदिग्राम निवासी ब्राह्मणोंको चिंतासे ग्रस्त देखकर, कुमार अभयने उत्तर दिया। हे विप्रो! यह कोंन बड़ी वात है. आप क्यों इस छोटीसी वातके लिये चिंता करते हैं ? आप किसीवातसे जराभी न घबड़ाय । यह विघ्न शीघ्र दूर हुवा जाता है। आप एक काम करें। आपके गांवमें जितने भर वैल एवं भैंसे हों उन सवको इकट्ठाकरो। सबके कंधोपर जूवा रखवा दो।और नंदिग्रामसे राजगृह तक उनकी लगतार लगादो जिससमय महाराज अपने राजमंदिरमें गाढ़ निद्रामें सोते हों । वेधड़क हल्ला करतेहुवे राजमंदिरमें घुस जाओ। और खूब जोरसे पुकार कर कहो। नंदिप्रामके ब्राह्मण वावड़ी लायें हैं । जो इन्हें आज्ञा होय सो किया जाय । वस महाराजके उत्तरसे ही आपका यह वित्र टल जायगा। ___कुमारकी यह युक्ति सुन ब्राह्मणोंने गांवके समन्त वैल एवं भैंसा एकत्रित किये। उनके कधोंपर जूवा रखदिया। और उन्हें नदिग्रामसे राजमंदिर तक जोत दिया। जिससमय महाराज गाढ़ निद्रामें वेसुध सो रहे थे। राजमंदिरमें बड़े जोरसे हल्ला करना प्रारंभ करदिया । और महाराजके पास जाकर यह कहा महा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) राजाधिराज ! नंदिग्रामके ब्राह्मण वाबड़ी लाये हैं । अब उन्हें जो आज्ञा हो सो करें। उससमय महाराजके ऊपर निद्रादेवीका पूरा पूरा प्रभाव पड़ा हुवा था। निद्राके नशेमें उन्हें अपने तन बदनका भी होश हवास नहीं था। इसलिये जिससमय ऊन्होंने ब्राह्मणोंके वचन सुने, तो वेसुधमें उनके मुखसे धीरेसे ये ही शब्द निकल गये कि--जहांसे वावड़ी लाये हो, वहीं पर वावड़ी लेजाके रख दो। और राजमंदिरसे शीघ्रही चले जाओ । वस फिर क्या था, ब्राह्मण तो यह चाहते ही थे कि किसीरीतिसे महाराजके मुखसे हमारे अनुकूल वचन निकलैं । जिससमय महाराजसे उन्हें अनुकूल जवाव मिला तो मारे हर्षके उनका शरीर रोमांचित होगया। वे उछलते कूदते तत्कालही नांदिग्रामको लोटगये । और वहां पहुंचकर, विघ्नकी शांतिसे अपना पुनर्जीवन समझ, वे सुख सागरमें गोता मारने लगे। तथा अभयकुमारके चातुर्य पर मुग्ध होकर उनके मुखसे खुले मैदान ये ही शब्द निकलने लगे कि कुमार अभय की बुद्धि अत्युत्तम और आश्चर्य करनेवाली है । इनका हर एक विषयमें पांडित्य सबसे चढ़ा वढ़ा है । सौजन्य आदिगुण भी इनके लोकोत्तर हैं इत्यादि । इधर अपने भयंकर विघ्नकी शांति होजानेसे विप्रतो नंदिग्रामम सुखानुभव करने लगे। उधर राजगृह नगरमें महाराज श्रेणिककी निद्राकी समाप्ति होगई। उठते ही उनके मुंहसे यही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) प्रश्न निकला कि-नंदिग्रामके ब्राह्मण जो वावड़ी लायेथे वह वावड़ी कहां है ? शीघ्र ही मेरे सामने लाओ-- महाराजके वचन सुनते ही पहरेदारने जवाव दिया महाराजाधिराज : नंदिग्रामके ब्राह्मण रातको चावड़ी उठाकर लायथे। जिससमय उन्होंने आपसे यह निवेदन किया था कि वावड़ी कहा रखदी जाय ! उससमय आपने यही जवाव दिया था कि 'जहांसे लाये हो वहीं लेजाकर रखदो और शीघ्र राजमंदिरसे चले जाओ । इसलिये हे कृपानाथ ? वे वावडीको पछेि ही लोटा ले गये । दरम्यानाके ये वचन सुन मारे क्रोधके महाराज श्रेणिकका शरीर भवकने लगा । वे वारवार अपने मनमें ऐसा विचार करने लगे कि-संसारमें जैसी भयंकर चेष्टा निद्राकी है, वैसी भयंकर चेष्टा किसी की नहीं । यदि जीवोंके सुखपर पानी फेरनेवाली है तो यह पिशाचिनी निद्रा ही है । परमर्षियोंने जो यह कहा है कि जो मनुष्य हितके आकांक्षी हैं-अपनी आत्माका हित चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे इस निद्राको अवश्य जीतें सो वहुत ही उत्तम कहा है। क्योंकि जिससमय पिशाचिनी यह निद्रा जीवोंके अंतरगमें प्रविष्ट होजाती है।उससमय विचारे प्राणी इसके वश हो अनेक शुभ अशुभ कर्म संचय कर मारते हैं । और अशुभ कर्मोकी कृपासे उन्हें नरकादि घोर दुःखोंका सामना करना पड़ता है । वास्तवमें यह निद्रा क्षुधाके समान है। क्यों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammarmarrrrrrrrrry A ( ११४ ) कि जिसप्रकार क्षुधाका जीतना कठिन है । उसीप्रकार इस निद्राका जीतना भी अति कठिन है । क्षुधासे पीड़ित मनुष्य-- को जिसप्रकार यह विचार नहीं रहता कौंन कर्म अच्छा है कौंन वुरा है ? । संसारमें कौंन वस्तु मुझे ग्रहण करने योग्य है ? | कौंन त्यागने योग्य है। उसीप्रकार निद्रापीड़ित मनुष्यको भी अच्छे बुरे एवं हेय उपादेयका विचार नहीं रहता । एवं जैसा क्षुधापीड़ित मनुष्य पाप पुण्यकी कुछ भी परवा नहीं करता । वैसे ही निद्रा पीड़ित मनुष्यको भी पाप पुण्यकी कुछभी परवा नहीं रहती । तथा यह निद्रा एक प्रकारका भयंकर मरण हैं । क्योंकि मरते समय कफके रुकजाने पर जैसा कंठमें घड़ घड़ शब्द होने लगजाता है।निद्राके समय भी उसी प्रकार घड़ घड़ शब्द होता है । मरणकालमें संसारी जीव जैसा खाट आदिपर सोता है उसीप्रकार निद्राकालमें भी वेहोशी से खाट आदिपर सोता है । मरणकालमें जैसा मनुष्यके अंगपर पंसीना झमक आता है वैसा निद्राके समय भी अंगपर पसीना आजाता है। एवं मरण समयमें जिसप्रकार जीव जराभी नहीं चल सकता शांत पड़जाता है । निद्राकालमें भी उसीप्रकार जीव जराभी नहीं चलता किंतु काठकी पुतलीके समान वेहोश पड़ा रहता है । इसलिये यह निद्रा अति खराव है । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर देदीप्यमान शरीरसे शोभित, महाराज श्रेणिकने फिरसे सेवकोंको वुलाया । और उनसे कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) कि जाओ और शीघ्रही नंदिग्राम के ब्राह्मणोंसे कहो । महाराजने यह आज्ञादी है कि नंदिग्रामके विप्र एक हाथीका बजन कर शीघ्र ही मेरे पास भेजदें । महाराजकी आज्ञा पातें ही सेवक चला । और नंद्रिग्राममें जाकर उसने ब्राह्मणोंसे, जो कुछ महाराजकी आज्ञा थी सब कह सुनाई । तथा यह भी कह सुनाया कि महाराजकी इस आज्ञा का पालन जल्दी हो । नहीं तो आपको जबरन नंदिग्राम खाली करना पड़ेगा । सेवक के मुख से महाराजकी आज्ञा सुनते ही नंदिग्रामनिवासी विप्रोंके मुख फखे पड़गये । मारे भयके उनका गात्र कपने लगगया। वे अपने मनमें सोचने लगे कि बावड़ीका विन टलजाने से हमने तो यह सोचा था कि हमारे दुःखोंकी शांति होगई । अव यह बलाय फिरसे कहां से आ टूटी ! | तथा कुछ देर ऐसा विचार वे, बुद्धिशाली कुमार अभयके पास गये ! और उनसे इसरीतिसे विनय पूर्वक कहा । माननीय कुमार ! अवके महाराजने बड़ी कठिन अटकाई है । अवके उन्होंने हाथीका बजन मांगा है भला हाथीका वजन कैसे किसरीति से होसकता है ? मालूम होता है महाराज अव हमैं छोड़ेंगे नहीं । ब्राह्मणों के ऐसे दोनता पूर्वक वचन सुन कुमारने उत्तरं दिया आप इस जरासो बातकेलिये क्यों इतने घवड़ाते हैं ! । मैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) अभी इसका प्रतीकार करता हूं । तथा ब्राह्मणोंको इसप्रकार आश्वासन दे वे शीघ्र ही किसी तलावके किनारे गये । तलाव के पास जाकर उन्होंने एक नोका मगाई । और ब्राह्मणों द्वारा एक हाथी मगाकर उस नावमें हाथी खड़ा कर दिया। हाथ के वजनसे जितना नावका हिस्सा डूबगया उस हिस्से पर कुमारने एक लकीर खींचदी । एवं हाथीको नांवसे बाहिर कर उसमें उतने ही पत्थर भरवा दिये । जिससमय पत्थर और हाथीका वजन वरावर होगया तो कुमारने उनपत्थरों को भी नावसे निकलवा लिया । तथा उन पत्थरोंकी वरावर दूसरे बड़े बड़े पत्थर कर महाराज श्रेणिककी सेवामें भिजवा दिये । और नंदिग्रायके ब्राह्मणों की ओरसे यह निवेदन कर दिया कि - कृपानाथ ! आपने जो हाथीका वजन मागा था सो यह लीजिये | - जिस समय महाराज श्रेणिकने हाथीके बजनके पत्थर देखे तो उनको बड़ा आश्चर्य हुवा । वे अपने मनमें विचारने लगे कि नंदिग्रामके ब्राह्मण अधिक बुद्धिमान हैं। उनका चातुर्य एवं पांडित्य ऊंचे दर्जेपर चढ़ा हुवा है । ये किसीरीति से जीते नहीं जासकते । तथा क्षण एक अपने मनमें ऐसा भलेप्रकार वि चार कर महाराजने फिर सेवकोंको बुलाया । और एक हाथ प्रमाणकी एक निखोल खैरकी लकड़ी उन्हें दे यह कहा कि -- जाओ इस लकड़ीको नंदिग्राम के ब्राह्मणों को दे आओ । उनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) कहना महाराजने यह लकड़ी भेजी हैं । कौंनसा तो इसका नीचा भाग है और कौंनसा इसका ऊपरका भाग है ? यह परीक्षाकर शीघ्रही महाराजके पास भेजदो । नहीं तो तुम्हें नंदिग्राम से निकाल दिया जायगा । - महाराज की आज्ञापाते ही दूत राजगृह नगरसे चला और नंदिग्राम के ब्राह्मणों को लकड़ी देकर उसने कहा किराजगृहके स्वामी महाराज श्रेणिकने यह लकड़ी भेजी है । इसका कौंनसा तो अगला भाग है और कोनसा पिछला भाग है ? शीघ्रही परीक्षाकर भेजदो । यदि नहीं बता सको तो नंदिग्राम छोड़कर चले जाओ । दूतके मुख से जब महाराजका यह संदेशा सुनने में आया तो नंदिग्रामके ब्राह्मणों के मस्तक घूमने लगे । वे सोचने लगे यह वलाय तो सबसे कठिन आकर टूटी । इस लकड़ीमें यह बताना बुद्धिके बाह्य हैं कि कोंनसा भाग इसका पिछला है । और कोनसा अगला है ! इसका उत्तर जाना महाराजके पास कठिन है । अव हम किसीकदर नंदिग्राममें नहीं रह सकते । तथा क्षण एक ऐसे संकल्प विकल्प कर अति व्याकुल हो वे कुमारके पास गये।महाराजका सारा संदेशा कुमारको कह सुनाया और वह खैर की लकड़ी भी उनके सामने रखदी । ब्राह्मणोंको म्लानचित्त देख और उस खैरकी लकड़ी को निहार कुमारने उत्तर दिया आप महाराजकी इस आज्ञासे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) जराभी न डरें। मैं अभी इसका प्रतीकार करता हूं । तथा सव ब्राह्मणोंको इसप्रकार दिलासादेकर कुमारकिसी तलाव के किनारें गये । ताला में कुमारने लकड़ी डाल दी। जिससमय वह लकड़ी अपने मूल भागको आगेकर वहने लगी । शीघ्रही उन्होंने उसका पीछे आगे का भाग समझ लिया । एवं भलेप्रकार परीक्षा कर किसी ब्राह्मणके हाथ उसे महाराज श्रेणिककी सेवामें भेजदिया । लकड़ीको ले ब्राह्मण राजगृह नगर गया । और कुमारकी आज्ञानुसार उसने लकड़ीका नीचा ऊंचा भाग महाराजकी सेवामें विनयपूर्वक जा वताया । जिससमय महाराजने लकड़ी को देखा तो मारे क्रोध से उनका तन वदन जल गया । वे सोचने लगे मैं ब्राह्मणों पर दोष आरोपण करनेके लिये कठिन से कठिन उपाय कर चुका । अभी ब्राह्मण किसीप्रकार दोषी सिद्ध नहीं हुवे हैं । नंदिग्राम के ब्राह्मण बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं । अब इनका दोषी बनाने के लिये कोई दूसरा उपाय सोचना चाहिये । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवकको वुलाया | और उसके हाथमें कुछ तिल देकर यह आज्ञा दी कि अभी तुम नंदिग्राम जाओ। और वहांके ब्राह्मणोको तिल देकर यह बात कहो कि महाराजने ये तिल भेजे हैं । जितने ये तिल हैं इनकी वरावर शीघ्रही तेल राजगृह पहुंचा दो । नहीं तो तुम्हारे हकमें अच्छा न होगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजकी आज्ञानुसार दूत नंदिग्रामकी ओर चलदिया। और तिल ब्राह्मणोंको देदिये । तथा यह भी कह दिया कि जितने ये तिल हैं महाराजने उतना ही तेल मगाया है। तेल शीघ्र भेजो नहिं तो नंदिग्राम छोड़ना पड़ेगा। दूतके मुखसे ऐसे वचन सुन ब्राह्मण बड़े घवड़ाये । वे सीधे कुमार अभयके पास गयाऔर विनयपूर्वक यह कहा-महोदय कुमार ! महाराजने ये थोड़े से तिल भेजे हैं।इनकी वरावर ही तेल मांगा है। क्या करें ? यह वात अति कठिन है । तिलोंके वरावर तेल कैसे भेजा जासकता है ? मालूम होता है अब महाराज छोड़ेंगे नहीं। ब्राह्मणोंको इसप्रकार हताश देख कुमारने फिर उन्हे समझा दिया । तथा एक दर्पण मगाया ओर उस दर्पण पर तिलोंको पूरकर ब्राह्मणोंको।आज्ञा दी कि जाओ इनका तेल निक लवा लाओ। जिससमय कुमारकी आज्ञानुसार ब्राह्मण तेल पेर कर ले आये । तो उस तेलको कमारने तिलों की वरावर ही दर्पण पर पूरदिया । और महाराज श्रेणिककी सेवामें किसी मनुप्य द्वारा मिजवा दिया। तिलोंके वरावर तेल देख महाराज चकित रहगये । फिर उनके हृदय समुद्रमें विचार तरंग उछलने लगीं । वे वारंवार नंदिग्रामके ब्राह्मणोंके वुद्धिबलकी प्रशंसा करने लगे।अब महाराज को क्रोधके साथ साथ नंदिग्रामके ब्राह्मणों की बुद्धि परीक्षाका कोतू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) हलसा होगया । उन्होंने फिर किसी सेवकको बुलाया । और उसै आज्ञा दी कि तुम अभी नंदिग्राम जाओ । और ब्राह्मणों से कहो कि महाराजने भोजन के योग्य दूध मगाया है । उनसे यह कह देना कि वह दूध गाय भैंस आदि चौपाओंका न हो। और न वकरी आदि दुपाओंका हो । नारियल आदि पदार्थों का भी न हो । किंतु इनसे अतिरिक्त हो । मिष्ट हो । उत्तम हो । और बहुतसा हो । 1 महाराजकी आज्ञानुसार दूत फिर नंदिग्रामको गया । महाराजने जैसा दूध लानेके लिये आज्ञा दी थी । वही आज्ञा उसने नंदिग्रामके विप्रोंके सामने जाकर कह सुनाई । और यह भी सुना दिया कि महाराज का क्रोध तुम्हारे ऊपर बढ़ता ही चला जाता है। महाराज आपलोगों पर बहुत नाराज हैं। दूध शीघ्र भेजो नहीं तो तुम्हे नंदिग्राम में नहीं रहने देंगे । दूतके मुख से यह संदेशा सुन ब्राह्मणों के मस्तक चक्कर खाने लगे । वे विचारने लगे कि दूध तो गाय भैंस बकरी आदिका ही होता है । इनसे अतिरिक्त किसीका दूध आज तक हमने सुनाही नहीं है । महाराजने जो किसी अन्य ही चीज का दूध मगाया है सो उन्हें क्या सूझी है ? क्या वे अब हमारा सर्वथा नाश ही करन चाहते हैं ? तथा क्षण एक ऐसा विचारकर वे अति व्याकुल हो दोड़ते दोड़ते कुमार अभय के पास गये । और महाराजका सब संदेशा कुमारके सामने कह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) सुनाया।तथा कुमारसे यह भी निवेदन किया कि--हे महानुभाव कुमार ! अवके महाराजकी आज्ञा बड़ी कठिन है-..-क्योंकि हो सकता है दूध तो गाय भैंस बकरी आदिका ही हो सकता है। इनसे अतिरिक्तका दूध होई नहीं सकता। यदि हो भी तो वह दूध नहीं कहा जा सकता । महाराजने अव यह दूध नही मांगा है हमलोगोंके प्राण मांगे हैं। ब्राह्मणोंके वचन सुन कुमारने उत्तर दिया आप क्यों घबड़ाते हैं । गाय भैंस बकरी आदिसे अतिरिक्तका भी दूध होता है । मैं अभी उसे महाराज की सेवामें भिजवाता हूं । आप जरा धैर्य रक्खे । तथा ऐसा कहकर कुमारने शीघही कच्चे धान्योंकी वाले मगवाई। और उनसे गौके समान ही उत्तम दूध निकलवाकर कई घड़े भरकर तयार करायोएवं वे घड़े महा राज श्रेणिककी सेवामें राजगृह नगर भेजदिये ।। दूधके भरे हुवे घड़ाओंको देख महाराज आश्चर्य समुद्रमें गोता लगाने लगे।नंदिग्रामके विप्रोंके बुद्धिवलकी ओर ध्यान दे उन्हे दांतो तले उंगली दवानी पड़ी। वे बारवार यह कहने लगे कि नंदिगामके ब्राह्मणोंका बुद्धिवल है कि कोई वलाय है?मैं जिस चीजको परीक्षार्थ उनके पास भेजता हूं।फौरन वे उसका जवाब मेरे पास भेज देते हैं । मालूम होता है उनका बुद्धिवल इतना बढ़ा चढ़ा है कि उन्हें सोचने तक की भी जरूरत नहीं पड़ती। अस्तु अव मैं उन्हें अपने सामने बुलाकर उनकी परीक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmwwmarrian, JANNA rammmmmmmmmmmmmmmmonal ( १२२ ) करता हूं। देखें वे कैसे बुद्धिमान हैं ? । तथा क्षण एक ऐसा अपने मनमें दृढ़ निश्चयकर महाराजने शीघ्र ही एक सेवकको वुलाया।और उससे यह कहा-तुम अभी नंदिग्राम जाओ और वहांके विप्रोंसे कहो महाराजने यह आज्ञा दी है कि नंदिग्रामके ब्राह्मण एकही मुर्गेको मेरे समाने आकर लड़ावे । यदि वे ऐसा न करें तो नंदिग्राम खाली कर चले जाय । महाराजकी आज्ञा पाते ही दूत फिर चलदिया। और नंदिगाममें पहुंच उसने ब्राह्मणोंसे जाकर यह कहा कि आपलोंगोकेलिये महाराजने यह आज्ञा दी है किं नंदिग्रामके ब्राह्मण राजगृह नगर आवे । और हमारे सामने एक ही मुर्गेको लड़ावे । यदि यह बात उनको नामंजूर हो तो वे शीघ्रही नंदिग्रामको खालीकर चले जाय। दूतके वचन सुन ब्राह्मण फिर घबड़ाकर कुमार अभयके पास गयोऔर महाराजका सारा संदेशा उनके सामने निवेदन करदिया। तथा यह भी कहा महनीय कुमार ! अबके महाराज ने हमैं अपने सामने बुलाया है । अवके हमारे ऊपर अति भयंकर बिघ्न मालूम पड़ता है। ब्राह्मणोंके ऐसे वचन सुन कुमारने उत्तर दिया आप खुशीसे राजगृह नगर जांय । आप किसी वातसे घबड़ाये न । वहां जाकर एक काम करें । मुगेको अपने सामने खड़ाकर एक दर्पण उसके सामने रखदें। जिससमय वह मुर्गा दर्पणमें अपनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) तस्वीर देखेगा।अपना वैरी दूसरा मुर्गा समझ वह फोरन लड़ने लग जायगा । और आपका काम सिद्ध होजायगा। कुमारके मुखसे यह युक्ति सुनकर मारे हर्षके ब्राह्मणोंका शरीर रोमांचित होगया । एक मुर्गा लेकर वे शीघ्रही राजगृह नगरकी ओर चलदिये । राजमंदिरमें पहुंचकर उन्होंने भक्ति पूर्वक महाराजको नमस्कार किया। तथा उनके सामने उन्होंने मुर्गा छोड़दिया। और उसके आगे एक दर्पण रख दिया । जिस समय असली मुर्गेने दर्पणमें अपनी तस्वीर देखी तो उसने उसे अपना वैरी असली मुर्गा समझा । और वह चोंच मार मारकर उसके साथ अति आतुर हो युद्ध करने लगगया। __अकेले ही मुर्गेको युद्ध करते हुवे देख महाराज चकित रह गये । उन्होंने शीघही मुर्गेकी लड़ाई समाप्त करादी।तथा ब्राह्म णोंको जानेके लिये आज्ञा देदी । जिससमय ब्राह्मण चलेगये तब महाराजके मनमें फिर सोच उठा । वे विचारने लगे ब्राह्मण बड़े बुद्धिमान हैं । उनको अब किसरीतिसे दोषी बनाया जाय? कुछ समझमें नहीं आता । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवकको बुलाया।और उससे कहा कि तुम शीघ्र नंदिनाम जाओ।और वहांके ब्राह्मणोंसे कहो । महाराजने एक वालूकी रस्सी मगाई है । शीघ्र तयार कर भेजो । नहीं तो अच्छा न होगा। महाराजकी आज्ञा पाते ही दूत नंदिग्रामकी ओर चल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) दिया । तथा नंदिग्राम में पहुंचकर उसने ब्राह्मणोंके सामने महाराज श्रेणिकका सारा संदेशा कह सुनाया । दूत द्वारा महाराजकी यह आज्ञा सुन ब्राह्मणोंके तो बिलकुल छक्के छूटगये । वे भागते भागते कुमार अभय के पास पहुंचै । तथा कुमार अभय के सामने सारा संदेशा निवेदन कर उन्होने कहा पूज्य कुमार ! अवके महाराजने यह क्या आज्ञा दी है । इसका हमैं अर्थ ही नहीं मालूम हुवा । हमने तो आजतक न वालूकी रस्सी सुनी और न देखी । 1 ब्राह्मणों द्वारा महाराजकी आज्ञा सुन कुमारने उत्तर दिया। आप किसी बातसे न घबड़ांय। इसका उपाय यही है कि आपलोग अभी राजगृह नगर जांय । और महाराजके सामने यह निवेदन करें । श्रीराजाधिराज ! आपके भंडार में कोई दूसरी वालूकी रस्सी हो तो कृपाकर हमैं देवें। जिससे हम वैसाही रस्सी आपकी सेवामें लाकर हाजिर करदें । यदि महाराज नाई करें कि हमारे यहां वैसी रस्सीं नहीं हैं। तो उनसे आप विनय पूर्वक अपने अपराधकी क्षमा मागलीजिये । और यह प्रार्थना कर दीजिये कि- हे महाराज ? कृपाकर ऐसी अलभ्य वस्तुकी हमैं आज्ञा न दिया करें | हम आपकी दीन प्रजा हैं। कुमारके मुखसे यह युक्ति सुन ब्राह्मणों को अति हर्ष हुआ। वे मारे आनंदके उछलते कूदते शीघ्र ही राजगृह नगर जा पहुंचे। राजमंदिरमें प्रवेशकर उन्होंने महाराजको नमस्कार किया । और विनय पूर्वक यह निवेदन किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amannamraninamainamainamaina श्रीमहाराज!आपने हमें वालकी रम्सीकेलिये आज्ञा दी है। हमैं नहीं मालूम होता हम कैसी रस्सी आपकी सेवामें ला हाजिर करें । कृपया हमें कोई दूसरी वालूकी रम्सीं मिले तो हम वैसी ही आपकी सेवामें लाकर हाजिर कर दें । अपराध क्षमा हो। विप्रोंकी वात सुन महाराजने उत्तर दिया। हे विप्रो ! मेरे यहां कोई भी वालूकी रस्सी नहीं। वस फिर क्या था ! महाराजके मुखसे शब्द निकलते ही ब्राह्मणोंने एक स्वर हो इस प्रकार निवेदन किया। हे कृपानाथ । जव आपके भंडारमें भी रम्सी नहीं है तो हम कहांसे वालूकी रम्सी बनाकर ला सकते हैं। प्रभो ! कृपया हम पर ऐसी अलभ्य वस्तु के लिये आज्ञा न भेजा करें । आप की ऐसी कठोर आज्ञा हमारा घोर अहित करने वाली है । हम आपके तावेदार हैं।आप हमारे स्वामी हैं।तथा इसप्रकार विनय पूर्वक निवेदन कर विप्र राज मंदिरसे चले गये। किंतु विप्रोंके विनय करने पर भी महाराजके कोपकी शांति न हुई । विप्रोंके चलेजाने पर उन्हें फिर नंदियामके अपमानका स्मरण आया। उनके शरीरमें फिर क्रोधकी ज्वाला छटकने लगो। वे विचारने लगें कि ब्राह्मण किसी प्रकार दोषी नही वन पाये हैं। नंदिग्रामके ब्राह्मण बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं।अस्तु मैं अब उनके पास ऐसी आज्ञा भेजता हूं। जिसका वे पालन ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) I न कर सकैं । तथा क्षण एक ऐसा विचार महाराजने शीघ्र ही एक दूत बुलाया । और उसै यह आज्ञा दी कि तुम अभी नंदिग्राम जाओ । और वहां वाह्मणों से कहो कि महाराजने यह आज्ञा दी है कि नंदिग्राम के ब्राह्मण एक कूष्मांड ( पेठा ) मेरे पास लावें । बह कूष्मांड घड़ामें भीतर हो । और घड़ाकी बरावर हो । कंमती वदती न हो । यदि वे इस आज्ञाका पालन न करें तो नंदिग्रामको छोड़ दें । इधर महाराजकी आज्ञा पाकर दूत तो नंदिग्रामकी ओर रवाना हुवा । उधर जब ब्राह्मणोंको वालूकी रस्सी महाराजके यहांसे न मिली तो अपना विघ्न टलजानेसे वे खूब आनंदसे नंदिग्राममें रहनेलगे | और वारवार कुमार अभयकी बुद्धिकी तारीफ करने लगे । किंतु जिससमय दृत फिरसे नंदिग्राम पहुंचा । ओर ज्यों ही उसने ब्राह्मणोंके सामने महाराजकी आज्ञा कहनी प्रारंभ की । सुनते ही ब्राह्मण घबड़ागये । महाराजका आज्ञाके भय से उनका शरीर थरथर कांपने लगा । वे अपने मनमें विचारने लगे । हे ईश्वर ! यह वलाय फिर कहांसे आ टूटी । हम तो अभी महाराजसे अपना अपराध क्षमा कराकर आये हैं । क्या हमारे इतने विनय भावसे भी महाराजका हृदय दयासे न पसीजा ? अब हम अपने वचनेका क्या और कैसा उपाय करें ? । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर वे कुमारके सामने इसप्रकार रोदन पूर्वक चिल्लाने लगे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे वीरोंके शिरताज कुमार ! अवके महाराजने हमारे ऊपर अति कठिन आज्ञा भेजी है । हे कृपानाथ ! इसभयंकर विनसे हमारी शीघू रक्षा करो । हम ब्राह्मणोंक इसमयंकर दुःखका जल्दी निवटेरा करो।हे दीनबंधो इसमयंकर कष्टसे आपही हमारी रक्षा करसकते हैं । आपही हमारे दुःख पर्वतके नाश करने में अखंड वज्र हैं । महनीय कुमार ! लोकमें जिसप्रकार समुद्रकी गंभीरता, मेरुपर्वतका अचलपना, देवजीतकी विद्वत्ता, सुर्यका प्रतापीपना, इंद्रका स्वामीपना, चन्द्रमाकी मनोहरता, राजा रामचन्द्रकी न्यायपरायणता, कामदेवकी सुंदरता आदि बातें प्रसिद्ध हैं । उसीप्रकार आपकी सुजनता और विद्वत्ता प्र. सिद्ध है ! हे स्वामिन् । हमारे ऊपर प्रसन्न हूजिये । हमें धैर्य बधाइये । इससमय हम घोर चिंतासे व्यथित होरहे हैं । जीवननाथ ! हम सवलोगोंका जीवन आपके ही आधार है। त्रिलोकमें आपके समान हमारा कोई बंधु नहीं।। ___ ब्राह्मणोंको इसप्रकार करुणापूर्वक रोदन करतेहुवे देख कुमार अभयका चित्त करुणासे गद्गद होगया । उन्होंने गंभीरता पूर्वक ब्राह्मणोंसे कहा विप्रो ! आप क्यों इस न--. कछ वातकलिये इतना घवड़ाते हैं।मैं अभी इसका उपाय करता हूं । जबतक मैं यहां पर हूं तब तक आप किसी प्रकारसे राजा की आज्ञाका भय न करें । तथा विप्रोंको इसप्रकार समझा कर कुमार अभयने एक घड़ा मगाया। और उसमें वेल सहित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) कुष्मांडफलको रखदिया । अनेक प्रयत्न करेनपर कई दिनवाद कूष्मांड घड़ेके बरावर बढ़गया । और कुमारने घड़े सहित ज्योंका त्यों उसै महाराजकी सेवामें भिजवा दियाएवं वे आनंद से रहने लगे। महाराजनें जेसा कुप्मांड मागा था वैसा ही उनके पास पहुंचगया।अवके कूप्मांड देखकर तो महाराजके सोचका पारावार रहा । वे वारंबार सोचने लगे । हैं ! यहबात क्या है ? क्या नंदिग्रामके ब्राह्मण ही इतने बुद्धिमान हैं ! या इनके पास कोई और ही मनुष्य बुद्धिमान रहता है ? नंदिग्रामके वाह्मणोंका तो इतना पांडित्य नहीं हो सकता। क्योंकि जबसे इनको राज्यकी ओरसे स्थिर आजीविका मिली है।तवसे ये लोग निपट अज्ञानी होगये हैं । इनके समझमें साधारणसे साधारण तो बात आती ही नहीं फिर इनके द्वारा मेरी बातोंका जबाव देना तो बहुतही कठिन बात है । जो जो काम भने नंदिग्रामके ब्राह्मणोंके पास भेजे हैं। सबका जबाव मुझे बुद्धि पूर्वकही मिला है । इसलिये यही निश्चय होता है।नंदिग्राममें अवश्य कोई असाधारण बद्धिका धारक ब्राह्मणोंसे अन्यही मनुष्य है । जिस पांडित्यसे मेरी बातोंका जबाव दियागया है,न मालूम वह पांडित्य इंद्रदेवका है! वा चन्द्रदेवका है ! अथवा सूर्यदेव या यक्षराज का है ? नंदिग्रामके ब्राह्मणोंका तो किसीप्रकार वैसा पांडित्य नहीं हो सकता । अस्तु यदि नंदिग्रामके ब्राह्मणहा इतने बुद्धिमान हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो अभी मैं उनकी बुद्धिकी फिर परीक्षा किये लेता हूं। तथा इसप्रकार क्षण एक अपने मनमें पक्का निश्चयकर महाराजने संघही कुछ शरवीर योधाओंको बुलाया। और उन्हें यह आज्ञा दी कि तुमलोग अभी नंदिग्राम जाओ । आर नंदिग्राममें जो अधिक बुद्धिमान हो शीघ्र ही उसै तलाशकर आकर कहो । महाराजकी आज्ञा पाते ही योधाआने शीघ्रही नंदिग्रामकी ओर गमन करदिया । तथा नंदिग्रामके किसी मनोहर वन वे अपनी भूखकी शांतिके लिये ठहर गये । वह वन अति मनोहर वन था । उसमें जगह २ अनार नारंगी संतरा जमनी कंकोलि केला लोंग आदि उत्तमोत्तम फल वृक्षोंपर फलेते थे । नीबू आदि सुगंधित फलोंकी सुमंधिसे सदा वह वन व्याप्त रहता था। उसके ऊंचे ऊंचे वृक्षों पर कोयल आदि पक्षिगण अपने मनोहर शब्दोंसे पथिकोंके मन हरण करते थे। और केतकी वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार करते थे। इसलिये हमेशह नंदित्रामके वालक उस वनमें कोड़ार्थ आया जाया करते थे। रोजकी तरह उसदिन भी वालक क्रीडार्थ वनमें आये । दैवयोगसे उसदिन विप्रोंके वालकोंके साथ कुमार अभय भी थे। वे सबके सव हंसते खेलते किसी जमनाके वृक्षपर चढ़ गये । और आनंदसे जामन फलोंको खाने लगे । वालकोंको इसप्रकार जमनीके पेड़ पर चढ़े राजसेवकोंने देखा । तथा वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) सब ' यह समझ कि हम इन वालकों से कुछ फल लेकर अपनी भूख शांत करेंगे ' शीघ्र ही उस वृक्षकी ओर झुक पड़े। इधर कुमार अभयने जब राजसेवक को अपनी ओर आते देखा तो वे तो अन्य बालकों से यह देखो भाई ! ये राजसेवक अपनी ओर आरहे हैं । तुममें से कहने लगे कोई भी इनके साथ बातचीत न करै । जो कुछ जबाब करूंगा । और उधर कूदे । और वालकों 1 से सवाल करूंगा सो मैं ही इनके साथ राजसेवक जमनीके बृक्षके नीचे चट आ कुछ फलो केलिये उन्होंने प्रार्थना भी की । राजसेवकों की फलोंके लिये प्रार्थना सुन कुमार अभयने सोचा । यदि इनको यही फल देदिये जायगे तो कुछ मजा न आवेगा । इनको छकाकर फल देना ठीक होगा । इस - लिये प्रार्थनाके बदले में उन्होंने यही जवाव दिया । 1 विचित्र वचन राजसेवको ! तुमने फल मांगे सो ठीक है । जितने फलों की तुम्हें इच्छा हो, उतने ही फल दे सकता हूं । किंतु यह कहो । तुम ठंडे फल लेना चाहते हो या गरम ? क्योंकि मेरे पास फल दोनों तरह के हैं । कुमारके ऐसे सुन समस्त राजसेवक एक दूसरेका मुंह उन्होंने विचारा कि क्या केवल गरम और फल होते हैं ? हमैं तो आज तक यह बात सुननेमें नहीं आई कि फल गरम भी होते हैं । जितने फल हमने खाये हैं । ताकने लगे । केवल ठंडे भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १३२ ) सब ठंडे. ही खाये हैं। और ठंडे ही फल सुने हैं एक । दूसरे एक वृक्षपर गरम और ठंडे दो प्रकारके फल हों यह सर्वथा विरुद्ध है । इसलिये कुमार जो दो प्रकारके फल कह रहे हैं । सो इनका कथन सर्वथा अयुक्त जान पड़ता है । तथा क्षण एक ऐसा दृढ़ निश्चय कर, और कुमारको अब उत्तर देना जरूर है, यह समझ उन्होंने कहा। ____ महोदय कुमार ! हमैं आपके वचन अति प्रिय मालूम पड़ते हैं । कृपाकर लाइये हमैं ठंडे ही फल दीजिये। राजसेवकोंके ये वचन सुन कुमारने कुछ फल तोड़े । और उन्हें आपसमें घिसकर चालूमें दूर पटक दिया । और कहदिया । देखो फल वे पड़े हैं । उठालो । कुमारकी आज्ञा पाते ही जिधर फल पड़े थे । राजसेवक उसो ओर दोड़े । ज्याही उन्होंने वालूसे फल उठाकर फूंकना चाहा त्योंही कमारने कहा । देखो ! फल हुशियारोसे फूकना। ये फल गरम हैं । जो विना विचारे फूंका तो तुम्हारी सव डाढ़ी मूंछ पजल जायगी। ___कुमारके ऐसे बचन सुनते ही राजसेवक अपने मनमें बड़े लज्जित हुवे । वे वार वार टकटकी लगाकर कुमारको और देखने लगे । कुमारको इस चतुरताको देखकर राजसेवकोंने निश्चय करलिया कि हो न हो यही सबमें चतुर जान पड़ता हैं ? महाराज की वातोंका उत्तर भी. इसीने दिया होगा ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) तथा कुमारकी रूपसंपत्ति उन्होंने देख यह भी निश्चय कर लिया कि यह कोई अवश्य राजकुमार है । यह ब्राह्मण बालक नहीं होसकता क्योंकि जितने भर बालक यहांपर हैं । सबमें तेजस्वी प्रतापी एवं राजलक्षणों से मंडित यही जान पड़ता है । उपस्थित बालकों में इतना तेज किसीके चेहरे पर नहीं जित - ना इस बालकके चेहरे पर दिखाई देता है । एवं किसी से यह भी निश्चयकर कि यह कुमार महाराज श्रोणिकका पुत्र अभय कुमार है । राजसेवकोंने नंदिग्राम जानेका विचार वहीं समाप्त कर दिया । वे लज्जित एवं आनंदित हो राजगृह की और ही लोट पड़े । और महाराजको नमस्कार कर कुमारअभयकी जो जो चेष्टा उन्होंने देखी थी सब कह सुनाई । 1 सेवकों द्वारा कुमार अभयका समस्त वृत्तांत सुन, उन्हें बुद्धि मान एवं रूपवान भी निश्चयकर, महाराज श्रेणिकको अति प्रसन्नता हुई । मारे आनंद के उनके नेत्रोंसे आनंदाश्रु झरने लगे । मुख कमलके समान विकसित होगया । तथा वे विचार करने लगे कि मेरा अनुमान कदापि असत्य नहीं हो सकता । मुझे दृढ़ विश्वास था । नंदिग्राम के ब्राह्मणोंकी बुद्धी ऐसी विशाल नहीं होसकती । जरूर उनके पास कोई न कोई चतुर मनुष्य होना चाहिये भला सिवाय कुमार अभयके इतनी बुद्धिकी तीक्ष्णता किसमें हो सकती है ? तथा क्षण एक ऐसा विचार कर उन्होंने कुमार अभयको बुलानेकेलिये कुछ राज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवकोंको बुलाया । और उनको आज्ञा दी कि तुम अभी नंदिग्राम जाओ । और कमार अभयसे कहो कि महाराजने आपको बुलाया है । तथा यह भी कहना कि आपकलिये महाराजने यह भी आज्ञा दी है कि-कमार न तो मार्गसे आवे । और न उन्मार्गसे आवे । न दिनमें आवे । न रातमें आवे । भूखे भी न आवे । अफरे पेट भी न आवे । न किसी सवारीमें आवे । और न पैदल आवे । किंतु राजगृह नगर शीघ्र ही आवे । महाराज की आज्ञा पाते ही सेवक शीघ्र ही नंदिग्रामकी ओर चलदिये । एवं कुमारके पास पहुंच, उन्हें भाक्त पूर्वक नमस्कार कर महाराजका जो कुछ संदेशा था, सब कुमारको कह सुनाया ! ___अबके महाराजने कुमार अभयके ऊपर भी काठन संदेशा अटकाया है । और उन्हें राजगृह नगर बुलाया है । यह समाचार सारे नंदिग्राममें फैलगया । समाचार सुनते ही सम स्त ब्राह्मग हाहाकार करने लगे। भांति भांतिके संकल्प विकल्पोंने उनके चित्तको अपना स्थान बना लिया । क्षणे क्षणे अव उनके मनमें यह चिंता घूमने लगी कि अब हम किसी रीतिसे वच नहीं सकते । अव तक जो हमारे जीवनकी रक्षा हुई है, सो इसी कुमारकी असीम कृपासे हुई है । यदि यह कुमार न होता तो अब तक कवका हमारा विध्वंस होगया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) होता । अवके राजाने कुमारको बुलाया यह बड़ा अनर्थ किया । हे ईश्वर ! हमने किस भवमें ऐसा प्रवल पाप किया था । जिसका फल हम दुःखही दुख भोग रहे हैं । ईश्वर ! अव तो हमारी रक्षाकर । तथा इसप्रकार रोते विल्लाते हुवे वे समस्त ब्राह्मण कुमार अभयकी सेवा में गये । और उच्चैः स्वरसे उनके सामने रोने लगे । विप्रोंकी ऐसी दुःखित अवस्था देख कुमार ने कहा । ब्राह्मणो ! आप क्यों इतना व्यर्थ खेद करते हो । राजाने जिस आज्ञासे मुझे बुलाया है । मैं वैसे ही जाऊंगा । मैं आपलोगोंका पूरा पूरा खयाल रक्खूंगा । किसी तरह की आप चिंता न करें । तथा विप्रोंको इसप्रकार धैर्य बंधाकर कुमारने शीघ्र ही एक रथ मगवाया । और उसके मध्यमें एक छींका बधवाकर तयार करवादिया । जिससमय दिन समाप्त होगया । दिनका अंत रातका प्रारंभ संध्याकाल प्रकट होगया । कुमारने राजगृहकी ओर रथ हंकवा दिया । चलते समय रथका एक चक्र ( पय्या ) मार्गमें चलाया गया और दूसरा उन्मार्गमें । कुमारने चलते समय ( हारिमथक ) चनाका भोजन किया । एवं छीकें पर सवार हो कुमार अनेक विप्रोंके साथ आनंद पूर्वक राजगृह नगर जापहुंचे । महाराज श्रेणिकके पुत्र कुमार अभय राजगृह आगये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह समाचार सारे नगरमें फैलगया । समस्त पुरवासी लोग कुमारके दर्शनार्थ राजमार्ग पर एकत्रित होगये । नगरकी स्त्रियां कुमारको टकटकी लगाकर देखने लगीं। कुमारके आगमन उत्सवमें सारा नगर बाजोंसे गूंजने लग गया । वंदीगण कुमारकी विरदावली वखानने लगे। और पुरवासी लोग कुमारको देख उनकी भांति भांति रीतिसे प्रशंसा करने लगे । इसप्रकार राजमार्गसे जातेहुवे, पुरवासी जनोंसे भलीभांति स्तुत, कुमार अभय राज मंदिरके पास जापहुंचे । रथसे उतर कुमारने अपने नाना इंद्रदत्तके साथ राजसभामें प्रवेश किया।और सभामें महा राजको सिंहासन पर विराजमान देख अतिविनयसे नमस्कार किया । महाराजके चरण छूवे । एवं प्रेम पूर्वक वचनालप करने लगे । कुमारके साथ नंदिग्रामके विप्रभी थे । महाराजसे उनका अपराध क्षमा कराया । उन्हें अभयदान दिला संतुष्ट किया । एवं उन्हें आनंद पूर्वक नंदिग्राममें रहनेके लिये आज्ञा देदी । कुमारके इस विनयवर्तावसे एवं लोकोत्तर चातुर्यसे महाराज श्रेणिकको अति प्रसन्नता हुई । कुमारकी विना दरीफ किये उनसे न रहागया । वे इसप्रकार कुमारकी प्रशंसा करने लगे। हे कुमार ? जैसा ऊंचे दर्जका पांडित्य आपमें मोजूद है। वैसा पांडित्य कहीं पर नहीं । महाभाग ! वकरा, वावड़ी, हाथी, काष्ठ, तेल, दूध, वालूकी रस्सी, कूष्मांड, रातदिन आदि रहित गमन, इत्यादि प्रश्नोंके जवावका सामर्थ्य आपकी बुद्धि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही था । भला ऐसी विशाल बुद्धि अन्यमनुप्यमें कहांसे हो सकती है ? इत्यादि अनेक प्रकारसे कुमार अभयकी तारीफ कर महाराजने उनके साथ अधिक स्नेह जनाया । दोनों पिता पुत्र अनेक उत्तमोत्तम पुरुषोंकी कथा कहनेलगे । आपसमें वार्तालाप करते हुवे, एक स्थानमें स्थित, दोनों महानुभावोंने सूर्यचंद्रमाकी उपमाको धारण किया । महाराज श्रेणिकने सेठि इंद्रदत्तका भी अति सन्मान किया। एवं मधुरभाषी, सोच विचार कर कार्य करने वाले, कुमार और महाराज आनंद पूर्वक राजगृह नगरमें सुखानुभव करने लगे। धर्मका महात्म्य अचिंतनीय है । क्योंकि इसकी कृपासे संसारमें जीवोंको उत्तमोत्तम बुद्धिकी प्राप्ति होती है। उत्तम संगति मिलती है । तेजवीपना, सन्मान, गंभीरता, आदि उत्तमोत्तम गुणोंकी प्राप्ति भी धर्मसे ही होती है। महाराज श्रेणिक एवं कुमार अभयने पूर्व भवमें कोई अपूर्व धर्म संचय कियाथा । इसलिये उन्हें इस जन्ममें गंभीरता, शूरता, उदारता, बुद्धिमत्ता, तेजस्वीपना, सन्मान, रूपवानपना आदि उत्तमोत्तम गुणोंकी प्राप्ति हुई । इसलिये उत्तम पुरुषोंको चहिये कि वे हर एक अवस्थामें इस परम प्रभावी धर्मका अवश्य आराधन करै। । इसप्रकार भविप्यत्कालमें होनेवाले श्रीपद्मनाभ तीर्थकरके भयं तरके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्र कुमार अभयका राज __ गृहमें आगमन वर्णन करनेवाला छठवा सर्ग समाप्त हुआ - --- -- - - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) सातवा सर्गः ज्ञानरूपी भूषणके धारक, तानोंलोकके मस्तकपर विराजमान श्री सिद्धभगवानको उनके गुणोंकी प्राप्त्यर्थ मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करताहूं--- अनंतर इसके महाराज श्रेणिकने रानी नंदश्रीको नंदिग्रामसे तुला महादेवीका पद प्रदान किया-उसै पटरानी वनाया। तथा कुमार अभयको युवराज पद दिया । कुमार अभयका बुद्धिवल और तेजस्वीपना देख समस्तसामंतोकी सम्मति पूर्वक महाराजने उन्हें सेनापतिका पदभी देदिया। एवं बुद्धदेवके गुणोंमें दत्तचित्त महाराज श्रेणिकने किसी बौद्ध संन्यासी को गुरु वनाया । और उसकी आज्ञानुसार वे आमंद पूर्वक चतुरायमयतत्त्वकी पूजन करने लगे । तथा अपने राज्यको निष्कंटक राज्य वना कुमार अभयके साथ लोकोत्तर सुखका अनुभव करने लगे । ____ कुमार अभय अतिशय बुद्धिमान थे । बुद्धिपूर्वक राज्य काय करनेसे उनका चातुर्य और यश समस्त संसारमें फैलगया। कुमारकी न्यायपरायणता देख समस्त प्रजा मुक्तकंठसे उनकी तारीफ करने लगी । एवं कुमारकी नीति निपुणतासे राज्यमें किसीप्रकारकी अनीति नजर न आने लगी । मगध देशकी प्रजा आनंदपूर्वक रहने लगी। .. -. . - . . . - . . - . . . . .. . . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) मगधदेशमें महान संपत्तिका धारक कोई सुभद्रदत्त नामका सेठि निवास करता था । उसकी दो स्त्रियां थी । सुभद्रदत्तकी बड़ी स्त्रीका नाम वसुदत्ता था । और उसकी दूसरी स्त्री जो अतिशय रूपवती थी, व सुमित्रा थी। उनदोनोंमें वसुदत्ताके कोई संतान न थी । केवल छोटी स्त्री वसुमित्रा के एक बालक था। ___कदाचित घरमें विपुल धन रहने पर भी सेठि सुभद्रदत्त को धन कमानेकी चिंता हुई । वे शीघ्रही अपनी दोनों स्त्री और पुत्रके साथ विदेशको निकल पड़े । अनेक देशोंमें घूमते घूमते वे राजगृह नगर आये। और वहांपर सुखपूर्वक धनका उपार्जन करने लगे । और आनंदपूर्वक रहने लगे। दुर्दैवकी महिमा अपार है । संसारमें जो घोरसे घोर दुःखका सामना करना पड़ता है, इसीका कृपा है । इस निर्दयी दुर्दैव को किसी पर दया नहीं । सेठि सुभद्रदत्त आनंद पूर्वक निवास करते थे। अचानक ही उन्हें कालने आदवाया। सुभद्रदत्तको जवरन पुत्र स्त्रियोंसे म्नेह छोड़ना पड़ा । सुभद्रदत्तके मरने के बाद उनकी स्त्रियोंको अपार दुःख हुवा । किंतु किया क्या जाय ? दुर्दैवके सामने किसीकी भी तीन पांच नही चलता। ____ जब तक सेठि सुभद्रदत्त जीये तब तक तो वसुदत्ता एवं वसुमित्रा में गाढ़ प्रेम रहा । सुभद्रदत्तके सामने यह विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) स्वप्न में भी नहीं आता था कि कभी इनदोनों में झगड़ा होगा । सेठिजीके मरणके उपरांत ये उनकी बुरी तरह मिट्टी पलीत करेंगीं । पुत्रके ऊपर भी उनदोनोंका वरावर प्रेम था । पुत्रकी खास मा वसुमित्रा जिसप्रकार पुत्रपर अधिक प्रेम रखती थी । उससे भी अधिक वसुदत्ताका था। यहां तक कि समान रीतिसे पुत्रके लालन पालन करनेसे किसीको यह पता भी नहीं लगता था कि पुत्र वसुदत्ताका है ? या वसुमित्रा का ? बालकको भी कुछ पता नहीं लगता था । वह दोनोंको ही अपनी मा मानता था । किंतु ज्योंही सेठि सुभद्रदत्तका शरीरां त हुबा वसुदत्ता और वसुमित्रा में झगड़ा होना प्रारंभ होगया । कभी तो उन दोनोंकी लड़ाई धनके लिये होने लगी । और कभी पुत्रके लिये । वसुदत्ता तो यह कहती थी यह पुत्र मेरा है । और उसकी बातको काटकर वसुमित्रा यह कहती थी यह पुत्र मेरा है । गांव के सेठ साहूकारों ने भी यह बात सुनी । वे सेठि सुभद्रदत्तकी आवरूका खयाल कर उनके घर आये । सेठि साहूकारोंने बहुत कुछ उन स्त्रियों को समझाया । उन्हें सेठि सुभद्रदत्तकी प्रतिष्ठाका भी स्मरण दिलाया । किंतु उन मूर्खा स्त्रियोंके ध्यानपर एक बात न चढ़ी । धन संबंधी झगड़ा छोड़ वे पुत्रकेलिये अधिक झगड़ा करने लगीं । पुत्रका झगड़ा देख सेठि साहूकारोंकी नाक में दम आगई । वे जरा भी इस बातका फैसला न करसके । कि वह पुत्र वास्तव में किसका था ? 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marnamanna तथा इसरीतिसे उनदोनों स्त्रियोंमें दिनोंदिन द्वेष वृद्धि गत होता चलागया । ___कदाचित् उनस्त्रियोंके मनमें न्याय सभामें जाकर न्याय कराने की इच्छा हुई-उन्हें इसप्रकार दरबारमें जाते देख फिर गांवके बड़े बड़े मनुष्य सेठि सुभद्रदत्तके घर आये । उन्होंने फिर उन स्त्रियोंको इसरीतिसे समझाया---देखो, । तुम बड़े घरानेकी स्त्रियां हो । तुम्हारा कुल उत्तम है । तुम्हें इस न कुछ बातके लिये दरबारमें जाना नहीं चाहिये । यदि तुम दरबारमें विना विचारे चली जाओगी । तो समस्तलोक तुम्हारी निंदा करेगा । तुम्हें निर्लज्ज कहेगा । एवं तुम्हें पीछे वहुत कुछ पछिताना पड़ेगा। किंतु उन मूखी स्त्रियोंने एक न मानी । निर्लज्ज हो वे सीधी दरबारको चलदीं। और महाराजके सामने जो कुछ उन्हें कहना था, साफ साफ कह सुनाया। स्त्रियोंकी यह विचित्र वात सुन महाराज श्रेणिक चकित रहगये । उन्होंने वास्तवमें यह पुत्र किसका है ? इसवातके जाननेके लिये अनेक उपाय सोचे किं तु कोई उपाय सफल न जान पड़ा । उन्होंने स्त्रियोंको बहुत कुछ समझाया। लड़ाई करनेकेलिये भी रोका । किं तु उनस्त्रियोंने एक न मानी। महाराजने जब स्त्रियोंका हठ विशेष देखा । समझानेपर भी जब वे न समझी । तब उन्होंने शीश ही युवराज कुमार अभयको वुलाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) और जो हकीकत उनस्त्रियोंकी थी सारी कह सुनाई। महाराजके मुखसे स्त्रियोंका यह विचित्र विवाद सुन कुमारको भी दांततले उगली दवानी पड़ी । किंतु उपायसे अति कठिन भी काम अतिसरल होजाता है यह समझ उन्होंने उपाय करना प्रारंभ करदिया । कुमारने उनदोंनों स्त्रियों को अपने पास बुलाया । प्रिय वचन कह उन्हें आधिक समझाने लगे। किंतु वह पुत्र वास्तवमें किसका था, स्त्रियोंने पता न लगने दिया । किसीसमय कुमारने एक एक कर उन्हें एकांतमें भी बुलाकर पूछा। किंतु वे दोनों स्त्रियां पुत्रको अपना अपना ही बतलाती रहीं। विवाद शांतिकेलिये कमारने और भी अनेक उपाय किये । किंतु फल कुछभी नहीं निकला । अंतमें उनको अधिक गुम्सा आगई । उन्होंने वालक शीघ्र ही जमीनपर रखवालिया। और अपने हाथमें एक तलवार ले, उसे वालकके पेटपर रख कुमारने स्त्रियोंसे कहा । स्त्रियो ! आप घबड़ाये न, मैं अभी इसवालकके दो टुकड़ेकर आपका फैसला किये देता हूं। आप एक एक टुकड़ा ले अपने घर चली जाय । ___मातृस्नेहसे बढ़कर दुनियामें स्नेह नहीं । चाहै पुत्र कुपुत्र होजाय, माता कुमाता नहीं होती । पुत्र भले ही उनकेलिये किसीकामका न हो। माता कभीभी उसका अनिष्ट चिंतन नहीं करती । सदा माताका विचार यहीं रहता है । चाहे मेरा पुत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marrrrrrrrrrr.aar ( १४२ ) कुछभी न करै । किंतु मेरी आखोंके सामने प्रतिसमय वना रहे । इसलिये जिससमय सेठानी वसुमित्राने कमार अभयक वचन सुने । मारे भयके उसका शरीर थर्राने लगा । पुत्रके टुकड़े सुन उसके नेत्रोंसे अविरल अश्रुओंकी धारा वहने लगी। उसने शीघ्रही विनय पूर्वक कुमारसे कहा---- ____ महाभाग कुमार ! इसदीन वालकके आप टुकड़े न करैं । आप यह वालक वसुदत्ताको देदें । यह वालक मेरा नहीं वसुदत्ताका ही है । वसुदत्ताका इसमें अधिक स्नेह है। वालककी खास माता वसुमित्राके ऐसे वचन सुन कुमारने चट जान लिया कि इसवालककी मा वमुमित्रा ही है । तथा समस्तमनुष्यों के सामने यह बात प्रकट कर कुमारने सेठीनी वमु. मित्राको वालक देदिया। और वसुदत्ताको राज्यसे निकाल डोड़ी किया। इसप्रकार अपने बुद्धिवलसे नीति पूर्वक राज्यकरने बाले कुमार अभयने महाराज श्रेणिकका राज्य धर्मराज्य वनादिया । और कुमार आनंद पूर्वक रहने लगे। इसी अवसरमे अतिशय सच्चरित्र कोई वलभद्र नासका गृहस्थ अयोध्यामें निवास करता था। उसकी स्त्री जोकि अतिशय रूपवती चंद्रमुखी तन्वंगी कठिनस्तनी पिकवनी अति मनोहरा थी, भद्रा थी । उसी नगरमें अतिशय धनवान एक वसंत नामका क्षत्रियभी रहता था। उसकी स्त्रीका नाम माधवी था। किंतु वह कुरूपा अधिक थी। कदाचित् भद्रा अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) घरकी छतपर खड़ी थी । दैवयोगसे वसंतकी दृष्टि मद्रापर पड़ी । भद्राकी खुबसूरती देख वसंत पागलसा होगया सारी हुशियारी उसको किनारा कर गई । कामदेवके तीक्ष्ण air वसंत के शरीरको भेदन करने लगगये । उसका दिनोंदिन काम जनित संताप बढ़ताही चलागया । दाहकी शांति केलिये उसने चंदनरस चंद्रकिरण कमल कपूर उत्तम शीतल जल अदि अनेक पदार्थों का सेवन किया । किं तु उसके दाहकी शांति किसीकदर कम न हुई । किंतु जैसे अग्निपर घृत डालन से उसकी ज्वाला और भी अधिक बढ़ती जाती है । उसीप्रकार शीतलवत्त्र फूलमाला मलयंचंदन आदिसे उस उल्लूवसंतका मन्मथसंताप दिनोंदिन बढ़ता ही चलागया । भद्राके विना उसे समस्त संसार शून्य ही शून्य प्रतीत होनेलगा । सोते उठते वैठते उसके मुखसे भद्रा शब्दही निकलने लगा । भद्राकी चिंता में सारी भूख प्यास वसंतकी एक ओर किनारा कर गई । कदाचित् अवसर पाकर वसंतने एक चतुर दूती वुलाई। और सारी अपनी आत्मकहानी उसे कह सुनाई । एवं शत्रि ही उसै अपना संदेशा कह भद्रा के पास भेज दिया । वसंत की आज्ञानुसार दृती शीघ्र ही भद्रा के पास गई । भद्राको देख दूतीने उसके साथ प्रवल हितैषिता दिखाई । एवं मधुर शब्दों में उसै इसप्रकार समझाने लगी । भद्रे ! संसार में तू रमणी रत्न है । तेरे समान रूपवती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ) I स्त्री दूसरी नहीं । किंतु खेद है । जैसी तू रूपवती गुणवती चतुरा है । वैसा ही तेरा पति कुरूपवान निर्गुण एवं मूर्ख किसान है । प्यारी व हेन ! अतिकुरूप बलभद्रके साथ, मैं तेरा संयोग अच्छा नहीं समझती । मुझे विश्वास है कि वलभद्र सरखि कुरूप पुरुषसे तुझे कदापि संतोष नही होता होगा ? तुम सरीखी सुंदर किसी दूसरी स्त्रीका यदि इतना बदसूरत पति होता तो वह कदापि उसके साथ नही रहती । उसै सर्वथा छोड़कर चली जाती । न मालूम तू क्यों इसके साथ अनेक क्लेश भोगती हुई रहती है ? । दूतीकी ऐसी मीठी वोलीने भद्रा के चित्तपर पक्का असर डालदिया । भोली भद्रा दूतीकी बातों में आगई । वह दूती से कहने लगी । बहिन ! मैं क्या करू ? स्वामी तो मुझे ऐसा ही मिला हैं । मेरे भाग्य में तो यही पति था । मुझे रूपवान पति मिलता कहांस ? तथा ऐसा कह भद्राका मुख भी कुछ ग्लान होगया । भद्रा की ऐसी दशा देख दूती मनमें अति प्रसन्न हुई । किं तु अपनी प्रसन्नता प्रगट न कर वह भद्राको इसप्रकार समझाने लगी । भद्रे बहिन ! तू क्यों इतना व्यर्थ विषाद करती है । इसी नगरीमें एक वसंत नामका क्षत्रिय पुरुष निवास करता है । वसंत अति रूपवान गुणवान एवं धनवान है । वह तेरे ऊपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहित भी है। तू उसके साथ आनंदसे भोगोंको भोग । तुझ सरीखी रूपवतीकेलिये संसारमें कोई चीज दुर्लभ नहीं । दूतीके ऐसे वचन सुन तो भद्राके मुहमें पानी आगया। उस मुर्खाने यह तो समझा नं.हं कि इस दुष्टवतांवसे क्या हानियां होंगी। वह शीघ्र ही वसंतके धर जानेकेलिये राजी होगई । तथा दाव पा किसीदिन वसंतके घर चली भी गई । और उसके साथ भोग विलास करने शुरू करदिये । व्यसनका चसका बुरा होता है । भद्राको व्यसनका चसका वुर। पड़गया । वह अपने भोले पतिको बातों में लगा प्रतिदिन वसंतके घर जाने लगी । वसंत पर अभिमान कर उसने अपने पतिका अपमान करना भी प्रारम्भ कर दिया। अनेकप्रकारकी कलह करनी भी उसने घरमें शुरू कर दी । और अपने सामने किसीको वह वड़ा भी नहीं समझने लगी। ____ भद्राका पति वलभद्र किसान था । कदाचित् भद्रा को कार्यवश खेत पर जाना पड़ा । दैवसे भद्राकी भैंट मुनि गुण सागरसे मार्गमें होगई । मुनि गुणसागरको अतिरूपवान्, सूर्यके समान तेजस्वी, युवा, एव अनेकगुणोंके भंडार देख भद्रा कामसे व्याकुल हो गई । कामके गाढ़ नशेमें आकर उसको यह भी न सूझा कि यह कोंन महात्मा है ! वह शीघ्र ही कामसे व्याकुल हो मुनिराजके सामने बैठि गई । और कामजन्य विकारोंको प्रकट करती हुई इसप्रकार कहने लगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ साधो ! यह तो आपका उत्तमरूप ? और यह अवस्था ? | एवं सौंदर्य ? आपको इस अवस्थामें किसने दीक्षाकी शिक्षा दे दी ! इससमय आप क्यों यह शरीरसुखानेवाला तप कर रहे हैं । इससमय तप करनेसे सिवाय शरीर सूखनेके दूसरा कोई फायदा नहिं हो सकता।इससमय तो आपको इंद्रिय संबंधी भोग भोगने चाहिये । जिस मनुष्यने संसार में जन्म धारण कर भोग विलास नहिं किया । उसने कुछ भी नहीं किया। मने ! यदि आप मोक्षको जानेकेलिये तप ही करना चाहते हैं तो कृपाकर वृद्ध अवस्थामें करना ? इससमय आपकी वारी उम्र है। आपका मुख चंद्रमाके समान उज्ज्वल एवं मनोहर है । आपका रूप भी अधिक उत्तम है । इसलिये आप की सेवामें यही मेरी सविनय प्रार्थना है कि आप किसी उत्तम रमणीके साथ उत्तमोत्तम भोग भोगें। और आनन्दपूर्वक किसी नगरमें निवास करें । __मुनिराज गुणसागर तो अवधिज्ञानके धारक थे । भला बे ऐसी निकृष्ट भद्रा सरीखी स्त्रियोंकी वातोंमें कव आने वाले थे। जिससमय मुनिराजने भद्राके वचन सुने । शीघ्र ही उन्हों ने भद्राके मनके भावको पहिचान लिया । एवं बे उसै आसन्न भव्या समझ इसप्रकार उपदेश देने लगे___ वाले ! तू व्यर्थ रागके उत्पन्न . करनेवाले कामजन्य विकारोंको मत कर । क्या इसप्रकारके दुष्ट विकारोंसे तू Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना परम पावन शीलवत नष्ट करना चाहती है ? क्या तू इसवातको नहीं जानती शील नष्ट करनेसे किन किन पापों की उत्पत्ति होती है ? शीलके न धारण करनेसे किन २ घोर दुःखोका सामना करना पड़ता है ? भद्रे ! जो जीव अपने शील रूपी भूषणकी रक्षा नहीं करते वे अनेक पापों का उपार्जन करते हैं। उन्हें नरक आदि दुर्गतियों में जाना पड़ता है । एवं वहां पर कठिनसे कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं । तथा भद्रे ! शीलके न धारण करनेसे संसारमें भयंकर वेदनाओं का सामना करना पड़ता है । कुशीली जीव अज्ञानी जीव कहे जाते हैं। उनक कुल नष्ट होजाते हैं। चारो ओर उनकी अपकीर्ति फैल जाती है । और अपकीति फैलने पर शोक संताप आदि व्यथा भी उन्हें सहनी पड़ती हैं । इसलिये यदि तू संसारमें सुख चाहती है । और तुझै रमणीरत्न वननेकी अभिलाषा है तो तू शीघ्र ही इस खोटे शीलका परित्याग करदे। उत्तम शीलवतमें ही अपनी बुद्धि स्थिर कर । अपने चंचल चित्त को कुमार्गसे हटाकर सुमार्गमें ला । एवं अपने पवित्र पतिव्रतधर्मका पालन कर । वाले ! जो स्त्रियां संसारमें भलेप्रकार अपने पतिवतधर्मकी रक्षा करती हैं । उनकेलिये अति कठिन वात भी सर्वथा सरल हो जाती हैं। अधिक क्या कहा जाय पतिव्रतधर्म पालन करनेवाली स्त्रियोंका संसार भी सर्वथा छूट जाता है । उन्हें किसीप्रकारकी मुसोवतका सामना नहीं करना पड़ता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) महामुनि गुणसागरके उपदेशका मद्राके चित्तपर पूरा प्रभाव पड़ गया । कुछसमय पहले जो भद्राका चित्त कुशीलमें फसा हुआ था, वह शील वूतकी ओर लहराने लगा। मुनिराज - के वचन सुननेसे भद्रा का चित्त मारे आनंदके व्याप्त होगया । शरीर में रोमांच खड़े होगये । एवं गद्गद कंठसे उसने मुनिराज से निवेदन किया । प्रभो ! मेरे चित्तकी वृत्ति कुशलकी ओर झुकी हुई है यह बात आपको कैसे मालूम होगई ? किसी ने आपसे कहा भी नहीं ? कृपाकर इस दःसी पर अनुग्रहकर शीघ्र वताइये । भद्रा ऐसे वचन सुन मुनिराजने उत्तर दिया । भद्रे ? तेरे चरित्रके विषयमें मुझसे किसीने भी कुछ नहीं कहा । किंतु मेरी अत्मा के अंदर ऐसा उत्तम ज्ञान विराजमान है । जिस ज्ञान के बल से मैंने तेरे मनका अभिप्राय समझ लिया है । ज्ञानकी शक्ति अपूर्व है इसवात में तुझे जरा भी संदेह नहिं करना चाहिये | मुनिराजके ज्ञानकी अपूर्व महिमा सुन भद्राको अति आनंद हुवा | मुनिराजकी अज्ञानुसार जिस शीलसे देवेंद्र नरेंद्र आदि उत्तमोतम पद प्राप्त होते हैं वह शलिबूत शीघ्रही उसने धारण कर लिया । एवं समस्त मुनियों में उत्तम, जीवोंको कल्याण मार्गका उपदेश देनेवाले, मुनिराज गुणसागरको नमस्कार कर वह शीघ्र ही अपने घर आगई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम उपदेशका फल भी उत्तम ही होता है। वंसतकी बातों में फस कर जो भद्राने वंसतको अपनालिया था । और अपने पतिका अनादर करना प्रारम्भ कर दिया था । भदाकी वह प्रकृति अव न रही। पापसे भयभीत हो भदाने वसंतका अव सर्वथा संबंध तोड़ दिया। उसादनसे वसंत उसकी दृष्टिम कालाभुजंग सरीखा झलकने लगा। अब वह अपने पतिकी तन मनसे सेवा करने लगी। अपने स्वामीके साथ स्नेह पूर्वक वर्ताव करने लगी। भद्राका जैनधर्म पर भी अगाध प्रेम होगया । अपने सुखका महान कारण जैनधर्म ही उसै जान पड़ने लगा । तथा जैनधर्मपर उसकी यहां तक गाढ़ भक्ति होगई कि उसने अपने पतिको भी जैनी बना लिया। एवं वे दोनों दंपती अनंदपूर्वक अयोध्या नगरीमें रहने लगे । ___मद्राने जिसदिनसे शीलवूतको धारण कर लिया उसदिनसे वह वसंतके घर झांकी तक नहीं । इसतिसे जब कई दिन बीत गये वसंतको विना भद्राके बड़ा दुःख हुवा । वह विचारने लगा--भद्रा अव मेरे घर क्यों नहिं आती ? जो वह कहती थी सो ही मैं करता था । मैंने कोई उसका अपराध भी तो नहिं किया ? तथा क्षण एक ऐसा विचार कर उसने भद्राके समीप एक दूती भेजी । दूतीके द्वारा वसंतने बहुत कुछ भद्रा को लोभ दिखाये। अनेकप्रकारके अनुनय भी किये । किंतु भद्राने दूतीकी वात तक भी न सुनी। मोका पाकर वसंत भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्राके पास आया । किंतु भद्राने वसंतको भी यह जवाब दे दिया कि मैं अब शीलवत धारण कर चुकी । अपने स्वामी को छोड़कर मैं पर पुरुषकी प्रतिज्ञा ले चुकी । अब मैं कदापि तेरे साथ विषयभोग नहीं कर सकती। भद्राकी यह वात सुन जब वसंत उसे धमकी देने लगा। और उसके साथ व्याभिचारार्थ कड़ाई करने लगा। तव भद्राने साफ शब्दोंमें यह जवाब दे दिया। रे वसंत ? तु पापी नाच नराधम व्रतहीन है। मेरे चाहैं प्राण भी चले जाओ। मैं अब तेरा मुह तक न देखूगी । अब तू मेरोलिये अभिलाषा छोड़ । अपनी स्त्री संतोष कर । भद्राको इसप्रकार अपने व्रतमें दृढ़ देख वसंतकी कुछ भी पेश न चली । वह पागल सरीखा होगया । वह मूर्ख विचारने लगा भद्राको यह व्रत किसने देदिया ? अव मैं भद्रा को अपनी आज्ञा कारिणी कैसे बनाऊं ? क्या इस हठसे दासी वनाऊ ? या किसी मंत्रसे वनाऊ ? क्या करूं? पापी वसंत ऐसा अधम विचार ही कर रहा था कि अचानक ही एक महाभीम नामका मंत्रवादी अयोध्यामें आ पहुंचा । सारे नगरमें मंत्रवादीका हल्ला होगया । वसंतके कान तक भी यह बात पहुंची । मंत्रवादीका आगमन सुन बसंत शीघ्र ही उसके पास आया । और स्नान भोजन आदिसे वसंतने उसकी यथेष्ट सेवा की । जब कई दिन इसीप्रकार सेवा करते वीतगये । और मंत्रवादीको जब . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rwwwwwwwwwwww अपने ऊपर वसंतने प्रसन्न देखा तो उसने अपना सारा हाल मंत्रवादीको कह सुनाया । और विनयसे बहुरूपिणी विद्याके लिये याचना भी की। वसंतकी मंत्रकेलिये प्रार्थना सुन एवं उसकी सेवासे संतुष्ट होकर मंत्रवादी महाभीमने उसै विधिपूर्वक मंत्र देदिया । तथा मंत्र लेकर वसंत किसी वनमें चलागया। और उसै सिद्ध करने लगा । दैवयोगसे अनेक दिन वाद वसंतको मंत्र सिद्ध होगया । अव मंत्रवलसे वह छोटे बड़े शरीर धारण करने लगा । एवं अनेक प्रकारकी चेष्टा करनी भी उस ने प्रारंभ करदी। कदाचित् उसके शिर पर फिर भद्राका भूत सवार होगया । किसी दिन वह अचानक ही मुर्गाका रूप धारणकर बलभद्र के घरके पास चिल्लाने लगा । मुर्गाकी आवाजसे यह समझ कि सवरा होगया अपने पशुओंको लेकर वलभद्र तो अपने खेतकी और रवाना होगया । और उस पापी वसंतने मुर्गाका रूप वदल शीघ्र ही बलभद्रका रूप धारण किया। और धृष्टता पूर्वक बलभद्रके घरमें घुस आया। सुशीला भद्राकी दृष्टि नकली बलभद्र पर पड़ी । चाल दालसे उसे चट मालूम होगई कि यह मेरा पति बलभद्र नहीं । तथा उसने गाली देनी भी शुरू करदी । किंतु उस नकली वलभद्रने कुछ भी परवा न की । वह निर्लज्ज किवाड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ raamannaamaamarrian बंदकर जवरन उसके घरमें रूर पड़ा । नकली बलभद्रका इस प्रकार धृष्टतापूर्वक वर्तव देख भद्रा चिल्लाने लगी । नकली वलभद्र एवं भद्राका झगड़ा भी बड़े जोर शोरसे होने लगा। झगड़ेकी आवाज सुन पाड़पड़ोसी सब भद्राके घर आकर इकडे होगये । असली वलभद्रके कान तक भी यह बात पहुंची वह भी दोड़ता २ शीघ्र अपने घर आया । और अपने समान दूसरा बलभद्र देख आपसमें झगड़ा करने लगा । दोनों बलभद्रोंकी चाल ढाल रूप रंग देख पाड़पाड़ोसी मनुष्योंके होश उड़गये । सबके सब दातों तले उंगली दवाने लगे। तथा अनेक उपाय करने पर भी उनको जरा भी इसबातका पता न लगा कि इन दोनामें असली बलभद्र कौंन है ? । जब पुरवासी मनुष्योंसे असली वलभद्रका फैसला न होसका तो वे दोनों वलभद्रोंको लेकर राजगृह कुमार अभय की शरणमें आये । और उनके सामने सब समाचार निवेदन कर दोनों वलभद्रोंको खड़ा करदिया। दोनों बलभद्रोंकी शकल रूप रंग एकसा देख कुमार अभय भी चकड़ाने लगे । असली वलभद्रके जाननेकालये उन्होंने अनेक उपाय किये। किंतु जरा भी उन्हें असली बल भद्रका पता न लगा । अंतमें सोचते सोचते उनके ध्यानमें एक विचार आया। दोनों बलभद्रोंको बुला उन्हें शीघ्र ही एक कोठेमें बंद करदिया । और भद्राको सभामें बुलाकर एवं एक तंबी अपने सामने रखकर दोनों वलभद्रोंसे कहा । . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAANA ANAN ( १५३ ) सुनो भाई दोनों बलभद्रो ! तुम दोनोंमेंसे कोठके छिद्र से न निकल कर जो इस तूंबाके छिद्रसे निकलेगा । वही असली बलभद्र समझा जायगा । और उसे ही भद्रा मिलेगी। कुमारकी यह बात सुन असली वलभद्रको तो बड़ा दुःख हुवा । उसै विश्वास होगया कि भद्रा अब मुझे नहीं मिल सकती। क्योंकि मैं तूंबीके छेदसे निकल नहीं सकता। किंतु जो नकली वलभद्र था कुमारके वचनसे मारे हर्षके उसका शरीर रोमांचित होगया। उसने चट तूंबीके छिद्रसे निकल आनंद पूर्वक भद्राका हाथ पकड़ लिया । नकली बलभद्रकी यह दशा देख सभाभवनमें बड़े जोर शोरसे हल्ला होगया । सबके मुखसे येही शब्द निकलने लगेकि यही नकली वलभद्र है। असली बलभद्र तो कोठरीके भीतर बैठा है । एवं अपनी विचित्र बुद्धिसे कुमार अभयने नकली वलभद्रको मार पीटकर नगरसे बाहिर भगा दिया । और असली बलभद्रको कोठेसे बाहर निकाल एवं उसे भद्रा देकर अयोध्या जानेकी आज्ञा दी। इसप्रकार पक्षपात रहित न्याय करनेसे कुमार अभय की चारो ओर कोर्ति फैलगई । उनकी न्याय परायणता देख समस्त प्रजा मुक्त कंठसे तारीफ करने लगी । एवं कुमार अभय आनंदसे राजगृहमें रहने लगे। किसी समय महाराज श्रेणिककी अगूंठी किसी कूवमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAI गिरगई । कूवेमें अगूटो गिरो देख महाराजने शीघ्रहो कुमार अभयको वुलाया । और यह आज्ञादो । प्रिय कुमार ! अगूंठो सूखे कूवमे गिरगई है । विना किसी वांस आदि की सहायताके शीघ्र अगूंठो निकालकर लाओ। महाराज की आज्ञा पाते ही कुमार शीघ्र ही कूवेके पास गये । कहींसे गोवर मगाकर कुमारने कूवेमें गोवर डलवा दिया । जिससमय गोबर सूखगया कूधको मुह तक पानीसे भरवादिया । ज्योंही वहता २ गोवर कूवेके मुंह तक आया गोवरमें लिपटी अगूठी भी कूवेके मुहपर आगई । तथा उस अगूंठीको लेकर कुमारने महाराजकी सेवामें ला हाजिर की । कुमारका वह विचित्र चातुर्य देख महाराज अति प्रसन्न हुवे । कुमारका अद्भुत चातुर्य देख सब लोग कुमारके चातुर्यकी प्रशंसा करने लगे । अनेकगुणोंसे शोभित कुमार अभयको चतुर जान महराज श्रेणिक भी कुमारका पूरा पूरा सन्मान करने लगे । और उनको बात बातमें कुमार अभयकी तारीफ करनी पड़ी । इसप्रकार अनेकप्रकारके नवीन २ काम करने का कौतूहली, महाराज श्रेणिक आदि उत्तमोत्तम पुरुषोंद्वारा मान्य, नीतिमार्गपर चलने वाला, समस्त दोषोंकर रहित, बृहस्पतिके समान प्रजाको शिक्षा देने वाला, अतिशय आनंद युक्त, अपने बुद्धिवलसे अति कठिन कार्यको भी तुरंत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmm करनेवाला, सूर्यके समान तेजस्वी, राज लक्षणोंसे विराजमान, युवराज अभयकमार सबको आनन्द देने लगे। संसारमें जीवोंको यदि मुखप्रदानकरनेवाली है तो यह उत्तम बुद्धि ही है । क्योंकि इसीके कृपासे मनुप्य सवोंका शिरोमाण वनजाता है । उत्तम बुद्धिवाले मनुष्यका राजा भी पूरा २ सन्मान और आदर करते हैं । बड़े २ सज्जन पुरुष उस की बिनयभावसे सेवा करने लगजाते हैं । तथा उत्तम बुद्धिकी कृपासे अच्छे २ नीति आदि गुण भी उस मनुष्यको अपना स्थान वनालेते हैं। इसप्रकार भविप्यतकालमें होनेवाले श्री पद्मनाभ तीर्थकरके भवांतरके जीव महाराज श्रेणिकके पुत्र अभय कुमारकी उत्तम बुद्धिका वर्णन करनेवाला सातवा सर्ग समाप्त हुवा । आठवा सर्ग अपने पवित्र ज्ञानसे समस्त जीवोंका अज्ञानांधकार मिटाने वाले, निर्मल ज्ञानके दाता, मुनियों में उत्तम मुनि श्री उपाध्याय परमेष्ठीको अंग उपांग सहित समस्त ध्यानकी सिद्धिके लिये मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) उससमय अयोध्यपुरीमें कोई भरत नामका पुरुष निवास करता था। भरत चित्रकलामें अतिनिपुण था । कदाचित उसके मनमें यह अभिलाषा हुई कि यद्यपि मैं अच्छी तरह चित्रकला जानता हूं किंतु कोई ऐसा उपाय होना चाहिये कि लेखनी हाथमें लेते ही आपसे आप पट पर चित्र खिंच जावे। मुझै विशेष परिश्रम करना न पड़े । उससमय उसै और तो कोई तरकीव न सूझी । अपनो अभिलाषा की पूर्तिकेलिये उसने पद्मावती देवीकी आराधना करनी शुरू कर दी। दैवयोगसे कुछ दिन वाद देवी भरत पर प्रसन्न होगई । और उसने प्रत्यक्ष हो भरतसे कहा भक्त भरत ! मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूं। जिस वरकी तुझै इच्छा हो मांग मैं देने के लिये तयार हूं । देवीके ऐसे वचन सुन भरत अति प्रसन्न हुआ। और विनय भावसे उसने इस प्रकार देवासें निवदेन किया___मातः- यदि तू मुझपर प्रसन्न है । और मुझे वर देना चाहती है । तो मुझे यही वरदे जिससमय मैं लेखनी हाथमें लेकर वै→ । उससमय आपसे आप मनोहर चित्र, पटपर अंकित होजाय । मुझे किसीप्रकारका परिश्रन न उठाना पड़े। ___ देवीने भरतका निवेदन स्वीकार किया । तथा भरतको इसप्रकार अभिलषित वर दे देवी तो अंतर्लीन होगई । और भरत अपने वरकी परीक्षार्थ किसी एकांत स्थानमें वैठिगया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) ज्योंही उसने पट सामने रख लेखनी हाथमें ली । त्योंही विना परिश्रमके आपसे आप पट पर चित्र खिंच गया । चित्रको अनायास पट पर अंकित देख भरतको अति प्रसन्नता हुई । अपने वरको सिद्ध समझ वह अयोध्या से निकल पड़ा । एवं अनेक देश पुर ग्रामोंमें अपने चित्रकौशलको दिखाता हुवा, कठिन भी चित्रोंको अनायास खींचता हुवा, अपने चित्रकर्म चातुर्य से बड़े २ राजाओं को भी मोहित करता हुवा वह भरत आनंद पूर्वक समस्त पृथ्वीमंडल पर घूमने लगा । अनेक पुर एवं ग्रामोंसे शोभित, वन उपवनोंसे मंडित, भांति २ के धान्योंसे विराजित, एक सिंधु देश है । सिंधुदेश में अनुपम राजधानी विशाला पुरी है । विशाला पुररीके स्वामी नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करनवाले अनेक विद्वानोंसे मंडित महाराज चेटक थे । महाराज चेटककी पट रानीका नाम सुभद्रा था। जोकि मृगनयनी चंद्रमुखी कृशांगी और कठिन एवं उन्नतस्तनोंको धारण करने वाली थी । राजा चेटक के पटरानी सुभद्रा से उत्पन्न मनोहरा ? मृगावती २ वसुप्रभा ३ प्रभावती ४ ज्येष्ठा ५ चेलना ६ चंदना ७ ये सात कन्यायें थीं। ये सातो ही कन्या अति मनोहर थीं। भले प्रकार जैन धर्मकी भक्त थीं । स्त्रियों के प्रधान २ गुणोंसे मंडित एवं उत्तम थीं । सात कन्याओं के रूप सौन्दर्य देख राजा चेटक एवं महाराणी सुभद्रा अति प्रसन्न रहते थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) कन्यायेंभी भांति भांतिके कलाकौशलोंसे पिता माताको सदा संतुष्ट करती रहती थीं। कदाचित् भ्रमण करता करता चित्रकार भरत इसी विशाला नगरीमें जा पहुंचा । उसने सातो कन्याओंका शीघ्र ही चित्र अंकित किया । एवं उसे महाराज चेटककी सभामें जा हाजिर किया । और महाराजके पूछे जाने पर उसने अपना परिचय भी दे दिया । ____अति चतुरतासे पट पर अंकित कन्याओंका चित्र देख राजा चेटक अति प्रसन्न हुये । भरतकी चित्रविषयक कारीगारी देख महाराज बार वार भरतकी प्रशंसा करने लगे । और उचित पारितोषिक दे राज' चेटकने भरतको पूर्णतया सन्मानित भी किया । किसीसमय महाराजकी प्रसन्नताकेलिये भरतने उन सातो कन्याओंका चित्र राजद्वारमें अंकित कर दिया । और उसै भांति भांतिके रगोंसे रंगित कर अति मनोहर वना दिया । चित्रकी सुघड़ाई देख समस्त नगर निवसी उस चित्रको देखने आने लगे । और उन सात कन्याओंका वैसा ही चित्र नगर निवासियोंने अपने अपने द्वारोंपर भी खींच लिया। एवं कन्याओंके चित्रसे अपनेको धन्य समझने लगे । ___ संसारमें जो लोग सात माता कहकर पुकारते हैं । और उनकी भक्तिभावसे पूजा करते हैं। सो अन्य कोई सात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmarrrrrrrrrrrrrrramm माता नहीं । इन्हीं कन्याओंको बिना समझे सात माता मान रक्खा है । यह सातमाताका मिथ्यात्व उसीसमयसे जारी हुवा है । संसारमें अव भी कई स्थानोंपर यह मिथ्यात्व प्रचलित है। ____ सातो कन्याओंमें राजा चेटककी चार कन्या विवाहिता थीं । प्रथम कन्याका विवाह नाथवंशीय कुंडलपुरके स्वामी महाराज सिद्धार्थके साथ हुवा था । द्वितीय कन्या मृगावाती नाथवंशीय वत्सदेशमें कौशांबी पुरीके स्वामी महाराज नाथके साथ विवाही गई थी। तथा तृतीय कन्या जो कि वसुप्रभा थी उसका विवाह राजा चेटकने सूर्यवंशीय दशाण देशमें हेरकच्छपुरके स्वामी राजा दशरथको दी थी। एवं चतुर्थ कन्या प्रभावतीका विवाह कच्छदेशमें रोरुक पुरके स्वामी महाराज महातुरके साथ होगया था । वांकी अभी तीन कन्या कुमारी ही थीं। कदाचित् ज्येष्ठाको आदि ले तीनों कन्या चित्रकार भरतकें पास गई । और उन सबमें बड़ी कुमारी ज्येष्ठा ने हंसी हंसी में चित्रकारसे कहा। भरत ! हम जब तुझै उत्तम चित्रकार समझे। कुमारी चेलनाका जैसा रूप है वैसाही इसका वस्त्ररहित चित्र खींच कर तू हमैं दिखावे-- कमारी चेलनाका वस्त्ररहित चित्र खींचना भरतकेलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) कोंन बड़ी वात थी ?। ज्योंही उसने ज्येष्ठाके वचन सुने । चट अपने सामने पट रखकर हाथमे लेखनी लेली । और पद्मावती देवीके प्रसादसे जैसा कुमारी चेलनाका रूप था । तथा जो जो उसके गुप्त अंगोंमें तिल आदि चिन्ह थे वे ज्योंके त्यों चित्र में आगये । तथा चौखटा वगेरहसे उस चित्रको अति मनोहर वनाकर, शीघ्रही उसने ज्येष्ठाको दे दिया। कुमारी चेलनाके चित्रको लेकर प्रथम तो ज्येष्ठा अति प्रसन्न हुई । कितु ज्योंही उसकी दृष्टि गुप्तस्थानों में रहे हुये तिल आदि चिन्हों पर पड़ी । वह एक दम आश्चर्य सागर में डूब गई । अव मारामार उसके मनमें ये सकल्प विकल्प उठने लगे । कि बाह्य अंगोंके चिन्होंकी तो वात दूसरी है।इस चित्रकारको गुह्यअंगोंके चिन्होंको कैसे पता लग गया ? न मालूम यह चित्रकार कैसा है ? इधर ज्येष्ठातो ऐसा विचार कर रही थी उधर किसी जासूसको भी इस वातका पता लग गषा । वह शीघ्र ही भगता भगता महाराजके पास गया । और चित्रकारकी सारी बातें महाराज चेटकसे जा पोई । ___ जासूसके मुखसें यह वृत्तांत सुन राजा चेटक अति कुपित होगये । कुछ समय पहिले जो राजा चेटक चित्रकार भरतको उत्तम समझते थे । वही विचारा चित्रकार जासूसके बचनोंसे उन्हे काला भुंजग सरीखा जान पड़ने लगा । वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) विचारने लगे, बड़े खेदकी बात है कि इस नालायक चित्रकारने कुमारी चेलनाका गुप्त स्थान में स्थित चिन्ह कैसे जान लिया ? मैं नहीं जान सकता यह बात क्या होगई ? अथवा ठीक ही है स्त्रियोंका चरित्र सर्वथा विचित्र है । बड़े बड़े देव भी इसका पता नहीं लगा सकते । अखंड ज्ञान के धारक योगी भीत्रियों के चरित्रके पते लगाने में हैरान है । तब न कछ ज्ञानके धारक हम कैसे उनके चरित्रकी सीमा पासकते हैं ? | हाय मालूम होता है इस दुष्ट चित्रकारने भोली भाली कन्या चेलनाके साथ कोई अनुचित काम कर पाड़ा । कुलकों कलेकित करनेवाले इस दुष्ट भरतको अब शीघ्र ही सिंधु देशस निकाल देना चाहिये । अव क्षण भर भी इस विशालापुरी में रहने देना ठीक नहीं । इधर महाराज तो चित्रकार के विषय में यह विचार करने लगे। उधर चित्रकार को भी कहीं से यह पता लग गया कि महा राज चेटक मुझपर कुपित होगये हैं । मेरा पूरा पूरा अपमान करना चाहते हैं । वह शीघ्र ही मारे भयके अपना झोली डंडा ले वहांसे धर भगा । और कुछ दिन मंजल दरमजल कर राजगृह नगर आगया । राजगृह नगर में आकर उसने फिरसे चेलनाका चित्रपट बनाया | और बड़े विनयसे महाराज श्रेणिककी सभा में जाकर उसै मैंट कर दिया | ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ^ ~ (१६२ ) महाराज उससमय अनेक मगधदेशके बड़े बड़े पुरुषोंके साथ सिंहासन पर विराजमान थे । उनके चारो ओर कामिनी चमर ढोल रही थी। बंदी जन उनका यशोगान कररहे थे । ज्योंही महाराज की दृष्टि चेलनाके चित्रपर पड़ी। एक दम महाराज चकित रह गये । चेलनाको सुव्यक्त तसवीर देख उनके मनमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प उठने लगे । वे विचारने लगे--इस चेलनाका केश वेश ऐसा जान पड़ता है मानों कामी पुरुषों के लिये यह अद्भुत जाल है । अथवा यों कहिये चूड़ामणि युक्त यह केशवेश नहीं है। किंतु उत्तम रत्नयुक्त, समस्तजीवोंको भयका करनेवाला, यह काला नाग है । एवं जैसा चंद्रमा युक्त आकाश शोभित होता है उसीप्रकार गांगेय तिलकयुक्त चेलनाका यह ललाट है । और यह जो भ्रभंगसे इसके ललाट पर ओंकार बनगया है वह ओंकार नहीं है जगद्विजयी कामदेवका वाण है । तथा गायन जिसप्रकार मृग को परवश बनादेता है । उसीप्रकार इसका कटाक्षविक्षेप कामीजनोंको परवश करने वाला है । अहा ! इस चलनाके कानाम जो ये दो मनोहर कुंडल हैं सो कुंडल नहीं किंतु इसकी सेवार्थ दो सूर्य चंद्र है । मृगनयनी इसचेलनाके ये कमलके समान फूले हुवे नेत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामीजनोंको वश करनेवाल मंत्र है । इस मृगाक्षी चेलनाका मुख तो सर्वथा आकाश ही जान पड़ता है क्योंकि आकाशमें जैसी वादलकी ललाई चंद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकी किरण एवं मेघकी ध्वनि रहती है । वैसी ही इसके मुखमें पानकी तो ललाई है । दांतोंकी किरण चंद्र किरण हैं। और इसकी मधुर ध्वनि मेघध्वनि मालूम पड़ती है । इसकी यह तीन रेखाओंसे शोभित, सोनेके रंगकी, मनोहर ग्रीवा है। मालूम होता है कोयलने जो कृष्णत्व धारण किया है। और पुर छोड़ वनमें वसी है । सो इस चेलनाके कंठके शब्द श्रवणसे ही ऐसा किया है। इस चेलनाके दो स्तन ऐसे जान पड़ते हैं मानो वक्षस्थल रूपी बनमें दो अति मनोहर पर्वत ही हैं । मालूम होता है इस चेलनाके नाभिरूपी तालावमें कामदेव रूपी हस्ती गोता लगाये बैठा है। नहीं तो रोमावलीरूपी भ्रमर पंक्ति कहांसे आई ? । इसके कमलके समान कोमल कर अति मनोहर दीख पड़ते हैं । कटिभाग भी इसका अधिक पतला है । ये इसके कोमल चरणों में स्थित नूपर इसके चरणोंकी विचित्र ही शोभा बना रहे हैं । नहीं मालूम होता ऐसी अतिशय शोभायुक्त यह चेलना क्या कोई किन्नरी है ? वा विद्याधरी है। किं वा रोहिणी है ? अथवा कमल निवासिनी कमला है ? वा यह इंद्राणी अथवा कोई मनोहर देवी है । अथवा इतनी अधिक रूपवती यह नाग कन्या वा काम देवकी प्रिया रति है । अथवा ऐसी तेजस्विनी यह सूर्यकी स्त्री है। तथा इसप्रकार कुछ समय अपने मनमे भलेप्रकार विचार कर, और चेलनाके रूपपर मोहित होकर, महाजने शीघ्र ही भरत चित्रकारको अपने पास बुलाया । और उससे पूछा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) कहो भाई । यह अ सुंदरी चेलना किस राजाकी तो पुत्रीं है ? किस देश एवं पुरका पालक वह राजा है ? क्या उसका नाम है ? यह कन्या हमैं मिलसकती है या नहीं? यदि मिलसकती है तो किस उपायसे मिलसकती है ? ये सब बातें खुलासा रीतिसे शीघ्र मुझे कहो । महाराज श्रेणिकके एस लालसा भरे बचन सुन भरतने उत्तर दिया । कृपानाथ ! यह कन्या राजा चेटककी है। राजाचेटक सिंधु देशमें विशालापुरी का पालन करनेवाला है । यह कन्या आप - को मिलतो सकती है किंतु राजा चेटकका यह प्रण है कि वह सिवाय जैनीके अपनी कन्या दूसरे राजाको नहीं देता । चेटक जैनधर्मका परम भक्त है । इसलिये यदि आप इसकन्याको लेना चाहते है तो आप उसके अनुकूल ही उपाय करें । I 1 भरत के ऐसे वचन सुन महाराज, विचार सागर में गोता मारने लगे । वे सोचने लगे यदि राजा चेटकका यह प्रण हैं। कि जैनराजा के अतिरिक्त दूसरेको कन्या न देना तो यह यह कन्या हमैं मिलना कठिन है क्योंकि हम जैन नहीं । यदि युद्धमार्ग से इसके साथ जबरन विवाह किया जाय सो भी सथा अनुचित एवं नीति विरुद्ध हैं । और विवाह इसके साथ करना जरूरी है क्योंकि ऐसी सुंदरी स्त्री दूसरी जगह मिलने वाली नहीं । किंतु किस उपाय से यह कन्या मिलेगी ? यह कुछ ध्यान में नहीं आता । तथा ऐसा अपने मनमें विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) करते करते महाराज वेहोश होगये । चेलना विना समस्त जगत उन्हें अंधकारमय प्रतीत होने लगा । यहां तक कि चेलनाकी प्राप्तिका कोई उपाय न समझ उन्होंने अपना मस्तक तक भी धुनडाला । __महाराजको इसप्रकार चिंतासागरमें मन एवं दुःखित सुन कुमार अभय उनके पास आये । महाराजकी विचित्र दशा देख कुमार अभय भी चकित रह गये । कुछ समय वाद उन्होंने महाराजसे नम्रता पूर्वक निवेदन किया । पूज्य पिता ! मैं आपका चित्त चिंतासे अधिक व्यथित देख रहा हूं । मुझे चिंताका कारण कोई भी नजर नहीं आता। पूज्यपाद ? प्रजाकी ओरसे आपको चिंता हो नहीं सकती क्योंकि प्रजा आपके आधीन और भलेप्रकार आज्ञा पालन करने वाली है। कोष बल एवं सैन्यबल भी आपको चिंतित नहीं बनासकता क्योंकि न आपके खजाना कम है और न सेना ही । किसी शत्रुकेलिये भी चिंता करना आपको अनुचित है क्योंकि आपका कोई भी शत्रु नजर नहीं आता । आपके शत्रु भी मित्र हो रहे हैं । पूज्यवर ! आपकी स्त्रियां भी एकसे एक उत्तम हैं । पुत्र आपकी आज्ञाके भलेप्रकार पालक और दास हैं । इसलिये स्त्री पुत्रोंकी ओरसे भी आपका चित्त चिंतित नहीं हो सकता । इनसे अतिरिक्त और कोई चिंताका कारण प्रतीत नहीं होता फिर आप क्यों ऐसे दुःखित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) होरहे हैं । कृपाकर शीघ्र ही अपना चिंताका कारण मुझे कहैं । मैं भी यथासाध्य उसके दूर करनेका प्रयत्न करूंगा । कुमार अभय के ऐसे विनय भरे वचन सुन प्रथमतो महाराजने कुछ भी जवाब न दिया । वे सर्वथा चुपकी साधगये । किंतु जब उन्होंने कुमारका आग्रह विशेष देखा तब वे कहने लगे । प्यारे पुत्र ! चित्रकार भरतने मुझे चेलनाका यह चित्र दिया है | जिससमय से मैंने चेलनाकी तसवीर देखी है मेरा चित्त अति चंचल होगया है । इसके विना यह विशाल राज्य भी मुझे जीर्ण तृण सरीखा जान पड़ रहा है । इसके पिताकी यह कड़ी प्रतिज्ञा है कि सिवाय जैन राजा के दूसरेको कन्या न देना, इसलिये इसकी प्राप्ति मुझे अति कठिन जान पड़ती है । अब इसकन्याकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न शीघ्र होना चाहिये । विना इसके मेरा सुखी होना कठिन है । पिताके ऐसे बचन सुन कुमार ने कहा । माननीय पिता ! इस जरासी बात के लिये आप इतने अधीर न हों। मैं अभी इसके लिये उपाय करता हूं । यह कौन बड़ी बात है ? तथा महाराजको इसप्रकार आश्वासन दे कुमारने शीघ्र ही पुरके बड़े बड़े जैनी सेठ बुलाये । और उनसे अपने साथ चलनेके लिये कहा । तथा कुमारकी आज्ञानुसार वे सव कुमार के साथ चलनेके लिये राजी भी होगये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) जव कुमारने यह देखा कि सब सेठि मेरे साथ चलनेके लिये तयार है । उन्होंने शीघ्र ही महाराज श्रेणिकसे जानेके लिये आज्ञा मांगी । तथा हीरा पन्ना मोती माणिक आदि जबाहिरात और अन्य अन्य उपयोगी पदार्थ लेकर, एवं समस्त सेठोंके मुखिया सेठि वनकर कुमार अभयने शीघ्र ही सिंधुदेश की और प्रयाण करदिया । मायाचारी संसारमें विचित्र पदार्थ है । जिस मनुष्य पर इसकी कृपा होजाती है । उसके लिये संसार में बड़ासे बड़ा भी अहित, करने में सुलभ होजाता है । मायाचारी निर्भय हो चट अनर्थ कर बैठता है । कुमारने ज्योंही राजगृह नगर छोड़ा | माया के वे भी बड़े भारी सेवक होगये । मार्ग में जिस I नगरको वे बड़ा नगर देखें फौरन वहां पर ठहर जावे । और अन्य सेठा के साथ कुमार भलेप्रकार भगवानकी पूजा करें । एवं त्रिकाल सामायिक और पचं परमेष्ठी स्तोत्र का पाठ भी करें। क्या मजाल थी जो कोई जरा भी भेद जान जाय ! इसप्रकार समस्त पृथ्वी मंडलपर अपने जैनत्वको प्रसिद्धि करते कुमार कुछ दिन बाद विशाला नगरी में जा पहुंचे । और वहांके किसी बागमें ठहरकर खूब जोर शोर से जिनेंद्र भगवान के पूजा माहात्म्यको प्रकट करने लगे । कुछ समय वागमें आरामकर कमारने उत्तमोत्तम रत्नोंको चुना । और कुछ जैन सेठोंको लेकर वे शीघ्र ही राजा चेटक www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) की सभा में गये । महाराज चेटककी सभा में प्रवेशकर कुमारने राजाको विनयभावसे नमस्कार किया । तथा उनके सामने मैंट रखकर, उनके साथ मधुर मधुर वचनालाप कर अपनेको जैनी प्रकट करते हुवे कुमारने प्रार्थना की। राजाधिराज ! हमलोग जौहरी बच्चे हैं । अनेक देशों में भ्रमण करते करते यहां आपहुंचे है । हमारी इच्छा है । कि हम इस मनोहर नगर में भी कुछ दिन ठहरे । हमारे पास मकानका कोई प्रबंध नहीं । कृपाकर आप इस राजमंदिर पास हमैं किसी मकानमें ठहरनेकेलिये आज्ञा दें । कुमारका ऐसा अद्भुत वचनालाप एवं विनयव्यवहार देख राजा चेटक अति प्रसन्न हुवे | उन्होंने विना सोचे समझे ही कुमारको राजमन्दिर के पास रहने की आज्ञा देदी । और कुमार आदिका हदसे ज्यादह सन्मान किया । अब क्या था ! राजा की आज्ञा पाते ही कुमारने शीघ्र ही अपना सामान राजमन्दिर के समीप किसीमहल में मगा लिया । एवं उस मकान में मनोहर चैत्यालय बनाकर आनन्द पूर्वक बड़े समरोह से जिन भगवानकी पूजा करनी आरंभ करदी । कभी तो कुमार बड़े बड़े मनोहर स्तोत्रों में भगवान की स्तुति करने लगे । और कभी उनसेठोकें साथ जिनेंद्र भगवानकी पूजा करनी आरंभ कर दी । कभी कभी कुमारको पूजा करते ऐसा आनन्द आगया कि वे बनावटी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तौरसे भगवानके सामने नृत्य भी करने लगे । और कभी उत्तमोत्तम शब्द करने वाले बाजे बजाना भी उन्होंने प्रारम्भ कर दिया । एवं कभी कभी कुमार त्रेसठिसलाका पुरुषोंके चरित्र वर्णनकरनेवाले पुराण बाचने लगे । जिससमय ये समस्त, भगवानकी पूजा स्तुति आदि कार्य करते थे । वरावर उनकी आवाज रनवांसमें जाती थी। राजमन्दिरकी स्त्रियां साफ रीतिसे इनके स्तोत्र आदिको सुनती थीं। और मनही मन इनकी भक्तिकी अधिक तारीफ करती थी। किसीसमय महाराज चेटककी ज्येष्ठा आदि पुत्रियों के मनमें इसवातकी इच्छा हुई कि चलो इनको जाकर देखें । ये बड़े भक्त जान पड़ते हैं । प्रतिदिन भाव भक्तिसे भगवानकी पूजा करते हैं । तथा ऐसा दृढ़ निश्चय कर वे अपनी सखियोंके साथ किसीदिन कुमार अभय द्वारा बनाये हुवे चैत्यालय में गई । और वहां पर चमर चांदनी झालर घंटा आदि पदार्थोंसे शोभित चैत्यालय देख अति प्रसन्न हुई। तथा कुमार आदिको भगवानकी भक्तिमें तत्पर देख कहने लगी--- ____ आप लोग श्रीजिनदेवकी भक्तिभावसे पूजन एवं स्तुति करते हैं । इसलिये आप धन्य हैं । इस पृथ्वीतलपर आप लोगोंके समान नतो कोई भक्त दीख पड़ता और न ज्ञान वान एवं स्वरूपवान भी दीख पड़ता । कृपाकर आप कहैं--कोन तो आपका देश है ? कौन उस देशका राजा है ! वह किस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NNNNNA (१७० ) धर्मका पालन करने वाला है ? क्या उसकी वय हैं ? कैसी उसकी सौभाग्य विभूति है ? एवं कोंन कोंन गुण उत्तमतया उसमें मौजूद है ? राजकन्याओंके मुखस ऐसे वचन सुन कुमार अभयने मधुरवचनमें उत्तर दिया--- राज कन्याओ ! यदि आपको हमारे सविस्तर हाल जानने की इच्छा है तो आप ध्यान पूर्वक सुनें मैं कहता हूं। अनेक प्रकारके ग्राम पुर एवं वाग वगीचोंसे शोभित, ऊंचे ऊंचे जिनमंदिरोंसे व्याप्त, असंरव्याते मुनि एवं यतियोंका अनुपम विहार स्थान, देशतो हमारा मगधदेश है । मगधदेशमें एक राजगृह नगर है। जो राजगृहनगर बड़े २ सुवर्णमय कलशोंसे शोभित; अपनी उचाईसे आकाशको स्पर्श करने वाले, सूर्यके सामन देदीप्यभान अनेक धीनकोंके मंदिर एवं जिनमंदिरसे व्याप्त है । और जहांफी भूमि भांति भांतिके फलोंसे मनुष्योंके चित्त सदा आनंदित करती रहती है । उस राजगृहनगरके हम रहने वाले हैं । राजगृह नगरके स्वामी जो नीति पूर्वक प्रजा पालनकरनेवाले हैं महाराज श्रेणिक हैं । राजा श्रेणिक जैन धर्मके परम भक्त हैं । अभी उनकी अवस्था छोटी है। एवं अनेकगुणोंके भंडार हैं। राजकन्याओ ! हम लोग व्यापारी हैं। छोटीसी उम्रमें हम चारो ओरभूअंडल घूम चूके। हर एक कलामें नैपुण्य रखते हैं। हमने अनेक राजाओंको देखा किंतु जैसी जिनेंद्रकी भक्ति, रूप, गुण, तेज, महाराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) श्रेणिक में विद्यमान है वैसा कहीं पर नहीं । क्योंकि ऐसा तो उनका प्रताप है कि जितने भर उनके शत्रु थे सब अपने मनोहर मनोहर नगरे को छोड़ बनमें रहने लगे । कोषवल भी जैसा महाराज श्रेणिकका है शायद ही किसीका होगा । हाथी घोड़े यादे आदि भी उनके समान किसी के भी नहीं । अव हम कहांतक कहैं । धर्मात्मा गुणी प्रतापी जो कुछ हैं सो महाराज श्रेणिक ही हैं | कुमार के मुखसे महाराज श्रेणिकको ऐसा उत्तम सुन ज्येष्ठा आदि समस्त कन्यायें अति प्रसन्न हुईं। अव महाराज श्रेणिकके साथ विवाह करनेकेलिये हर एक का जी ललचाने लगा । कुमार की तारीफने कन्याओं को महाराज श्रेणिकके गुणोंके परतंत्र बना दिया । अब वे चुप चाप न रह सकीं । उन्होंने शीघ्र ही विनयपूर्वक कुमारसे । कहा प्रिय वणिक सरदार ! ऐसे उत्तम वरकी हमैं किस रीति से प्राप्ति हो ? न जाने हमारे भाग्य से इस जन्म में हमारा कोंन वर होगा ? श्रेष्टवर्य ? यदि किसी रीति से आप वहां हमैं ले चल तब तो मगधेश हमारे पति हो सकेत हैं । दूसरी रीति से उनका पति होना असंभव है । क्योंकि कहां तो महाराज श्रेणिक ! और हम कहां ? कृपाकर आप कोई ऐसी युक्ति सोचिये जिसमें मगधेश ही हमारे स्वामी हों । याद रखिये जवतक महाराज श्रेणिक हमें न मिलेंगे तब तक न तो हम संसार में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी रह सकेंगी । और न हमै निद्रा ही आवेगी। विशेष कहां तक कहाजाय महाराज श्रेणिकके वियोगमें अव हमैं संसार दुःखमय ही प्रतीत होने लगे गा। कन्याओंके ऐसे लालसाभरे वचन सुन कुमार अति प्रसन्न हुवे । अपने कार्यकी सिद्धि जान मारे हर्षके उनका शरीर रोमांचित होगया । कन्याओंको आश्वासन दे शीघ्र ही उन्हें वहां से चपत किया । और अपने महलसे राजमंदिरतक कुमार ने शीघ्र ही एक सुरंग तयार करानेकी आज्ञा देदी । कुछ दिनवाद सुरंग तयार होगई । कुमारने सुरंगके भीतर अपने महलसे राजमहलतक एक रस्सी बंधवादी । और गुप्तरीतिसे कन्याओंक पासभी यह समाचार भेजदिया। __कुमारकी यह युक्ति देख कन्या अति प्रसन्न हुई । किसी समय अवसर पाकर उन तीनों कन्याओंने सुरंगसे जानेका पूरा पूरा इरादा करलिया । और वे सुरंगके पास आगई । किन्तु ज्योंही वे तीनों सुरंगमें घुसी सुरंगमें अबेरा देख ज्येष्ठा और चंदना तो एक दम घबड़ा गई । उन्होंने सोचा हमैं इसमार्गसे जाना योग्य नहीं । क्योंकि प्रथमतो इसमें गाढ़ अंधकार है। इसलिये जाना कठिन है । द्वितीय यदि हमारे पिता सुनेंगे तो हमपर अधिक नाराज होंगे । इसलिये ज्येष्ठा तो अपनी मुद्रिका का वहाना कर वहांसे लौट आई । और चंदना हारका मूढ़ा कर धर लौटी। अकेली विचारी चेलना रहगई उसको कुमारने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannarramanannnnnnnnnnnnnnar शीघ्रही खींचलिया। और उसै रथमें विठाकर तत्काल राजगृह नगरकी ओर प्रयाण करदिया। विशाला नगरीसे जब रथ कुछ दूर निकल आया।कुमारी चेलनाको अपने माता पिताकी हुड़क आई । वह उनकी याद कर रोदन करने लगी। किन्तु कुमार अनयन उसे समझा दिया जिससे उसका रोदन शांत होगया । एवं व समन्त महानुभव कुछ दिनवाद आनन्द पूर्वक मगधदशमें आपहुंचे । किसी दूतके मुखसे महाराजको यह पता लगा कि कुमार आ रहेहैं उनके साथ कुमारी चलना भी है। शीघ्र ही बड़ी विभूतिसे वे कुमारके सामने आये । कमारके मुखसे उन्होंने सारा वृत्तांत सुना । कुमारको छातीसे लगा महाराज अति प्रसन्न हुये । कुमारके साथ जो अन्यान्य सज्जन थे उनके साथ भी महाराजने अधिक हित जनाया । जिससमय मृगनयनी चंद्रवदनी कुमारी चेलना पर महाराज की दृष्टि गई तो उससमय तो महाराजके हर्ष का पारावार न रहा । दरिद्री पुरुष जैसा निविको देख एक विचित्र आंनदानुभव करने लगता है । चेलनाको देख महाराजकी भी उससमय वैसी ही दशा होगई । ___ इसप्रकार कुछ समय वार्तालाप कर सबोंने राजगृह नगरमें प्रवेश किया । महाराजकी आज्ञानुसार कुमारी चेलना सेठि इन्द्रदत्तके घर उतारी गई । किसीदिन शुभ महूर्त एवं शुभ लग्नमें महाराजका विवाह होगया। विवाह के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ ) समय समस्तादेशाओंको बधिर करने वाले बाजे बजने लगे । बन्दीजन महाराजकी उत्तमोत्तम पद्योंमें स्तुति करने लगे । महाराज के विवाहसे नगर निवासिओंको अति प्रसन्नता हुई । चलना विवाहसे महाराजने भी अपने जन्मको धन्य समझा । विवाह के बाद महराजने बड़े गाजे बाजे के साथ रानी चेलनाको पटरानीका पद दिया । एवं राज मन्दिर में किसी उत्तम मकानमे रानी चेलनाको ठहराकर प्रीति पूर्वक महाराज उसके साथ भोग भोगने लगे । कभी तो महाराजको रानी चेलनाके मुखसे कथा कौतूहल सुन परम संतोष होने लगा । कभी महाराजको रानी चेलनाकी हँसिनी के समान गति एवं चन्द्रके समान मुख देख अति प्रसन्नता हुई । कभी महाराज चेलना के हास्योत्पन्न सुखसे सुखी होने लगे । कभी कभी महाराजको रतिजन्य सुख सुखी करने लगा । और कभी चेलनाके प्रति अंगकी सुघड़ाई महाराजको सुखी करने लगी । जिससमय राजा रानी पास में बैठते थे । उससमय इनमें और इन्द्र इन्द्राणीम कुछ भी भेद देखने में नहीं आता था । ये आनन्द पूर्वक इन्द्र इन्द्राणी के समान ही भोग विलास करते थे । रानी चेलना एवं राजा श्रेणिकके शरीर ही भिन्न थे। किंतु मन उनका एकही था । लोग ऐसा आपसी घनिष्ट प्रेम देख दोनोंको सुखकी जोड़ी कहते थे । और बरावर दोनोंके पुण्यफलकी प्रशंसा करते थे । 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com AAAVAA Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) ___ भाग्यकी महिमा अनुपम है । देखो कहां तो राजा चेटक की पुत्री चेलना ? और कहां जिनधर्मरहित महाराज श्रेणिक ? कहां तो सिंधुदेशमें विशालपुरी? और राजगृह नगर कहां ? तथा कहां तो कुमार अभयद्वारा चेलनाका हरण ? और कहां महाराज श्रेणिकके साथ संयोग ? इसलिये मनुष्यको अपने भाग्यका भी अवश्य भरोसा रखना चाहिय । क्योंकि भाग्यमें पूर्णतया फल एवं अफल देने की शक्ति मौजूद है । जीवोंको शुभ भाग्यके उदयसे परमोत्तम सुख मिलते हैं । और दुर्भाग्यके उदयसे उन्हे दुःखोंका सामना करना पड़ता है। नरकादि गतियों में जाना पड़ता है। इसप्रकार भविष्यत कालमें होनेवाले तीर्थकर पद्मनाभके जीव भहाराज श्रेणिकके चरित्रमें चेलनाके साथ विवाह वर्णन करनेवाला आठवा सर्ग समाप्त हुवा। नवम सर्ग। कृतकृत्य समन्तकोंसे रहित होनके कारण परम पूजनीक सम्यग्दशनादि तीनों रत्नत्रयसे भूषित श्री सिद्ध भगवान हमारी रक्षा करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___अनन्तर इसके रानी चेलना आनन्द पूर्वक महाराज श्रेणिकके साथ भोग भोग रही थी । अचानक ही जब उसने यह देखा कि महाराज श्रेणिकका घर परम पवित्र जैन धर्म से राहत है । महाराजके घरमें हिंसाको पुष्ट करने वाले तीन मूढ़तासहित, ज्ञान पूजा आदि आठ अभिमान युक्त, एवं उभयलोकमें दुःख देनेवाले बौद्ध धर्मका अधिक तर प्रचार है । तो उसै अति दुःख हुवा । वह सोचने लगी हाय पुत्र अभयकुमारने वुरा किया । मेरे नगरमें छलसे जैनधर्मका वैभव दिखा मुझ भोली भालीको ठगलिया । क्योंकि जिसघरम श्री जिनधर्मकी भलेप्रकार प्रवृत्ति है । उनके गुणोंका पूर्णतया सत्कार है । वास्तव में वही घर उत्तम घरहै । किंतु जहां जिनधमकी प्रवृत्ति नहीं है वह घर कदापि उत्तम नहीं होसकता । वह मानिंद पक्षियोंके घोंसलेके है । यदि मैं महाराज श्रेणिकके इस अलौकिक वैभवको देख अपने मनको शांत करूं सोभी ठीक नहीं क्योंकि परभवमें मुझे इससे घोरतर दुःखोंकी ही आशाहै। अथवा मैं अपने मनको इसरीतिसे बहलाऊं कि महाराज श्रेणिकके घरमें मुझै अनन्यलभ्य भोग भोगनेमें आरहे हैं, यहभी अनुचित है । क्योंकि ये भोग मानिंद भयंकर भुजंगके मुझे परिणाममें दुःख ही देंगे । भोगोंका फल नरक निर्यच आदि गतियोंकी प्राप्ति है।उनमें मुझे जरूरहीं जाना पड़ेगा । एवं वहां पर घोरतर वेदनाओंका सामना करना पड़ेगा । संसारमें धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७ ) होवे धन न होवे तो धर्मके सामने धनका न होना तो अच्छा किंतु विना धर्मके अतिशय मनोहर, सांसारिक मुखका केंद्र, चक्रवर्तीपना मी अच्छा नहीं । संसारमें मनुष्य विधवापनेको बुरा कहते हैं । किं तु यह उनकी बड़ी भारी भूल है । विधवापना सर्वथा बुरा नहीं । क्योंकि पति यदि सागगामी हो और वह मरजाय तवतो विधवापना वुरा । किंतु पति जीता हो और वह हो मिथ्यामार्गी तो उस हालतमें विधवापना सर्वथा वुरा ही है । संसारमें बांज रहना अच्छ। भयंकर वनका निवास भी उत्तम । अनिमें जलकर और विष खाकर मरजानाभी अच्छा । तथा अजगरके मुखमें प्रवेश और पर्वतसे गिरकर मरजाना भी अच्छा । एवं समुद्रमें डूबकर मरजानेमें भी कोई दोष नहीं। किंतु जिनधर्म रहित जीवन अच्छा नहीं । पति चाहैं अन्य उत्तमोतम गुणोंका भंडार हो। यदि वह जिनधर्मी न हो तो किसी कामका नहीं । क्योंकि कुमार्गगामी पति के सहवाससे, उसके साथ भोग भोगनेसे दोनों जन्ममें अनेक प्रकारके दुःख ही भोगने पड़ते हैं। हाय बड़ा कष्ट है । मैंन पूर्वभवमें ऐसा कौंन घोर पाप किया था । जिससे इसभवमें मुझे जैनधर्मसे विमुख होना पड़ा । हाय अव मेरा एकप्रकारस जैनधर्मसे संबंध छूटसा ही गया । हे दुर्दैव! तूने कब कवके मुझसे दाये लिये । पुत्र अभयकुमार ! क्या मुझै भोली वातों में फसाकर ऐसे घोर संकटमें डालना आपको योग्य था ? अथवा कवियोंने जो स्त्रियोंको अवला कहकर पुकारा है सो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) सर्वथा ठीक है । ये विचारी वास्तवमे अबला ही हैं । विना समझै वूमे ही दूसरोकी वातपर चट विश्वास कर बैठती हैं।और पीछे पछिताती हैं । दीनबंधो ! जो मनुष्य प्रियवचन वोल दूसरे भोले जीवोंको ठग लेते हैं । संसारमें कैसे उनका भला होता होगा ? फुसलाकर दूसरोंको ठगनेवाले संसारमें महापातकी गिने जाते हैं। तथा ऐसा चिरकालपर्यंत विचारकर रानी चेलनाने मौन धारण करलिया । एवं एकांतस्थानमें बैठ करुणाजनक रोदन करने लगी। रानी चेलनाकी ऐसी दशा देख समस्त सखियां घवड़ागई। चेलनाकी चिंता दूर करनेकेलिये उन्होंने अनेक उपाय किये किंतु कोईभी उपाय सफल न दीख पड़ा । यहांतक कि रानी चेलनाने सखियों के साथ वोलना भी बंद करदिया। वह मारामारा अपने जीवनकी निंदा करने लगी। जिनेंद्र भगवानकी मानसिक पूजा और उनके स्तवनमें उसने अपना मन लगाया । एवं इस दुःखसे जव जव उसे अपने माता पिताकी याद आई तो वह रोने भी लगी। रानी चेलनाकी चिंताका समाचार महाराज श्रेणिकके कान तक पहुंचा । अति व्याकुल हो वे शीघ्र ही चेलनाके पास आये । चेलनाका मौनधारण देख उन्हें अति दुःख हुआ । रानी चेलनाके सामने वे विनयभावसे इसप्रकार कहने लगे । प्रिये ! आज तुम्हारी यह अचानक दशा क्योंकर होगई ? | जव जव मैं तुम्हारे मंदिरम आता था । मैं तुमको सदा प्रसन्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही देखता था । मैंने आजतक कभी आपके चित्तपर ग्लानि न देखी । और समय तुम मेरा पूरापूरा सन्मान भी करती थी । आज तुमने मेरा सन्मानभी विसार दिया। आजतक मैंने तुम्हारा कोई कहना भी न डाला । जिससमय मैं तुम्हारा किसी कामकेलिये आग्रह देखता था फौरन करता था तथापि यदि मुझसे तुम्हारी अवज्ञा होगई हो तो क्षमा करो अब तुम्हारी अवज्ञा न की जायगी । मैं तुम्हारा अब कहना मानूंगा । यदि राजमंदिरम किसीने तुम्हारा अपराध किया है । तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी है । सोभी मझै कहो मैं अभी उसै दंड देनेकेलिये तयार हूं । शुभे ! मुझसे थोड़ासी तो वात चीतकरो। मैं तुम्हारी ऐसी दशा देखनेकेलिये सर्वथा असमर्थ हूं । तुम्हारी इस अवस्थाने मुझे अर्धमृतक वनादिया है । तुम्हें मैं अपने आधे प्राण समझता हूं । तू मेरे जीवनरूपी घरकलिये विशाल स्तंभ है । शुभानने ! तेरी दुःखमय अवस्था मुझे भी दुःखमय बना रही है ! तेरे दुखित होनेपर यह समत्त राजमंदिर मुझै दुःखमय ही प्रतीत होरहा है । पूचंद्रानने ! तू शीव्र अपने दुःखका कारण कह । शीघ्र ही अपनी मनोमलिनता दूरकर ! और जल्दी प्रसन्न हो।। ___महाराज श्रेणिकके ऐसे मनोहरवचन सुनकर भी प्रथम तो रानी चलनाने कछभी जवाव न दिया। किंतु जब उसने महाराजका प्रेम एवं आग्रह अधिक देखा तब वह कहने लगो___ जीवननाथ ? इससमय जो आप मुझे चिंतायुक्त देख रहे हैं। - - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | www (१८० ) इसचिंताका कारण न तो आप हैं । और न कोई दूसरा मनुष्य है। इससमय मुझै चिंता किसी दूसरे ही कारणसे हो रही हैं । तथा वह कारण मेरा जैनधर्मका छूटजाना है। कृपानाथ ! जबसे मैं इस राजमदिरमें आई हूं एक भी दिन मैंने इसमें निग्रंथ मुनिको नहीं देखा ! राजमंदिरमें उत्तम धर्मकी ओर किसी की दृष्टि नहीं। मिथ्याधर्मका अधिकतर प्रचार है। सब लोग बौद्धधर्मको ही अपना हितकारी धर्म मान रहे हैं । किं तु यह उनकी बड़ी भारी मूल है। क्योंकि यह धर्म नहीं कुधर्म है। जीवोंको कदापि इससे सुख नहीं मिल सकता । रानी चेलनाके ऐसे वचन सुन महाराज अति प्रसन्न हुवे । उन्होंने इसप्रकार गंभीरवचनामें रानीके प्रश्नका उत्तर दिया ? प्रिये! तुम यह क्या ख्याल कर रही हो? मेरे राजमंदिरमें सद्धर्मका ही प्रचार है । दुनियामें यदि धर्म है तो यही है । यदि जोवाको सुख मिलसकता है तो इसी धमकी कृपासे मिल सकता है। देख : मेरे सञ्चदेव तो भगवान बुद्ध हैं । भगवान बुद्ध समरत ज्ञान विज्ञानोंके पारगामी है ! इनसे बढ़कर दुनियामें कोई देव उपास्य और पूज्य नहीं । जो पुरुष उत्तम पुरुष हैं । अपनी आत्माके हितके आकांक्षी हैं उन्हें भगवान बुद्धकी ही पूजा भक्ति एवं स्तुति करनी चाहिये क्योंकि हे प्रिये ! भगवान बुद्धकी ही कृपास जविाको सुख मिलते हैं। और इन्हीकी कृपासे स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति होती है । महाराजके मुखसे इसप्रकार बौद्धधर्मकी तारीफ सुन रानी चेलनाने उत्तर दिया। - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणनाथ ! आप जो बौद्ध धर्मकी इतनी तारीफ कर रहे हैं सो बौद्धधर्म इतनी तारीफके लायक नहीं । उससे जीवोंका जराभी हित नहीं हो सकता । दुनियामें सर्वोत्तम धर्म जैनधर्म ही है ! जैनधर्म छोटे बड़े सवप्रकारके जीवोंपर दयाके उपदेशसे पूर्ण है । इसका वर्णन केवली भगवानके केवलज्ञानसे हुआहै। जो भव्यजीव इस परमपवित्र धर्मकी भाक्त पूर्वक आराधना करताहै । नियमसे उसे आराधनाके अनुसार फल मिलता है । तथा हे कृपानाथ ! इस जैनधर्ममें क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित, समस्तप्रकारकी परिग्रहोंसे विनियुक्तं, केवल ज्ञानी एवं जीवोंको यथार्थ उपदेशदाता तो आप्त कहागया है। और भलेप्रकार परीक्षित जीव अजीव आस्रव आदि सात तत्त्व कहे हैं। प्रमाण नय निक्षेप आदि संयुक्त इन सप्ततत्त्वोंका वर्णनभी केवली भगवानकी दिव्यध्वनिसे हुआ है । ये सातो तत्त्व कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप हैं । यादे एकांतरीतिसे ये सर्वतत्त्व सर्वथा नित्य और अनित्य ही माने जांय तो इनकं स्वरूपका भलेप्रकार परिज्ञान नहीं होसकता। और हे स्वामिन् ! जो साधु निग्रंथ, उत्तमक्षमा उत्तममार्दव आदि उत्तमोत्तम गुणोंके धारी, मिथ्या अंधकारको हटानेवाले, राग द्वेष मोह आदि शत्रुओंके विजयी, बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके तपसे विभूषित, भलेप्रकार परीषहोंके सहन करनेवाले | एवं नग्न दिगंबर हैं । वे इस जैनायममें गुरू माने गये हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) तथा हे प्रभो ! जिससे किसीप्रकार के जीवोंके प्राणोंको त्रास न हो ऐसा इस जैनसिद्धांत में अहिंसापरमधर्म माना गया है । इसी धर्मकी कृपासे जीवोंका कल्याण हो सकता है । दया सिंधो ! . यह घोड़ासा जैनधर्मका स्वरूप मैंने आपके सामने निवेदन किया है । इसका विस्तारपूर्वक वर्णन सिवाय भगवान केवलके दूसरा कोई नहीं कर सकता । अब आप ही कहैं ऐसे परम पवित्रधर्मका किसरांतिसे परित्याग किया जा सकता है । मेरा विश्वास है जो जीव इस जैनधर्मसे विमुख एवं घृणा करनेवाले हैं। वे कदापि भाग्य शाली नहीं कहे जा सकते । रानी चेलनाके मुखसे इसप्रकार जैनधर्मका स्वरूप श्रवण कर महाराज निरुत्तर होगये । उन्होंने और कुछ न कहकर महारानीसे यही कहा -प्रिये ! जो तुम्हें श्रेयस्कर मालूम पड़े वही कामकरो किंतु अपने चित्त पर किसी प्रकारकी ग्लानि न लाओ । मैं यह नहीं चाहता कि तुम किसीप्रकार से दुःखित रहो । महाराज के मुख से ऐसा अनुकूल उत्तर पा रानी खेलना अति प्रसन्न हुई । अव रानी चेलना निर्भय हो जैनधर्मका आराधन करने लगी। कभी तो रानी चेलनाने भक्तिभावसे भग वानकी पूजन करनी प्रारंभ करदी । और कभी वह अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वोंमें उपवास और रात्रिजागरण भी करने लगी । तथा नृत्य और उत्तमोत्तम गद्य पद्यमय गायनांसे भी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने भगवानकी स्तुति करनी प्रारंभ करदी। जैनशास्त्रोंका वह प्रतिदिन स्वाध्याय करने लगी। रानी चेलनाको इसप्रकार धर्मपर आरूढ़ देख समस्त रनवास उसके धर्मात्मापनेकी तारीफ करने लगा। यहां तक कि गिनतीके ही दिनोंमें रानी चेलनाने समस्त राजमंदिर जैनधर्ममय करदिया। ___कदाचित् बौद्ध साधुओंको यह पता लगा कि रानी चेलना जैनधर्मकी परम भक्त है । राजमंदिरको उसने जैनधर्म का परमभक्त वनादिया है । और नगर एवं देशमें वह जैन धर्मके प्रचारार्थ शक्ति भर प्रयत्न कर रही है । वे शीघ्र ही दोड़ते दौड़ते राजा श्रेणिकके पास आये । और क्रोधमें आकर महाराज श्रेणिकसे इसप्रकार कहने लगे। ___ राजन् ! हमने सुना है कि रानी चेलना जैनधर्मकी परम भक्त है। वह बौधधर्मको एक घणित धर्म मानती है । बौद्ध धर्मको धरातलमें पहुंचाने के लिये वह पूरा पूरा प्रयत्न भी कर रही है । यदि यह बात सत्य है तो आप शीघ्र ही इसके प्रतीकारार्थ कोई उपाय सोचें । नहीं तो बड़े भारी अनर्थकी सभांवना है। वौद्ध गुरुओंके ऐसे वचन सुन महाराजने और तो कुछ भी जवाब न दिया। केवल यही कहा-पूज्यवरो ! रानीको मैं बहुत कुछ समझा चुका । उसके ध्यानमें एक भी बात नहीं आती । कृपाकर आप ही उसके पास जाय। और उसे समझावें। यदि आप इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) वातमें विलंब करेंगे तो याद रखिये बौद्धधर्मकी अब खैर नहीं। अवश्य रानी बौद्ध धर्मको जड़से उड़ानेके लिये पूरा पूरा प्रयत्न कर रही है। महाराजके ऐसे बचनोंने बौद्धगुरुओंके चित्त पर कुछ शांतिका प्रभाव डालदिया। उन्हें इस वातसे सर्वथा दिलजमई होगई कि चलो राजा तो बौद्धधर्मका भक्त है । तथा उन्होंने शीघ्र ही राजासे कहा। राजन् ! आप खेद न करें। हम अभी रानीको जाकर समझाते हैं । हमारेलिये यह वात कौन काठिन है ? क्योंकि हम पिटकत्रय आदि अनेक ग्रथोंके भलेप्रकार ज्ञाता हैं । हमारी जिह्वा सदा अनेकशास्त्रोंका रंगस्थल बनी रहती है । और भी अनेक विद्याओंके हम पारगामी है । तथा ऐसा कहकर वे शीघ्र ही रानी चेलनाके पास आये । और इसप्रकार उपदेश देने लगे । चेलने ! हमने सुना है कि तू जैनधर्मको परम पवित्र धर्म समझती है । और बौद्धधर्मसे घृणा करती है । सो यह तेरा विचार सर्वथा अयोग्य है । तू यह निश्चय समझ, संसारमें जीवोंको हितकरनेवाला है तो बौद्धधर्म ही है।जैनधर्मसे कदापि जीवोंका कल्याण नहीं होसकता । देख! ये जितने दिगम्बर मतके अनुयायी साधु हैं सो पशूके समान हैं। क्योंकि पशु ज़िसप्रकार नग्न रहता है उसीप्रकार ये भी नग्न फिरते रहते - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । आहारके न मिलनेसे पशु जैसा उपवास करता है । उसी प्रकार ये भी आहारके अभावसें उपवास करते हैं । तथा पशुके समान ये अविचारित और ज्ञान विज्ञानर हित भी हैं। और हे रानी ! दिगम्बर साधु जैसे इसभवमें दीन दरिद्री रहते हैं परजन्ममे भी इनकी यही दशा रहती है । परजन्ममें भी इन्हें किसीप्रकारके वस्त्र भोजनोंकी प्राप्ति नहीं होती । वर्त मानमें जो दिगम्बर मुनि क्षुधा तृषा आदिसे व्याकुल दीखते हैं। परजन्ममें भी नियमसे ये ऐसे ही व्याकुल रहेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं । तथा हे रानी क्षेत्रमें बीज वोने पर जैसा तदनुरूप फल उत्पन्न होता है । उसीप्रकार समस्त संसारी जीवोंकी दशा है । वे जैसा कर्म करते हैं नियमसे उन्हें भी वैसाही फल मिलता है। याद रक्खो यदि तुम इन भिक्षक दरिद्र दिगंम्बर मुनियोंकी सेवा शुश्रुषा करोगी तो तुम्हेंभी इन्हीं के समान परभवमें दरिद्र एवं भिक्षुक होना पड़ेगा । इसलिये अनेक प्रकारके भोग भोगनेवाले, वस्त्र आदि पदार्थोंसे सुखी, बौद्ध साधु ओंकी ही तू भक्तिपूर्वक सेवा कर। इन्हे ही अपना हितैषी मान जिससे परभवमें भी तुझै अनेक प्रकारके भोग भोगनेमें आवे । पतिव्रते ! अव तुझै चाहिये कि तू शीघ्र ही अपने चित्तसे जैन मुनियोंकी भक्ति निकालदे । बुद्धिमान लोग कल्याणमार्गगामी होते हैं । सच्चा कल्याण कारी मार्ग भगवान बुद्ध का ही है । बौद्धगुरुओंका ऐसा उपदेश सुन रानी चलनासे न रहागया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) बड़ी गंभीरता एवं सभ्यतासे उसने शीघ्र ही पूछा--- ____बौद्ध गुरुओ! आपका उपदेश मैंने सुना किं तु मुझे इसबाताका संदेह रहगया । आप यह बात कैसे जानते हैं कि दिगंबर मुनियोंकी सेवासे परभवमें क्लेश भोगने पड़ते हैं। दोन दरिद्री होना पड़ता है ! और बौद्ध गुरुओंकी सेवासे यह एकभी बात नहीं होती । बौद्ध गुरुसेवासे मनुष्य परभवमें मुखी रहते हैं। इत्यादि कृपाकर मुझे शीघ्र कहैं---- रानीके इन वचनोंको सुन बौद्ध गुरुओंने कहा-चेलने ! तुम्हें इस वातमें सन्देह नहीं करना चाहिये । हम सर्वज्ञ हैं। परभवकी बात बताना हमारे सामने कोई बड़ी बात नहीं । हम विश्वभर की बातें बता सकते हैं । बौद्धगुरुओंके ऐसे बचन सुन रानी चेलनाने कहा बौद्ध गुरुओ ! यदि आप अखंडज्ञानके धारक सर्वज्ञ हैं । तो मैं कल आपको भक्ति पूर्वक भोजन कराकर आपके मतको ग्रहण करूंगी । आप इस विषयमें जराभी संदेह न करें रानीके मुखसे ये वचन सुन बौद्धसाधुओंको परम संतोष होगया। हर्षितचित्त हो वे शीघ्र ही महाराजके पास आये । और सारा समाचार महाराजको कह सुनाया। बौद्ध गुरुओंके मुखसे रानीका इसप्रकार विचार सुन महाराज भी अति प्रसन्न हुवे। उन्हें भी पूरा विश्वास होगया कि अब रानी जरूर बौद्ध वन जायगी। तथा रानी की भांति भांतिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) प्रशंसा करते हुवे महाराज शीघ्र ही उसके पास गये। और उसके मुखपर भी इसप्रकार प्रशंसा करने लगे । प्रिये ! आज तुम धन्य हो । गुरुओं के उपदेश से तुमने बौद्धधर्म धारण करने की प्रतिज्ञा करली । शुभे ! ध्यान रक्खो बौद्धधर्मसे बढ़कर दुनिया में कोई भी धर्म हितकारी नहीं । आज तेरा जन्म सफल हुवा । अब तुम्हैं जिस वातकी अभिलाषा हो शीघ्र कहो मैं अभी उसे पूर्ण करने के लिये तयार हूं। तथा इसप्रकार कहते कहते महाराजने रानी चेलनाको उत्तमोत्तम पदार्थ बनानेकी शीघ्र ही आज्ञा देदी । महाराजकी आज्ञा पाते ही रानी चेलनाने शीघ्र ही भोजन करना प्रारम्भ कर दिया । लाडू खाजे आदि उत्तमोत्तम पदार्थ तत्काल तयार होगये। जिससमय महाराजने देखा कि भोजन तयार है शीघ्र ही उन्होंने बड़े विनयसे गुरुओंको बुलावा भेजदिया । और राजमंदिर में उनके बैठनेके स्थानका शीघ्र प्रबन्ध भी करा दिया । 1 गुरुगण इसबातकी चिंता में बैठा ही था कि कव निमंत्रण आवे और कव हम राजमंदिर में भोजनार्थ चलें । ज्योंही निमंत्रण समाचार पहुंचा । शीत्रू ही सर्वोने अपने वस्त्र पहिने | और राजमंदिरकी ओर चलदिये । जिससमय राजमंदिरमें प्रवेशकरते रानी चेलनाने उन्हें देखा तो उनका बड़ा भारी सन्मान किया. उनके गुणोंकी प्रशं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) सा की । एवं जब वे बौद्धगुरु अपने अपने स्थानों पर बैठ गये । रानी चेलनाने नम्रतासे उनका पादप्रक्षालन किया । तथा उनके सामने उत्तमोत्तम सुवर्णमय थाल रखकर भाति भांतिके लाडू खीर श्रखिंड राजाओंके खाने योग्य भात, मूंगके लाडू इत्यादि स्वादिष्ट पदार्थों को परोस दिया । और भोजनकेलिये प्रार्थना भी करदी | रानकी प्रार्थना सुनते ही गुरुओंने भोजन करना प्रारम्भ करदिया । कभी तो वे खीर खाने लने । और कभी उन्होंने लाहुओं पर हाथ जमाया । भोजनको उत्तम एवं स्वादिष्ट समझ वे मन ही मन अति प्रसन्न होने लगे। और बार बार रानीकी प्रशंसा करने लगे । जिस समय रानीने वौद्ध गुरुओंको भोजनमें अति मग्न देखा । शीघ्र ही उसने अपनी प्रिय दासी वुलाई । और यह आज्ञा दी । तू अभी राजमंदिरके दरवाजेपर जा, और गुरुओंके वायें पैरों के जूते लाकर शीघ्र उनके छोटे छोटे टुकड़े कर मुझे दे । रानीकी आज्ञा पाते ही दूती चलदी । उसने वहां से जूता लाकर और उनके महीन टुकड़े कर शीघ्र ही रानीको देदिये । तथा रानीने उन्हें शीघ्र ही किसी निकृष्ट छांछ में डाल दिया एवं उनमें खूब मसाला मिलाकर शीघ्र ही थोड़ा थोड़ा कर गुरुओंके सामने परोस दिया । जिससमय मधुर भोजनोंसे उनकी तवियति अकुलागई तब उन्होंने यह समझ कि यह कोई अद्भुत चटपटी चीज है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९ ) शीघ्र ही उन छाछमिश्रित टुकड़ोको खागये । एवं भोजनके अन्तमें रानी द्वारादिये तांबूल इलायची आदि चीजोंको खाकर और सबके सव रानीके पास आकर इसप्रकार उसै उपदेश देने लगे___सुंदरि ? देख तेरी प्रार्थनासे हम सबोंने राजमंदिरमें आकर भोजन किया है। अब तू शीघ्र ही बौद्धधर्मको धारणकर । शीव ही अपनी आत्मा बौद्धधर्मकी कृपासे पवित्र वना । अव तुझै जैनधर्मसे सर्वथा संबंध छोड़ देना चाहिये। ____ बौद्ध गुरुओंका ऐसा उपदेश सुन रानीने विनयसे उत्तर दिया श्रीगुरुओ ! आप अपने अपने स्थानोंपर जाकर विराजे । मैं आपके यहां आऊंगी। और वहीं पर बौद्धधर्म धारण करूंगी। इस विषयमें आप जराभी संदेह न करै । __रानी चेलनाके ऐसे विनयवचन सुन वे सवगुरु अति प्रसन्न हुवे । और अपने अपने मठोंको चलदिये । जिससमय वे दरवाजेपर आये । और ज्योंही उन्होंने अपने वाये पैरके जूतोंको न देखा वे एकदम घबड़ागये । आपसमें एक दूसरे का मुंह ताकने लगे । एवं कुछ समय इधर उधर अन्वेषण कर वे शीघू ही रानी के पास आये। और रानीसे जूतोंकी वाबत कहा । एवं रानीको उपटने भी लगे कि तुझे गुरुओंके साथ हंसी नहीं करनी चाहिये । बौद्ध गुरुओंका यह चरित्र देख रानी हसने लगी। उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amaraaaaaaaaaaaaaaar ( १९० ) शीघ्र ही उत्तरदिया गुरुओ ! आप तो इसवातकी डींग मारते थे कि हम सर्वज्ञ हैं। अब आपका वह सर्वज्ञपना कहां जाता रहा ? आप ही अपने ज्ञानसे जाने कि आपके जूते कहां है ? रानीके ऐसे वचन सुन बौद्धगुरु बड़े छके। उनके चेहरोंसे प्रसन्नता तो कोसो दूर किनारा करगई । अव रानीके सामने उनसे दूसरा तो कोई बहाना न बन सका । किं तु लाचारीसे यही जवाब देना पड़ा। सुंदर ! हमलोगोंमें ऐसा ज्ञान नहीं कि हम इसवातको जानलें कि हमारे जूते कहां है । कृपाकर आपही हमारे जूते वतादीजिये । बौद्धगुरुओंके ऐसे वचन सुन रानी चेलनाका शरीर मारे क्रोधके भभक उठा। कुछसमय पहिले जो वह अपने पवित्र धर्मकी निंदा सुन चुकी थी। उस निंदाने उसै और भी क्रोधित बना दिया । बौद्धगुरुओंको विना जवाब दिये उससे नहीं रहा गया । वह कहनेलगी बौद्धगुरुओ ! जब तुम जिनधर्मका स्वरूप ही नहीं जानते ते तुम्हें उसकी निंदा करनी सर्वथा अनुचित थी। विना समझे बालनेवाले मनुष्य पागल कहे जाते है । तुम लोग कदापि गुरुपदके योग्य नहीं हो । किंतु भोलेभाले प्राणियोंके वंचक असत्यवादी, माया चारी, एवं पापी हो। ____ रानाक सुखसे ऐसे कटुक बचन सुनकर भी बौद्ध गुरुओके मुखस कुछभी जवाव न निकला। वे मारामार उससे यही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) प्रार्थना करने लगे-कृपया आप हमारे जूते देदें। जिससे हम आनंदपूर्वक अपने अपने स्थान चले जाय । इसप्रकार बौद्ध गुरुओंकी जब प्रार्थना विशेष देखी तो रानीने जवाब दिया बौद्धगुरुओ? आपकी चीज आपके ही पास है। और इस समय भी वह आपके ही पास है । आप विश्वास रक्खे आपकी चीज किसी दूसरेके पास नहीं.-रानी चेलनाके ये बचन सुन तो बौद्ध गुरु बड़े विगड़े । वे कुपित हो इस प्रकार रानीसे कहने लगे----रानी यह तू क्या कहती है ? हमारी चीज हमारे पास है, भला वतातो वह चीज कहां है ? क्या हमने उसे चदाली ? तुझै हम साधुओंके साथ कदापि ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये । गुरुओंके ऐसे वचन सुन रानीने जवाब दिया ___गुरुओ? आप घवाड़ायें न यदि आपकी चीज आपके पास होगी तो मैं अभी उसे निकाल कर देती हूं । रानीके इन बचनोंने बौद्धसाधुओंको बुद्धिहीन वनादिया । वे वार बार सोचने लगे यह रानी क्या कहती है ? यह बात क्या हो गई ? मालूम होता है इस निर्दय रानीने हमैं जूतोंका भांजन करादिया। तथा ऐसा विचार करते करते ऊ होने शीघ्र ही क्रोधसे बमन करदिया ___फिर क्या था ! जूतोंके टुकड़े तो उनके पेटमें अभी । | विराजमान ही थे ज्योंही वमनमें उन्होंने जूतों के टुकड़े देख ODDLEDEका T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) उनके सारे होश किनारा करगय अव वे वारवार रानी की निंदा करने लगे। तथा रानी द्वारा किये हुवे पराभवसे लजित एवं नतमुख हो वे शीघ्र ही महाराजकी सभाम गये । और जो जो रानीने उनका अपमान किया था सारा महाराजको जा सुनाया । एवं राजमंदिरमें अति अनादरको पा, वे चुपचाप अपने अपने स्थानोंको चलेगये । रानीके सामने उनके ज्ञानकी कुछ भी तीन पांच न चली । ____कदाचित् राजगृह नगरमें एक विशाल वौद्धसाधुओंका संघ आया । संघके आगमनका समाचार एवं प्रशंसा महाराजके कानोंमें भी पड़ी। महाराज अति प्रसन्न हो शीघ्र ही रानी चेलनाके पासगये । और उन साधुओंकी प्रशंसा करने लगे प्रिये ! मनोहरे : हमारे गुरु अतिशय ज्ञानी हैं । तपकी उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त हैं । समस्त संसार उनके ज्ञानमें झलकता है । और परम पवित्र हैं । मनोहर ! जब कोई उनसे किसीप्रकारका प्रश्न करता है तो वे ध्यानमें अतिशय लीन होनेके कारण बड़ी कठिनतासे उसका जवाव देते हैं । ध्यानसे वे अपनी आत्माको साक्षात् मोक्षमें ले जाते हैं । एवं वे वास्तविकतत्वोंके उपदेशक हैं । और देदीप्यमान शरीरसे शोभित हैं । महाराजके मुखसे इस प्रकार बौद्धसाधुओंकी प्रशंसा सुन रानी चेलनाने विनयसे उत्तर दिया। कृपानाथ ! यदि आपके गुरु ऐसे पवित्र एवं ध्यानी हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ - ~ | तो कृपाकर मुझे भी उनके दर्शन कराइये। ऐसे परमपवि महात्माओंके दर्शनसे मैं भी अपने जन्मको पवित्र करूंगी। आप इसबातका विश्वास रखे यदि मेरी निगाह पर बौद्धधर्म का सच्चापन जगगया और वे साधु सच्चे साधु निकले तो मैं तत्काल बौद्धधर्मको धारण करलूंगी । मुझे इसबातका कोई आग्रह नहीं कि मैं जैन धर्मकी ही भक्त बनी रहूं। परंतु विना परिक्षा किये दूसरेके कथनमात्रसे मैं जैनधर्मका परित्याग नहीं करसकती। क्योंकि हेयोपादेयके जानकर जो मनुष्य विना समझेवूझे दूसरेके कथनमात्रसे उत्तम मार्गको छोड दूपरे मार्ग पर चल पड़ते हैं वे शक्ति हीन मूर्ख कहे जाते हैं। ओर किसीप्रकार वे अपनी आत्माका कल्याण नहीं करसकते। महाराणाके ऐसे निष्पक्ष वचनोंसे महाराजको रानीका चित्त कुछ बौद्धधर्मकी ओर खिंचा हुवा दीख पड़ा । एवं रानी के कथनानुसार उन्होंने शीघ्र ही एक मंडप तयार कराया। आर वह प्रामके बाहिर वातकी वातमें वनकर तयार होगया। ____ मंडप तयार होनेपर इधर बौद्धगुरुओंने तो मंडपमें समाधि लगाई । दृष्टिबन्दकर, श्वास रोककर, काष्ठकी पुतलीके समान वे निश्चेष्ट बैठिगये। उधर रानीको भी इसबातका पता लगा वह शीघ्र पालकी तयार कराकर उनके दर्शनार्थ आई । एवं किसी बौद्धगुरुसे बौद्धधमकी बाबत जाननेके, लिये वह प्रश्नभी करने लगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · रानीके प्रश्नको भलेप्रकार सुन करभी किसी भी बौद्धगुरुने उत्तर नहीं दिया। किन्तु पास ही एक ब्रह्मचारी बैठा था उसने कहा—मातः! यह समस्त साधुवृंद इससमय ध्यानमें लीन है । समस्त साधुओंकी आत्मा इससमय सिद्धालयमें विराजमान हैं । देह युक्तभी इससमय ये सिद्ध हैं । इसलिये इन्होंने आपके प्रश्नका जबाब नहीं दिया है । . ब्रह्मचारीके ऐसे बचन सुन रानी चेलनाने और तो कुछभी जवाब न दिया। उन्हें मायाचारी समझ, मायाके प्रकट करनेकोलिये उसने शीघ्र ही मंडपमें आग लगा दी। और उनका दृश्य देखनेकेलिये एक ओर खड़ी हो गई। एवं कुछ समय वाद राजमंदिरमें आ गई फिर क्या था ? अग्नि जलते ही बौद्ध गुरुओंका ध्यान न जानें कहां किनारा कर गया। कुछसमय पहिले जो वे निश्चल ध्यानारूढ बैठे थे वे अब इधर उधर व्याकुल हो दौड़ने लगे । और रानीका सारा कृत्य उन्होंने महाराजको जा सुनाया। बौद्ध गुरुओंके ये बचन सुन अवके तो महाराज कुपित होगये। वे यह समझ कि रानीने बडा अनुचित काम किया, शीघ्र ही उसके पास आये । और इसप्रकार कहने लगे सुंदरि! मंडपमें जाकर तूने यह अति निंद्य एवं नीच काम क्यों कर पड़ा ! अरे? यदि तेरी बौद्धधर्म पर श्रद्धा नहीं है। | बौद्ध साधुओंको तू ढोंगी साधु समझती है तो तू उनकी भक्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५ ) न कर । यह कोंन बुद्धि मानी थी कि मंडपमें आग लगा तूने उन विचारोंके प्राण लेने चाहे । कांते ! जो तू अपनेको जैनी. समझ जैनधर्मकी डींग मार रही है । सो वह तेरी डींग. अब सर्वथा व्यर्थ मालूम पड़ती है । क्योंकि जैनसिद्धांतमें धर्म दयाप्रधान माना गया है । दया उसीका नाम है जो एकेंद्रिय से पंचेद्रि पर्यंत जीवोंकी प्राणरक्षा की जाय। किंतु तेरे इस दुष्ट वर्ताव से उस दयामय धमका पालन कहां होसका ? तूने एकदम पचेंद्रियजीवों के प्राण विघातकेलिये साहस कर पाड़ा यह बड़ा अनर्थ किया । अब तेरा हम जैन हैं हम जैन बड़ा हैं यह कहना आलाप मात्र है । इस दुष्टकर्मसे तुझे कोई जैनी नहीं वतला सकता । महाराजको इसप्रकार अभि कुपित देख रानी चेलनाने बड़ी विनय एवं शांति से इसप्रकार निवेदन किया— कृपानाथ ! आप क्षमाकरें । मैं आपको एक विचित्र आख्यायिका सुनाती हूं । आप कृपया उसे ध्यान पूर्वक सुनें । आर मेरा इस कार्यमें कितने अंश अपराध हुवा है । उस पर विचार करैं । इसी जंबूद्वीपमें मनोहर मनोहर गांवोंमे शोभित, धनिक एवं विद्वानोंसे भूषित, एक वत्स देश है । वत्सदेशमें एक कौशांबी नगरी है । जो कोशांबी उत्तमोत्तम वाग वगीचोंसें, देवतुल्य मनुष्योंसे स्वर्गपुरीकी शोभाको धारण करती है । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशांबीपुरीका स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजापालक, कल्पवृक्षके समान दाता था राजा वसुपाल था । राजा वसुपालकी पटरानी का नाम अश्वनी था । रानी अश्विनी स्त्रियोंके प्रधान प्रधान गुणोंकी आकर, मृगनयना चंद्रवदना एवं रमणीरत्न थी। कांशांबी पुरीमें कोई सागरदत्त नामका सेठि रहता था । सागरदत्त अपार धनका खामी था। अनेक गुणयुक्त होनेके कारण राजमान्य था । और विद्वान था । सागरदत्तकी स्त्रीका नाम वसुपती था। वसुमती रात्रिविकसी कमलोंको चांदनीके समान सदा सागरदत्तके मनको प्रसन्न करती रहती थी। मुखसे चंद्रशोभाको भी नीचे करने वाली थी। एवं प्रत्येक कार्यको विचारपूर्वक करती थी। ____उसीसमय कौशांबीपुरीमें सुभद्रदत्त नामका सेठि भी निवास करता था। सुभद्रदत्त सागरदत्तके समान ही धनी था । धर्मात्मा एवं अनेकगुणों का भंडार था। सेठि सुभद्रदतकी प्रिय भार्या सागरदत्ता थी जो कि अतिशय रूपवती गुणवती एवं पतिभक्ता थी। ____ कदाचित् सेठि सागरदत्त और सुभद्रदत्त आनंदपूर्वक एक स्थान में बैठे थे । परस्परमें और भी स्नेह वृद्धयर्थ सेठि सुभद्रदत्तने सागरदत्तसे कहा। प्रिय सागरदत्त! आप एक काम करें यदि भाम्यवश आपके पुत्र और मेरे पुत्री अथवा मेरे पुत्र आर आपके पुत्री होवे तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) उन दोनोंका आपसमें विवाह करदेना चाहिये जिससे हमारा और आपका स्नेह दिनोंदिन बढ़ता ही चलाजाय – सुभद्रदत्त के ये बचन सुन सागरदत्त ने कहा- जो आप कहते हैं सो मुझे मंजूर है । मैं आपके वचनोंसे बाहिर नहीं हूं । कुछदिन बाद सेठि सागरदत्त के भाग्यानुसार एक पुत्र जो कि सर्पकी आकृतिका धारक, एवं भयावह था उत्पन्न हुवा । और उसका नाम वसुमित्र रक्खा गया । तथा सेठि सुभद्रदत्तकी सेठानी सागरदत्तासे एक पुत्री उत्पन्न हुई जो पुत्री चंद्रवदना, मनोहरा सुवर्णवर्णा एवं अनेकगुणोंकी आकर थी । और उसका नाम नागदता रक्खा गया । कदाचित् कुमार कुमारीने यौवन अवस्था में पदार्पण किया । इन्हें सर्वथा विवाहके योग्य जान बड़े समारोहसे दोनोंका विवाह किया गया । एवं विवाह के बाद वे दोनों दंपती संसारिक सुखका अनुभव करने लगे । माताका पुत्री पर अधिक प्रेम रहता है । यदि पुत्री किसी कष्टमय अवस्था में हो तो माता अति दुःख मानती है । कदाचित् पुत्री नागदत्तापर सागरदत्ता की दृष्टि पड़ी। उसे हार आदि उत्तमोत्तम भूषणोंसे भूषित, कमलाक्षी, कनकवर्णा देख वह इस प्रकार मन ही मन रोदन करने लगी । पुत्री ! कहां तो तेरा मनोहर रूप, सौभाग्य, उत्तमकुल, एवं मनोहरगति ? और कहां भयंकर शरीरका धारक, हाथ पैर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) राहत एवं अशुभ तेरा पति नाग ? हाय दुर्दैव! तुझै सहस्रवार धिक्कार है । तूने क्या जानकर यह संयोग मिलाया । अथवा ठीक है तेरी गति विचित्र है। बड़े बड़े देव भी तेरी गतिके पते लगानेमें हैरान हैं । तब हम कोंन चीज हैं। हाय विचारा तो कुछ और था, हो कुछ और ही गया। माताको इसप्रकार रोदन करती देख पुत्री नागदत्ताका भी चित्त पिघल गया। उसने शीघ्र ही विनयसे सांत्वनापूर्वक कहा मातः ? आज क्या हुवा। तू मुझे देख अचानक ही क्योंकर विलाप करने लगगई । कृपाकर इसका कारण शीघ्र मुझे कह____पुत्रीके इन विनयवचनोंने तो सागरदत्ताको रोदनमें और आधिक सहायता पहुंचाई--अब उसकी आंखोसे अविरल आसुओंकी झड़ी लग गई । प्रथम तो उसने नागदशाके प्रश्नका कुछ भी जवाव न दिया। किंतु जब उसने नागदत्ताका अधिक आग्रह देखा तो बड़े कष्टसे वह कहने लगी पुत्रि! मुझे और किसीकी ओर से दुःख नहीं किंतु इस युवा अवस्थामें तुझे पतिजन्य सुखसे सुखी न देख मैं सेती हूं। यदि तेरा पति कुरूप भी होता पर होता मनुष्य, तो मुझे कुछ दुख न होता परंतु तेरा पति नाग है। वह न कुछ कर सकता और न धर ही सकता है । इसलिये मेरे चित्तको अधिक संताप है । माताके ये वचन सुन प्रथम तो नागदत्ता हंसने लगी पश्चात् उसने विनयसे कहा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९ ) मातः! तूं इस बातकेलिये जरा भी खेद मत कर। यदितूं नहीं मानती है तो मैं अपना सारा हाल तुझे सुनाती हूं। तू ध्यानपूर्वक सुन-मेरे शयनागरमें एक संदूक रक्खी रहती है। जिससमय दिन हो जाता है उससमय तो मेरा पति नाग बन जाता है । और दिनभर नागरूपमें मेरे साथ खेल किलोल करता है । और जब रात हो जाती है तो वह उस. संदूकसे निकल उत्तम मनुष्याकार बन जाता है । एवं मनुष्यरूपसे रात भर मेरे साथ भोग भोगता है। पुत्रीके मुखसे यह विचित्र घटना सुन सागरदत्ता आश्चर्य करने लगी उसने शीघ्र ही नागदत्तासे कहा____नागदत्ते ! यदि यह बात सत्य है तो तू एक काम कर उस संदूकको तू किसी परिचित एवं अपने अभीष्ट स्थानमें रख । और यह वृत्तांत मुझे दिखा । तब मैं तेरी बात मानूंगी पुत्री नागदत्ताने अपनी माताकी आज्ञा स्वीकार करली। तथा किसी निश्चितदिन नागदत्ताने उस संदूकको ऐसे स्थान पर रखवा दिया जो स्थान उसकी माका भी : भलेप्रकार परि चित था। और माको इशारा कर वह मनुष्याकार अपने पति के साथ भोग भोगने लगी। . .. वस फिर क्या था ? हे महाराज! जिससमय सागरदत्ताने उस संदूकको खुला देखा, तो उसने उसे खोखला, समझ शीघ्र जला दिया । और वह वसुभित्र फिर सदाके - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) लिये मनुष्याकार बन गया । उसीप्रकार हे दीनबंधो ! किसी ब्रह्मचारीसे मुझे यह बात मालूम हुई कि बौद्ध गुरुओं की आत्मा इस समय मोक्षमें है । ये इनके शरीर इससमय खोखले पडे हैं । मैंने यह जान कि बौद्धगुरुओं को अब शारीरिक वेदना न सहनी पडे, आग लगादी क्योंकि इसबात को आप भी जानते हैं । जब तक आत्माके साथ इस शरीरका संबंध रहता है। तब तक अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पडते हैं । किं तु ज्योंहीं शरीरका संबंध छूटा त्योंहीं सब दुख भी एक ओर किनारा कर जाते हैं । फिर वे आत्मा से कदापि संबंध नहीं करने पाते । नाथ ! शरीर के सर्वथा जल जानेसे अब समस्त गुरू सिद्ध होगये । यदि उनका शरीर कायम रहता तो उनकी आत्मा सिद्धालय से लोट आतीं । और संसार में रहकर अनेक दुःख भोगतीं । क्योंकि संसारमें जो इंद्रियजम्य सुख भोगनेमें आते हैं उनका प्रधान कारण शरीर है । यह बात अनुभव सिद्ध है । कि ऐंद्रिक सुखसे अनेक कर्मो का उपार्जन होता है । और कर्मोंसे नरकादि गतिओंमें घूमना पड़ता है । जन्म मरण आदि वेदना भोगनी पडती हैं इसलिये मैंनें तो उन्हें सर्वथा दुःखस छुड़ाने के लिये ऐसा किया था, नरनाथ ! आप स्वयं विचार करें इसमें मैंने क्या जैन धर्मके विरुद्ध अपराध करपडा ? प्रभो ! आपको इसबातपर जराभी विषाद नहीं करना चाहिये । आप यह निश्चय समझें बौद्ध I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) गुरुओंका वह ध्यान नहीं था । ध्यानके बहानेसे भोलेजीवोंको ठगना था । मोक्ष कोई ऐसी सुलभ चीज नहीं जो हर एकको. मिलजाय । यदि इस सरल मार्गते मोक्ष मिलजाय तो बहुत. जल्दी सर्वजीव सिद्धालयमें सिधार जाय । आप विश्वास रक्खे मोक्षप्राप्तिकी जो प्रक्रिया जिनागममें वर्णित है वही उत्तम और सुखप्रद है । नाथ! अव आप अपने चित्तको शांत करैं । और बौद्ध साधुओंको ढोगी साधू समझै । • रानीके इन युक्ति पूर्ण वचनोंने महाराजको अनुत्तर बना दिया । वे कुछ भी जवाब न दे सके। किंतु गुरुओंका पराभव देख उनका चित्त शांत न हुआ । दिनोंदिन उनके चित्तमें ये विचार तरंगे उठती रही कि इस रानीने बडा अपराध किया है । मेरा नाम श्रेणिक नहीं जो मैं इसे बौद्धधर्मकी भक्त और सेविका न वना दूं । आज जो यह जिनेंद्रका पूजन और उनकी भक्ति करती है सो जिनेंद्रके वदले इससे बुद्धदेवकी भक्ति कराऊंगा। तथा अशुभ कर्मके उदयसे कुछ दिन ऐसे ही संकल्प विकल्प वे करते रहे। ___कदाचित् महाराजको शिकार खेलनेका कौतूहल उपजा। वे एक विशाल सेनाके साथ शीघ्र ही बनकी ओर चलपडे । जिस वनमें महाराज गये उसीवनमें महामुनि यशोधर खड्गासनसे ध्यानारूढ थे । मुनि यशोधर परमज्ञानी, आत्मस्वरूपके भलेप्रकार जानकार, एवं परमध्यानी थे । उनकी आत्मा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..rrenamamarnamaanaamaar सदा शुभयोगकी ओर झुकी रहती थी । अशुभ योग उनके पासतक भी नहीं फटकने पाता था । उनका मन सर्वथा वश था। मित्र शत्रओंपर उनकी दृष्टि बरावर थी । कालिक योगके धारक थे । समस्त मुनिओंमें उत्तम थे। अनंत अक्षय गुणोंके भंडार थे । असंख्याती पर्यायोंके युगपत् जानकार थे। देदीप्यमान निर्मल ज्ञानसे शोभित थे। भव्यजीवोंके उद्धारक और उन्हें उत्तम उपदेशके दाता थे। स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप जीवादि सप्त तत्त्व उनके ज्ञानमें सदा प्रतिभासित रहते थे । एवं बड़े बड़े देव आर इंद्र आकर उनके चरणोंको नमस्कार करते थे ! महाराजकी दृष्टि मुनि यशोधर पर पडी । उन्होंने पहिले किमी दिगंबर मुनिको नहीं देखा था इसलिये शीघ्र ही उन्होंने किसी पार्श्वचरसे धर पूछा। देखो भाई ! नग्न, स्नानादि संस्काररहित, एवं मूडमूड़ाये यह कोंन खडा है। मुझे शीघ्र कहो। पार्श्वचर बौद्ध था उसने शीघ्र ही इन शब्दोंमे महाराजके प्रश्नका जबाव दिया। कृपानाथ ! क्या आप नहीं जानते ? शरीरनराये खडा हुवा, महाभिमानी यही तो रानी चेलनाका गरू है। ____ वस वहां कहने मात्रकी ही देरी थी। महाराज इस फिराकमें बैठे ही थे कि कव रानीका गुरु मिले और कव उसका अपमान कर मैं रानीसे वदला लूं! ज्योंही महाराजने पार्श्वचरके वचन सुने मारे क्रोधसे उनका शरीर उवल उठा । वे विचारने लगे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) अहा ! रानीसे वरके वदला लेनेका आज सवसर मिला है । रानीने मेरे गुरुओंका बडा अपमान किया है । उन्हें अनेक कष्ट पहुंचाये हैं। मुझे आज यह रानीका गुरु भी मिला है । अव मुझे भी इसे कष्ट पहुंचानेमें और इसका अपमान करनेमें चूकना नहीं चाहिये । तथा ऐसा क्षण एक विचार कर महाराजने शीघ्र ही पांचसो शिकारी कुत्ते, जो लंबी लंबी डाडोंके धारक, सिंह के समान उंचे, एवं भयंकर थे। मुनिराज पर छोडदिये। मुनिराज परमध्यानी थे। उन्हें अपने ध्यानके सामने इस बातका जरा भी विचार न था कि कोंन दुष्ट हमारे ऊपर क्या अपकार कर रहा है ? इसलिये ज्योंही कुत्ते मुनिराजके पास गये। ओर ज्योंही उन्होंने मुनिराज की शांतमुद्रा देखी, सारी करता उनकी एक ओर किनारा कर गई । मंत्रकौलित सर्प जैसा शांत पडजाता है मंत्रके सामने उसकी कुछ भी तीन पांच नही चलती उसीप्रकार कुत्ते भी शांत होगये । मुनिराज की शांत मुद्राके सामने उनकी कुछ भी तीन पांच न चली । बे मुनिराज की प्रदक्षिणा देने लगे। और उनके चरण कमलों में बठि गये। महाराजभी दूरसे यह दृश्य देख रहे थे । ज्योंही उन्होंने कुत्तोंको कोधरहित और प्रदक्षिणा करते हुवे देखा-मारे क्रोधके उनका शरीर पजलगया | वे सोचने लगे यह साधु नहीं है धूर्त वंचक कोई मंत्रवादी है। मेरे वलवान कुत्ते इस दुष्टने मंत्रसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ .) कीलित कर दिये हैं। अस्तु मैं अभी इसके कर्मका इसे मजा चखाता हूं । तथा एसा विचार कर उन्होंने शीघ ही म्यानसे तलवार सूत ली । आर मुनिके मारणार्थ बडे वगस उनकी आर पर झपटे। ____ मुनिके मारनकोलिये महाराज जा ही रहे थे। अचानक ही उन्हें एक सर्प, जोकि अनेक जीवोंका भक्षक एवं फणा ऊंचे किये था, दीख पड़ा । एवं उसे अनिष्टका करनेवाला समझ शीघ्र महाराजने मारडाला । और अति क्रूर परिणामी हो पवित्र मुनि यशोधरके गलेमें डाल दिया। जैनसिद्धांतमें फलप्राप्ति परिणामाधीन मानी है। जिस मनुष्यके जैसे परिणाम रहते हैं । उसै वैसे ही फलकी प्राप्ति होती है । महाराज श्रेणिकके उससमय अति रोद्र परिणाम थे । उन्हें तत्काल ही, जिस महामभानस्कमें तेतीस सागरकी आयु, पांचसो धनुषका शरीर, एवं विद्वानोंके भी वचनके अगोचर घोर दुःख हैं उस महाप्रभा नामके सप्तम नर्कका आयुबंध बंध गया । ____यह बात ठीकभी है जो मनुष्य विना विचारें दूसरोंको कष्ट करपाड़ते हैं । विशेष कर साधु महात्माओंको उन्हें घोरं दुःखों का सामना करना पडता है। महात्माओंको कष्ट देनेवाले मनुप्योंको सदा नरकादि गतियां तयार रहती है । किंतु मदोन्मत्तोंको इस बानका कुछभी ज्ञान नहीं रहता। वे चट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) अनर्थ कर बठते हैं। महाराज श्रेणिकने मदोन्मत्त हो चट ऐसा काम कर पाडा। इसलिये उन्हें इसप्रकारका कष्टप्रद आयुबंध बंध गया । ____ज्योंही मुनि यशोधरको यह बात मालूम हुई कि मेरे गलेमें सर्प डाल दिया है । उन्होंने तो अपनी ध्यान मुद्रा और भी अधिक चढादी । और महाराज श्रेणिक वहांसे चलदिये । एवं नो जो काम उन्होंने वहां किन थे । अपने गुरुओंसे आकर सब कह सुनाये। श्रेणिक द्वारा एक दिगंबर गुरूका ऐसा अपमान सुन बौद्ध गुरुओंका अति प्रसन्नता हुई। वे बारबार श्रेणिककी प्रशंसा करने लगे । किं तु साधू होकर उनका यह कृत्य उत्तम न था। साधुका धर्म मानापमान सुखदुःखमें समान भाव रखना है। अथवा ठीक ही था यदि वे साधू होते तो वे साधु ओंके धर्म जानते। किंतु यहां तो वेष साधुकां था। आत्माके साथ साधुत्वका कोई संबंध न था। इसप्रकार तीन दिन तक तो महाराज इधर उधर लापता रहै । चौथे दिन वे रानी चेलनाके राजमंदिरमें गये । जो कुछ दुष्कृत्य वे मुनिके साथ कर आये थे सारा रानीसे कह सुनाया और हंसने लगे। ___महाराजद्वारा अपने गुरुका यह अपमान सुन रानी । । चेलना अवाक् रह गई । मुनि पर घोर उपसर्ग जान उसकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) आखोंसे अविरल अश्रुधारा वहने लगी। वह कहने लगी हाय बड़ा अनर्थ होगया । राजन् ! तूने अपनी आत्माको दुर्गतिका पात्र बनालिया। अरे ! अब मेरा जन्म सर्वथा निष्फल है। मेरा राजमंदिरमें भोग भोगना महापाप है। हाय मेरा इस कुमार्गी पतिके साथ क्योंकर संबंध होगया। युवती होनेपर में मर क्यों न गई । अब मैं क्या करूं ; कहां जाऊं ! कहां रहूं ? हाय यह मेरा माण पखेरू क्यों नहीं जल्दी विदा होता । प्रभो ! मैं बड़ी अभागिनी हूं। मेरा अब केसे मला होगा ! बेटे गांव, वन, पर्वतोंमें रहना अच्छा किंतु जिन धर्मरहित अति वैभव युक्त मी इस राजमंदिरमें रहना ठीक नहीं। हाय दुर्दैव ! तूने मुझ अभागिनी पर ही अपना अधिकार जमाया । रानी चेलनाका इसप्रकार रोदन सुन महाराजका पत्थरका भी हृदय मम सरीखा पिघल गया । अव महाराजके चेहरेसे प्रसन्नता कोसों दूर उड़ गई। उससमय उनसे और कुछ न बन सका। वे इसरीतिसे रानीको समक्षाने लगे। प्रिये! तू इस बात के लिये जराभी शोक न कर वह मुनि गलेसे सर्प फेंक कवका वहांसे चल बसा होगा। मृत्सर्पका गलेसे निकालना कोई कठिन नहीं । महाराजके ये वचन सुन रानीने कहा, नाथ! आपका यह कथन भ्रममात्र है। मेस विश्वास है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७ ) यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो कदापि उन्होंने अपने गलेसे सर्प न निकाला होगा । कृपानाथ ! अचल भी मेरुपर्वत कदाचित् चलायमान होजाय । मर्यादाका नहीं त्यागीभी समुद्र अपनो मर्यादा बेडदे । किंतु जब दिगंबर मुनि ध्यानकतान होजाते हैं। उससमय उनपर घोरतममी उपसर्ग क्यों न आजाय, कदापि अपने ध्यानसे विचलित नहीं होते। प्राणनाथ ! क्षमाभूषणसे भूषित दिगंबर मुनि अचल तो पृथ्वीके समान होते हैं। और समुद्र के समान गंभीर, वायुके समान निष्परिग्रह, अग्निके समान कर्म भस्म करनेवाले, आकाशके समान निलेप, जलके समान स्वच्छ चित्तके धारक, एवं मेघके समान परोपकारी होते हैं । प्रभो ! आप विश्वास स्क्खे जो गुरु परमज्ञानी परमध्यानी दृढवैरागी होंगे, वे ही मेर गुरु होंगे। किं तु इनसे विपरीत परीषहोंसे भय करनेवाले, अति परिग्रही, व्रत तप आदिसे शून्य, मधु मास मदिराके लोलुपी, एवं महापापी जो गुरु हैं सो मेरे गुरु नहीं । जीवनसर्वस्व ! ऐसे गुरु आपके ही हैं। न जाने जो परम परीक्षक एवं अपनी आत्माके हितैषी हैं। वे कैसे इन गुरुओंको मानते हैं ? ---उनकी | पूजा प्रतिष्ठा करते हैं? । रानीके ऐसे युक्तिपूर्ण वचन सुन राजाका | चित्त मारे भयके कपगया ! उससमय । आर कुछ न कहकर उनके मुखसे येही शब्द निकले प्रिये! इससमय जो आपने कहा है विलकुल सत्य कहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब विशेष कहनकी आवश्यकता नहीं। अब एक काम करो जहांपर मुनिराज विराजमान हैं वहां पर हम दोनों शीघ्र चलें । और उन्हें जाकर देखें। ___रानी तो जानेको तयार ही थी उसने उसीसमय चलना स्वीकार किया । एवं इधर रानी तो अपनी तयारी करने लगी। उधर महाराजने मुनिदर्शनार्थ शीघ्र ही नगरमें डोंडी पिटवादी तथा जिससमय रानी पीनसमें बैठि बनकी ओर चलने लगी महाराजभी एक विशाल सेनाके साथ उसके पीछे घोडे पर सवार हो चलदिये । और रातही रातमें अनेक हाथी घोडों से वेष्टित वे दोनों दंपती पल स्यायतमें मुनिराजके पास जा दाखिल होगये। यह नियम है मुनियोंपर जब उपसर्ग आता है। तव वे अनित्य आदि बारह भवनाओंका चिंतन करने लगजाते हैं। ज्योंही मुनि यशोधरके गलेमें सर्प पड़ा वे इसप्रकार भावना मा निकलेराजाने जो मेरे गलमें सर्प डाला है सो मेरा बडा उपकार किया है। क्योंकि जो मुनि अपनी आत्मासे समस्तकमीका नाशकरना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे अवश्य कर्मोंकी उदीरणाके लिये परीषह सहैं । यह राजा मेरा बडा उपकारी है । इसने अपने आप परीषहोंकी सामिग्री मेरेलिये एकत्रित करदी है । यह देह मुझसे सर्वथा भिन्न है। कर्मसे उत्पन्न हुवा है । और मेरी आत्मा समस्त स्मोंसे रहित पवित्र है। - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९ ) चैतन्य स्वरूप है। शरीरमें क्लेश होनेपर भी मेरी आत्मा क्लेशित नहीं बन सकती । यद्यपि यह शरीर अनित्व है. महाअपावन है । मल मूत्रका घर है । घृणित है । तथापि न मालम विद्वान लोग क्यों इसे अच्छा समझते हैं ? । इत्रः फुलेल आदि सुगंधित पदार्थोसे क्यों इसका पोषण करते हैं । यह बात बरावर देखनेमें आती है कि जब आत्माराम इस शरीरसे विदा होता है उससमय कोश दो कोशकी तो बात ही क्या है पग भरभी यह शरीर उसके साथ नहीं जाता । इसलिये यह शरीर मेरा है ऐसा विश्वास सर्वथा निर्मूल है । मनुष्य जो यह कहते हैं कि शरीरमें सुख दुःख होने पर आत्मा सुखी दुखी होता है यहभी बात उनकी सर्वथा नियुक्तिक है क्योंकि जिसप्रकार झोपडेमें अग्नि लगने पर झोपडा ही जलता है तदंतर्गत आकाश नहि जलता उसीप्रकार शारीरिक दुःख सुख मेरी आत्माको दुःखी सुखी नहीं बना सकते । मैं ध्यानवलसे आत्माको चैतन्यस्वरूप शुद्ध निष्कलंक समझता हूं। और मेरी दृष्टिमें शरीर जड, अशुद्ध, चर्मावृत, मल मूत्र आदिका घर, अनेक क्लेश देनेवाला है । मुझे कदापि इसे अपनाना नहीं चाहिये। तथा इसप्रकार भावनाओंका चिंतन करते हुवे मुनिराज, जैसे उन्हें राजा छोडगया था वैसे ही खडे रहे । और गंभीरता पूर्वक परीपह सहते रहे। सत्य सिद्धांतपर आरुढ रहने पर मनुष्य कहां तक दास ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) नहीं बनते हैं ! जिससमय राजारानीने मुनिको ज्योंका त्यों देखा मारे आंनदके उनका शरीर रोमांचित होगया । उन दोनोंने शीघ्र ही समानभावसे मुनिराजको नमस्कार किया। एवं उनकी प्रदक्षिणा की। मुनिके दुःखसे दुःखित, किंतु उनके ध्यानकी अचलतासे हर्षितचित्त, एवं प्रशम संवेग आदि सम्यक्त्व गुणोंसे भूषित, रानी चेलनाने शीघ्र ही मुनिके गलेसे सर्प निकाला । पासमें कुछ चीनी फैलाकर शीघ्र ही चिउंटी दूर की। चिऊंटिओंने मुनिराजका शरीर खोखला कर दिया था इसलिये रानी ने एक मुलायम वस्त्रस अवशिष्ट कीडिओंको भी दूरकर उसै गरम पानीसे धोया। ओर संतापकी निवृत्ति के लिए उसपर शीतल चंदन आदिका लेप कर दिया। एवं मुनिराजको भक्ति पूर्वक नमस्कार कर मुनिराजकी ध्यान मुद्रापर आश्चर्य करनेवाले,उनके दर्शनसे अतिशय संतुष्ट, वे दोनों दंपती आनंद पूर्वक उनके सामने भूनिमें बैठिगये। ___ यह नियम है दिगंबर साधु रातमें नहीं बोलते इसलिये जबतक रात्रि रही मुनिराजने किसीप्रकार वचनालाप न किया । किं तु ज्यों ही दिनका उदय हुवा । आर अंधकारको तितर वितर करते हुवे ज्योंहीं सूर्य महाराज प्राची दिशा में आ जमे। रानीने शीघ्र ही मुनिराजके चरणोंका प्रक्षालन किया । एवं परमज्ञानी, परमध्यानी, जर्जर शरीरके धारक, मुनिराजकी फिरसे तीन प्रदक्षिणा दी। और उनके चरणोंकी भक्तिभावसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) पूजाकर अपने पापकी शांतिके लिये वह इसप्रकार स्तुति करने लगी। ___प्रभो! आप समस्त संसारमें पूज्य हैं। अनेक गुणोंके भंडार हैं। आपकी दृष्टि शत्रु मित्र बरावर है । दीनबंधो ! सुमार्गसे विमुख जो मनुष्य आपके गलेमें सर्प डालने वाले हैं। और जो आपको फूलोंके हार पहिनाने वाले हैं आपकी दृष्टिमें दोनों ही समान है । कृपासिंधो ! आप स्वयं संसार समुद्रके पार पर विराजमान हैं । एवं जो जीव दुःखरूपी तरंगोंसे टकराकर संसाररूपी वीचसमुद्रमें पडे हैं। उन्हें भी आप ही तारने वाले हैं। जीवोंके कल्याणकारी आप ही हैं । करुणासिंधो ! अज्ञानवश आपकी जो अवज्ञा और अपराध बन पडा है आप उसै क्षमा करें। कृपानाथ ! यद्यपि मुझे विश्वास है आप राग द्वेष रहित हैं । आपसे किसीका अहित नहीं हो सकता । तथापि मेरे चित्तमें जो अवज्ञाका सकल्प बैठा है । वह मुझै संताप देरहा है। इसीलिये यह मैंने आपकी स्तुति की है । प्रभो! आप मेष तुल्य जीवोंके परोपकारी हैं। आप ही धीर और वीर हैं । एवं शुभ भावना भावने वाले हैं। इसप्रकार रानी द्वारा भलेप्रकार मुनिकी स्तुति समाप्त होनेपर राजा रानीने भक्तिपूर्वक फिर मुनिराजके चरणोंको नमस्कार किया। और यथास्थान बैठिगये ।। एवं मुनिराजने भी. अतिशय नम्र दोनों · दंपती को समान भावसे धर्मवृद्धि दी। तथा इसप्रकार उपदेश देनेलगे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) विनीत मगधेश ! संसारमें यदि जीवोंका परम मित्र है तो धर्म ही है । इस धर्मकी कृपासे जीवोंको अनेक प्रकारके ऐश्वर्य मिलते हैं । उत्तम कुलमें जन्म मिलता है । और संसारका नाश भी धर्मकी ही कृपासे होता है । इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिए कि वे सदा उत्तम धर्मकी आराधना करें । देखो भाग्यका माहात्म्य कहां तो परम पवित्र मुनि यशोधर का दर्शन ? और बौद्धधर्मका परमभक्त कहां मगधेश राजा श्रेणिक ? तथा कहां तो रानी चेलना द्वारा बौद्धधर्मकी परीक्षा । ओर कहां महाराज श्रेणिकका परीक्षासे क्रोध ! कहां तो श्रेणिकका मुनिराजके गले में सर्प गिराना ? और कहां फिर रानी द्वारा उपदेश ? एवं कहां तो रात्रिमें राजा रानीका गमन ? और कहां समान रीतिसे धर्मवृद्धिका मिलना ? ये सब बातें उन दोनों दंपतीको शुभ अशुभ भाग्योदय से प्राप्त हुई । मुनि यशोधरने जो धर्म वृद्धि दी थी वह साधारण न भी किं तु स्वर्ग मोक्ष आदि सुख प्रदान करने वाली थी । संसारसे पार करनेवाली थी । तीर्थकर चक्रवर्ती इंद्र अहमिंद्र आदि पदोंकी दात्री थी । एवं ' महाराज आगे तीर्थंकर होंगे, इस वातको प्रकट करनेवाली थी । और धर्मसे विमुख महाराजको धर्म मार्गपर लानेवाली थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१.३ ) इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनेवाले श्री पद्मनाम तीर्थंकर के भवांतरके जीव महाराज श्रेणिकको मुनिराजका समागम वर्णन करनेवाला नवमा सर्ग समाप्त हुवा । ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ -- दशमासर्गः । समस्त मुनिओंके स्वामी, कर्मरहित निर्मल आत्माके ज्ञाता, समस्त कर्मोंके नाशक, मनुष्येश्वर महाराज श्रेणिक द्वारा पूजित, मैं श्री यशोधर मुनिको नमस्कार करता हूं । ज्योंही महाराज श्रेणिकका इस ओर लक्ष्य गया कि मुनि यशोधरने हम दोनोंको समान रीतिसे ही धर्म वृद्धि दी है । धर्मवृद्धि देते समय मुनिराजने शत्रुभित्रका कुछभी विभाग नहीं किया है । इनकी हम दोनोंपर कृपा भी एकसी जान पडती है । महाराज एकदम अवाक् रहगये । तत्काल उनका मन संकल्प विकल्पोंसे व्याप्त होगया । वे खिन्न हो ऐसा विचारने लगे मुनि यशोधरको धन्य है । गलेमें सर्प पडनेपर अनेक पीडा सहन करते भी इन्होंने उत्तमक्षमाको न छोडा । रामीचेलनाने गलेसे सर्प निकाल इनकी भक्तिभाव से सेवा की। और मैंने इनके गमें सर्पडाला। इनकी अनेक प्रकारसे हंसीकी । एवं इनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ). कुछभी भक्ति भी न की। तोभी मुनिराजका भाव हमदोंनोपर समान ही प्रतीत होरहा है । हाय ! में बड़ा नीच नराधम हूं जोकि मैंने एसे परमयोगी की यह अवज्ञा की । देखो कहां तो परमपवित्र यह मुनिराजका शरीर ! और कहां में इसका विघातेच्छु ? हाय मुझ सहस्रवार धिक्कार है । संसारमें मेरे समान कोई बज्रपापी न होगा । अरे अज्ञानवश मैने ये क्या अनर्थ कर पाडे ? अब कैसे इनपापांसे मेरा छुटकारा होगा ;। हाय मुझे अब नियमसे नरक आदि घोर दुर्गतिओंमें जाना पड़ेगा। अब नियमसे वहांके दुःख भोगने पड़ेंगे । अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? इस कमाये हुवे पापका पश्चात्ताप कैसे करूं : अब पाप निवृत्त्यर्थ मेरा उपाय यही श्रेयस्कर होगा कि मैं खड्गसे अपना शिर काटूं और मुनिराजके चरणांमें गिर समस्त पापोंका शमन करूं । कृपासिंधो ! मेरे अपराध क्षमा करिये । मुझे दुर्गतिसे वचाइये। तथा इसप्रकार विचार करते करते मारे लज्जाके महाराजका मस्तक नत हो गया । मारे दुःखके उनकी आंखोसे अविंदू टपक पडी! ____ मुनिराज परमज्ञानी थे उन्होंने चट राजाके मनका तात्पर्य समझ लिया । एवं महाराजको सांत्वना देते हुवे वे इसप्रकार कहने लगे। __ नरनाथ ! तुम्हें किसीप्रकारका विपरीत विचार नहीं करना चाहिये। पापविनाशार्थ जो तुमने आत्महत्याका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....~~~... विचार किया है सो ठीक नहीं, आत्महत्यासे रत्तीभर पापोंका नाश नहीं हो सकता । इस कर्मसे उल्टा घोर पापका बंध ही होगा ! मगधेश ! अज्ञान वश जो जीव तलवार विष आदिसे अपनी आत्माका घात करलेते हैं। वे यद्यपि मरणके पहिले समझ तो यह लेते हैं कि हमारी आत्मा कष्टोंसे मुक्त हो जायगी। परभवमें हम सुख मिलेंगे। किंतु उनकी यह बडी मूल समझनी चाहिये । आत्मघातसे कदापि सुख नहीं मिल सकता । आत्मघातसे परिणाम संक्लेशमय हो जाते हैं। संक्लेशमय परिणामोंसे अशुभ बंध होता है । और अशुभ बंध से नरक आदि घोर दुर्गतिओंमे जाना पडता है । राजन् ! यदि तुम अपना हित ही करना चाहते हो तो इस अशुभ संकल्पको छोडो । अपनी आत्माकी निंदा करो। एवं इस पापका शास्त्र में जा प्रायश्चित लिखा है उसे करो। विश्वास रक्खो पापोंसे मुक्त होने का यही उपाय है । आत्महत्याते पापोंकी शांति नहीं हो सकती। ____ मुनिराजके ये वचन सुन तो महाराज अचंभेमें पड़गये । वे महारानी के मुंहकी आर ताककर कहने लगे । सुंदरि ! यह बात क्या हुई ? मुनिराजने मेरे मनका अभिप्राय कैसे जान लिया ? अहा ! थे मुनि साधारण मुनि नहीं। किं तु कोई महामुनि हैं । महाराजके मुखसे यह बात सुन रानी चलनाने कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) नाथ ! हाथ की रेखाके समान समस्त पदार्थों को जाननेवाले क्या इन मुनिराजको ज्ञानविभूतिको आप नहीं जानते ! । प्राणनाथ ! आपके मनकी बात मुनिराजने अपने परमपवित्र ज्ञानसे जान ली है । आप अचंभा न करें मुनिराजको आपके अंतरंगकी बातका पता लगाना कोई कठिन बात नहीं । आपके भवांतर का हाल भी ये बता सकते हैं। यदि आपको इच्छा है तो पूछिये । आप इनके ज्ञानकी अपूर्व महिमा समझें । रानी चेलना से मुनिराजके ज्ञान की यह अपूर्व महिमा सुन अबतो महाराज मगद कंठ हो गये । अपनी आखोंसे आनंदाश्रु पोंछते हुवे वे मुनिराजसे इसप्रकार निवेदन करने लगे कृपासिंधो ! मैं परभवमें कौन था ? किस योनि से मैं इसजन्म में आया हूं? कृपया मेरे पूर्वभवका विस्तार पूर्वक वर्णन कहैं। इस समय मैं अपने भवांतर के चरित्र सुननेकेलिये अति आतुर एवं उत्सुक हूं। अतिविनयी महाराज श्रेणिकके ऐसे बचन सुन मुनिराजने कहाराजन् ! यदि तुम्हें अपने चरित्र सुननेकी इच्छा है तो तुम ध्यान पूर्वक सुनो मैं कहता हूं इसीलोक में लाख योजन चौडा, द्वीपोंका शिरताज, अपनी गोलाईले चंद्रमा की गोलाईको नीचे करनेवाला जम्बूद्वीप है । जंबूद्वीपमें सुवर्णके रंगका सुमेरु नामका पर्वत है। सुमेरु पर्वत की पश्चिम दिशामें जो विजयार्द्ध पर्वत से छ खंडोमें विभक्त है, भरतक्षेत्र है । भरतक्षेत्र में एक अति रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) णीय स्थान जो कि स्वर्गके निरालंब होनेके कारण, पृथ्वीपर गिरा हुवा स्वर्गका टुकड़ा ही है क्या ? ऐसी मनुष्यों को भ्रांति करनेवाला है आर्यखंड है । आर्यखंड में अपनी कांतिसे सूर्यकांतिको तिरस्कृत करनेवाला, जगद्विख्यात, समस्तदेशों का शिरोमणि सूर्यकांत देश है। सूर्यकांतदेशमें कुक्कुटसंपात्य ग्राम । मनोहर, पुरुषोंके चित्तोंको अनेकप्रकारसे आनंद प्रदान करनेवालीं उत्तमोत्तम स्त्रियां है । सर्वदा यह देश उत्तमोत्तन धान्य सोना, चांदी आदि पदार्थोंसे शोभित, आर ऊंचे ऊंचे धनिकगृह व्याप्त रहता है । इसीदेशमें एक नगर जो कि उत्त मोत्तम वावड़ी कूप एवं स्वादिष्ट धान्यों से शोभित है सूरपुर हं । सूरपुरके बाजार में जिससमय रत्नोंकी ढेरी नजर आती है उससमय यही मालूम होता है मानो पानी रहित साक्षात् समुद्र आकर ही इसकी सेवा कर रहा है । और जब ऊंचे ऊंच धनिक गृहोंकी शिखरपर सुवर्णकलश देखने में आते हैं तब यह जान पड़ता है मानो चंद्रमा इसनगरकी सदा सेवा करता रहता है । वह पर भक्तिभाव से उत्तमोत्तम जिनालयोंमें भगवानकी पूजाकर भव्यजीव अपने पापका नाश करते हैं । और मयूर जिससमय गवाक्षोंसे निकला हुवा सुगंधित धूत्रां देखते हैं तो उसे मेघ समझ असमयमें ही नाचने लग जाते हैं । एवं वहां कई एक भव्यजीव संसारभोगों से विरक्त हो 1 सर्वदाकेलिये कर्मबंधन से छूटजाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) सूर्यपुरका खामी जो नीतिपूर्वक प्रजापालक एवं शत्रुओं को भयावह था राजा मित्र था। राजा मित्रकी पटरानी श्रीमती थी। श्रीमती वास्तवमें अतिशय शोभायुक्त होनेसे श्रीमती ही थी। महाराज मित्रके श्रीमती रानीसे उत्पन्न कुमार सुमित्र था। सुभित्र नीतिशास्त्रका भलेप्रकार वेत्ता, विवेकी,सच्चरित्र और विशाल किंतु मनोहर नेत्रोंसे शोभित था। राजा मित्र के मंत्रीका नाम मतिसागर था । जोकि नीतिमार्गानुसार राज्य की सभाल रखता था । मंत्री मतिसागरके मनोहररूपकी खानि, रूपिणी नामकी भार्या थी। और रूपिणीसे उत्पन्न पुत्र सुषण था । सुषेण माता पिताको सदा सुख देता था। और प्रत्येककार्य को विचारपूर्वक करता था। राजा मित्रका पुत्र सुमित्र और सुषेण दोनों समवयस्क थे । इसलिये वे दोनों आपसमें खेलाकरते थे। सुमित्रको अभिमान अधिक था। वह अभिमानमें आकर सुषेणको बड़ा कष्ट देता था। अनेक प्रकारकी अवज्ञा भी किया करता था। एकदिन सुभित्र और सुषेण किसी बावड़ीपर स्नानार्थ गये। वे दोनों कमलपत्रसे मुंह ढांक बार बार जलमें डुबकी मारने लगे सुमित्र बड़ा कौतूहली था। सुषणको वार बार डुबाता था। और खूब हंसी करता था। सुमित्रके इसवर्तावसे यद्यपि सुषेणको दुःख होता था किंतु राजा भित्रके भयसे वह कुछ नहीं कहता था । उदासनिभावसं उसके सर्व अनर्थ सहता था। - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •...................... कदाचित् राजा मित्रका शरीरांत होजानेसे सुमित्र राजा बनगया। सुमित्रको राजा जान मंत्रिपुत्र मुषेणको अति चिंता हो गई। वह विचारनेलगा-सुमित्रकी प्रकृति क्रूर है। यह दुष्ट मुझे बालकपनमें बड़े कष्ट देता था। अब तो यह राजा हो गया, मुझे अब यह और भी अधिक कष्ट देगा । इसलिये अव सबसे अच्छा यही होगा कि इसके राज्यमें न रहना। तथा ऐसा विचार कर सुषेणने शीघ्र ही कुटुंबसे मोह तोडादिया। एवं बनमें जाकर जैनदीक्षा धारण कर वे उग्रतप करनेलगे। ____ जबसे सुषेण मुनिराज बनमें गये तबसे वे राजमंदिरमें न आये । राजा सुमित्र भी राजपाकर आनंदसे भोग भोगने लगे। उनको भी सुषेणकी कुछ याद न आई । कदाचित् राजा सुमित्र एकांत स्थानमें बैठे थे। उन्हें अचानक ही सुषेणकी याद आगई। सुषेणका स्मरण होते ही उन्होंने चट किसी पार्श्वचर (सिपाही)से घर पूछा कहो भाई ! आजकल मेरे परमपवित्र मित्र सुषेण राज मंदिरमें नहीं आते। वे कहां रहते है ? और क्यों नहीं आते । महाराजके मुखसे सुषेणके वावत ये वचन सुन पार्श्वचरने कहा. कृपानाथ ! सुषेण तो दिगंबर दीक्षाधारण कर मुनि हो गये। अब उन्होंने समस्त संसारसे मोह छोड़दिया। वे आजकल बनमें रहते हैं । इसलिये आपके मंदिरमें नहीं आते । पार्श्वचरके मुखसे अपने प्रियमित्र सुषेणका यह समाचार सुन राजा सुमित्र | बड़े दुःखी हुए । उन्हें सुषेणकी अब बड़ी याद आने लगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ___ कदाचित् राजा सुमित्रको यह पता लगा कि मुनिराज सुषेण सू'पुर के उद्यानमें आ विराने हैं । उन्हें बड़ी खुशी हुई। मुमिराजके आगमन श्रवणसे राजा सुभित्रका चित्तरूरी कमल विकसित होगया। उन्होंने मुनिराजके दर्शनार्थ शीघ्र ही नगर में दिढोडा पिटवा दिया । एवं स्वयं भी एक उन्नत गजपर मवार हो बडे ठाट वाटसे मुनि दर्शनकेलिये गये। ज्योंही राजा सभित्रका हाथी बनमें पहुंचा । वे गजसे चट उतर पडे । मुनिराज सुषेणके पास जाकर उनकी तीन प्रदक्षिणा दी। अति विनयसे नमस्कार किया। एवं प्रवल मोहके उदयसे सुषेणकी मुनिमुद्राकी ओर कुछ न विचार कर वे यह कहने लगे। प्रियमित्र ! मेरा राज्य विशाल राज्य है। शुभकर्मक उदयसे मुझे वह मिल गया है। ऐसे विशाल राज्यकी कुछ भी परवा न कर मेरे बिना पूछे आप मुनि बनगये यह ठीक न किया । आपको आधा राज्य ले भोग भोगने थे। अब भी आप इस पदका परित्याग करदें । भला संसारमें ऐसा कौंन बुद्धिमान होगा ? जो शुभ एवं प्रत्यक्ष मुख देनेवाले राज्यको छोड दुधर तफ. आचरण करैगा । राजा सुमित्रके मुखसे ये मोहपूर्ण वचन सुन मुनिराज सुषेणने कहा राजन् ! मैं अपनी आत्माको शांतिमय अवस्थामें लाना चाहता हूं। परभवमें मेरी आत्मा शांतिस्वरूपका अनुभव करै इसलिये मैंने यह तप करना प्रारंभ करदिया है । मुझे विश्वास है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) " कि उत्तमतपकी कृपासे मनुष्योंको स्वर्ग मोक्ष सुख मिलते हैं । इसीकी कृपासे राज्य, उत्तमोत्तम विभूतियां, उत्तम यश एवं उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं । मुनिराज सुषेणके मुख से ये वचन सुन राजा सुमित्र और तो कुछ न कहा किं तु इतना निवेदन और भी किया । मुनिनाथ ! यदि आप तप छोडना नहीं चाहते तो कृपाकर आप मेरे राजमंदिर में भोजनार्थ जरूर आवे । और मेरे ऊपर कृपाकरें । राजाके ये वचनभी मोह परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेणने कहा : नरनाथ ! मैं इस काम करनेके लिये भी सर्वथा असमर्थ हूं । दिगंबर मुनिओंको इसबातकी पूर्णतया मनाई है । वे संकेतपूर्वक आहार नहीं ले सकते । आप निश्चय समझिये जो भोजन मन वचन कायद्वारा स्वयं किया, एवं परसे कराया गया, वा परको करते देख 'अच्छा है' इत्यादि अनुमोदनापूर्वक, होगा दिगंबर मुनि उस भोजनको कदापि न करेंगे। किंतु उनके योग्य वही भोजन हो सकता है जो प्रासुक होगा। उनके उद्देश से न बना होगा। और विधिपूर्वक होगा । राजन् ! दिगंबर मुनि अतिथि हुवा करते हैं । उनके आहारकी कोई तिथि निश्चित नहीं रहती । मुनि निमंत्रण आमंत्रण पूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिये जो मुनि निश्चित तिथि में निमंत्रण पूर्वक आहार करनेवाले हैं । कृत कारित अनुमोदनाका कुछ भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) विचार नहीं रखते । वे मुनि नहीं जिहाके लोलुपी हैं। एवं बज्र मूर्ख हैं । हां यदि मेरे योग्य जैनशास्त्रसे आवरुद्ध कोई काम हो तो मैं कर सकता हूं। मुनिराजकी दृष्टि सांसारिक कामसे ऐसी उपेक्षायुक्त देख राजा सुमित्रने कुछभी जवाव न दिया। उसने शीघ्र ही मुनिराजके चरणोंको नमस्कार किया । एवं हताश हो चुपचाप राजमंदिरकी ओर चलादया। यद्यपि राजा सुमित्र हताश हो राज मंदिरमें तो आगये । किंतु उनका सुषेणविषयक मोह कम न हुवा। उनके मनमें मोहका यह अंकुर खडा ही रहा कि किसीरीतिसे मुनि सुषण राज मंदिरमें आहार लें। इसलिये ज्यों ही वह राज मंदिरमें आया। शीघ्र ही उसने,यह समझ कि मुनि सुषेणको जब अन्यत्र आहार न मिलैगा तो मेरे यहां जरूर लेंगे। नगरमें यह कडी आज्ञा कर दी कि, सुषेण मुनिको कोई अहार न दे। और प्रतिदिन मुनि सुषेणकी राह देखता रहा। कई दिन वाद मुनिराज सुषेण दो पक्षकी पारणाकेलिये नगरमें आहारार्थ आये । वे विधिपूर्वक इधर उधर ग्रहस्थोंके घर गये। किंतु राजाकी आज्ञासे किसीने उन्हें आहार न दिया । अंतमें सम्यग्दर्शनादिगुणोंसे भूषित, विद्वान् आहारके न मिलने पर भी प्रसस्त्रचित्त, मुनि सुषेण जूरा प्रमाण भूमिको निरखते राज मंदिरकी ओर आहारार्थ चल दिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -warrrrmmmmmmmmmmmmmmmmm ( २२३ ) इधर मुनिराजका तो राजमंदिर में प्रवेश हुवा । और इधर राजा सुमित्रकी सभामें राजा वैर का एक दूत आ पहुंचा। दूतमुखते समाचार सुन राजा सुमित्र अति व्याकुल हो गये। चित्तकी घबडाहटसे वे मुनिराजको न देख सके । अन्य किसी ने मुनिराजको आहार दिया नहीं। इसलिये अपना प्रवल अंतराय जान मुनिराज तत्काल वनको लौट गये । एवं उन्होंने दो पक्षका प्रोषधव्रत धारण करलिया। ____जब दो पक्ष समाप्त हो गये तो फिर मुनिराज आहारको आये । और उसीतरह समस्त ग्रहस्थोंके घर घूम कर वे राजमंदिर की ओर गये । ज्योंही मुनिराज राजमंदिरके पास पहुंचे त्योंही राजा सुमित्रके हाथीने बंधन तोड दिया । एवं जनसमुदायको व्याक़ल करता हुवा वह नगरमें उपद्रव करने लगा इसलिये इस भयंकर दृश्यसे अपना भोजनांतराय समझ मुनि राज फिर वनको लौट गये। उस दिन भी उनको आहार न मिला । एवं वनमें जाकर फिर उन्होंने दो पक्षका प्रोषध व्रत धारण कर लिया। प्रतिज्ञाके पूर्ण हो जानेपर मुनिराज फिर भी दो पक्ष वाद नगरमें आये। गृहस्थोंके घरोमें आहार न पाकर वे राज मंदिरमें आहारार्थ गये । इधर मुनिराजका तो राज मंदिरमें आगमन हुवा। और उधर राजमदिरमें बड़े जोरसे अमि जल उठी । आमज्वाला देख राजा सुमित्र आदि घब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) डागये। उस दिन भी राजा सुमित्रकी दृष्टि मुनिराज पर न पडी । एवं मुनिराज भी आहारका अंतराय समझ बनकी ओर चल दिये। ___ मुनिराज वनकी ओर जा रहे थे । उनकी देह आहारके न मिलनसे सर्वथा क्षीण हो चुकी थी-ज्योंही गृहस्थोंकी दृष्टि मुनिराज पर पडी मुनिराजका शरीर अति क्षीण देख उन्हें बहुत दुःख हुवा । वे खुले शब्दोंमें राजा सुमित्रकी निंदा करने लगे । देखो यह राजा बडा दुष्ट है इससमय यह मुनिराजके आहारमें पूरा पूरा अंतराय कर रहा है। न यह दुष्ट स्वयं आहार देता है। और न किसी दूसरेको देने देता है। मनुष्योंको इसप्रकार वातचीत करते स्न मुनि सुषण ईर्यापथ ध्यानस विचलित हो गये । आहारके न मिलनेसे मारे क्रोधके उनका शरीर लाल हो गया । वे विचारने लगेदेखो इस राजा की दुष्टता जिससमय मैं मुनि नहीं था उस समय भी यह मुझे अनेक संताप देता था । और अब मैं मुनि हो गया। इसके साथ मेरा कुछ भी संबंध न रहा तो भी यह मुझे संताप दिये बिना नहीं मानता । ऐसा नीच चांडाल कोई राजा नहीं दीख पडता। तथा इसप्रकार क्रोधांध हो मुनि सुषेण ने बड़े जोरसे किसी पत्थरमें लात मारी । लात मारते ही वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) एकदम जमीनपर गिरगये। तत्काल उनके प्राण पखेरु उडभगे। एवं खोटे निदानस मुनि सुषण व्यंतर होगये। मुनि सुषेणकी मृत्युका समाचार राजा सुमित्रने भी मुना । सुनते ही उनका चित्त अति आहत होगया । सुमित्रको आदि ले मंत्री आदि सुषेणकी मृत्यु पर अति शोक करने लगे। किसीदिन सुषेणकी मृत्युसे सुमित्रके दुःखकी सीमा यहां तक बढ़ गई कि उसने समस्त राज्यका परित्याग कर दिया । शीघ्र ही तापसके व्रत धारण कर लिये । आर आयुके अंतमें मर कर खोटे तपके प्रभावसे वह भी देव हो गया। मगधेश ! अब देवगतिकी आयुको समाप्त कर राजा सुमित्रका जीव तो तो श्रोणक हुवा है। ओर मुनि सुषेणका जवि अपने आयुकर्मके अंतमें रानी चेलनाके गर्भमें आवेगा । वह कुणक नाम का धारक तेरा पुत्र होगा । एवं तेरा पुत्र होकर भी वह तेरोलिये सदा शत्रु ही रहेगा। मुनिराज यशोधरके मुखसे अपने पूर्वभवका यह वृत्तांत सुन राजा श्रेणिकको शीघ्र ही जातिम्मरण हो गया । जातिस्मरणके वलसे उन्होंने शीघ्र ही अपने पूर्वभवका हाल वास्तविक रीतिसे जान लिया। एवं मुनिराजके गुणोंकी मुक्त कंठसे . प्रशंसा करते हुवे वे ऐसा विचार करने लगे-- ___ अहा ! ! ! मुनि यशोधरका ज्ञान धन्य है। उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ .. .---.-. --- .. ( २२६ ) क्षमा भी इनकी प्रशंसाके लायक है। परीषहोंके जीतनेमें धीरता भी इनकी लोकोत्तर है । इनके प्रत्येक गुण पर विचार करनेसे यही बात जान पडती है कि मुान यशोधरसा परम ध्यानी परम ज्ञानी मुनि शायद ही संसारमें होगा ? श्री जिनेंद्र भगवानका शासन भी संसारमें धन्य है। जिनागममें जो तत्त्व कहे गये हैं। और उनका जिसरीतिसे स्वरूप वर्णन किया गया है सर्वथा सत्य है । जिनोक्त जीवादितत्त्वोंसे भिन्न तत्त्व मिथ्या तत्त्व हैं। यशोधर मुनिराज अपने व्रतमें सर्वथा दृढ हैं। साधुओंके वास्तविक लक्षण मुनि यशोधरमें ही संघटित होते हैं। एवं महाराजकी विचार सीमा अब और भी चढ गई वे मनही मन यह भी कहने लगे—जो साधु भोले जीवोंके वंचक हैं । विषय लंपटी हैं। हाथी घोडा माल खजाना स्त्री आदि पारग्रहोंके धारक हैं। वास्तविक ज्ञान ध्यानसे बहिर्भूत हैं। वे नामके ही साध हैं। पाखंडी साधु कदापि गुरु नहीं बन सकते । वे संसार समुद्रमें डुबाने वाले हैं। इसप्रकार विचार करते करते महाराज श्रोणकको अपनी आत्माका कुछ वास्तविक ज्ञान हो गया। उन्होंने शीघ्र ही श्रावकके व्रत धारण करलिये । रानी चेलना सहित महाराज श्रेणिकने विनयसे मुनिराजके चरणोंको नमस्कार किया । एवं मुनिराजके गुणोंमें संलग्नचित्त, उनकी वारंवार स्तुति करते हुवे महाराज श्रेणिक और रानी चेलना आनंद पूर्वक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrrrrrrrrrrrrrrrrrrramany ---- ( २२७ ) अपने राजमंदिरकी ओर चल दिये । महाराजने जिन धर्मकी परम भक्त रानी चेलनाके साथ बड़े ठाटवाटसे राज मंदिरमें प्रवेश किया। और अपनी कीर्तिसे समस्त दिशोयें सफेद करनेवाले महाराज भले प्रकार जिन भगवानकी पूजा आराधना एवं उनके गुणों का स्तवन करते हुवे राज मंदिरमें रहने लगे। कदाचित् बौद्ध साधुओंको इसबातका पता लगा कि महाराज श्रेणिकने किसी जैन मुनिके उपदेशसे जैन धर्म धारण कर लिया है । उनके परिणाम बौद्ध धर्मसे सर्वथा विमुख हो गये हैं । वे शीघ्र ही महाराज श्रेणिकके पास आये । और ऐसा उपदेश देने लगे। प्रिय मगधेश ! यह बात सुननेमें आई है कि आपने बौद्ध धर्मका सर्वथा परित्याग कर दिया है। आप जैन धर्मके परम भक्त हो गये हैं ? यदि यह बात सत्य है तो आपने बडा अनर्थ एवं अविचारित काम कर पड़ा । हमैं संदेह होता है कि परम पवित्र, जीवोंको यथार्थ सुख देनेवाले, श्री बुद्ध देवके धर्म और यथार्थ तत्त्वाको छोडकर, निस्सार, जीवोंका अहितकारक जैनधर्म और उसके तत्त्वों पर आपने कैसे विश्वास कर लिया ? प्रजानाथ ! स्त्रियोंकी अपेक्षा बुद्धिबल मनुष्यका अधिक होता है । इसलिये सर्वथा संसारमें यही बात देखनेमें आती है कि यदि स्त्री किसी विपरीत मार्ग पर चलनेवाली हो तो चतुर पुरुष अपने बुद्धिबलसे उसै सन्मार्ग पर ले आते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) हैं । किंतु यह बात कहीं नहीं देखी कि स्त्रीके कहनेसे वे विपरीत मार्गगामी हो जांयआप विश्वास रखिये जो मनुष्य स्त्रीकी बातोंमें आकर अपने समीचीन मार्गका त्याग करदेते हैं । और विपरीत मार्गको ही सम्यक मार्ग समझन लग जात हैं। वे मनुष्य विद्वानोंकी दृष्टिमें चतुर नहीं समझे जाते । स्त्रीके कहने में चलने वाला मनुष्य आ वालगोपाल निंदा भाजन वन जाता है । राजन् ! आप बुद्धिमान हैं। प्रत्येक कार्य विचार पूर्वक करते हैं । तथापि न मालूम आपने कैसे स्त्री की वातोमें फसकर अपने पवित्र धर्मका परित्याग कर दिया ? हमैं इस बातकी कोई परवा नहीं कि आपजैन वनैं अथवा बौद्ध हैं । किं तु यहां यह कहना हमै आवश्यकीय होगा कि यदि आप जैन मुनिओंकी अपेक्षा बौद्ध साधुओंको अल्पज्ञानी समझते हैं, तो आप कृपया फिरसे इस बातका निर्णय कर लें। पीछे आप बौद्ध धर्मका परित्याग कर दें । मगधाधिप ! हमें पूर्ण विश्वास है कि अनेकप्रकारके ज्ञान विज्ञानके भंडार, परम पवित्र, बौद्ध साधुओंके सामन जैन धर्मसेवी मुनी कोई चीज नहीं। और न बौद्धधर्मके सामने जैन धर्म ही कोई चीज है। याद रखिये यदि आप योंही विना परिक्षा किये जैन धर्म धारण कर लेंगे । और बौद्ध धर्म छोड देंगे तो आपको अभी नहीं तो पीछे जरूर पछिताना होगा। प्रबल पवनके सामने अचलभी वृक्ष कहांतक चलायमान नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२९ ) होता। कुतर्कसे मनुष्यके सद्विचार कहांतक किनारा नहीं करजाते? ज्योंही महाराजने बौद्धों का लंबा चौडा उपदेश सुना 'पानीके अभावसे जैसा अभिनव वृक्ष कुमला जाता ह' महाराजका जैनधर्मरूपी पौदा कुमला गया । अब उनका चित्त फिर डामाडोल होगया। उनके मनमें फिरसे जैनधर्म एवं जैन मुनिओंकी परीक्षाका विचार आकर सामने ठडुकाने लगा। ___कदाचित् महाराजने जैन मुनिओंकी परीक्षार्थ राजमंदिरमें गुप्तरीतिसे एक गहरा गढा खुदवाया । उसमें कुछ हड्डी चर्म आदि अपवित्र पदार्थ मगाकर रखवादिये । और रानीसे जाकर कहा____ कांते ! अब मैं जैनधर्मका परिपूर्ण भक्त होगया हूं । मेरे समस्तावेचार बौद्धधर्मसे सर्वथा हट गये हैं। कदाचित् भाग्यवश यदि कोई जैनमुनि राजमंदिरसें आहारार्थ आवें तो तू इसपवित्रमंदिरमें आहार देना उनकी भक्ति सेवा सन्मान भी खूब करना रानी चेलना बडी पंडिता थी। महाराजकी यह आकस्मिक वचनभंगी सुन उसै शीघ्र ही इसवातका बोध होगया कि महाराजने जैनमुनिआंकी परीक्षार्थ अवश्य ही कुछ ढोंग रचा है । और महाराजके परिणाम बौद्धधर्मकी और फिर झुकेहुये प्रतीत होते हैं। कुछ दिनके पश्चात् भलेप्रकार ईर्यासमितिके परिपालक, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) परमपवित्र तीन मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आये । ज्योंही महाराजकी दृष्टि मुनिओपर पडी वे शीघ्र ही रानके पास गये । और कहने लगे- प्रिये ! मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आ रहे हैं। जल्दी तयार हो उनका पड़िगाहन कर । तथा स्वयं भी मुनिओं के सामने आकर खडे होगये । मुनिराज यथास्थान आकर ठहर गये । ज्योंही रानीने मुनिराजोंको देखा विनम्र मस्तक हो उन्हें नमस्कार किया । तथा महाराजद्वारा की हुई परीक्षा से जैनधर्म पर कुछ आघात न पहुंचे यह विचार रानीने शीघ्र ही विनयसे कहा : हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्ति पालक, परसोत्तम, मुनिराजो ! आप आहारार्थ राजमंदिर में तिष्ठे । उनमें से कोई भी मुनि त्रिगुप्तिका पालक था नहीं । सब दो दो गुप्तिओं के पालक थे । इसलिये ज्योंही रानीके वचन सुने उन्होंने शीघ्र ही अपनी दो दो अंगुलियां उठा दी । तथा दो अगुलियोंके उठाने से रानीको यह जतलाकर कि हे रानी ! हम दो दो गुप्तियोंके ही पालक हैं, शीघ्र वनकी ओर चल दिये । उसीसमय कोई गुणसागर नामके मुनिराज भी पुरमें आहारार्थ आये । मुनिगुणसागरको अवधिज्ञानके वलसे राजाका भीतरी विचार विदित हो गया था। इसलिये वे सीधे राजमंदिर में ही घुसे चले आये । मुनिराजपर रानीकी दृष्टि पडी । उन्हें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत मस्तक हो, रानीने नमस्कार किया । एवं विनयसे वह इस प्रकार कहने लगी। हे विगुप्तियों के पालक परमोत्तम मुनिराज! आप राजमंदिरमें आहारार्थ ठहरें। ____मुनि गुणसागरने ज्योंही रानीके वचन सुने शीघ्र ही उन्होंने अपनी तीन अंगुलिया दिखा दी। मुनिराजकी तीनों अंगुलिया देख रानी अति प्रसन्न हुई। उसने शीघ्र ही महाराजको अपने पास बुलाया । महाराजने आकर भक्ति भावसे मुनिराजको नमस्कार किया । आगे बढकर रानीने मुनिराजको काष्ठासन दिया । उनका पडिगाहन (प्रतिगृहीत ) किया । गरम पानीसे उनके चरण प्रक्षालन किये । एवं महाराज नत मस्तक हो उन्हें भोजनालयमें आहारार्थ ले गये । ____ महाराजकी प्रार्थनानुसार मुनिराज भोजानलयमें गये तो सही। किं तु ज्योंही वे वहां पहुंचे अधविज्ञानके बलसे शीघ्र ही उन्हें गढे हुवे हड्डी चामका पता लग गया। वे तत्काल ही यह कह कि राजन् ! तेरा घर अपवित्र है, वहांसे धर लोटे । और इर्यापथसे जीवोंकी रक्षा करते हुवे बनकी ओर चले आये। चारो मुनिओंको इसप्रकार राजमंदिरसे विना कारण लोटा देख राजा श्रेणिक आदि समस्त जन हाहाकार करने लगे-मुसिओंका अलौकिक ज्ञान देख सब मनुप्योंके मुखसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी प्रशंसा निकलने लगी। महाराज श्रेणिकको भी इसवातका परम दुःख हुवा। वे शीघ्र रानीके पास आये और कहने लगे प्रिये ! यह क्या हुवा । मुनिराज अकारण ही क्यों आहार छोड चले गये ? कुछ जान नहीं पड़ता शीघ्र कहो । महाराजके ऐसे वचन सुन रानीने उत्तर दिया____ नाथ ! मैं भी इसवातको न जान सकी मुनिगण क्यों तो राजमंदिरमें आहारार्थ आये और क्यों फिर विना आहारलिये चले गये । स्वामिन् ! चलिये अपन शीघ्र ही वन चलें । और जहांपर वे परम पवित्र यतीश्वर विराजमान हैं। वहां जाकर उन्हीं से यह बात पूंछे । रानी चेलनाकी मनोहर एवं संशय निवारक यह युक्ति महाराजको पसंद आगई। अतिशय तेजस्वी और मुनिदर्शनार्थ उत्कंठित वे दोनों दंपती जहां मुनिराज विराजमान थे वहीं गये । प्रथम ही प्रथम महाराजकी दृष्टि मुनिवर धर्मघोष पर पडी। तत्काल वे दोनो दंपती उनके पास गये । भाक्तपूर्वक उनके चरणोंको नमस्कार किया । एवं अति विनयसे महाराजने यह पूछा____ प्रभो ! समस्त जगतके उद्धारक स्वामिन् ! मेरे शुभोदय से आप राजमंदिरमें आहारार्थ गये थे। किंतु आप विना आहारके ही चले आये । मैं यह न जान सका क्यों तो आप राजमंदिरमें आहारार्थ गये और क्यों लौट आये ? कृपा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) कर शीघ्र मेरे इस संशयको दूर करें । राजाके ऐस वचन सुन मुनिवर धर्मघोषने कहा : राजन् जब हम राजमंदिरमें आहारार्थ पहुंचे थे। हमें देख रानी चेलनाने यह कहा था हे त्रिगुप्तिपालक मुनिगज ! आप मेरे राजमंदिरमें आहारार्थ विराजै । हम त्रिगुप्तिपालक थे नहिं इसलिये हम वहां न ठहरे । हमारे न ठहरनेका और दूसरा कोई कारण न था। मुनिराजके एसे वचन सुन महाराज आश्चर्य सागरमें गोता मारने लगे। वे सोचने लगे ये परम पवित्र मुनिराज किस गुप्ति के पालक नहीं हैं ? तथा ऐसा कुछ समय सोच विचार कर महाराजने शीघ्र ही मुनिराजसे निवेदन किया-- कृपानाथ ! क्या आपके तीनों ही गुप्ति नहीं हैं। अथवा कोई एक नहीं है। तथा वह क्यों नहीं है ? कृपया शीघ्र कहैं महाराज श्रेणिकके ऐसे लालसा युक्त वचन सुनकर मुनिराजने कहा राजन् ! हमारे मनोगुप्ति नहीं है। वह क्यों नहीं है उसका कारण कहता हूं आप ध्यान पूर्वक सुनें। ____ अनक प्रकारके उत्तमोत्तम नगरोंसे व्याप्त इसी जंबूद्वीपमें एक कालंग नामका देश है । कलिंग देशमें अतिशय मनोहर बाजारोंकी श्रेणियोंसे व्याप्त एक दंतपर नामका सर्वोत्तम नगर है । दंतपुरका स्वामी जोकि नीति पूर्वक प्रजाका पालक मंत्री एवं बड़े २ सामंतोंसे बेष्टित, सूर्यके समान प्रतापी था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) मैं राजा धर्मघोष था। मेरी पटरानीका नाम लक्ष्मीमती था रानी लक्ष्मीमती अति मनोहरा थी। समस्त रानियोंमें मेरी प्राणवल्लभा थी । चंद्रमुखी एवं काममंजरी थी। हम दोनों दंपतीमें गाढ प्रेम था। एक दूसरेको देख कर जीता था । यहां तक कि हम दोनों ऐसे प्रेममें मस्त थे कि हमको जाता हुआ काल भी नहीं मालूम होता था। ____ कदाचित् मुझै एक दिगंबर गुरुके दर्शनका सौभाग्य मिला । मैंने उनके मुखसे जैनधर्मका उपदेश सुना । उपदेश में मुनिराजके मुखसे ज्यों ही मैने संसारकी अनित्यता,विजलीके समान विषय भोगोंकी चपलता, सुनी मारे भयके मेरा शरीर कप गया। कुछ समय पहिले जो मैं भोगों को अच्छा समझता था वे ही मुझै विष सरीखे जान पड़ने लगे। मैं एक दम संसारसे उदास हो गया। और उन्हीं मुनिराजके चरणकमलोमें चट जैनेश्वरी दीक्षा धारण करली। इसी पृथ्वीतलमें एक अति मनोहर कौशांवी नगरी है । कौशांबीपुरीके राजाका मंत्री जोकि नीतिकलामें अतिशय चतुर था गरुड़वेग था। मंत्री गरुडवेगकी प्रिय भार्या गरुड़दता थी। गरुड़दत्ता परम सुंदरी चंद्रवदना एवं पति भक्ता थी। किसीसमय विहार करता करता मैं कौशांबी नगरी में जा पहुचा। और वहां किसीदिन मंत्री गरुड वेगके घर आहारार्थ गया। ज्यों ही गरुडदत्ताने मुझे अपने घर आते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) देखा भलेप्रकार मेरा विनय किया । आह्वानन कर काष्टासन पर विठाकर मेरा चरण प्रक्षालन किया। एवं मन और इंद्रियों को भलेप्रकार संतुष्ट करनेवाला मुझै सर्वोत्तम आहार दिया । आहार दतेसमय गरुडदत्ताके हाथसे एक कवल नीचे गिर गया। कवल गिरते ही मेरी दृष्टि भी जमीन पर पडी । ज्योंही मैने गरुडदत्ताके पैरका अगूंठा जमीन पर देखा मुझे चट अपनी प्रियतमा लक्ष्मीमतीके अगूंठेकी याद आई । मेरे मन- अचानक यह विकल्प उठ खडा हुवा । अहा ! जैसा मनोहर अगूंठा रानी लक्ष्मीमतीका था वैसा ही इस गरुडदत्ताका है । वत फिर क्या था ? मेरे मनके चलित हो जानेसे हे राजन् ! आजतक मुझे मनोगुप्तिकी प्राप्ति न हुई । इसलिये मैं मनोगुप्ति रहित हूं। ___ज्यों ही मुनिवर धर्मघोषके मुखसे राजा श्रेणिकने यह बात मुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई। वे अपने मनमें कहने लगेसमस्त पापोंका नाशक जिनेंद्रशासन धन्य है । सत्य वक्ता मुनिवर धर्मघोष भी धन्य हैं। अहा ! जैसी सत्यता जैनधर्ममें है वैसी कहीं नहीं। तथा इसप्रकार मुनिराज धर्मघोषकी बार बार प्रसंशा कर महाराजने मुनिराजको भक्ति पूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनों दंपती वहांसे उठकर मुनिवर जिनपालके पास गये । उन्हें सविनय नमस्कार कर राजा श्रेणिकने पूछा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) भगवन्! आज आप आहारार्थ मेरे मंदिर में गये थे । आपने मेरे मंदिर में क्यों आहार न लिया ? मुझसे ऐसा क्या घोर अपराध बन पड़ा था ? कृपाकर मेरे इस संदेहको शीघ्र दूर करें । राजा श्रेणिकके ऐसे वचन सुन मुनिराज जिनपालने भी वही उत्तर दिया जो मुनिवरधर्मघोष ने दिया था । मुनिराज से यह उत्तर पाकर महाराज फिर अचंभे में पड गये । मनमें वे ऐसा सोचने लगे कि इन मुनिराज के कोनसी गुप्ति नहीं है । और वह क्यों नहीं है ? तथा कुछ समय ऐसा संकल्प विकल्प कर उन्होंने मुनिराज से पूछा प्रभो । कृपया इसबातको खुलासारीति से कहैं । आपके कौंनसी गुप्ति न थी । और क्यों न थी ? मेरे मनमें अधिक संशय है । मुनिराजने उत्तरदिया --- राजन् ! मेरे वचन गुप्तिं न थी । वह क्यों न थी उसका कारण सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनो इसी पृथ्वीमंडलपर समस्त पृथ्वीका तिलकभूत एक भूमितिलक नामका नगर है । नगर भूमितिलका अधिपति भलेप्रकार प्रजाका रक्षक, अतिशय धर्मात्मा राजा बसुपाल था । वसुपालकी प्रिय भार्या धारिणी थी । रानी धारिणी अतिमनोहरा, उत्तमोत्तम गुणोंकी आकर एवं कामदेवकी जयपताका थी । शुभ भाग्योदयसे रानी धारिणीसे उत्पन्न एक कन्या थी । जो कन्या चंद्रवदना गृगनयना रतिरूपा समस्त उत्तमोत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) ariat आकर एवं अपनी शरीरकांतिसे अंधकार को नाशकर ने - वाली थी । और उसका नाम बसुकांता था । उसीसमय कौशांबी पुरी में एक चंडप्रद्योतन नामका प्रसिद्धराजा राज्य करता था । चंडप्रद्योतन अतिशय तेजस्वी वीर एवं विशालसेनाका स्वामी था । कदाचित् कुमारी वसुकांताने यौवन अवस्था में पदार्पण किया, राजा चंडप्रद्योतनको इसके युवती पने का पता लगगया । कमारीके गुणोंपर मुग्ध हो राजा चंडप्रद्योतनने शीघ्र ही राजा सुपालसे उस पुत्रीकेलिये प्रार्थना की । और उनके साथ बहुत कुछ प्रेम दिखाया। किंतु राजा चंडप्रद्येोतन जैन न था । इसलिये राजा वासुपालने उसकी प्रार्थना न सुनी और पुत्री - के लिये साफ इन्कार करदी | राजा चंडप्रद्योतनने यहबात सुनी । उसने शीघ्र ही सेना सजाकर भूमितिलक की ओर प्रस्थान करदिया । कुछ दिन बाद मंजल दरमजल करता करता राजा चंडप्रद्योतन भूमितिलक पुरमें आ पहुंचा । आते ही उसने अपनी सेनासे समस्तनगर घेरलिया और लडाईकेलिये तयार हो गया - राजा बसुपालको इसबातका पता लगा उसने भी अपनी सेना सजवाली। तत्काल वह चंडप्रद्योतनसे लडनेके लिये निकल पडा-और दोनों दलकी सेनामें भयंकर युद्ध होनेलगा - मेघनाद मेघशब्दसे जैसे मयूर उधर उधर नाचते फिरते हैं मेघनाद ( बिगुल ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) 1 के शब्द सुनने से उससमय याधोओंकी भी वही दशा होगई रोषमें आकर वे भी इधर उधर घूमने लगे और एक दूसरे पर प्रहार करने लगे । दोनों सेनाका घोर संग्राम साक्षात् महामागरकी उपमाको धारण करता था। क्योंकि महासागर जैसा पर्वतों से व्याप्त रहता है । संग्रामभी आहत हो पृथ्वीपर गिरेहुवे हारूपी पर्वतों से व्याप्त था । महासागर जैसा तरंग युक्त होता है, संग्रामभी चंचल अश्वरूपी तरंग युक्त था । महासागर में जिसप्रकार महामत्स्य रहते हैं संग्राम में भी पैनी तलवारों से कटे हुवे मनुष्यों के मुखरूपी मत्स्य थे । महासागर जैसा जल पूर्ण रहता है । संग्राम भी घावोंसे निकलते हुये रक्तरूपी जल से पूर्ण था । महासागर जसा मणिरत्नों से व्याप्त रहता है संग्राम भी मृतयोधाओं के दांत मणिरत्नोंने व्याप्त था । महासागर में जैसे भयंकर शब्द होते हैं । संग्राम में भी हाथियों के चीत्कार रूपी शब्द थे । महासागर जिसप्रकार वालू सहित होता है । संग्राम भी पिसी हुई हड्डी रूपी वालू सहित था। महासमुद्र जैसा कीचड व्याप्त रहता है संग्राम भी मांसरूपी कीचडसे व्याप्त था । महासागरमें जैसे मेढक और कछुवे रहते हैं संग्राम में भी वैसेही कटे हुवे घोडों के पैर मेढक और हाथियों के पैर कछुवे थे । महासागर जैसा खंड पर्वत युक्त होता है । संग्राम भी मृतशरीरोंके ढेररूप खंडपर्वतयुक्त था । महासागर में जैसे सर्प रहते हैं संग्राम में भी कटी हुई हाथियोंकी पूंछे सर्प थीं । महासागर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३९ ) जसा पवन परिपूर्ण रहता है संग्राम भी योधाओंके श्वासोच्छ्वास रूपी पवन से परिपूर्ण था । महासागरमें जैसा बडवानल होता है संग्राम में भी उसीप्रकार चमकते हुवे चक्र बडवानल थे । महासागर जैसा बेलायुक्त होता है उसीप्रकार संग्राम में भी समस्त दिशाओं में घूमते हुवे रूपी वेला थीं । सागरनें जैते नाव ओर जहाज संग्राममें भी घोड़ेरूपी नाव और जहाज थे । तथा संग्रामभ खङ्गधारी खड्गोंसे युद्ध करते थे । मुष्टियुद्ध करनेवाले मुष्टि ओंसे लड़ते थे । कोई कोई आपस में केश पकडकर युद्ध करते थे । अनेक वरिपुरुष भुजाओंसे लडते थे । पेरोंसे लडाई करनेवाले पैरोंसे लडते थे । शिर लड़ानेवाले सुभट शिर लड़ाकर युद्ध करते थे । बहुतसे सुभट आपसमें मुख भिड़ा कर लड़ते थे । गदाधारी और तीरंदाज गदाधारी और तीरंदाजों से लड़ते थे । घुड सवार घुडसवारोंसे, गजसवार गज सवारोंसे, रथसवार रथसवारोंसे, एवं पयादे पयादों से भयंकर युद्ध करते थे । उस संग्राम में अनेक वीर पुरुष शब्दयुद्ध करने वाले थे इसलिये वे शब्दयुद्ध करते थे । लट्ठी चलानेवाले लाट्ठयोंसे युद्ध करते थे । एवं राजा राजाओं से युद्ध करते थे । तथा शिलायुद्ध करनेवाले शिलाओं से, वांस युद्ध करने वाले सुभट वांसोंसे, वृक्ष उखाड़ कर युद्ध करनेवाले वृक्ष उखाड़ कर हलके धारक अपने हलोंते युद्ध करते थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat योधा - होते हैं www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार दोनों राजाओंका आपसमें कई दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा । अंतमें जब वसुपालने यह देखा कि राजा चंड माद्योतन जीता नहीं जा सकता तो उसे बड़ी चिंता हुई वह उसके जीतनेके लिये अनेक उआय सोचने लगा___कदाचित् विहार करता करता उससमय मैं भी कौशांबीमें जा पहुंचा। मैंने जो वन फिलेके बिलकुल पास था उसीमें स्थित हो ध्यान करना प्रारंभ कर दिया । वहां ध्यान करते मालोने मुझे देखा । वह तत्काल राजा वसुपालके पास भागता भागता पहुंचा ओर मेरे आगमनका सारा समाचार राजासे कह सुनाया। सुनते ही राजा वसुपाल तत्काल मेरे दर्शनकेलिये आये। मेरे पास आकर उन्होंने भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। राजा वमुपालके साथ और भी कई मनुष्य थे। उनमेंसे एक मनुष्यने मुझसे यह निवेदन किया-- प्रभो! कृपया राजा वसुपालको आप शत्रुओंकी ओरसे अभय दान प्रदान करें। इन्हें वैरियोंकी ओरसे कैसा भी भय न रहे। __मनुष्यकी रागद्वेष परिपूर्ण वात सुनकर मैंने कुछ भी उत्तर न दिया उस वनकी रक्षिका एक देवी थी ज्यों ही उसन या समाचार सुना आनी दिव्यवाणीसे उसने शीघ्र ही उत्तदिया-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) राजन् वसुपाल ! तुझे किसीप्रकारका भय नहीं करना चाहिये नियमसे तेरी विजय होगी। बस फिर क्या था ? देवी तो उससमय अदृश्य थी इसलिये ज्यों ही राजा वसुपालने ये वचन सुने मारे आनंदके उसका शरीर रोमांचित होगया । वह यह समझ कि यह आशार्वाद मुझे मुनिराजने दिया है बड़ी भक्तिसे उसने मुझे नमस्कार किया । और बड़ी विभूतिके साथ अपने राजमंदिरकी ओर चला गया-राजमंदिरम जाकर विजयकी खुशीमें उसने तोरण आदि लगाकर नगरमें बड़ा भारी उत्सव किया । समस्त दिशा बधिर करनेवाले बाजे वजने लगे । एवं राजा वसुपाल आनंदसे रहने लगा । राजा चंडप्रद्योतनको भी इसबातका पता लगा । राजा वसुपालको पक्का जैनी समझ उसने तत्काल युद्धका संकल्प छोड़ दिया। और सब सेनाको साथ ले अपने नगरकी ओर प्रस्थान करदिया। नगरमें जाकर उसने जैनधर्म धारण कर लिया । जिनराजके वाक्यों पर उसका पूरा पूरा श्रद्धान होगया और आनंदसे रहने लगा। राजा वसुपालको भी चंडप्रद्योतनके चले जानेका पता लगा। उसने शीघ्र ही कई मंत्री जो कि परके अभिप्राय जाननेमें अतिशय चतुर थे शीघ्र ही राजा चंडप्रद्योतनके पास भेजे और सारा हाल जानना चाहा । राजाकी आज्ञानुसार समस्त मंत्री शीघ्र ही कौशांबी गये । राजा चंडप्रद्योतनकी सभामें १६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat dial www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mnnnnnnn ( २४२ ) पहुंच उन्होंने विनयसे राजाको नमस्कार किया और जो कुछ राजा वसुपालका संदेशा था सब कह सुनाया । मंत्रिओंके मुखसे राजा बसुपालका यह संदेशा सुन राजा चंडप्रद्योतनने कहा-- ___मंत्रिओ ! राजा चंडप्रद्योतन अतिशय धर्मात्मा है । धर्म उसे अपने प्राणोंसे भी प्यास है । मैंने राजा वसुपालको जैन समझ युद्धका संकल्प छोड़ दिया । जो पापी पुरुष जैनियों के प्राणोंको दुःखाते हैं। उनके साथ युद्ध करते हैं । वे शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं । और वे संसारमें नराधम कहलाते हैं। .. राजा : चंडप्रद्योतनसे , यह समाचार सुन मंत्री तत्काल भूमितिलकपुरको लोट पड़े । चंडप्रद्योतनका सारा समाचार राजा : वसुपालको कह सुनाया और उनकी अनेकप्रकारस प्रशंसा • करने लगे । ज्योंही राजा वसुपालने यह बात सुनी उन्हें अति प्रसन्नता। हुई। चंडप्रद्योतनको। अपना : समान धर्मी समझ राजा वसुपालने शीघ्र ही कन्या वसुकांताका राजा चंडप्रद्योतनके साथ विवाह कर दिया । एवं हाथी घोड़ा आदि। उत्तमोत्तम पदार्थ देकर राजा चंढप्रद्योतनके साथ बहुत ।। कुछ हित जनाया । जब कन्या. वसुकांताके साथ राजा चंउप्रद्योतनका विवाह होगया तो . उनको बड़ा संतोष हुवा । वे बड़े आनंदसे रहने .लगे । और दोनों दंपती . भलेप्रकार , सांसारिकसुखका . अनु- 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mer . . . . . ( २४३. ) भव करने लगे। ___कदाचित् राजा चंडप्रद्योतन रानी' वमुकांताके साथ एकांतमें बैठे थे । अचानक ही उन्हें भूमितिलकपुरके युद्धका म्मरण होगया । वं रानी वसुकांतासे कहने लगे। प्रिये ! .मैं अतिशय प्रतापी था । चतुरंग सेनासे मंडित था अपने प्रतापसे मैंने समस्त भूपतियोंका मान गलन करदिया था। मैंने तेरे पिताको इतना बलवान नहीं जाना था । हाय तेरे पिताके साथ युद्धकर मैंने बड़ा अनर्थ किया । रानी वनुकांताने जब ये वचन सुने तो वह कहने लगी-- नाथ ! आपके बराबर मेरे पिता बलवान न थे । किं तु मुनिवर जिनपालने उन्हें अभयदान दे दिया था इसलिये वे आपसे पराजित न हो सके । रानी वमुकांताके ये वचन सुन तो महाराज अचंभेमें पड़ गये। वे कहने लगे-- ___चंद्रवदने ! तुम यह क्या कह रही हो । परमयोगी राग द्वेषसे रहित होते हैं । वे कदापि ऐसा काम नहिं कर सकते । यदि मुनिवर जिनपालने राजा वमुपालको ऐसा अभयदान दिया हो तो बड़ा अनर्थ कर पाड़ा। चलो अब हम शीघ्र उन्हीं मुनिराजके पास चलें और उन्हींसे सब समाचार पूंछे-- राजा चंडद्योतनकी आज्ञानुसार रानी वसुकांता चलने कलिये तयार होगई, वे दोनों दंपती बड़े : आनंदसे मनिवंद | नार्थ गये । जिससमय वे दोनों दंपती वनमें पहुंचे । और | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योंही उन्होंने मुझे देखा बड़ी भक्तिसे नमस्कार किया । तीन प्रदक्षिणा दी। एवं राजा चंडप्रेद्योतनने बड़ी विनयसे यह कहा-- समस्त विज्ञानोंके पारगामी, भव्योंको मोक्षसुख प्रदान करनेवाले, अतिशय कठिन किंतु परमोत्तम व्रतके धारक, शत्रुमित्रोंको समान समझनेवाले, प्रभो ! क्या यह आपको योग्य था कि एकको अभयदान देना और दूसरेका अनिष्ट चिंतन करना । कृपानाथ ! प्रथम तो मुनियोंकेलिये ऐसा कोई अवसर नहीं आता । यदि किसीप्रकारका अवसर आकर उपस्थित भी हो जाय तो आप सरीखे वीतराग मुनिगण उससमय ध्यानका अवलंबन करलेते हैं। भली बुरी कैसी भी सम्मति नहिं देते । राजा चंडप्रद्योतनके ऐसे वचन सुन हे राजन श्रेणिक ! मैंने तो कुछ जवाब न दिया। किंतु रानी वसुकांता कहने लगी! नाथ ! मेरे पिताके शुभोदयसे उसससय किसी वनरक्षिका देवीने वह आशीर्वाद दिया था। मुनिराजने कुछ भी नहिं कहा था। आप इस अंशमें मुनिराजका जरा भी दोष न समझें। बस फिर क्या था ? राजन् ! ज्योंही राजा चंडप्रद्योतनने रानी वसुकांताके वचन सुने मारे हर्षके उसका कंठ गदगद होगया । कुछ समय पहिले जो उसके हृदयमें मेरे विषयमें कालुप्य बैठा था तत्काल वह निकल भागा। दोनों दंपतीने मुझे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनो दंपती तो कौशांबीपुरीमें आनंदानुभव करने लगे । और मुझे उसी कारण से आज - तक वचनगुप्ति न प्राप्त हुई । मैं अनेक देशों में विहार करता २ राजगृह आया । आज मैं आपके यहां आहारार्थ भी गया किंतु मैं त्रिगुप्तेि पालक था नहीं । इसलिए मैंने आहार न लिया मेरे आहारके न लेनेका अन्य कोई कारण नहीं | विनीत मगधेश ! यह आप निश्चय समझैं जो मुनि मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्तिके पालक होते हैं वे नियमसे अवधिज्ञानके धारक होते हैं। तीनों गुप्तियोंमें एक भी गुप्तिको न रखनेवाले मुनिराज के अवधिज्ञान मनः पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तीनों ज्ञानोंमेंसे एकभी ज्ञान नहीं होता । साधारणजीवोंके समान उनके मति, श्रुति दोही ज्ञान होते हैं । राजन् ! मनमें उत्पन्न खोटे विकल्पोंके निरोधकेलिये मनोगुप्ति का पालन किया जाता है । इस मनोगुप्तिका पालन करना सरल बात नहीं । इस गुप्तिको वे ही पालन कर सकते हैं जो ज्ञान पूजा आदि अष्ट मदोंके विजयी, यतीश्वर होते हैं । और शुभ एवं अशुभ संकल्पोंसे बहिर्भूत रहते । हैं । उसीप्रकार वचनगुप्तिकी रक्षा करना भी अतिकठिन है । जो मुनीश्वर वचन गुप्तिके पालक होते हैं । उन्हें स्वर्गसुखकी प्राप्ति होती है । अनेक प्रकारके कल्याण मिलते हैं । विशेष कहां तक कहा जाय वचनगुप्तिपालक मुनिराज समस्त - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmm कर्मोंका नाशकर सिद्ध अवस्थाको भी प्राप्त हो जाते हैं । तथा इसीप्रकार कायगुप्तिका पालन भी अतिकठिन है । शरीरसे सर्वथा निर्मम होकर विरले ही मुनीश्वर कायगाप्तिके पालक होते हैं। तीनों गुत्तियोंके पालक मुनिराज निमल होते हैं। उन्हें तपके प्रभावसे अनेकप्रकारको लब्धियां मिलती हैं। उनकी आत्मा सम्यग्ज्ञानसे सदा भूषित रहती है । एवं वे जैन धर्मके संचालक समझे जाते हैं। ___इसप्रकार मुनिवर धर्मघोष और जिनपालके मुखसे मनोगुप्ति और वचनगुप्तिकी कथा सुन राजा श्रेणिक और रानी चेलनाको अति आनंद मिला । वे दोनों दंपती परम पवित्र दोनों गुप्तिओंकी बारबार प्रशंसा करने लगे। उनके मुखसे समस्तबाधा रहित मुनिमार्गकी एवं केवलिप्रतिपादित श्रुतज्ञान की भी झड़ाझड़ प्रशंसा निकलने लगी। इसप्रकार पद्मनाभ तीर्थकरके भवांतरके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्रमें मनोगुप्ति वचनगुप्ति दोनों गुप्तिओंकी कथा वर्णन करनेवाला दशवां सर्ग समाप्त हुवा . WALAAR A य TY M Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४७ ) ग्यारहवां सर्गः मुनिवर जिनपालद्वारा वचनगुप्ति कथाके समाप्त होजाने पर राजा रानीने उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । धर्मप्रेमी वे दोनों दम्पती मुनिवर मणिमालीके पासमये । उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कारकर राजाश्रेणिकने विनयसे पूछ । ___ संसारतारकत्वामिन् ! 'मेरे अभोदयसे आपरराजमंदिरमें आहारार्थ गये थे । किंतु आप । विनाकारण वहांसे आहारके विनाही लौट आये । यह क्या हुवा ? मेरे मनमें इसवातका बड़ा संशय बैठा है कृपया इसमेरे संशयको शीघ्र मिटावें । राजा श्रेणिकने ऐसे वचन सुन मुनिराजने कहा___राजन् । रानीचेलनाने हे त्रिगुप्ति पालक मुनिराज आप आहारार्थ राजमंदिरमें विराजें' इसरीतिसे . हमारा आह्वानन किया था । मेरे कायगुप्ति थी नहीं इइसलिये मैं वहां आहार केलिये न ठहरा । वह क्यों नहिं थी उसका कारण सुनाता हूं आप ध्यान पूर्वक सुनें - इसी पृथ्वीतलमें अतिशय शुभ एक मणिवत नामका देशहै । मणिवत - साक्षात् समस्तदेशोंमें मणिके समानहै । मणिदेशमें (अधरता ) धन विद्या आदिकी असहायता हो यह बात नहीं है वहांके निवासी धनी एवं विद्वान धन और विद्या से बराबर सहायता करनेवाले हैं । एकमात्र अधरता है तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) स्त्रियों के ओठों में ही है । वहां सबलोग सुखी हैं इसलिये कोई किसी से किसी चीज की याचनाभी नहीं करता । यदि याचना का व्यवहार है तो वरकेलिये कन्या और कन्या के लिये वरका ही है । उसदेशमें किसीका विनाशभी नहीं किया जाता । यदि विनाश व्यवहार है तो व्याकरण में क्विप्प्रत्ययमें ही है-किप्रत्ययका ही लोप किया जाता है । वहांके मनुष्य निरपराधी हैं इसलिये वहां कोई किसीका बन्धन नहीं करता यदि बंधन व्यवहार है तो मनोहरशब्द करनेवाले पक्षियों में ही है - वे ही पिंजरा में बंधे रहते हैं ! मणिवत देशमें कोई आलसीभी नजर नहीं आता आलसीपना है तो वहांके मतवाले हाथियों में ही है - वे ही झूमते झूमते मंद गति से चलते हैं । कोई किसीको वहां पर मारने सतानेवालाभी नहीं है । यदि मारता सताता है तो यमराजही है। वहांके निवासियोंको भय किसी से नही है केवल कामी पुरुष अपनी प्राणवल्लभाओंके क्रोध से डरते हैं- -कामियोंको प्रतिक्षण इसवातका डर बना रहता है कहीं यह नाराज न होजाय । उसदेशमें कोई चोर नहीं है यदि चोर का व्यवहार है तो पवन में है वही जहां तहांकी सुगंधि चुरा ले आता है । वहांका कोई मनुष्य जातिपतित नहीं है | यदि पतन व्यवहार है तो वृक्षोंके पत्तों में है वेही पवनके जोरसे जमीनपर गिरते हैं । वृक्षोंके पत्ते छोड़कर उसदेशमें कोई चपल भी नहीं है । किंतु वहांके निवासी सबलोग गम्भीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४९ ) और उदार हैं । वहांपर कोई मनुष्य जड़ नहीं है यदि जड़ता है तो स्त्रियों के नितंवोंमें है। कृशता भी वहांपर स्त्रियों के कटिभागमें ही है-स्त्रियोंकी वहां कमरही पतली है और कोई कृश नहीं । वहांके पत्थर ही नहीं बोलते चालतेहैं मनुप्य कोई गूंगा नहीं । उसदेशमें कोई किसीका दमन नहीं करता एकमात्र योगीश्वर ही इन्द्रियोंका दमन करते हैं । मलिनभी वहां कोई नहीं रहता एकमात्र मलिनता वहांके तलावोमें है। हाथी आकर वहांके तालावाको गदला करदेते हैं । उसदेशमें निष्कोषता कमलों में ही है सूर्यास्त होनेपर वे ही मुद जातेहैं किन्तु वहां निप्कोषता खजाना न हो यह वात नहीं । लोग उसदेशमें दान आदि उत्तमकार्यों में ईर्षा द्वेष करते हैं। किन्तु इनसे अतिरिक्त और किसी कार्यमें उन्हें ईर्षा द्वेष नहीं ! वहांके लोग उत्तमोत्तम व्यारव्यान सुननेके व्यसनी हैं जूवा आदिका कोई व्यसनी नहीं है । तथा उस देशमें उत्तमोत्तम मुनियोंके ध्यानप्रभावसे सदा बृक्ष फले फूले रहते हैं । योग्य वर्षा हुआ करती है उसके मनोहरवागोंमें सदा कोकिल बोलती रहती है। वहांकी स्त्रियोंसे हथिनी भी मंद गमनकी शिक्षा लेती है । और स्वभावसे वे स्त्रियां लज्जावती एवं पतिभक्ता हैं। इसी मणिवत देशमें एक अतिशय रमणीय दारा नामक नगर है। दारानगरके ऊंचे २ महल सदा चन्द्रमडलको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) भेदन किया करते हैं । उसकी स्त्रियोंके मुखचंद्रमाकी कृपासे अंधकार सदा दूर रहताहै इसलिये वहां दीपक आदिकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती । जिससमय वहांकी स्त्रियां अटारियोंपर चढ़ जाती हैं उससमय चंद्रमा उनका चूड़ामणि तुल्य जान पड़ता है । और तारागण चूड़ामणिमें जुड़े हुवे सफेद मोतीसरीखे मालूम पड़ते हैं । दारानगरका स्वामी भलेप्रकार नीतिकलामें 'निष्णात : क्षत्रियवंशी मैं राजा मणिमाली था । मेरी स्त्री जोकि अतिशय गुणवती थी गुणमाला थी । गुणमालासे उत्पन्न मेरे एक पुत्र था उसकानाम मणिशेखर था और वह अतिशय नीति युक्त था। मैं भोगोंमें इतना मस्त था कि मुझे जाते हुवे काल का भी ज्ञान नथा। मैं सदा जिनधर्मका पालन करता हुआ आनंदसे राज्य करता था। _____ कदाचित् मैं आनंदमें बैठा था । मेरी पटरानी भेरे केशोंको सम्भाल रही थी । अचानकही उसै मेरे शिरमें एक सफेद वाल दीखपड़ा । वह एकदम अचम्भेमें पड़ गई । और कहने लगी--हाय जिस यमराजने बड़े बड़े चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायणोंकोंभी अपना कवल वनालिया उसी यमराजका दूत यहां आकरभी प्रकट होगया । वस !!! ज्योंही मैंने रानी गुणमालाके ये वचन सुने मेरी आनंद तरंगें एक ओर किनारा कर गई । मेरे मुखसे उससमय ये ही शब्द निकले । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) प्रिये ! समस्त लोकको भय उत्पन्न करनेवाला वह यम दूत कहां है । मुझे भी शीघ्र दिखा । मैं उसे देखना चाहता हूं मेरे वचन सुनते ही रानीने वाल चट उखाड़ लिया । और मेरी हथेली पर रखदिया । ज्योंही मैंने अपना सफेद बाल देखा । अपना काल अति समीप जान मैं चट राज्यसे विरक्त होगया । जो विषय भोग कुछ समय पहिले मुझे अमृत जान पड़ते थे वे ही हलाहल विष बनगये । मैं अपने प्यारे पुत्र और स्त्रियोंको भी अपना शत्रु समझने लगा | मैंने शीघ्र ही चंद्रशेखरको बुलाया — और राज्यकार्य उसै सौंप तत्काल वन को ओर चल पड़ा । वनमें आते ही मुझे मुनिवर गुणसागर के दर्शन हवे | मैंने शीघ्र ही अनेक राजाओंके साथ मुनिदीक्षा धारण करली । जेनसिद्धांतके पढ़ने में अपना मन लगाया । एवं जब मैं जैनसिद्धांतका भलेप्रकार ज्ञाता होगया और उग्र तपस्वी बनगया तो मैं सिंहके समान इस पृथ्वीमंडल पर अकेला ही विहार करने लगा - राजन् ! अनेक देश एवं नगरोंमें विहार करता २ किसी दिन मैं उज्जयनी नगरीमें जा पहुंचा । और वहांकी श्मसान भूमिमें मुर्दे के समान आसन बांधकर ध्यान के लिये बैठगया । वह समय रात्रिका था इसलिये एक मंत्रवादी जोकि अनेक मत्रोंमें निष्णात, वैताली विद्याकी सिद्धिका इच्छुक, एवं जातिका कौली था वहां आया । और मेरे शरीरको मृतशरीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) जान तत्काल उसने मेरे मस्तकपर एक चूल्हा रखदिया एवं किसी मृतकपाल में दूध और चावल डालकर, चूल्हे में अग्नि वालकर वह खीर पकाने लग गया । वस फिर क्या था ? मंत्रबादी तो यह समझ कि कव जल्दी खीर पके और कब जल्दी मंत्र सिद्ध हो' बड़ी तेजीसे चूल्हे में लकड़ी झोंककर आग वालने लगा | और आगबलनेसे जब मुझे मस्तक और मुखमें तीव्र वेद जान पड़ी तो मैं कर्म रहित शुद्ध आत्माका स्मरणकर इस प्रकार भावना भा निकला --- रे आत्मन् ? तुझे इससमय इसदुःखसे व्याकुल न होना चाहिये । तूने अनेकवार भयंकर नरक दुःख भोगे हैं। नरक दुःखोंके सामने यह अग्निका दुःख कुछ दुःख नहीं | देख ! नरक में नारकियोंको क्षधा तो इतनी अधिक है कि यदि मिले तो वे त्रिलोकका अन्न खा जाय किंतु उन्हें मिलता कणमात्रभी नहीं इसलिये वे अतिशय क्लेश सहते हैं । वहां पर नारकियों को गरम लोहे की कढ़ाइयोंमें डाला जाता है उनके शरीरके खंड किये जाते हैं उससमय उन्हें परम दुःख भोगना पड़ता है । हजार विच्छुओं के काटनेसे जैसी शरीरमें अग्नि भैराती है उसी प्रकार नरकभूमिस्पर्शसे नारकियोंको दुःख भोगने पड़ते हैं । यदि नरककी मिट्टीका छोटासा टुकड़ाभी यहां आजाय तो उसकी दुर्गंधिसे कोसो दूर बैठे जीव शीघ्र मर जांय किंतु अभागे नारकी रातदिन उसमें पड़े रहते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) तुझे अनेकवार नरक में जाकर ये दुःख भोगने पड़े हैं । जब जब तू एकेंद्रिय द्वींद्रिय आदि विकलेंद्रिय योनियों में रहा है उससमय भी तूने अनेक दुःख भोगे हैं । अनेकवार तू निगोदा में भी गया है। और वहांके दुःख कितने कठिन हैं यह बात भी तू जानता है । तुझे इससमय जराभी विचलित नहीं होना चाहिये | भाग्य वश यह नरभव मिला है । प्रसन्न चित्त होकर तुझे व्रतसिद्धिकेलिये परीषह सहिनी । चाहिये ध्यान रख ! परीषड् सहनकरनेसे ही व्रतसिद्धि और सच्चा आत्मीय सुख मिल सकता है | राजन् ? मैं तो इसप्रकार अनित्यत्व भावना भा रहा था । मुझे अपने तन बदनका भी होश हवास न था । अचानक ही जव अग्नि जोरसे बलने लगी तो मेरे मस्तककी नसें भी सकुड़ने लगीं । मेरे मस्तकपर रहा कपाल बेहदरीति से हिलने लगा और भलीभांति कौलिक द्वारा डाटे जानेपर तत्काल जमीनपर गिर गया। जो कुछ उसमें दूध चावल आदि चीजें थीं मिट्टी में मिलगईं और शीघ्रही अग्नि शांत होगई । वस फिर क्या था ? ज्योंही उस कौलिकने यह दृश्य देखा मारे भयके उसके पेटमें पानी होगया । वह यह जान कि मंत्र मुझपर कुपित होगया है वहांसे तत्काल घर भगा और शीघ्र ही अपने घर आगया । कुछ समय बाद रात्रिमें मुर्देके धोखे से मुनिराज पर घोर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) उपसर्ग हुवा है ! यह बात दारा नगरनिवासी सज्जनोंका मानो जतलाता हुवा सूर्य प्राची दिशामें उदित होगया । जिनेंद्र रूपी सूर्यके उदयसे जैसा मिथ्यात्व अंधकार तत्काल विलयको प्राप्त होजाता है और भव्योंके चित्तरूपी कमल विक सित होजाते हैं । उसीप्रकार सूर्यके उदयसे गाढ़मी अंधकार बांतकी बातमें नष्ट . होगया। जहां तहां सरोवरामें कमलभी खिलगये । उससमय रातभरके वियोगी चकवा चकवी सूर्योदय से . अति आनंदित हुवे । और परम्पर प्रेमालिंगन कर अपनेको धन्य समझने लगे। किंतु रात्रिमें अपनी प्राणण्यारियोंके साथ क्रीड़ा करनेवाले कामीजन अति दुःख मानने लगे और बारबार सूर्यकी निंदा करने लगे । असली पूछिये तो सूर्य एकप्रकारका उत्तमसाधु है क्योंकि साधु जिसप्रकार भव्य जीवोंको उत्तममार्गका दर्शक होता है सूर्यभी पथिकोंको उत्तम मार्गका दर्शक है । साधु जैसा भव्यजीवांके अज्ञान अंधकारको दूर करता है सूर्यभी उसीप्रकार दूर करनेवाला है । साधु जिस प्रकार जीव अजीव आदि पदाथाका विचार करता है उनके साथ संबंध रखता है । उसीप्रकार सूर्यभी अपनी किरणोंसे समस्तपदार्थोसे संबंध रखता है । देदीप्यमान ' सूर्यके तेजके सामने चंद्रमा उससमय सूखे पत्ते के समान जान पड़ने लगा। और तारागण तो लापता होगये ? श्मसानभूमिके पास एक वाग था इसलिये उससमय एक माली फूल तोड़नेके लिए वहां आया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) अचानक उसकी दृष्टि मुझपर पड़ी । ज्योंही उसने मुझे अर्धदग्ध मम्तक युक्त और वेहोश देखा मारे आश्चर्यके उसका ठिकाना न रहा । वह शीघूही. भागकर नगरमें आया. और जिनधर्मके परम भक्त जो जिनदत्त आदि सेठ थे उनसे मेरा। सारा हाल कह सुनाया । ... ___ ज्योही जिनदत्त आदि सेठोंने मालीके मुझसे मेरी ऐसी। भयंकर दशा सुनी उन्हें परमदुःख हुवः।। मारे दुःखके वे हाहाकार करने लगे और सबके सब मिलकर तत्काल श्मसान। भृमिकी ओर चलदिये। ____श्मसानभूमिमें आकर मुझै उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम : किया । मेरी ऐसी बुरी अवस्था देख वे और भी अधिक दुःख मनाने लगे। किस दुष्टने मुनिराजपर यह उपसर्ग किया है ? इसप्रकार क्रुद्ध हो भव्य जिनदत्तने मुझै शीघ्र उठाया । और व्याधिके दूर करनेके लिये मुझे अपने घर लेगया । जिस समय मैं घर पहुंच गया.। तत्काल जिनदत्त किसी वैद्यक छ गया। मेरी व्याधिके शांत्यर्थ वैद्यसे उसने औषधि मांगी और मेरी सारी . अवस्था. कह मनाई। भव्य जिनदत्तके मुखसे मुनि राजकी. यह अवस्था मुन वैद्यने कहा प्रिय जिनदत्त ! मुनिराजका रोग अनिवार्य है। जब तक लाक्षामूल तेल न मिलैगा कदापि मैं उनकी . चिकित्सा नहिं करसकता। लाक्षामूल तैलसे ही यह रोग जा सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिये तुम्हें लाक्षामूल रसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । वैद्यराजके ऐसे बचन सुनकर जिनदत्तने कहा वैद्यराज ! कृपया शीघ्र कहैं लाक्षामूल तेल कहां कैसे मिलेगा ? मैं उसके लिये प्रयत्न करूं । वैद्यराजने कहा । इसी नगरमे भट्ट सोमशमो नामका ब्राह्मण निवास करता है। लाक्षामूल तेल उसीके यहां मिल सकता है और कहीं नहीं तुम उसके घर जाओ और शीघ्र वह तेल लेआओ वैद्यराजके ऐसे वचन सुन जिनदत्त शीघ्र ही भट्टसोमशर्माके घर गया । वहां उसकी तुकारी नामकी शुभ भायाको देखकर और उसै वहिन इस शब्दसे पुकार कर यह निवेदन करने लगा। वहिन ! मुनिवर जिनपालका आधामस्तक किसी दुष्टने जलादिया है। उनके मस्तकमें इससमय प्रवल पीड़ा है कृपा कर मुनिपीड़ा की निवृत्तिके लिये मूल्य लेकर मुझे कुछ लाक्षा मूल तेल देदीजिये । जिनदत्तकी ऐसी प्रियवोली सुन तुंकारी अति प्रसन्न हुई । उसने शीघ्र ही जिनदत्तसे कहा । प्रिय जिनदत्त ! यदि मुनि पीड़ा दूरकरनेके लिये तुम्हें तेलकी आवश्यकता है तो आप लेजाइये मैं आपसे कीमत न लूंगी । जो मनुष्य इसभवे जीवोंको औषधि प्रदान करते हैं परभवमें उन्हे कोई रोग नहि सताता । आप निर्भय हो मेरी अटारी चले जाइये । वहां बहुत से घड़े तेलके रक्खें हैं जितना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हें चाहिये उतना लेजाइये । तुंकारीके ऐसे दयामय वचन सुन जिनदत्त अति प्रसन्न हुआ। अटारी पर चढ़कर उसने चट एक घड़ा उठाकर अपने कंधेपर रखलिया और चलने लगा। ____घड़ा लेकर जिनदत्त कुछ ही दूर गया था अचानक ही उसके कंधेसे धड़ा गिर गया । और उसमें जितना तेल था सब फैलकर मिट्टीमें मिल गया । तेलको इसप्रकार जमीन पर गिरा देख जिनदत्तका शरीर मारे भयके कप गया। वह बिचारने लगा हाय !!! वड़ा अनर्थ होगया ? बड़ी कठिनतासे यह तेल हाथ आया था सो अब सर्वथा नष्ट होगया । जाने अव मुझे तेलं मिलैगा या नहिं ? । अहा !!! अब तुंकारी मुझ पर जरूर नाराज होगी मैंने बढ़ा अनर्थ किया तथा इसप्रकार अपने मनमें कुछसमय संकल्प विकल्पकर वह फिर तुकारीके पास गया । डरते डरते उसे सब हाल कह सुनाया और तेलके लिये फिरसे निवेदन किया । तुकारी परम भद्रा थी उसने नुक्सान पर कुछ भी ध्यान न दिया । किं तु शांतिपूर्वक उसने यही कहा। प्रिय जिनदत्त ! यदि वह तेल फैल गया तो फैल जाने दे मेरे यहां बहुत तेल रक्खा है जितना तुझै चाहिये उतना लंजा और मुनिराजकी पीड़ा दूर करनेका उपाय कर । ब्राह्मणी के ऐसे उत्तम किंतु संतोषप्रद वचन सुन जिनदत्तका सारा भय दूर होगया । ब्राह्मणीकी आज्ञानुसार उसने शीघ्र ही दूसरा घड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने कंधेपर रख लिया। किंतु ज्योंही बड़ा लेकर जिनदत्त कुछ चला ठोकर खा चट जमीन पर गिरगया और घड़ाके फूट जाने से फिर सारा तेल फैलगया । ब्राह्मणीकी आज्ञानुसार जिन दत्तने तीसरा घड़ा भी अपने कंधेपर रक्खा कंधेपर रखते ही वह भी फूट गया । इसप्रकार बराबर जव तीन घड़े फूट गये तो जिनजत्तको परम खेद हुआ खिन्न चित्त हो उसने ब्राह्मणीसे फिर सब हाल जाकर कह सुनाया । और कहते कहते उसका मुख फीका पड़ गया। तीनों घडोंके इसप्रकार फूटजानेसे सेठि जिनदत्तको अति दुःखित देख तुंकारीका चित्त करुणासे आई होगया । डाट डपटके वदले उसने जिनदत्तसे यही कहा। प्यारे भाई ! यदि तीन घड़े फूट गये हैं तो फूट जाने दे । उसकेलिये किसीवातका भय मत कर । मेरे घरमें बहुतसे घड़े रक्खे हैं : जब तक तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध न हो तब तक तुम एक एक कर सबोंको ले जाओ । ब्राह्मणीके ऐसे स्नेह भरे वचन सुन जिनदत्तको परम आनंद हुवा। उसकी आज्ञानुसार उसने शीघ्र ही घड़ा कंधेपर रखलिया और अपने घरकी ओर चलदिया। ___ ब्राह्मणीके ऐसे उत्तम वर्तावसे जिनदत्तके चित्तपर असा धारण असर पड़ गया था । ब्राह्मणीके स्नेहयुक्त वचनोंने उसै अपना पक्का दास वनालिया था । इसलिये ज्योंही वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) अपने घर पहुंचा घड़ा रखकर वह फिर तुंकारके घर आया और विनयपूर्वक इसप्रकार निवेदन करनेलगा। प्रियवहिन ! तू धन्य है । तेरा मन सर्वथा धर्ममे दृढ़ है । तू क्षमाकी भंडार है। मैंने आज तक तेरे समान कोई स्त्रीरत्न नहि देखा।जैसी क्षमा तुझमें है संसारमें किसीमें नहीं । मुझसे बराबर तीन घड़े फूट गये । तेरा बहुत नुक्सान होगया तथापि तुझे जरा भी क्रोध न आया । जिनदत्तके ऐसे प्रशंसा युक्त किन्तु उत्तम वचन सुन तुंकारीने कहा । भाई जिनदत्त ! क्रोधका भयंकर फल में चख चुकी हूं। इसलिये मैंने क्रोध कुछ शांत करदिया है मैं जरा जरासी बात पर क्रोध नहिं करती । तुंकारीके ऐसे वचन सुन जिनदत्तने कहा बहिन ! तुम क्रोधका फल कब चख चुको हो कृपाकर मुझै उसका सविस्तर समाचार सुनाओ । इस कथाके सुननेकी मुझे विशेष लालसा हैं । जिनदत्तके ऐसे बचन सुन तुकारीने कहा। ___ भाई ! यदि तुझे इस कथाके सुननेकी अभिलाषा है तो मैं कहती हूं तू ध्यानपूर्वक सुन । ____ इसी पृथ्वीतलमें आनंदित जनोंसे परिपूर्ण, मनोहर, एवं आनंदका आकर एक आनंद नामका नगर है । आनंद नगरमें अक्षय संपत्तिका धारक कोई शिवशर्मा नामका ब्राह्मग निवास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ करता था । शिवशर्माकी प्रियभार्या कमलश्री थी। कमलश्री अतिशय मनोहरा सुवर्णवर्णा एवं विशालनेत्रा थी। शिवशर्मा के प्रियभार्या कमलश्रीसे उत्पन्न आठ पुत्ररत्न थे । आठो ही पुत्र इंद्रके समान सुन्दर थे। भव्य थे। और धन आदिसे मत्त थे । उन आठो भाइयोंके वीच मैं अकेली भैन थी । मेरा नाम भद्रा था । पिता माताका मुझपर असीम प्रेम था। सदा वे मेर। सन्मान करते रहते थे । मेरे भाई भी मुझपर परम स्नेह रखते थे। मैं अतिशय रूपवती और समस्त स्त्रियोंमें सारभूत थी इसलिए मेरी भोजाई भी मेरा पूरा पूरा सन्मान करती थी । पाड़पड़ोसी भी मुझपर अधिक प्रेम रखते थे और मुझै शुभनामसे. पुकारते थे। मुझै तुंकार शब्दसे बड़ी चिड़ थी। इसलिये मेरे पिताने राजसभामें भी जाकर कह दिया था। राजन् ! मेरी पुत्री तुकार शब्दसे बहुत चिड़ती है इसलिये क्यातो मंत्री क्या नगर निवासी और बांधव, कोई भी उसके सामने तुंकार शब्द न कहै । मेरे पिताके ऐसे वचन सुन राजाने मुझे भी बुलाया । राजाकी आज्ञानुसार मैं दरबारमें गई । मैने वहां स्पष्टरीतिसे यह कह दिया कि जो मुझे तुकारी शब्दसे पुकारै गा राजाके सामने ही मैं उसके अनेक अनर्थ कर पाडूंगी । तथा ऐसा कहकर मैं अपने घर लौट आई । उसदिनसे सब लोगोंने चिड़से मेरा नाम तुंकारी ही रख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) दिया । और मैं क्रोध पूर्वक माता पिताके घरमें रहने लगी । कदाचित् शुशुभ्र नामके वनमें एक परम पवित्र मुनिराज जिनका नाम गुणसागर था, आये। मुनिराजका आगमन समाचार सुन राजा आदि समस्त लोग उनकी बंदनार्थ गये । मुनिराज के पास पहुचंकर सबने भक्तिभावसे उन्हें नमस्कार किया । और सबके सब उनके पास भूमि में बैठ गये। उनसबोंको उपदेश श्रवणकेलिये लालायित देख मुनिराजने उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सर्वोको परम संतोष हुवा । और अपनी सामर्थ्य के अनुसार यथायोग्य सबोंने व्रतभी धारण किये। मैं भी मुनिराजका उपदेश सुन रही थी मैंने भी श्रावक व्रत धारण कर लिये । किंतु व्रत धारण करते समय तुंकार शब्दसे उत्पन्न क्रोधका त्याग नहीं किया था । मुनिराजके उपदेशके समाप्त होजाने पर सबलोग नगर में आगये । मैं भी अपने घर आगई। मेरे भाई जैसे आठ मदयुक्त थे उनके संसर्गसे मै भी आठ मदयुक्त होगई । जिस बात की मैं हठ करती थी उसे पूरा करके मानती । थी । यहां तक कि मुझे हठीली जान मेरा कोई विवाह भी नहीं करता था इसलिये जिससमय मै युवती हुई तो मेरे पिताको परम कष्ट होने लगा | मेरी विवाह सम्बंधी चिंता उन्हें रात दिन सताने लगी । उसीसमय एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण था । सोमशर्मा पक्का ज्वारी था । कदाचित् सोमशर्मा जूवा खेल रहा था । उसने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) किसी वाजूपर अपना सब धन रखदिया । और तीव्र दुर्भा - ग्योदयसे उसै वह हार गया । सब धनके हारने पर जब ज्वारियोंने सोमशर्मा से अपना धन मांगा तो वह न देसका इसलिये ज्वारियोंने उसै किसी वृक्षसे बांधदिया । और बुरी तरह लात डंडे घूसों से मारने लगे । शिवशर्मा के कान तक भी यह बात पहुंची वह भगता भगता शीघ्र ही सोमशर्माक पास गया और उससे इसप्रकार कहने लगा 1 प्रिय ब्राह्मण ! यदि तुम मेरी पुत्रीके साथ विवाह करना स्वीकार करो तो मैं इन ज्वारियोंका कर्जा पटादू और तुम्हें इनके चंगुल से छुटालू । बस हे श्रेष्ठिन् ! मेरे पिताके ऐसे हितकारी वचन सुन सोमशर्माने कहा -- ब्राह्मणसरदार ! आपकी कन्या में ऐसा कोनसा दुर्गुण है जिससे उसकेलिए कोई योग्य वर नहीं मिलता और पापी, ज्वारी, दुष्टोंद्वारादंडित, मुझ न कुछ पुरुषके साथ उसका विवाह करना चाहते हैं। सोमशर्मा के ऐसे बचन सुन शिवशर्माने कहाप्रियवर ! मेरी पुत्रीमें रूप आदिका कुछभी दोष नहीं है वह अतिशय रूपवती सुंदरी है । अनेक कलाकौशलोंकी भंडार है । किंतु उसमें क्रोधकी कुछ मात्रा अधिक हैं । वह कार शब्दको सहन नहि करसकती | वस जो कुछ दोष है सो यही है । तुम अपने जीवन सुख भोगनेके लिये यही काम करना कि हम तुम का ही व्यवहार रखना । मैं तूका न हिं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) इसके अतिरिक्त दूसरा तुम्हें कोई कष्ट न भोगना पड़ेगा । शिव शर्माके ऐसे वचन सन और उस कष्टको कुछ कष्ट न समझ सोमशर्म ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार करलिया। एवं मेरे पिताने तत्काल ज्वारियोंका कर्ज पटादिया और आनंद पूर्वक उसै अपने घर ले आये । कुछ दिन वाद किसी उत्तम मुहूर्तमें सोमशर्माके साथ मेरा विवाह होगया। मैं उसके साथ आनंद पूर्वक भोग भोगने लगी । वह मुझसे सदा तुमका व्यवहार रखता था । इसलिये मुझे परम संतोष रहता था । एवं हम दोनों दंपतीका आपसमें स्नेह वढ़ता ही चल जाता था। ____ कदाचित् सोमशर्मा किसी कार्यवश बाहर गये । उन्हें वहां कोई ऐसा स्थान दखिपड़ा जहां बहुतसे नृत्य आदि तमाशे होरहे थे। वे चट वहां बैठि गये और तमाशा देखते देखते उन्हें अपने समयका भी कुछ खयाल न रहा। जब बहुतसी रात्रि बीत चुकी । खेल भी प्रायः समाप्त होने पर आचुका । उन्हें घरकी याद आई। वे शीघू अपने घरके द्वारपर आकर इसप्रकार पुकारने लगे। प्राणवल्लभे ! कृपाकर आप किवाड़ खोलें । मैं दरवाजे पर खड़ा हूं। मैं उससमय अर्धनिद्रित थी इसलिये दो एक तो मैं अवाज उनकी न सुन सकी किंतु जब वे स्वभावसे वार वार पुकारने लगे तो मैंने उनकी आवाज तो सुनली परंतु ये इतनी रात तक कहा रहे क्यों अपने समय पर अपने घर न आये' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) ऐसा उनपर दोषारोपण कर फिर भी मैंने आवाज न दी और न दरवाजा खोला । कुछ समय बाद वे मुझे 'तुम तुम' शब्दसे पुकारने लगे तो भी मैंने उन्हें उत्तर न दिया प्रत्युत मैं उनपर अधिक घृणा करती चलीगई और मेरा गर्भ भी बढ़ता चलागया । अंतमें जब सोमशर्मा अधिक घबड़ागये, मेरी ओरसे उन्हें कुछ भी जवाब न मिला तो उन्हें क्रोध आ गया । क्रोधके आवेशमें उन्हें कुछ न सूझा वे मुझै फिर इस रीतिसे पुकारने लगे। ___ अरी तुकारी ! किवाड़ तू क्यों नहिं जल्दी खोलती दरवाजे पर खड़े खड़े हमैं अधिक समय बीत चुका है रात्रिके अधिक व्यतीत होजानेसे हम कष्ट भोग रहे हैं। बस फिर क्या था ! रे भाई जिनदत्त ! ज्योंही मैंने अपने पतिके मुखसे तुंकारी शब्द सुना मेरा क्रोधके मारे शरीर भभक उठा। मेरे पति अर्धरात्रिके वीतने पर घर आये थे इसलिये मैं स्वभावसे ही उनपर कुपित वैठी थी किंतु तुंकारी शब्दने मुझै वेहद कुपित वना दिया । मुझे उससमय और कुछ न सूझा किवाड़ खोल मैं घरसे निकली ओर बनकी ओर चलपड़ी। उससमय रात्रि अधिक वीत चुकी थी।नगरमें चारो ओर सन्नाटा छरहा था उससमय उल्लू चोर आदिक ही आनंदसे जहां तहां भ्रमण करते फिरते थे । और कोई नहिं जागता था । मैं थोडी ही दूर अपने घरसे गई थी । मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५९ ) mmmm वदन पर कीमती भूषण वस्त्र थे । इसलिये मुझपर चोरोंकी दृष्टि पड़ी। वे शाधे मुझपर वाघसरखेि टूटपड़े । और मुझे कड़ी रीतिसे पकड़कर उन्होंने तत्काल अपने सरदार किसी भलिके पास पहुंचा दिया । चोराका सरदार वह भील बड़ा दुष्ट था ज्योही उसने मुझे देखा वह अति प्रसन्न हुआ। और इसप्रकार कहने लगा। ____वाले ! तुझै जिसबातकी आवश्यकता हो कह मैं उसै करनेकेलिये तयार हूं । तू मेरी प्राणवल्लभा वनना स्वीकार करले । मैं तुझे अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारी रक्खूगा । तू किसीप्रकार अपने चित्तमें भय न कर । भिल्लपतिके ऐसे वचन सुन मैं भोंचक रहगई । किंतु मैंने धैर्य हाथसे न जाने दिया इसलिये मैंने शीघ्र ही प्रोढ़ किंतु शांतिपूर्वक इसप्रकार जवाब दिया---- ___ भिल्लसरदार ! आपका यह कथन सर्वथा विरुद्ध और मलिन है । जो स्त्रियां उत्तमवंशमें उत्पन्न हुई हैं। और जो मनुप्य कुलीन हैं कदापि उन्हें अपना शीलवूत नष्ट न करना चाहिये। आप यह विश्वास रक्खें जो जीव अपने शीलवूतकी कुछभी परवा न कर दुष्कर्म करपाड़ते हैं उन्हें दोनों जन्मोंमें अनेक दुःख सहने पड़ते हैं। संसारमें उनको कोई भला नहीं कहता । उससमय वह चोरोंका सरदार काम बाणसे विद्ध था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) भला वह धर्म अधर्मको क्या समझ सकता था । इसलिये तप्त लोहपिंडपर जलबूंद जैसी तत्काल नष्ट होजाती है- उसका नाम निशान भी नजर नहीं आता। वैसा ही मे रे वचनोंका भिल्लराजके चित्तपर जराभी असर न पड़ा वह, 'कबूतरी पर जैसा बाज टूटता है' एकदम मुझपर टूटपड़ा और मुझे अपनी दोनों भुजाओं में भरकर कामचेष्टा करनेकेलिये उद्यत होगया । जब मैंने उसकी यह घृणित अवस्था देखी तो मैं अपने पवित्र शीलवूतकी रक्षार्थ आसन बांधकर निश्चल बैठिगई मैंने उसकी ओर निहारा तक न । बहुतसमय तक प्रयत्न करनेपर भी जब उसपापीका उद्देश पूर्ण न हो सका तो वह आते कुपित होगया । उसने शीघ्र ही अपने साथियों के हाथ मु वेडाला और अपने क्रोधी शांति की । 1 उसके साथी भी परम दुष्ट थे ---- ज्योंही उन्होंने मुझे देखा देवांगना के समान परम सुंदरी जान वे भी कामबाणों से व्याकुल होगये । और बिना समझे बूझे मेरे शीलवूतका खंडन करना प्रारंभ करदिया । उससमय कोई वनरक्षिका देवी यह दृश्य देख रही थी इसलिये ज्योंही वे दुष्ट मेरे पास आये मारेडंडों के देवीने उन्हें ठीक करदिया । और वह मुझे अपने यहां लेई | I भाई जिनदत्त ! यद्यपि मैं अतिशय पापिनी थी तोभी मैं अपने शीलवत में दृढ़ थी इसलिये उस भयंकर समयमें उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) देवीने मेरी रक्षा की । तुम निश्चय समझो जो मनुष्य अपनी प्रतिज्ञापर दृढ़ रहते हैं देवभी उनके दास बन जाते हैं और समस्त दुःख उनके एक ओर किनारा करजाते हैं । ___जिससमय देवी मुझे अपने घर लेगई थी उससमय मेरे पास कोई वस्त्र न था इसलिये उसदेवीने मुझ एक ऐसा कंबल जो अनेक जूवां कड़िी आदि जीवोंसे व्याप्त था। जगह २. उसमें रक्त पीव कीचड़ लगी थी देदिया और मुझे वही रहनेकी आज्ञा दी । मैंने भी कंबल लेलिया और प्रबलपापो दयसे उस क्षेत्रमें उत्पन्न कादों आदि धान्योंको देखती हुई रहने लगी । इतने परभी मेरे दुःखोंकी शांति न हुई प्रतिपक्षमें वह देवी मेरे शिरके केशोंका मोचन करती थी और अपने वस्त्रके रंगनेकेलिये उससे रक्त निकाला करती थी । रक्त निकालते समय मेरे मस्तकमें पीड़ा होती थी इसलिये वह देवी उस पीडाको लाक्षामूल तेल लगाकर दूर करती थी। ___कदाचित् मेरा परमस्नेही भाई यौवनदेव उज्जयनीके राजाने किसी कार्यवश वडी विभूतिके साथ राजा पारासर के पास भेजा । वह अपना कार्य समाप्त कर उज्जयनी लोट रहा था । मार्गमें कुछ समयकलिये जिसवनमें मैं रहती थी उसी वनमें वह ठहर गया । और मुझ अभागिनी पर उसकी दृष्टि पड़ गई । ज्योंही उसने मुझे देखा बड़े स्नेहसे मुझे अपने हृदय लगाया । और बड़ी कठिनतासे उसदेवकि चंगुलसे निकाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) कर मुझे उज्जयनी लेगया। जिससमय मेरी माता आदि कुटुंबियोंने मुझे देखा उन्हे परम दुःख हुआ । मेरे शरीरकी दशा देख मेरी मा अधिक दुःख मानने लगी मेरे मिलापसे मेरा समस्त बंधुवर्ग अति प्रसन्न हुवा । एवं कुछ दिन बाद मेरा भाई धनदेव मुझै यहां मेरे पतिके घर पहुंचागया । प्रिय भाई जबसे मैं यहां आई हूं तबसे मैंने जरा जरासी बात पर क्रोध करना छोड़ दिया है। मैं क्रोधका फल भयंकर चख चुकी हूं इसलिये और भी मै क्रोधकी मात्रा दिनों दिन कमती करती जाती हूं। आप निश्चय समझिये यह धर्म रूपी वृक्ष सम्यग्दर्शनरूपी जड़का धारक, शास्त्ररूपी पीड़ कर युक्त, दानरूपी शाखाओंसे शोभित, अनेक प्रकारके गुणरूपी पत्तोंसे व्याप्त, कीर्तिरूपी पुष्पोंसे सुसज्जित, व्रतरूपी उत्तम आलवालसे मनोहर, मोक्षरूपी फलका देनेवाला, क्षमारूपी जलसे बढ़ाहुवा परम पवित्र है । यदि इसमें किसीरीतिसे क्रोधरूपी अग्नि प्रवेश करजाय तो वह कितनाभी बड़ा क्यों न हो तत्काल भस्म हो जाता है इसलिये जो मनुष्य अपना हित चाहते हैं उन्हें ऐसा भयंकर फल देनेवाला क्रोध सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।। ___ ब्राह्मणी तुंकारीके मुखसे ऐसी कथा सुन सेठि जिनदत्त अति प्रसन्न हुवा । वह तुकारीकी बारबार प्रशंसा करने लगा एवं प्रशंसा करता २ कुछ समय बाद अपने घर आया । लाक्षामूल तेल एवं अन्यान्य औषधियोंसे जिनदत्त मेरी (मुनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) राजकी) परिचर्या करने लगा। कुछ दिन बाद मेरे रोगकी शांति हई । मुझे नीरोग देख जिनदत्तको परम संतोष हुवा । मेरी नीरोगताकी खशीमें जिनदत्त आदि सेठोंने अति उत्सव मनाया । जहां तहां जिनमंदिरोंमें विधान होने लगे। एवं कानों को अति प्रिय उत्तमोत्तम बाजे भी बजने लगे। राजन् श्रेणिक : इधर तो मैं नारोग हुवा और उधर वर्षाकालभी आगया । उससमय आनंदसे वृष्टि होने लगी। जहां तहां विजली चमकने लगी। एवं प्रत्येक दिशामें मेघध्वनि सुन पड़ी । उससमय हरित वनस्पतिसे आच्छादित, जलवृंदोंसे व्याप्त, पृथ्वी अति मनोहर नजर आने लगी । जैसे हरित कांतमणिपर जड़े हुवे सफेद मोती शोभित होते हैं हरी वनस्पतिपर स्थित जल वृंदे उससमय ठीक वैसी ही शोभाको धारण करती थीं। उससमय मयूर चारो ओर आनंद शब्दकरते थे । विरहिणी कामिनियोंके लिये वह मेघमाला जलती हुई अग्नि ज्वालाके समान थी । और अपनी प्राण वल्लभाके अधरामृत पानके लोलुपी, क्षणभरभी उसके विरहको सहन न करनेवाले कामियोंके मार्गको रोकनेवाली थी। जिससमय विरहिणी स्त्रियां अपने २ घोंसलोंमें आनंद पूर्वक प्रेमालिंगन करते हुवे वगलीवगलोंको देखती थीं उन्हें परम दुःख होता था । वे अपने मनमें ऐसा विचार करती थीं । हाय !!! यह पतिविरह दुःख हमपर कहांसे टूट पड़ा। क्या यह दुःख हमारे ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) लिये था ! हम कैसे इस दुःखको सहन करें । इसप्रकार जीवोंको स्वभावसे ही सुखदुःखके देनेवाले वर्षाकालके आजानेसे जिनदत्त आदिने चतुर्मास के लिये मुझे उस नगर में ही रहने के लिये आग्रह किया इसलिये मैं वहीं रहगया एवं ध्यान में दत्तचित्त, जीवोंको उत्तम मार्गका उपदेश देता हुवा मैं सुख पूर्वक जिनदत्त के घर में रहने लगा । .. सेठि जिनदत्तका पुत्र जोकि अति व्यासनी और दुर्घ्य नी था कुवेरदत्त था । कुवेरदासे जिनदत्त धन आदि के विषयमें सदा शंकित रहता था । कदाचित् सेठि जिनदत्तने एक तामेके घड़ेको रत्नोंसे भरकर और मेरे सिंहासन के नीचे एक गहरा गढ़ा खोदकर चुपचाप रखदिया किंतु घड़ा रखते समय कुवेरदत्त मेरे सिंहासनके नीचे छिपा था इसलिये उसने यह सब दृश्य देख लिया । और कुछ दिन बाद वहांसे उस घड़ेको उखाड़ कर अपने परिचित स्थान पर उसने रख दिया । कुछ दिन वाद चतुर्मास समाप्त होगया । मैंने भी अपना ध्यान समाप्त करदिया । एवं हेयोपादेय विचार में तत्पर, ईर्या समिति पूर्वक मैं वहांसे निकला और वनकी ओर चलदिया | मेरे चले जानेके पश्चात् सेठि जिनदत्तको अपने धन की याद आई । जिस स्थान पर उसने रत्न भरा घड़ा रक्खा www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) था तत्काल उसे खोदा। वहां घड़ा था नहिं इस लिये जब उसै घड़ा न मिला तो वह इस प्रकार संकल्प विकल्प करने लगा हाय ! मेरा धन कहां गया ? किसने लेलिया ? अरे मेरे प्राणोंके समान, यत्नसे सुरक्षित, धन अव किसके पास होगा ! हाय रक्षार्थ मैंने दूसरी जगहसे लाकर यहां रक्खा था उसै यहांसे भी किसी चोर ने चुरा लिया ? जब वादही खेत खाने लगी तो दूसरा मनुप्य कैसे उसकी रक्षा कर सकता है। मुनिराजके सिवाय इस स्थान पर दूसरा कोई मनुष्य नहिं रहता था । शायद मुनिराजके परिणामोंमें मलिनता आ गई हो । उन्होंने ही ले लिया हो । पूछनेमें कोई हानि नहिं चलूं मुनिराज से पूछ लूं तथा ऐसा कुछ समयपयत विचारकर शीघ्र ही जिनदत्तने कुछ नोकर मेरे अन्वेषणार्थ भेजे। और स्वयं भी घर से निकल पड़ा । एवं कपटवृत्तिसे जहां तहां मुझे ढूढ़ने लगा। मैं बनमें किसी पर्वतकी तलहटी में ध्यानारूढ़ था। मुझे जिनदत्तकी कपटवृत्तिका कुछ भी ख्याल न था । अचानक ही घूमता घूमता वह मेरे पास आया । भक्तिभावसे मुझे नमस्कार किया एवं कपटवृत्तिसे वह इसप्रकार प्रार्थना करने लगा। ___ प्रभो ! दीनबंधो ! जबसे आपने उज्जयनी छोड़दी है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) ~~ तबसे वहां के निवासी श्रावक बड़ा दुःख मान रहे हैं । आपके चले आनेसे वे अपने को भाग्यहीन समझते हैं । और अहोरात्र आपके दर्शनोंके लिये लालायित रहते हैं । कृपा कर एक समय आप जरूर ही उज्जयनी चलें और उन्हें आनंदित करें पीछे आपके आधीन वात हैं चाहें आप जायें या न जावे | जिनदत्तकी ऐसी वचन भंगी सुन मैं अवाक् रहगया मु शीघ्र ही उसके भीतरी अभिप्रायका ज्ञान होगया । धनके लिये उसका ऐसा वर्ताव सुन मैं अपने मनमें ऐसा विचार करने लगा । यह धन बड़ा निकृष्ट पदार्थ है । यह दुष्ट, जीवों को घोरपापका संचय करानेवाला और अनेक दुःख प्रदान करने वाला है । हाय !!! जो परम मित्र है अपना कैसा भी आहेत नहिं चाहता वह भी इस धनकी कृपासे परम शत्रु बन जाता है और अनेक अहित करनेकेलिये तयार होजाता है । प्राण प्यारी स्त्री इसधनकी कृपासे सर्पिणीके समान भयंकर बन जाती है । जन्मदात्री, सदा हित चाहनेवाली, माता भी धन के चक्र में पड़कर भयंकर व्याघ्री वन जाती है-- धनके लिये पुत्रके मारने में वह जरा भी संकोच नहि करती । धनके फेर में पड़कर एक भाई दूसरे भाईका भी अनिष्ट चिंतन करने लग जाता है । पिता भी धनकी ही कृपासे अपनेको सुखी मानता है । यदि कुटुंबी धन नहिं देखते हैं तो जहां तहां निंदा करते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरते हैं । वहिन भी धनके चक्रमें फसकर हलाहल विष सरीखी जान पड़ती है । निधन भाईके मारनेमें उसै भी जराभी संकोच नहिं होता । हाय !!! समस्त परिग्रहके त्यागी, आत्मीक रसमें लीन, मुनिराजभी इस दुष्ट धनकी कृपासे चोर वन जाते हैं । इस धनकेलिये पिता अपने प्यारे पुत्रको मार देता है । पुत्रभी अपने प्यारे पिताको यमलोक पहुंचा देता है । धनके पीछे भाई भाईको मार देता है । सेवक स्वामीका प्राणघात करदेते हैं। धनकेलिये जीव अपने शरीरकी भी परवाह नहिं करते । हाय !!! ऐसे धनको सहस्रवार धिक्कार है। यह सर्वथा हिंसामय हैं। इसके चक्रमें फसेहुवे जीव कदापि सुखी नहिं होसकते । तथा इसप्रकार धनकी बार बार निंदा करते हुवे मुझै वह पुनः अपने घर लेगया एवं वहां पहुंचकर यह कहने लगा नाथ ! कृपाकर मुझे कोई कथा सुनाइये ? मुझे आपके मुखसे कथाश्रवणकी अधिक अभिलाषा है । उसके ऐसे वचन सुन मैंने कहा जिनदत्त ! तुम्हीं कोई कथा कहो हम तुम्हारे मुखसे ही कथा सुनना चाहते हैं वस फिर क्या था ? वह तो कथा द्वारा अपना भीतरी अभिप्राय जतलाना चाहता ही था इस लिये ज्योंही उसने मेरे वचन सुने वह अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamananews www ( २७४ ) प्रभो आपकी आज्ञानुसार मैं कथा सुनाता हूं आप ध्यान पूर्वक सुनं और मुझे क्षमा करें । इसी जंबूद्वीपमें एक अतिशय मनोहर बनारस नामकी नगरी है । बनारस नगरीका स्वामी जो नीति पूर्वक प्रजाका पालक था राजा जितमित्र था। राजा जितभित्रके यहां एक अगदंकार नामका राजवैद्य था । उसकी स्त्री धनदत्ता अतिशय रूपवती एवं साक्षात् कुवेरकी स्त्रीके समान थी। राज्यकी ओरसे वैद्य अगदंकारको जो आजीविका दी जाती थी उसीसे वह अपना गुजारा करता था एवं इन्द्र के समान उत्तमोत्तम भोग भोगता वहां आनंदसे रहता था। वैद्यवर अगदंकारक अतिशय सुंदर दो पुत्र थे। प्रथम पुत्र धनमित्र था। और दूसरेका नाम धनचंद्र था। दोनों भाई माता पिताके लाडले अधिक थे इसलिए अनेक प्रयत्न करने पर भी वे फूटा अक्षर भी न पढ़ सके । रोग आदिकी परीक्षाका भी उन्हें ज्ञान न हुआ । एवं वे निरक्षर भट्टाचार्य होकर घर में रहने लगे। कुछ दिन बाद अशुभकर्मकी कृपासे वैद्यवर अगदंकार का शरीरांत हो गया । वे धनमित्र और धनचन्द्र अनाथ सरीखे रह गये । राजकी ओरसे जो आजीविका वंधी थी राजाने उसे भी उन्हें मूर्ख जान छनिली। इसलिए उन दोनों भाइयोंको और भी अधिक दुःख हुआ। एवं आतिशय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) अभिमानी किन्तु अतिशय दुःखित वे दोनों भाई कुछ विद्या सीखनेकेलिए चम्पापुरीकी ओर चल दिये । उससमय चम्पापुरीमें कोई शिवमति नाम का ब्राह्मण निवास करता था। शिवभूति वैद्य विद्याका अच्छा ज्ञाता था इसलिये वे दोनों भाई उसके पास गये । एवं कुछ काल वैद्यक शास्त्रों का भलेप्रकार अभ्यास कर वे भी वैद्य विद्याके उत्तम जानकार वन गये । जब उन्होंने देखा कि हम अच्छे विद्वान बन गये तो उन दोनोंने अपनी जन्म भूमि बनारस आनेका विचार किया एवं प्रतिज्ञानुसार वे वहांसे चल भी दिये । मार्ग में वे आनन्द पूर्वक आरहे थे अचानक ही उनकी दृष्टि एक व्याघ्र पर पड़ी जो व्याघ्र सर्वथा अंधा था और आंखों के न होनेसे अनेक क्लेश भोग रहा था । ____ व्याघ्रको अंधा देख धनमित्रका चित्त दयासे आई होगया । उसने शीघ्र ही अपने छोटे भाईसे कहा प्रिय धनचंद्र ! कहो तो मैं इस दीन व्याघ्रको उत्तम औषधियोंके प्रतापसे अभी सूझता करदूं ? यह विचारा आखोंके बिना बड़ा कष्ट सह रहा है । धनभित्रकी ऐसी बात सुन धनचंद्रने कहा - ____नहीं भाई इसे तुम सूझता मत करो । यह स्वभावसे | दुष्ट है इसके फंदेमें पड़कर अपनी जान वचनी भी कठिन पड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६ ) जायगी । दुष्टोंपर उपकार करनेसे कुछ फल नहीं मिलता। धनमित्रका काल शिर पर छारहा था । उसने छोटे भाई धनचंद्र की जरा भी बात न मानी और तत्काल व्याघ्रको सूझता वनानेकेलिए तत्पर होगया । जब धनचंद्रने देखा कि धनमित्र मेरी बात को नहीं मानता है तो वह शीघ्र ही समीपवर्ती किसी वृक्ष पर चढ़ गया और पत्तियोंसे अपने को छिपाकर सब दृश्य देखने लगा। धनमित्र व्याघकी आखोंकी दवा करने लगा औषधियों के प्रभावसे वातकी बातमें धनमित्रने उसे सूझता वना दिया किंतु दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते ज्यों ही व्याघ सूझता होगया उसने तत्काल ही धनमित्र को खालिया और आनंदसे जहां तहां घूमने लगा। इसलिये हे प्रभो मुने ! क्या व्याघ को यह उचित था जो कि वह अपने परमोपकारी दुःख दूर करनेवाले धनमित्रको खागया? कृपया आप मुझे कहैं ? सेठि जिनदत्तके मुखसे ऐसी कथा सुन मुनिराजने कहा जिनदत्त ! व्याघ्र बड़ा कृतघ्नी निकला निस्संदेह उसने परमोपकारी जिनदत्तके साथ अनुचित वर्ताव किया, तुम निश्चय समझो जो मनुप्य कृत उपकारका खयाल नहीं करते वे घोर पापी समझे जाते हैं संसारमें उन्हें नरक आदि दुर्गतिओंके फल भोगने पड़ते हैं । मैं तुम्हारी कथा सुन चुका अव तुम मेरी कथा सुनो जिससे संशय दूर हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) wwmmmmmmmmmmm इसी जम्बूद्वीपसे एक हस्तिनापुर नामका विशाल नगर है किसीसमय हस्तिनापुरका स्वामी अतिशय बुद्धिमान राजा विश्वसेन था। विश्वसेनकी प्रियाभार्या रानी वसुकांता थी । वसुकांता अतिशय मनोहरा चंद्रवदना मृगनयनी कृशांगी एवं पूर्णचंद्रानना थी । राजा विश्वसेनकी रानी वसुकांतासे उत्पन्न एक पुत्र जो कि शुभलक्षणोंका धारक सदा, धनवृद्धिका इच्छुक, वीर, एवं सर्वोत्कृष्ट था वसुदत्त था । राजा विश्वसेनने वसुदत्तको. योग्य समझ राज्यभार उसै ही देदिया था : और आनंद पूर्वक भोग भोगते वे अपने अन्तःपुर में रहते थे। ____ कदाचित् वे आनंदमें बैठे थे उससमय कोई एक सार्थ वाह मनुष्य उनके पास आया । उसने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया एवं अपनी भक्ति प्रकट करनेकेलिये एक आमकी गुठली उनकी भेंट की। राजा विश्वसेनने गुठलीतो लेली किंतु वे उसकी परीक्षा न करसके इसलिये उन्होंने शीघ्र ही सार्थवाहसे पूछा____ कहो भाई यह क्या चीज है मैं इसको पहिचान न सका । राजाके ऐसे वचन सुन सार्थवाहने कहा । कृपानाथ ! समस्तरोगोंके नाश करनेवाले आम्रफलका यह बीज है । इसदेशमं यह फल होता नहीं इसलिये यह अपूर्वपदार्थ जान मैंने आपकी सेवामें आकर भेंट किया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) सार्थवाहके ऐसे विनयवचनोंसे राजा विश्वसेन अति प्रसन्न हुए । उनका प्रेम रानी वसुकांतामें अधिक था इसलिये उन्होंने यह समझ, कि विना रानीके मेरा नीरोग होना किसकामका ? चट रानीको वीज देदिया रानीका प्रेम पुत्र वसुदत्त पर अधिक था इसलिये उसने उठा वसुदत्तको देदिया । जव वह आमका बीज वसुदत्तके हाथमें आया तो वे उसै जान न सकै और उनका प्रेम पितापर अधिक था इसलिये उन्होंने शीघू ही वह बीज पिताको देदिया और विनयसे यह प्रार्थना की कि पूज्यपिता ! यह क्या चीज है कृपाकर मुझे वतावे ? वमुदत्त के ऐसे वचन सुन राजा विश्वसेनने कहा। ___प्यारे पुत्र ! अमृतफल-आम पैदा करने वाला यह आम का बीज है । इससे जो फल उत्पन्न होता है उससे समस्त रोग शांत होजाते हैं । यह फल हमैं सार्थबाहने भेंट किया है तथा ऐसा कहते कहते उन्होंने शीघ्र ही किसी चतुर माली को बलाया और स्त्री पुत्र आदिके नीरोगपनकी आशासे किसी उत्तम क्षेत्रमें बोनेकोलिए उसे शीघ्र ही आज्ञा देदी । राजाकी आज्ञानुसार मालीने उसे किसी उत्तम क्षेत्रमें वोदिया। प्रतिदिन स्वच्छ जल सींचना भी प्रारंभ कर दिया । कुछ दिन बाद माली का परिश्रम सफल होगया। वह वृक्ष उत्तमोत्तम फलों से लदवदा गया एवं वह प्रतिदिन माली को आनंद देने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७९ ) किसीसमय एक गृद्धपक्षी आकाशमार्गसे किसी एक जहरीले सर्पको मुखमें दवाये चला जारहा था । भाग्यवश एक फलपर सर्पकी विष बूंद गिरगई । विषकी गर्मीसे वह फलभी जल्दी पकगया। मालीने आनंदित हो फल तोड़लिया और उसै राजाकी सभामें जाकर भेंट कर दिया। राजा विश्वसैनको फल देख परमानद हुआ । उन्होंने मालीको उचित पारितोषिक दे संतुष्ट किया एवं अपने प्रिय पुत्रको बुलवा कर उसे फल खाने की आज्ञा दे दी। आमफल विष बूंदसे विषमय होचुका था इसलिए ज्योंही कुमारने फल खाया खाते ही उसके शरीरमें विष फैल गया बातकी बातमें वह मूर्छित हो जमीन पर गिर गया और उसकी चेतना एक ओर किनारा कर गई । अपने इकलोती और प्रियपुत्र वसुदत्तकी यह दशा देख राजा विश्वसेन वेहोश हो गये उन्होंने वह सब कार्य आम फलका जान तत्काल उसे कटवाने की आज्ञा दे दी एवं पुत्रकी रक्षार्थ शीघ्र ही राजवैद्य को बुलवाया। राजवैद्यने कुमारकी नाड़ी देखी । नाड़ीमें उसे विष विकार जान पड़ा इसलिए उसने शीघ्र ही उसी आम्र फलका एक फल मंगाया और कुमारको खिलाकर तत्काल निर्विष कर दिया ! राजा विश्वसेनने जब आम्र फलका यह माहात्म्य देखा तो उन्हें बड़ा शोक हुआ वे अपने उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २.८० ) अविचारित कार्यकोलिये बार बार पश्चात्ताप करने लगे । और अपनी मूर्खताकेलिये सहस्र बार धिक्कार देने लगे | हे जिनदत्त ! यह तुम निश्चय समझो जो हतबुद्धि मनुष्य विना विचारे काम कर पाड़ते हैं उन्हें पीछे पछताना पड़ता है | बिना समझे काम करनेवाले मनुष्य निंदा भाजन बन जाते हैं । अब तुम्हीं इस बातको कहो राजाने जो वह आम विना विचारे कटवा दिया था वह काम क्या उसका उत्तम था ! मुझसे यह कथा सुन जिनदत्त ने कहा नाथ ? राजाका वह कार्य सर्वथा वे समझ का था । मैं आप को एक दूसरी कथा सुनाता हूं आप ध्यान पूर्वक सुनें । किसीसमय किसी गंगा किनारे एक विश्वभूति नामका तपस्वी रहता था कदाचित् एक हाथीका बच्चा नदी के प्रवाह में बहा चला जाता था । तपस्वीकी अचानक ही उसपर दृष्टि पड़ गई । दयावश उसने शीघ्र ही उस हाथी के बच्चे को पकड़ लिया । वह वच्चा शुभ लक्षण युक्त था इस लिए वह तपस्वी उत्तमोत्तम फल आदि खवाकर उसका पोषण करने लगा और चन्द रोजमें ही वह बच्चा एक विशाल हाथी बनगया । - कदाचित् किसी राजाकी दृष्टि उस हाथी पर पड़ी उसै शुभ लक्षणयुक्त देख राजाने उसे खरीद लिया और अपने घर लेजाकर सिखानेकेलिए किसी महावत की सुपुर्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) कर दिया । राजाकी आज्ञानुसार महावत उसे सिखाने लगा। जब वह सिखानेमें टाल मटोल करता था तब महावत उसे मारे २ अंकुशों के वशमें करता था। इसप्रकार कुछ समय तो वह हाथी वहां रहा। जब उसे अंकुश बहुत दुःख देने लगा तो वह भग कर गंगा के किनारे उसी तपस्वीके पास आगया । ज्योंही तपस्वीने उसे देखा तो उसने भी उसे न रक्खा मारपीट कर वहां से भगा दिया । तपस्वीका ऐसा वर्ताव देख हा को क्रोध आगया एवं उस दुष्टने उस उपकारी तपस्वीको तत्काल चीर कर मार दिया। कृपानाथ ! अब आप ही कहैं परमोपकारी उस तपस्वीके साथ क्या हाथीका वह वर्ताव उत्तम था ? मैंने कहा। जिनदत्त ! वह हाथी बड़ा दुष्ट था। दुष्टने जरा भी अपने उपकारीकी दया न की । देखो जो मनुष्य दूसरेके उपकार को भूलजाते हैं उन्हें अनेक वेदना सहनी पड़ती है। नरकादि गतियां उनके लिए सदा तयार रहती हैं । एवं बुद्धिमान लोग स्वभावसे हिंसक और उपकारीके हिंसकमें उतना ही भेद मानते हैं जितना राई और पर्वत में मानते हैं । मैं तुम्हारी कथा सुन चुका । मैं भी एक दूसरी कथा कहता हूं तुम उसे ध्यान पूर्वक सुनो। इसी पृथ्वीपर एक चम्पापुरी नाम की सर्वोत्तम नगरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm N ( २८२ ) है। किसीसमय कुवेरपुरीके तुल्य उस चंपापुरी में एक देवदत्ता नामकी वेश्या रहती थी । देवदत्ता आतिशय सुन्दरी थी यदि उसके लिए देवांगना कह दिया जाता तो भी उसके लिये कम था । उसके पास एक पालतू तोता था वह उसे अपने प्राणोंसे भी प्यारा समझती थी। कदाचित् रविवारके दिन तोतेकेलिए प्याले में शराब रखकर वह तो किसी कार्य वश भीतर चली गई और इतने ही में एक लड़की वहां आई उसने उस शराबमें विष डाल दिया और शीघू वहांसे चंपत हो गई । देवदत्ताको इस बातका पता न लगा वह अपने सीधे स्वभावसे बाहिर आई और तोताको शराब पिलाने लगी। किन्तु तोता वह सब दृश्य देख रहा था इसलिये अनेक बार प्रयत्न करने पर भी उसने शराबमें चोंच तक न बोरी वह चुप चाप बैठा रहा । देवदत्ता जबरन उसे शराब पिलाने लगी तोभी उसने न पिया देवदत्ता जब और जबरन पिलाने लगी तो वह चिल्लाने लगा इसलिये देवदत्ताको क्रोध आगया और उसने उसे तत्काल मार कर फेंक दिया । अब हे जिनदत्त ? तुम्हीं कहो देवदत्ताका वह अविचारित काम क्या योग्य था ? जिनदलने उत्तर दिया। ___नाथ ! यदि देवदत्ताने ऐसा काम किया तो परम मूर्खा | समझनी चाहिए । मैं अब आपको तीसरी कथा सुनाता हूं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W ( २८३ ) कृपया उसे ध्यान पूर्वक सुनैं । ___ इसी लोकमें एक अतिशय मनोहर एवं प्रसिद्ध बनारस नामकी नगरी है । किसीसमय बनारसमें कोई वसुदत्त नामका सेठि निवास करता था। वसुदत्त उत्तमदर्जेका व्यापारी था धनी था सुवर्णनिर्मित मकानमें रहता था और बड़ा तुंदिल ( बड़ी थोदिका धारक ) था । वसुदत्तकी प्रिय भार्याका नाम वसुदत्ता था वसुदत्ता बड़ी चतुरा थी । विनयादि गुणोंसे अपने पतिको संतुष्ट करने वाली थी और मनोहरा थी। कदाचित् उसी नगरीमें एक चोर किसीके घर चोरीके लिये गया । उससमय उस घरके मनुष्य जग रहे थे इसलिये चोरको उन्होंने देख लिया। देखते ही चोर भगा। भागते समय उसके पछि बहुतसे मनुष्य थे इसलिये घबड़ा कर वह सेठि सुभद्रदत्तके घरमें घुस पड़ा और सुभद्रदत्तसे इसप्रकार विनय वचन कहने लगा। कृपानाथ ! मुझै वचाइये मैं मरा । चोरके ऐसे वचन सुन सुभद्रदत्तको दया आ गई। उसने चोरको शीघ्र ही अपने कपड़ोंमें छिपा लिया 1 कोतवाल आदि सेठिजीके पास आये सेठिजीसे चोरकी बाबत पूछा भी तो भी सेठिजीने कुछ जवाब न दिया । जहां तहां सबोंने चोर देखा कहीं न दीख पड़ा किंतु सेठिजीकी बड़ी थोंदिके नीचे ही वह छिपा रहा । इसलिये वे सबके सब पछिको लोट गये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) ___ जब विन शांत होगया तव चोरको जानेकी आज्ञा दे दी तथा यह समझ कि चोर चला गया वे अपने किवाड़ बन्द कर सो गये । किंतु वह दुष्ट उसी घरमें छिप गया और दाव पाकर मालमटा लेकर चंपत होगया । प्रातःकाल सेठि सुभदत्त की आंख खुली । अपनी चोरी देख उन्हें परम दुःख हुआ । वे कहने लगे मैंने तो उस दुष्ट चोरकी रक्षा की थी किंतु उस दुष्टने मेरे साथ भी यह दुष्टता की । यह बात ठीक है दुष्ट अपनी दुष्टता कदापि नहिं छोड़ते तथा ऐसा कुछसमय सोच विचारकर वे शान्त होगये । इसलिये हे मुनिनाथ ? आपही कहैं क्या उस चोरका सेठि सुभद्रदत्त के साथ वैसा वर्ताव उत्तम था ! मैंने उत्तर दिया।। ___ सर्वथा अनुचित । उसने सेठि सुभद्रदनके साथ बड़ा विश्वासघात किया। वह चोर बड़ा पापी और कुमार्गी था। इसमें जरा भी संदेह नहीं । अब मैं भी तुम्हें कथा सनाता हूं मुझै विश्वास है अब की कथासे तुम्हें जरूर संतोष होगा तुम ध्यान पूर्वक सुनो। ___इसीलोकमें कामदेवका रंगस्थल आतिशय मनोहर एक वंग देश है। वंगदेशमें एक चंपापुरी नामकी नगरी' है। चंपापुरीमें जातीय मुकुद केतकी चंपा आदिके वृक्ष सदा हरे भरे फले फूले रहते हैं और सदा उत्तम मनुष्य निवास करते हैं । चपापुरमें एक ब्राह्मण, जो कि भलेप्रकार वेद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) वेदांगका पाठी और धनी था सोमशर्मा था सोमशर्मा की अतिशय रूपवती दो स्त्रियां थीं प्रथम स्त्री सोमिल्ला और दूसरीका नाम सोमशर्मिका था । भाग्योदयसे सुंदरी सोमिल्ला के एक अतिशय रूपवान पुत्र उत्पन्न हुआ । सौमिल्लाको पुत्रवती देख सोमशर्मा उसपर अधिक प्रेम करने लगा और सोमशर्मिका की ओरसे उसका प्रेम कुछ हटने लगा । स्त्रियां स्वभाव से ही ईर्षा द्वेषकी खानि होती हैं यदि उनको कुछ कारण मिल जाय तब तो ईर्षा द्वेष करनेमें वे जरा भी नहि चूकती ज्योही सोमशार्मिकाको यह पता लगा कि मेरा पति मुझ पर प्रेम नहिं करता सोमिल्लाको अधिक चाहता है मारे क्रोध वह भवक उठी सोमिल्लासे मर्मभेदी वचन कहने लगी । हास्य और कलह करना भी प्रारम्भ कर दिया यहां तक कि सोमिल्ला के अहित करने में भी वह न डरने लगी । । वह उसी दिन से उसी नगरीमें एक भद्र नामका बैल रहता था । भद्र सुशील और शांति प्रकृतिका धारक था इसलिए समस्त नगर निवासी उसपर बड़ा प्रेम करते थे । कदाचित् भद्र (बैल) ब्राह्मण सोमशर्मा के दरवाजे पर खड़ा था ब्राह्मणी सोमशर्मिकाकी दृष्टि उसपर पड़ी उसने शीघ्र ही अपनी सौत सोमिल्लाका बालक ऊपर अटारीसे बैलके सींगपर पटक दिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaaaaaaaaaaa..... एवं सींग पर गिरते ही राता हुवा वह बालक शीघू मरगया । नगर निवासियोंको बालककी इसप्रकार मृत्यु का पता लगा । वे दौडते २ शीघ ही सोमशर्माके यहां आये । विना विचारे सवोंने बालकको मृत्युका दोष विचारे बैल के मत्थे पर ही मडदिया । जो बैलको घास आदि खिला कर नगर निवासी उसका पालन पोषण करते थे सो भी छोड़ दिया और मारपीट कर उसे नगरसे वाहिर भगादिया जिससे वह बैल बड़ा खिन्न हुआ विलकल लट गया। तथा किसीसमय अतिशय दुःखी हो वह ऐसा विचार करने लगा । ___हाय !!! इन स्त्रियोंके चरित्र बड़े विचित्र हैं । बड़े २ देव भी जब इनका पता नहिं लगा सकते तो मनुष्य उनके चरित्रका पता लगालें यह बात अति कठिन है । ये दुष्ट स्त्रियां निकृष्ट काम कर भी चट मुकर जाती हैं । और मनुष्यों पर ऐसा असर डाल देती है मानो हमने कुछ किया ही नहीं ये मायाचारिणी महापापिनी हैं । दूसरों द्वारा कुछ और ही कहवाती हैं और स्वयं कुछ औरही कहती है। ये कटाक्षपात किसी और पर फेंकती है इशारे किसी अन्यकी ओर. करती हैं और आलिंगन किसी दूसरेसे ही करती हैं । तथा वस्तु का वायदातों इनका किसी दूसरेके साथ होता है और दे किसी दूसरे को बैठती हैं । कबियोंने जो इन्है अबला कह कर पुकारा है सो ये नामसे ही अबला ( शक्तिहीन ) है काम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) से अबला नहिं । जिससयम ये कर काम करनेका बीड़ा उठा लेती हैं तो उसे तत्काल कर पाड़ती हैं । और अपने कटाक्ष पातोंसे बड़े २ बीरोंको भी अपना दास बना लेती है । चाहे अतिशय उप्ण भी अनि शीतल होजाय शीतल भी चन्द्रमा उप्ण होजाय । पूर्व दिशामें उदित होनेवाला सूर्य भी पश्चिम दिशामें उदित हो जाय किन्तु स्त्रियां शूठ छोड़ कभी भी सत्य नहिं बोल सकतीं। हाय जिससमय ये दुष्ट स्त्रियां पर पुरुषमें आसक्त हो जाती हैं उससमय अपनी प्यारी माता को छोड़ देती हैं। प्राण प्यारे पुत्रकी भी परवा नहिं करतीं परम स्नेही कुटुबीजनोंका भी लिहाज नहिं करती। विशेष कहां तक कहा जाय अपनी प्यारी जन्मभूमिको छोड़ परदेशमें भी रहना स्वीकार कर लेती हैं। ये नीच स्त्रियां अपने उत्तम कुलको भी कलंकित बना देती है । पति आदिसे नाराज हो मरने का भी. साहस कर लेती हैं । और दूसरोंके प्राण लेनेमें भी जरा नहीं चूकतीं । अहा !!! जिन योगीश्वरोंने स्त्रियों की वास्तविक दशा विचार कर उनसे सर्वथाकेलिए सवन्ध छोड़ दिया है स्त्रियोंकी बात भी जिनकेलिए हलाहल विष है वे योगीश्वर धन्य हैं और वास्तविक आत्मस्वरूपके जानकार हैं । हाय !!! ये स्त्रियां छल कपट दगाबाजी की खानि है । समस्त दोषोंकी भंडार हैं । असत्य बोलनेमें बड़ी पंडिता है। विश्वासके अयोग्य हैं । चौतर्फा इनके शरीर में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www कामदेव व्याप्त रहता है । मोक्षद्वारके रोकनेमें ये अर्गल ( बेड़ा ) हैं । स्वर्ग मार्गको भी रोकने वाली हैं । नरकादि गतियोंमें लेजाने वाली हैं दुष्कर्म करने में बड़ी साहसी हैं । इत्यादि अपने मनमें संकल्प निकल्प करता करता वह भद्र नामका बैल वहीं रहने लगा। उसीनगरीमें कोई जिनदत्त नामका सेठि निवास करता था । जिनदत्त समस्त वणिकोंका सरदार और धर्मात्मा थी । जिनदत्त की प्रियभार्या सेठानी जिनमतो थी जिनमती परम धर्मात्मा थी शीलादि उत्तमोत्तम गुणोंकी भंडार थी। अति रूपवती थी । पति भक्ता एवं दान आदि उत्तमोत्तम कार्योंमें अपना चित्त लगाने वाली थी। सेठि जिनदत्त और जिनमती आनन्दसे रहते थे। अचानक ही जिनमतीके अशुभ कर्मका उदय प्रकट हो गया । उस विचारीको लोग कहने लगे कि यह व्याभिचारिणी है । निरन्तर परपुरुषोंके यहां गमन करती है इसलिए वह मनमें अतिशय दुःखित होने लगी । उसै अति दुःखी देख कई एक मनुष्य उसके यहां आये और कहने लगे जिनमती ! यदि तुझे इस बातका विश्वास है कि मैं व्याभिचारिणी नहीं हूं तो तू एक काम कर तपा हुआ पिंड अपने हाथ पर रख । यदि तू व्याभिचारिणी होगी तो तू जल जायगी नहीं तो नहीं । नगर निवासियोंकी बात जिनमतीने मानली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८९ ) किसीदिन वह सर्वजनोंके सामने अपने हाथमें पिंड लेना ही चाहती थी कि अचानक ही वह भद्र नामका बैल भी वहां आगया । वह सब समाचार पहिलेसे ही सुन चुका था इसलिए आते ही उसने तप्त लोहेका पिंड अपने दांतों में दबा लिया । वहुत काल मुखमें रखनेपर वह जरा भी न जला । एवं सबोंको प्रकटरीतिसे यह वात जतलादी कि ब्राह्मण सोमशर्माका बालक मैंने नहिं मारा । मैं सर्वथा निर्दोष हूं। भद्रककी यह चेष्टा देख नगर निवासी मनुष्यों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कुछ दिन पहिले जो वे विना विचारे भद्रकको दोषी मानचुके थे वही भद्रक अब उनकी दृष्टि में निर्दोष बनगया । अब वे भद्रककी बार बार तारीफ करने लगे । उनके मुखसे उससमय जयकार शब्द निकले । तथा जिसप्रकार भद्रकने उसप्रकारका कामकर अपनी निर्दोषताका परिचय दिया था जिनमतीने भी उसीप्रकार दिया वेधड़क उसने तप्तपिंडको अपनी हथेली पर रखलिया जब उसका हाथ न जला तो उसने भी यह प्रकटरीतिसे जतला दिया कि मैं व्यभिचारणी नहीं हूं । मैंने आजतक परपुरुषका मुह नहीं देखा है। मैं अपने पतिकी सेवाम ही सदा उद्यत रहती हूं और उसीको देव समझती हूं। जिससे सब लोग उसकी मुक्तकंठसे तारीफ करने लगे और उसकी आत्माको भो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति मिली । इसलिये जिनदत्त ! तुम्हीं बताओ भद्रक और जिनमती पर जो दोषारोपण कियागया था वह सत्य था या असत्य ? | जिनदत्तने कहा-- ____कृपानाथ ! वह दोषारोपण सर्वथा अनुचित था । विना विचारे किसीको भी दोष नहिं देना चाहिये जो लोग ऐसा काम करते हैं वे नराधम समझे जाते हैं। दीनबंधो ! मैं आपकी कथा सुन चुका अब आप कृपया मेरी भी कथा सुनें इसीलोकमें एक पद्मरथ नामका नगर हैं। किसीसमय पद्मरथनगरमें राजा वसुपाल राज्य करता था । कदाचित् राजा वसुपालको अयोध्याके राजा जितशत्रुसे कुछ काम पड़गया इसलिये उसने शीघ्र ही एक चतुर ब्राह्मण उसके समीप भेज दिया। ब्राह्मण राजाकी आज्ञानुसार चला । चलते २ वह किसी अटवीमें जा निकला । वह अटवी वड़ी भयावह थी । अनेक क्रूर जीवोंसे व्याप्त थी । कहींपर वहां पानी भी नजर नहिं आता था । चलते २ यहभी थक चुका था । प्याससे भी अधिक व्याकुल होचुका था इसलिये . प्याससे व्याकुल हो वह उसी अटवीमें किसी वृक्षके नीचे पड़गया और मूर्छितसा होगया । भाग्यवश वहां एक वंदर आया । ब्राह्मण की वैसी चेष्टा देख उसै दया आगई । वह यह समझ कि प्याससे इसकी ऐसी दशा हो रही है, शीघ्र ही उसै एक विपुल जल से भरा तालाब दिखाया और एक ओर हट गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१ ) ज्योंहीं ब्राह्मणने विपुल जलसे भरा तालाब देखा उसके आनंदका ठिकाना न रहा वह शीघ्र उसमें उतरा अपनी प्यास बुझाई और इसप्रकार विचार करने लगा यह अटवी विशाल अटवी है । शायद आगे इसमें पानी मिले या न मिले इसलिये यहीं से पानी ले चलना ठीक है । मेरे पास कोई पात्र है नहीं इसलिये इस बंदरको मार कर इसकी चमड़ीका पात्र बनाना चाहिये । वस फिर क्या था ? विचारके साथ ही उस दुष्टने शीघ्र ही उस परोपकारी वंदरको मार दिया और उसकी चमड़ी में पानी भरकर अयोध्याकी ओर चल दिया । कृपानाथ ! अब आप ही कहैं क्या उस दुष्ट ब्राह्मणका परोपकारी उसबंदर के साथ वैसा बर्ताव उचित मैने कहा था ? सर्वथा अनुचित | वास्तव में वह ब्राह्मण बड़ा कृतघ्नी था । उसै कदापि उस परमोपकारी वंदर के साथ वैसा बर्ताव करना उचित न था ! जिनदत्त । तुम निश्चय समझो जो पापी मनुष्य किये उपकारको भूल जाते हैं संसार में उन्हें अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं कोई मनुष्य उन्हें अच्छा नहि कहता । अब मैं भी तुम्हें एक कथा सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो इसी जंबूद्वीपमें एक कौशांबी नामकी विशाल नगरी है। कौशांबी नगरीमें कोई मनुष्य दरिद्र न था सब धनी सुखी एवं अनेकप्रकारके भोग भोगनेवाले थे । उसी नगरी में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९२ ) किसीसमय एक सोमशमा नामका ब्राह्मण निवास करता था। उसकी स्त्रीका नाम कपिला था । कपिला अतिशय सुंदरी थी मृगनयनी थी काममंजरी एवं रतिके समान मनोहरा थी। कदाचित् सोमशर्माको किसी कार्यवश किसी बनमें जाना पड़ा । वहां एक अतिशय मनोहर नोलेका वच्चा उसै दीख पड़ा । और तत्काल उसे पकड़ अपने घर ले आया । कपिलाके कोई संतान न थी। विना संतानके उसका दिन बड़ी कठिनतासे कटता था इसलिये जवसे उसके घरमें वह वच्चा आगया पुत्रके समान वह उसका पालन करनेलगी। और उसवच्चसे उसका दिनभी सुखसे व्यतीत होने लगा। दुर्भाग्यके अंत हो जाने पर कपिलाके एक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुत्रकी उत्पत्तिसे कपिलाके आनंदका ठिकाना न रहा। सोमशर्मा और कपिला अब अपनेको परमसुखी मानने लगे। और आनंदसे रहने लगे। कपिलाका पति सोमशर्मा किसान था इसलिये किसीसमय कपिलाको धान काटनकोलिये खेतपर जाना पड़ा । वह वच्चेको पालनेमें सुलाकर और नौलेको उसै सुपुर्दकर शीघ्र ही खेतको चली गई। - उधर कापलिाकातो खेतपर जाना हुआ और इधर एक काला सर्प बालकके पालनेके पास आया । ज्योंही नोलाकी दृष्टि काले सर्पपर पड़ी वह एकदम सर्पपर रूरपड़ा और कुछ समयतक चू. - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९३ ) चू. फू. फू. शब्द करते हुवे घोर युद्ध करने लगा । अंतमें अपने पराक्रमसे नोलाने विजय पालो और उस सर्पराजको तत्काल यमलोकका रास्ता बता दिया तथा वह वालकके पास बैठिगया। कपिला अपना कार्य समाप्त कर घर आई । कपिलाके पैर की आहट सुन नोला शीघ्र ही कपिलाके पास आया और कपिलाके पैरोंमें गिर उसकी मिन्नत करनेलगा। नोलेका सर्वांग उससमय लोहू लुहान था इसलिये ज्योंही कपिलाने उसै देखा 'इसने अवश्य मेरे पुत्रको मार कर खाया है यह समझ' मारे क्रोधके उसका शरीर भवक उठा और विना विचारे उस दीन नोलेको मारे मूसलोंके देखते २ यमपुर पहुंचा दिया। किंतु ज्योही वह वालकके पास आई । और ज्योंही उसने बालकको सकुशल देखा उसके शोकका ठिकाना न रहा । नोलेकी मृत्यु से उसकी आखोंसे आसुओंकी झड़ी लग गई और माथा धुनने लगी। जिनदत्त ! कहो उस ब्राह्मणीका वह अविचारित कार्य उत्तम था या नहिं ? मेरे ऐसे वचन सुन जिनदत्तने कहा कृपानाथ ! ब्राह्मणीका वह काम सर्वथा अयोग्य था। विना विचारे जो मदान्ध हो काम करपाड़ते हैं उन्हें पीछे अधिक पछिताना पड़ता है। मैं भी पुनः आपको कथा सुनाता हूं आप घ्यानपूर्वक सुनिये इसी द्वीपमें एक विशाल बनारस नामकी उत्तम नगरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) है । किसी समय बनारस में एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण निवास करता था सोमशर्माकी स्त्रीका नाम सोमा था सोमा अतिशय व्यभिचारिणी थी । पतिसे छिपाकर वह अनेक दुष्कर्म किया करती थी । किंतु अपने मिष्टवचनों से पतिको अपने दुष्कमका पता नहि लगने देती थी । और बनावटी सेवा आदि कार्यों से उसे सदा प्रसन्न करती रहती थी I कदाचित सोमशर्मातो किसी कार्यवश बाहिर चलागया और सोमा अपने यार गोपालोंको बुलाकर उनके साथ सुख पूर्वक व्यभिचार करने लगी । किन्तु कार्य समाप्त कर ज्योंही सोमशर्मा घर आया और ज्योंही उसने सोमाको गोपालोंके साथ व्यभिचार करते देखा उसै परम दुःख हुआ । वह एकदम घरसे विरक्त होगया । एवं बांसकी लाठीमें कुछ सोना छिपाकर तीर्थ यात्राकोलिये निकल पड़ा । मार्गमें वह कुछ ही दूर पहुंचा था अचानक ही उसकी एक मायाचारी बालकसे भेंट हो गई। वालकने विनयपूर्वक सोमशमाको प्रणाम किया । उसका शिष्य वनगया एवं यह विचार कि इस सामशर्मा के पास धन है वह सोमशर्मा के साथ चलभी दिया । मार्गमें चलते २ उन दोनों को रात होगई इसलिये वे दोनों किसी कुम्हार के घर ठहर गये । वहां रात विताकर सवेरे चलभी दिये । चलते समय बालक महादेवके शिरसे कुम्हार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९५ ) का छप्पर लगगया और एक तृण उसके शिरसे चिपटा चला गया । वे कुछ ही दूरगये थे कि वालकने अपना शिर टटोला उसै एक तृण दीख पड़ा । तथा तृण देख मायाचारी वह बालक बाह्मणसे इसप्रकार कहने लगा। गुरो ! चलते समय कुम्हारके छप्परका यह तृण मेरे शिरसे लिपटा चला आया है । मैं इस वहांपर पहुचाना चाहता हूं। उत्तम किंतु कुलीन मनुष्योंको परद्रव्य ग्रहण करना महा पाप है । मैं विना दिये पर पदार्थजन्य पापको सहन नहिं कर सकता कृपाकर आप मुझे आज्ञादें मैं शीघ्र लोटकर आता हूं तथा ऐसा कहता २ चल भी दिया । ब्राह्मणने जब देखा वटुक चला गया तो वहभी आगे किसी नगरमें जाकर ठहर गया उसने किसी ब्राह्मणके घर भोजन किया एवं उस ब्राह्मणको अपने शिप्यकेलिये भोजन रख छोड़नेकी भी आज्ञा देदी । कुछसमय पश्चात् दूड़ता ढाड़ता वह बालकभी सोमशर्मा के पास आपहुंचा । आते ही उसने विनयसे सोमशर्माको नमस्कार किया और सोमशर्माकी आज्ञानुसार वह भोजनको भी चलदिया । वह वटुक चित्तका अति कटुक था इसलिये ज्योंही वह थोड़ी दूर पहुंचा तत्काल उसने ब्राह्मणका धन लेनके लिये वहाना बनाया और पीछे लोटकर इसप्रकार विनय पूर्वक निवेदन करनेलगा। प्रभो! मार्गमें कुत्ते अधिक हैं। मुझे देखते ही वे भोंकते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शायद वे मुझे काट खांय इसलिये मैं नहिं जाना चाहता फिर कभी देखा जायगा । किं तु वह ब्राह्मण परमदयालु था उसे उस पर दया आगई इसलिये उसने अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारी और जिसमें सोना रख छाड़ाथा वह लकड़ी शीघ्र उसे देदी और जानेके लिये प्रेरणाभी की। वस फिरवया था ! वालककी निगाह तो उसलकड़ी पर ही थी । संग भी वह उसी लड़कीकलिये लगाथा इसलिए ज्याही उसके हाथ लकड़ी आई वह हमेशहकलिये ब्राह्मणसे विदा होगया फिर वृद्ध ब्राह्मणकी ओर उसने झांककरभी न देखा । कृपानाथ! आप ही कहैं वृद्ध और परमोपकारी उस ब्राह्मणके साथ क्या उस बालकका वह वर्ताव योग्य था ? मैंने कहा जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य ! उसवालकको कदापि सोम शर्मा ब्राह्मणके साथ वैसा वर्ताव नहिं करना चाहिये था अस्तु अब मैं भी तुम्हें एक अतिशय उत्तम कथा सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वक सुनो धन धान्य उत्तमोत्तम पदार्थोसे व्याप्त इसी पृथ्वीतलमें एक कौशांबी नगरी है। किसीसमय उसनगरीका स्वामी राजा गंधर्वानीक था । राजा गंधर्वानीकके मणि आदि रत्नोंका साफ करनेवाला कोई गारदेव नामका मनुष्यभी उसीनगरीमें निवास करता था। कदाचित वह राजमंदिरसे एक पद्मराग माण साफ करनेकेलिये लाया और उसे आंगनमें रख वह साफही करना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९७ ) चाहता था उसीसमय कोई ज्ञानसागर नामके मुनिराज उसके यहां आहारार्थ आगये। मुनिराजको देख गारदेवने अपना काम छोड़ दिया। मुनिराजको विनयपूर्वक नमस्कार किया। प्रामुकजलस उनका चरणप्रक्षालन किया । एवं किसी उत्तम काष्टासन पर बैठनकी प्रार्थना की । प्रार्थनानुसार इधर मनिराज तो काष्टासन पर बैठे और उधर एक नीलकंठ आया एवं आंख वचाकर उस पद्मरागमणिको लेकर तत्काल उड़ गया तथा मुनिराज आहार ले वनकी ओर चलदिये । ___मुनिराजको आहार देकर जव गारदेवको फुरसति मिली तो उसै मणिके साफ करनेकी याद आई । वह चट आंगनमें आया । उसै वहां मणि मिली नहिं इसलिये परदुःखी हो वह इसप्रकार विचारने लगा___मेरे घरमें सिवाय मुनिराजके दूसरा कोई नहिं आया यदि मणि यहां नहीं है तो गई कहां ! मुनिराजने ही मेरी मणि ली होगी और लेनेवाला कोई नहिं । तथा कुछसमय ऐसा संकल्पविकल्पकर वह सीधा वनको चलदिया और मुनिराजके पास आकर माणका तकादा करताहुआ अनेक दुर्वचन कहने लगा। ____ जब मुनिराजने उसके ऐसे कटुक वचन सुने तो अपने ऊपर उपसर्ग समझ वे ध्यानारूढ़ होगये गारदेवके प्रश्नों का उन्होंने जवाब तक न दिया । किन्तु मुनिराजसे जवाब न पाकर मारे क्रोधके उसका शरीर भवक उठ। उस दुप्टको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) उससमय और कुछ न सूझी मुनिराजको ही चोर समझ वह मुक्के घूसे डंडोंसे मारने लगा और कष्टप्रद अनेक कुवचन भी कहनेलगा। इसप्रकार मार धाड़ करने पर भी जब उसने मुनिराजसे कुछ भी जवाब न पाया तो वह हताश हो अपने नगरको चल दिया। ___वह कुछ ही दूर गया कि उसे फिर मणिकी याद आई । वह फिर मदांध होगया इसलिए उसने वहींसे फिर एक डंडा मुनिराज पर फेंका । दैवयोगसे वह नीलकंठ भी उसी वनमें मुनिराजके समीप किसी वृक्षपर बैठा था। इसलिये जिससमय वह डंडा मुनिकी ओर आया तो उसका स्पर्श नलिकंठसे भी होगया । डंडेके लगते ही नील कंठ भगा और जल्दीमें पद्मरागमणि उसके मुंहसे गिरगई । पद्ममरागमणीको इसप्रकार गिरी देख गारदेव अचंभेमें पड़गया। अब वह अपने अविचारित काम पर बार बार घृणा करने लगा। माणिको उठा वह नगर चला गया । साफ कर उसे राजमंदिरमें पहुंचादी और संसारसे सर्वथा उदासीन हो उसी बनमें आया। मुनिराजके चरण कमलोंको भक्ति पूर्वक नमस्कारकर अपने पापोंकी क्षमा मांगी। एवं उन्हींके चरणों में दीक्षा धारणकर दुर्धर तप करने लगा । सेठि जिनदत्त ? कहो । क्या उस गारदेवका विना विचारे किया वह काम योग्य था!निश्चय समझो विना विचारे जो काम करपाड़ते हैं उन्हें निस्ममि दुःख भोगने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९९ ) पड़ते हैं। मेरी यह कथा सुन जिनदत्तने कहा। कृपासिंधो ! गारदेवका वह काम सर्वथा निंदनीय था । अविचारित कामकरनेवालोंकी दशा ऐसी ही हुआ करती है नाथ ! मैं आपकी कथा सुन चुका कृपाकर आपभी मेरी कथा सुनें। इसी पृथ्वीतलमें अनेक उत्तमोत्तम घरोंसे शोभित, देवतुल्य मनुष्योंसे व्याप्त, एक पलाशकूट नामका सर्वोत्तम नगर है। किसीसमय पलाशकूट नगरमें कोई रौद्रदत्तनामका ब्राह्मण निवास करता था । कदाचित् किसीकायवश रौद्रदत्तको एक विशालवनमें जाना पड़ा । यह वनमें पहुचाई था कि एक गैड़ा इसकी ओर टूटा । उससमय रौद्रदत्तको और तो कोई उपाय न सूझा समीपमें एक विशालवृक्ष खड़ा था उसीपर वह चढ़ गया । जिससमय गैड़ा उसवृक्षके पास आया तो वह शिकारका मिलना कठिन सभझ वहांसे चलदिया । और अपने विघ्नको शांत देख रौद्रदत्तभी नीचे उतर आया । वह वृक्ष अति मनोहर था। उसकी हरएक लकड़ी बड़े पायेदार थी। इसलिये उसै देख रौद्रदत्तके मुखमें पानी आगया । वह यह निश्चयकर कि इसकी लकड़ी अत्युत्तम है इसकी स्तंभ आदि कोई चीज वनवानी चाहिये, शीघ्र ही घर आया । हाथमें फरसा ले वह फिर वनको चला गया और बातकी बातमें वह वृक्ष काट डाला । कृपानाथ! आप ही कहै क्या आपत्तिकालमें रक्षाकरने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) वाले उस वृक्षका काटना रौद्रदत्तकेलिये योग्य था ! मैंने कहा जिनदत्त ! सर्वथा अयोग्य था। रौद्रदत्तको कदापि वह वक्ष काटना नहि चहिये था जो मनुष्य परकृत उपकारको नहिं मानते वे नितरां पापी गिने जाते हैं, कृतनी मनुष्योंको संसारमें अनेक वेदना भोगनी पड़ती हैं । मैं तुम्हारी कथा सुन चुका अव मैं भी तुम्हें एक अत्युत्तम कथा सुनाता हूं तुम ध्यान पूर्वकसुनो इसी पृथ्वीतलमें उत्तमोत्तम तोरण पताका आदिसे शोभित समस्त नगरियों में उत्तम कोई दारावती नामकी नगरी है। किसीसमय दारावतीके पालक महाराज श्रीकृष्ण थे । महाराज श्रीकृष्ण परम न्यायी थे। न्याय राज्यसे चारो ओर उनकी कीर्ति फैली हुई थी और सत्यभामा रुक्मिणी आदि कामिनियोंके साथ भोग भोगते वे अनंदसे रहते थे । ____ कदाचित् राजसिंहासनपर वैठि वे अनंदमें मग्न थे इतने ही में एक माली आया उसने विनय पूर्वक महाराजको नमस्कार किया, और उत्तमोत्तम फल भेंट कर वह इसप्रकार निवेदन करने लगा। प्रभो ? प्रजापालक ? एक परम तपस्वी वनमें आकर विराजे हैं । मालीके मुखसे मुनिराजका आगमन सुन महाराज श्रीकृष्णको परमानंद हुवा । वे जिस कामको उससमय कर रहे थे उसे शीघ्र ही छोड़ दिया । उचित पारितोषिक दे मालीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) प्रसन्न किया । अनेक नगरनिवासियोंके साथ चतुरंग सेनासे मंडित महाराजने वनकी और प्रस्थान करदिया । वनमें आकर मुनिराजको देख भाक्त पूर्वक नमस्कार किया । और कुछ उपदेश श्रवणकी इच्छासे मुनिराजके पास भूमिमें वैठि गये । उससमय मुनिराजका शरीर व्याधिग्रस्त था इसलिये उस व्याधिके दूरकिरणार्थ राजाने यही प्रश्न किया। प्रभो ! इसरोगकी शांतिका उपाय क्या है। किस औषधिके सेवन करनेसे यह रोग जा सकताहूं कृपया मुझै शीघ्र वता राजा श्रीकृष्णके ऐसे वचन सुन मुनिराजने कहा नरनाथ ? यदि रत्नकापिष्ट ( ? ) नामका प्रयोग कियाजाय तो यह रोग शांत हो सकता है और इसरोगकी शांतिका कोई उपाय नहिं । मुनिराजके मुखसे औषधि सुन राजा श्रीकृष्णको परम संतोष हुआ। मुनिराजको विनयपूर्वक नमम्कार कर वे द्वारावतीमें आगये और मुनिराजके रोग दूरकरनेकेलिये उन्होंने सर्वत्र आहारकी मनाई करदी। दूसरे दिन वे ही ज्ञानसागर मुनि आहारार्थ नगरमें आये। विधिके अनुसार वे इधर उधर नगरमें धूमें किंतु राजाकी अज्ञानुसार उन्है किसीने आहार न दिया । अंतमें वे राजमंदिरमें अहारार्थ गये । ज्योंही राजमंदिरमें मुनिराजने प्रवेश किया रानी रुक्मिणीने उनका विधिपूर्वक अहानन किया पड़िगाहन आदि कार्य कर भाक्त पूर्वक आहारभी दिया । रत्नकापिष्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) चूर्ण एवं अन्यान्य औषधियोंके ग्रास भी दिये । एवं आहार लेचुकनेपर मुनिराज वनको चलेगये । ____ इसप्रकार औषधिके सेवन करनेसे मुनिराजका रोग सर्वथा नष्ट होगया । वे शीघ्र ही नीरोग होगये । ____ किसीसमय किसी वैद्यके साथ महाराज श्रीकृष्ण वनमें गये। जहां पर परम पवित्र मुनिराज विराजमान थे उसी स्थान परपहुंच उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और मुनिराजके सामने ही वैद्यने यह कहा-प्रजानाथ ! मुनिराजका रोग दूर होगया है । वैद्यके मुखसे जव मुनिराजने ये वचन सुने तो वे इसप्रकार उपदेश देनेलगे। नरनाथ ! संसारमें जीवोंको जो सुखदुःख कल्याण और अकल्याण भोगने पड़ते हैं उनके भोगने में कारण पूर्वोपाजित शुभाशुभ कर्म हैं । जिससमय ये शुभ अशुभ कर्म सर्वथा नष्ट होजाते है उससमय किसीप्रकारका सुखदुःख भोगना नहिं पड़ता । कर्मोंके सर्वथा नष्ट होजानेपर परमोत्तमसुख मोक्ष मिलता है। राजन् शुभ अशुभकर्मरूपी अंतरंग व्याधिके दरकरनेमें अतिशय पराक्रमी चक्रवर्ती भी समर्थ नहिं हो सकते । ये औषधि आदिक व्याधिकी निवृत्तिमें बाह्य कारण हैं। उनसे अंतरंगरोगकी निवृत्ति कदापि नहिं हो सकती। ___ मुनिराजतो वीतराग भावसे यह उपदेश देरहे थे उन्हें किसीसे उससमय द्वेष न था किंतु वैद्यराजको उनका वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३.) उपदेश हलाहल विष सरीखा जान पड़ा। वह अपने मनमें ऐसा विचार करनेलगा यह मुनि बड़ा कृतघ्नी है । रोगकी निवृति का उपाय इसने शुभाशुभकर्मकी निवृत्ति ही वतलाई है मेरा नाम तकभी नहि लिया । इसमुनिके वचनोंसे यह साफ मालूम होता है हमने कुछ नहि किया । जो कुछ किया है कर्मकी निवृत्तिने ही कियाहै तथा इसप्रकार रौद्र विचार करते २ वैद्यने उसीसमय आयुइंध बांधलिया और आयुके अन्तमें मर कर वह वानरयोनिमें उत्पन्न होगया। ___कदाचित् विहार करते २ मुनिराज, जिसवनमें यह वानर रहता था उसीवनमें जापहंचे और पर्यंक आसन मांडकर, नासाग्रदृष्टि होकर, ध्यानकतान होगये । किसीसमय मुनिराज पर वंदरकी दृष्टि पड़ी । मुनिराजको देखते ही उसै जातिस्मरण होगया । जातिस्मरणके वलसे उसने अपने पूर्वभवका सब समाचार जानलिया । राजा श्रीकृष्णके सामने मुनिराजके उपदेशसे जो उसने अपना पराभव समझा था वह पराभव भी उसै उससमय स्मरण हो आया । और मारे क्रोधके उसपापीने पवित्र किंतु ध्यानरसमें लीन मुनि गुणसागरके ऊपर एक विशाल काष्ठ पटक दिया। उन्हें अनेकप्रकार पीड़ाभी देने लगा। किंतु मुनिराज जराभी ध्यानसे विचलित न हुए। . चिरकालतक अनेक प्रयत्न करनेपरभी जब वंदरने देखा कि मुनिराज ममतारहित, समता रसौलीन, निर्मलज्ञानकेधारक, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) हलन चलन क्रियासे रहित, परमपद मोक्षपदके अभिलाषी, परम किंतु उत्कृष्ट धर्मध्यान और शुक्लध्यानके आचारणकरने वाले, ध्यानवलसे परम सिद्धि प्राप्तिके इच्छुक, पाषाण में उकलीहुई प्रतिमाके समान निश्चल, और हाथ पैरकी समस्त चेष्टाओंसे रहित हैं तो उसैभी एकदम वैराग्य होगया । कछ समय पहले जो उसके परिणामोंमें रौद्रता थी वही मुनिराजकी शांतमुद्राके सामने शांतिरूप में परिणत होगई । वह अपने दुकर्मकेलिये अधिक निंदा करनेलगा। मुनिराजपर जो काठ डाला था वह भी उसने उठाके एक ओर रख दिया । वह पूर्वभवमें वैद्य था इसलिये मुनिराज पर काष्ठपटकनेसे जो उनके शरीरमें घाव हो गये थे उत्तमोत्तम औषधियोंसे उन्हें भी उसने अच्छा करदिया । अव वह मुनिराजकी शुद्धहृदयसे भक्तिकर लगा और यह प्रार्थना करने लगा । ww प्रभो ! अकारणदीनबंधो ! मेरे इनपापोंका छुटकारा कैसे होगा ? मैं अब कैसे इनपापोंसे वचूंगा ? कृपाकर मुझे कोई ऐसा उपाय बतावें जिससे मेरा कल्याण हो । मुनिराज परम दयालु थे उन्होंने वानरको पंच अणुव्रतका उपदेश दिया और भी अनेक उपदेश दिये । वानर ने भी मुनिराजकी अज्ञानुसार पंच अणुव्रत पालने स्वीकार करलिये अहंकार क्रोध आदि जो दुर्वासनां थीं उन्हें भी उसने छोड़दिया । और हरसमय अपने अविचारित कामके लिये पश्चात्ताप करने लगा । सेठि जिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) दत्त ! तुम निश्चय समझो जो नीच पुरुष विना विचारे क्रोध मानमाया आदि कर बैठते हैं उन्हें पाछै अधिक पछिताना पड़ता है वे तिर्यंच नरक आदि गतिओंमें जाते हैं । वहां उन्हें अनेक दुम्सह्य वेदनायें सहनी पड़ती हैं । अविचारित काम करनेवाले इसलोकमें भी राजा आदिसे अनेक दंड भोगते हैं उनकी सब जगह निंदा फैल जाती है । परलोकमें भी उन्हें सुख नहि मिलता । अबुद्धिपूर्वक काम करनेवालों की सब जगह हंसी होती है । देखो अनेक शास्त्रोंका भलेप्रकार ज्ञाता, राजा श्रीकृष्णके सन्मानका भाजन वह वैद्य तो कहां ? और कहां अशुभ कर्मके उदयसे उसै वंदरय निकी प्राप्ति ? यह सब फल अज्ञान पूर्वक कार्य करनेका है । जिनदत्त ? यह कथा तुम ध्यान पूर्वक सुन चुके हो तुम्हीं कहो क्या उस बंदरका वह कार्य उत्तम था ? जिनदत्तने कहा मुनिनाथ ! वह बंदरका अविचारित काम सर्वथा अयोग्य था विना विचारे अभिमानादि वशीभूत हो नीचकामकरने वाले मनुष्योंको ऐसे ही फल मिलते हैं । इसके अनंतर हे मगधदेशके स्वामी राजा श्रेणिक ! सेठि जिनदत्त मेरी कथाके उत्तरमें दूसरी कथा कहनाही चाहता था कि उसके पास उसका पुत्र कुवेरदत्त भी बैठा था और सबवातोंको बराबर सुनरहा था इसलिये उसने विवादकी शांत्यर्थ शीघ्रही वह रत्नभरितघड़ा दूसरीजगहसे निकालकर मेरे देखते २ अपने पिताके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amaaaaaaaaaaaaaaaaaaman ( ३०६ ) सामने रखदिया। और विनयपूर्वक इसप्रकार प्रार्थना करने लगा। __ प्रभो ! समस्त जगतकेतारक स्वामिन् ! मेरे पिताने बड़ा अनर्थ करपाड़ा । इस दुष्टधनके फंदेमें फंसकर आपको भी चोर बना दिया। हाय इसधनकेलिये सहस्रवार धिक्कार है । दीनबंधो ! यह वात सर्वथा सत्य जान पड़ती है संसारमें जो घोरसे घोर पाप होते हैं वे लोभसे ही होते हैं । संसारमें यदि जीवोंका परम अहित करनेवाला है तो यह लोभ ही है। प्रभो ! किसी रीतिसे अब मेरा उद्धार कीजिये । मुक्तिमें असाधारण कारण 'मुझे जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये। अब मैं क्षणभरभी भोग भोगना नहिं चाहता। जिनदत्तभी रत्नोंके घड़ाको और पुत्रको संसार से विरक्त देख अतिदुःखित हुआ अपने अविचारितकामपर उसे बहुत लज्जा आई संसार को असार जान उसने भी धनसे संबंध छोड़दिया । अपनी बार वार निंदा करनेवाले समस्त परिग्रह से विमुख उनदोनों पितापुत्रने मुझसे जैनेश्वरी दक्षिा धारण करली । एवं अतिशयनिर्मलचित्तके धारक, भले प्रकार उत्तमोत्तमशास्त्रोंके पाठी, परिग्रहसे सर्वथा निस्पृह, मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्तिके धारक वे दोनों दुर्धर तप करने लगे। इसप्रकार हे मगधदेशके स्वामी श्रेणिक ! अनेकदेशोंमें विहार करते २ हम तनिों मुनि राजगृहमें भी आये उक्त दो मुनियोंके समान मैं त्रिगुप्ति पालक न था मेरे अभीतक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३०७ ) कायगुप्ति नहिं हुई इसलिये मैंने राजमंदिरमें आहार न लिया आहार के न लेनेका और कोई कारण नहीं । इसरातिसे तीनों मुनिराजोंके मुखसे भिन्न २ कथाके श्रवणसे अतिशय संतुष्ट चित्त मोक्षसंबंधी कथाके परमप्रेमी महाराज श्रेणिक मुनिराजको नमस्कार कर राजमंदिर में गये । राजमंदिरमें जाकर सम्यग्दर्शनपूर्वक जैनधर्मधारण कर मुनिराजोंके उत्तमोत्तमगुणोंको निरन्तर स्मरणकरते हुये रानी चेलना और चतुरंगसेनाके साथ आनन्दपूर्वक राजमंदिरमें रहने लगे। इसप्रकार श्रीपद्मनाभभगवान्के पूर्वभवके जीव महाराज श्रेणिकक चरित्रमें कायगुप्ति कथाका वर्णन करने वाला ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुवा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w ( ३०८ ) wwwwwmmmmmmm चारहवां सर्ग जिस परमोत्तमधर्मकी कृपा से मगधदेश के स्वामी महाराज श्रेणिक को अनुपमसुख मिला । पापरूपी अंधकारको सर्वथा नाश करनेवाले उस परमधर्मके लिये नमस्कार है। __महाराज श्रेणिक को जैनधर्म में जो संदेह थे सो सब हट गयेथे इसलिये भलेप्रकार जैनधर्मके पालक राज्यसंबंधी अनेक भोगभोगनेवाले शुभमार्गपर आरूढ़ राजा श्रेणिक और रानी चेलना सानंद राजगृहनगर में रहने लगे । कभी वे दोनों दंपती जिनेंद्रभगवानकी पूजा करनेलगे कभी मुनियों के उत्तमोत्तम गुणोंका स्मरण करने लगे । कभी उन्होने त्रेसठि महापुरुषोंके पवित्रचरित्र से पूर्ण प्रथमानुयोगशास्त्रका स्वाध्याय किया। कभी लोककी लंबाई चोड़ाई आदि बतलानेवाले करणानुयोगशास्त्रको वे पढ़नेलगे । कभी कभी अहिंसादि श्रावक और मुनियोंके चरित्रको बतलानेवाले चरणानुयोग शास्त्रका उन्होंने श्रवणकिया और कभी गुण द्रव्य और पर्यायोंका वास्तविक स्वरूप बतलानेवाले स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि सप्तभंगनिरूपक द्रव्यानुयोगशास्त्रों को विचारने लगे । इसप्रकार अनेकशास्त्रोंके खाध्यायमें प्रवीण धर्मसंपदाके धारक समस्तविपत्तियोंसे रहित रति और कामदेवतुल्य भोगभोगनेवाले बड़े २ ऋद्धिधारक मनुष्योंसे पूजित रतिजन्यसुखके भी भलेप्रकार आस्वादक वे दोनों दंपती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAANNA इंद्र इंद्राणीके समान सुख भोगने लगे और भोगोमें वे इतने लीन होगये कि उन्हें जाता हुआ काल भी न जान पड़ने लगा। ____बहुतकालपर्यंत भोगभोगने पर रानी चेलना गर्भवती हुई। उसके उदरमें सुषेणचर नामके देवने आकर जन्मलिया । गर्भमारसे रानी चेलनाका मुख फीका पड़ गया। स्वाभाविक कृशभी शरीर और भी कृश होगया। वचन भी वह धीरे २ बोलने लगगई गति भी मंद होगई । और आलस्यने भी उसपर पूरा २ प्रभाव जमा लिया। गर्भवती स्त्रियों को दोहले हुवा करते हैं । और दोहलों से सन्तान के अच्छे बुरे का पता लगजाता है क्योंकि यदि संतान उत्तम होगी तो उसकी माताको दोहले भी उत्तम होंगे । और संतान खराब होगी तो दोहले भी खराब होंगे । रानी चेलनाको भी दोहले होनेलगे। चेलना के गर्भ में महाराज श्रेणिकका परमवैरी अनेकप्रकार कष्ट देनेवाला पुत्र उत्पन्न होनेवाला था इसलिये रानीको जितने भर दोहले हुए सव खराबही हुए जिससे उसका शरीर दिनदिन क्षीण होने लगा। प्राणपतिपर आगामी कष्ट आनेसे उसका सारा शरीर फीका पड़गया प्रातःकालम तारागण जैसे विच्छाय जानपड़ते हैं रानी चेलना भी उसी प्रकार विच्छाय होगई । किसी समय महाराज श्रेणिक की दृष्टि महाराणी चेलना पर पड़ी। उसे इसप्रकार क्षीण और विच्छाय देख उन्हें अति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख हुवा । रानी पास आकर वे स्नेहपरिपूर्ण वचनोमें इस प्रकार कहने लगे। प्राणवल्लभे ! मेरे नेत्रों को अतिशयआनद देनेवाली प्रिये ! तुम्हारे चित्तमें ऐसी कौनसी प्रबलचिंता विद्यमान है जिससे तुम्हारा शरीर रात दिन क्षीण और कांतिरहित होता चला जाता है । कृपाकर उसचिंता का कारण मुझसे कहो बराबर उसके दूर करनेके लिए प्रयत्न किया जायगा । महाराजाके ऐसे शुभ वचन सुन पहले तो लज्जावश रानी चेलनाने कुछ भी उत्तर न दिया किन्तु जब उसने महाराज का आग्रह विशेष देखा तो वह दुःखाश्रुओंको पोछती हुई इसप्रकार विनयसे कहने लगी प्राणनाथ ! मुझसरीखी अभागिनी डांकिनी स्त्रीका संसार में जीना सर्वथा निस्सार है यह जो मैंने गर्भधारण किया है सो गर्भ नहीं आपकी आभिलाषाओंको मूलसे उखाड़नेवाला अंकुर बोया है । इस दुष्टगर्भकी कृपासे मैं प्राणलेनेवाली डांकिनी पैदाहुई हूं। प्रभो ! यद्यपि मैं अपने मुखसे कुछ कहना नहिं चाहती तथापि आपके आग्रहवश कुछ कहती हूं। मुझे यह खराब दोहला हुआ है कि आपके वक्षःस्थलको विदार रक्त देखू । इस दोहलाकी पूर्तिहोना कठिन है इसलिये मैं इसप्रकार अतिचिंतित हूं। रानी चेलनाके ऐसे वचन सुन महाराजश्रेणिकने उसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३११ ) समय अपने वक्षस्थलको चीरा और उससे निकले रक्तको रानी चेलनाको दिखाकर उसकी इच्छाकी पूर्ति की । नवम मासके पूर्ण होने पर रानी चेलनाके पुत्र उत्पन्न हुआ । पुत्रोत्पत्तिका समाचार महाराजके पासभी पहुंचा । उन्होंने दीन अनाथ याचकोंको इच्छाभर दान दिया और पुत्रको देखने के लिए गर्भगृहमें गये । ज्योंही महाराज अपने पुत्र के पास गये । महा राजको देखतेही उसै पूर्वभवका स्मरण हो आया । महाराजको पूर्वभवका अपना प्रबल बैरी जान मारे क्रोधके उसकी मुंठी बँधगई । मुख भयंकर और कुटिल होगया । नेत्र लोहूलोहान होगये । मारे क्रोधके भौहैं चढ़गई । ओठभी डसने लगा और उसकी आखेंभी इधर उधर फिरने लगी । रानीने जब उसकी यह दशा देखी तो उसै प्रबल अनिष्टका करनेवाला समझ वह डर गई । अपने हितकी इच्छासे निर्मोह हो उसने वह पुत्र शीघ्रही वनको भेज दिया । जब राजाको यह पता लगा कि रानीने भयभीत हो पुत्र वनमें भेज दिया है तो उससे न रहागया पुत्रपर मोहकर उन्होंने शीघ्रही उसे राजमांदरमें मंगा लिया उसै पालनपोषणके लिए किसी धायके हाथ सोंप दिया । और उसका नाम कुणिक रख दिया। एवं वह कुणिक दिनोदिन बढ़ने लगा । कुमारकुणिकके बाद रानी चेलनाके वारिषेणनामका दूसरा पुत्र हुआ। कुमारवारिषण अनेक ज्ञानविज्ञानोंका पारगामी, मनोहर रूपका धारक, सम्यग्दर्शनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) भूषित, और मोक्षगामी था । वारिषेणके अनंतर रानी चेलना के हल्ल हल्लके पीछे विदल विदलके पछि जितशत्रु ये तीन पुत्र और भी उत्पन्न हुए । और ये तनिोंही कुमार मातापिताको आनंदित करने वाले हुए। इस प्रकार इन पांच पुत्रों के बाद रानी चेलना के प्रवल भाग्योदयसे सवको आनंद देने वाला फिर गर्भ रहगया गर्भके प्रसादसे रानी चेलनाका आहार कम होगया । गतिभी धीमी होगई । शरीर पर पांडिमा छागई । आवाज मंद होगई । शरीर अति कृश होगया । पेटकी त्रिवलीभी छिपगई । होनेवाला पुत्र समस्त शत्रुओंके मुख काले करेगा इसबातको मानो जतलाते हुवे ही उसके दोनों चूचकभी काले पड़गये । एवं गर्भभारके सामने उसे भूषणभी नहि रुचने लगे। किसी समय रानीके मनमें यह दोहला हुवा कि ग्रीष्मकाल में हाथीपर चढ़कर वरषते मेहमें इधर उधर घूमूं । किंतु इस इच्छा की पूर्ति उसे अतिकठिन जानपड़ी । इसलिये उस चिंतासे उसका शरीर दिनोदिन अधिक क्षीण होनेलगा । जब महराजने रानीको अतिचिंताग्रस्त देखा तो उन्हें परमदुःख हवा । चिंताका कारण जाननेके लिये वे रानी से इसप्रकार कहने लगे। प्रिये ! मैं तुम्हारा शरीर दिनोदिन क्षीण देखता चलाजाता । हूं मुझे शरीर की क्षीणता का कारण नहीं जान पड़ता तुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१३ ) शीघ्र कहो तुम्हे कौनसी चिंता ऐसी भयंकरता से सता रही है । महाराज के ऐसे वचन सुन रानीने कहा-- ___कृपानाथ ! मुझे यह दोहला हुआ है कि मैं ग्रीषमकालमें वरसते हुए मेघमें हाथीपर चढ़कर घूमूं कितु यह इच्छा पूर्ण होनी दुःसाध्य हैं इसलिये मेरा शरीर दिनोंदिन क्षीण होता चला जाता है । रानी की ऐसी काठन इच्छा सुन तो महाराज अचंभे में पड़गये । उस इच्छाके पूर्णकरनेका उन्हें कोई उपाय न सूझा इसलिए वे मोन धारणकर निश्चेष्ट बैठ गये । कुमार अभयने महाराज की यह दशा देखी तो उन्हे बड़ा दुःख हुवा वे महाराज के सामने इस प्रकार विनय से पूछने लगे । पूज्य पिता ! मैं आपको प्रबलचिंतासे आतुर देखरहा हूं मुझे नहीं मालूमपड़ता अकारण आप क्यों चिंता कररहे हैं ? कृपया चिंताका कारण मुझेभी सुनावै । पुत्र अभयके ऐसे बचन सुनक महाराजश्रेणिकने सारी आत्मकहानी कुमारको कह सुनाई और चिंता दूरकरने का कोई उपाय न समझ वे अपना दुख भी प्रगट करने लगे। कुमारअभय अतिबुद्धिमान थे ज्योंही उन्होनें पिताके मुखसे चिंताका कारणसुना शीघ्रही संतोषप्रद वचनोंमें उन्होंने कहा-पूज्यवर ! यह बात क्या कठिन है मैं अभी इस चिंता के हटाने का उपाय सोचता हूं आप अपने चित्तको मलिन न करें। तथा चिंता दूर करनेका उपायभी सोचने लगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) ___ कुछ समय सोचनेपर उन्हें यहबात मालूम हुई कि यह काम बिना किसी व्यतर की कृपासे नहीं होसक्ता इसलिये आधीरात के समय घरसे निकले । व्यतरकी खोजमें किसी श्मशानभूमिकी ओर चलदिये। एवं वहां पहुंचकर किसी विशाल वटवृक्ष के नीचे इधर उधर घूमने लगे । वह श्मशान उलूकों के फूत्कार शब्दोंसे व्याप्त था शृगालोंके भयंकर शब्दोंसे भयावह था । जगह २ वहां अजगर फुकारशब्द कररहे थे मदोन्मत्त हाथियों से अनेक वृक्ष उजड़े पड़े थे। अर्द्धदाहमुर्दे और फूटे घड़ोंके समान उनके कपाल वहां जगह २ पड़े थे मांसाहारी भयंकरजीवोंके रौद्रशब्द क्षण २ में सुनाई पड़तेथे अनेक जगह वहां मुरदे जलरहे थे और चारों ओर उनका धूआं फैला हुवा था मांसलोलुपी कुतेभी वहां जहां तहां भयावह शब्द करते थे। चारो ओर वहां राखकी ढेरिया पड़ी थीं। इसलिये मार्ग जाननाभी कठिन पड़जाता था। एवं चारोओर वहां हड्डियांभी पड़ीथी । बहुत काल अंधकारमें इधर उधर घूमनेपर किसी वटवृक्षके नीचे कुछ दीपक जलते हुवे कुमारको दीख पड़े वह उसी वृक्षकी ओर झुक पड़ा और वृक्ष के नीचे आकर उसे धीर वीर जयशील स्थिरचित्त चिरकालसे उद्विग्न एवं जिसके चारो ओर फूलरक्खे हुए हैं कोई उत्तम पुरुष दीखपड़ा । पुरुषको ऐसी दशापन्न देख कुमारने पूछा। ____भाई ! तू कौन है ? क्या तेरा नाम है ? कहांसे तू यहां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) आया ? तेरा निवासस्थान कहां है ? और तूं यहां आकर क्या सिद्ध करना चाहता है ? कुमारके ऐसे बचन सुन उस पुरुष ने कहा। राजकुमार ! मेरावृत्तात आतिशय आश्चर्यकारी है यदि आप उसे सुनना चाहते हैं तो सुनें मैं कहता हूं। विजयापर्वतकी उत्तरदिशा में एक गमनप्रिय नामका नगर है । गमनाप्रिय नगर का स्वामी अनेक विद्याधर और मनुष्योंसे सेवित मैं राजा वायुवेग था । कदाचित् मुझे विजयापर्वतपर जिनेन्द्र चैत्यालयोंके बंदनार्थ आभिलाषा हुई । मै अनेक राजाओं के साथ आकाशमार्गसे अनेकनगरोंको निहारता हुवा विजयार्धपर्वतपर आगया । उसी समय राजकुमारी सुभद्रा जो कि बालकपुरके महाराज की पुत्री थी अपनी सखियों के साथ विजया पर्वत पर आई । राजकुमारी सुभद्रा आतिशय मनोहरा थी यौवनकी अद्वितीय शोभासे मंडित थी मृगनयनी थीं। उसके स्थूल किंतु मनोहरनितंब उसकी विचित्र शोभा बनारहे थे एवं रतिके समान अनेकविलाससंयुत होनेसे वह साक्षात् रतिही जानपड़ती थी । ज्योंही कमलनेत्रा सुभद्रा पर मेरी दृष्टी पडी मैं बेहोस होगया कामबाण मुझे वेहद रीतिसे बेधने लगे। मेरा तेजस्वीभी शरीर उस समय सर्वथा शिथिल हो गया विशेष कहां तक कहूं तन्मय होकर मैं उसीका ध्यान करने लगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __सुभद्रा विना जब मेरा एक क्षणभी बर्षसरीखा वीतने लगा तो विना किसीके पूछे मैं जबरन सुभद्राको हरलाया और गमनप्रिय नगर में आकर आंनदसे उसके साथ भोग भोगनेलगा । इधर मैं तो राजकुमारी सुभद्रा के साथ आनन्द से रहने लगा और उधर किसी सखीने वलाकपुरकेस्वामी सुभद्राके पितासे सारी वोखता कहसुनाई और मेरा ठिकाना भी बतला दिया सुभद्राकी इसप्रकार हरणवार्ता सुन मारे क्रोधके उसका शरीर भभक उठा और विमानपंक्तियों से समस्त गगनमंडलको आच्छादन करता हुआ शीघ्र ही गमनप्रिय नगरकी ओर चल पड़ा। विलाकपुरके स्वामीका इसप्रकार आगमन मैंने भी सुना अपनीसेना सजाकर मैं शीघ्रही उसके सन्मुख आया चिरकालतक मैंने उसके साथ और अनेक विद्याओंके जानकार तीक्ष्णखङ्गोंके धारी उसके योधाओंके साथ युद्ध किया । अंत में बलाकपुरके स्वामीने अपने विद्याबलसे मेरी समस्तीवद्या छीनली सुभद्राको भी जबरन लेगया । विद्याके अभावसे मैं विद्याधरभी भूमिगोचरीके समान रहगया । अनेकशोकोंसे आकुलित हो मैं पुनः उसविद्याकेलिये यह मंत्र सिद्ध कररहा हूं बारह वर्षपर्यंत इस मंत्र के जपनेसे वह विद्या सिद्ध होगी एसा नैमत्तिकने कहा है । किन्तु बारहवर्ष बीतचुके अभीतक विद्या सिद्ध न हुई इसलिये मैं अब घर जाना चाहताहूं। ज्योंही कुमारने उस पुरुष के मुखसे ये समाचार सुने शीघही पूछा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) भाई वह कौनसा मंत्र है मुझे भी तो दिखाओ देखूं तो वह कैसा कठिन है ? कुमारके इसप्रकार पूछेजाने पर उस पुरुषने शीघ्र ही वहमंत्र कुमारको बतला दिया । कुमार अतिशयपुण्यात्मा थे उस समय उनका भाग्य सुभाग्य था इसलिये उन्होंने मंत्र सीखकर शीघ्र ही इधर उधर कुछ बीज क्षेपण कर दिये और बातकी बातमें बह मंत्र सिद्ध करलिया मंत्रसे जो २ विद्या सिद्ध होनेवाली थीं शीघ्र ही सिद्ध होगईं । कुमारके प्रसादसे राजा वायुवेगको भी विद्या सिद्ध होगईं जिससे उसे परमसंतोष होगया एवं वे दोंनो महानुभाव आपस में मिल भेंटकर बड़े प्रेमसे अपने अपने स्थान चले गये । मंत्र सिद्ध कर कुमार अपने घर आये । विद्यात्रलसे उन्होंने शीघ्रही कृत्रिम मेघ बनादिये । रानी चेलनाको हाथी पर चढ़ालिया इच्छानुसार उसे जहां तहां घुमाया । जब उसके दोहले की पूर्ति होगई तो वह अपने राजमहल में आगई । दोहलेकी पूर्ति कठिनसमझ जो उसके चित्तमें खेद था वह दूर होगया । अब उसका शरीर सोनेके समान दमकने लगा । नोमास के बीत जानेपर रानी चेलनाके अतिशय प्रतापी शत्रुओं का विजयी पुत्र उत्पन्न हुआ । और दोहलेके अनुसार उसका नाम गजकुमार रक्खा गया । गजकुमारके बाद रानी चेलना के मेघकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । सात ऋषियोंसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) आकाशमें जैसी तारा शोभित होतीहै रानी चेलनाभी ठीक उसी प्रकार सातपुत्रोंसे शोभित होनेलगी । इसप्रकार आपसमें आतशय सुखी समस्तखेदोंसे रहित वे दोंनो दंपती आनन्द पूर्वक भोगभोगते राजगृह नगरमें रहने लगे। ___ कदाचित् अनेक राजा और सामंतोसे सेवित भलेप्रकार बंदीजनोंसे स्तुत महाराज श्रेणिक छत्र और चंचल चमरोंसे शोभित अत्युन्नत सिंहासनपर बैठतेही जाते थे कि अचानकही सभामें वनमाली आया । उसने विनयसे महाराजको नमस्कार किया एवं षट्कालके फल और पुष्प महाराजकी भेट कर वह इस प्रकार निवेदन करने लगा। समस्तपुण्योंके भण्डार ! बड़े २ राजाओंसे पूजित ! दयामयचित्तके धारक ! चक्र और इन्द्रकी विभूतिसे शोभित ! देव !-विपुलाचल पर्वतपर धर्मके स्वामी भगवान महावीर का समवसरण आया है । भगवानके समवसरणके प्रसादसे वनश्रीसाक्षात् स्त्री वनगई है क्योंकि स्त्री जैसी पुत्ररूपी फल युक्त होती है वनश्री भी स्वादु और मनोहर फलयुक्त होगई है। स्त्री जैसी सपुष्पा रजोधर्मयुक्त होती है वनश्री भी सपुप्पा हरे पीले अनेक फूलोंसे सज्जित होगई है । स्त्री जैसी यौवनअवस्थामें मनोद्दीप्ता कामसे दीप्त होजाती है वनश्रीभी मदनोद्दीप्ता मदनवृक्षसे शोभित होगई है । भगवान के समवसरणकी कृपासे तालावाने सज्जनोंके चित्तकी तुलना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९ ) की है क्योंकि सज्जनोंका चित्त जैसा रस पूर्ण करुणा आदिरसोंसे व्याप्त रहता है तालाब भी उसी प्रकार रसपूर्ण जल से भरे हुए हैं सज्जनोंका चित्त जैसा सपद्म- अष्टदलकमलाकार होता है तालाब भी सपद्म — मनोहर कमलोंसे शांभित है सज्जनचित्त जैसा वर — उत्तम होता हैं तालाबभी वर - उत्तम है सज्जन चित्त जैसा निर्मल होता है तालाब भी उसी प्रकार निर्मल है । सज्जनोंके चित्त जैसे गंभीर होते हैं तालाबभी इस समय गंभीर है इसप्रकारसे भी वनश्रीने स्त्री की तुलना की है क्योंकि – स्त्री जैसी सवंशा - कुलना होती है वनश्री भी सर्वंशा वांसा से शोभित है। स्त्री जैसी तिलकोद्दीप्ता तिलक से शोभित रहती है वनश्री भी तिलकोद्दीप्ता – तिलकवृक्षसे शोभित है स्त्री जैसी मदनाकुला - कामसे व्याकुलरहती है वनश्री भी मदनाकुला - मदन वृक्षोंसे व्याप्त है । स्त्री जैसी सुवर्णा मनोहर वर्णवाली होती है वनश्री भी सुवर्णा हरे पीले वर्णोंसे युक्त है । स्त्रीके सर्वागमें जैसा मन्मथ काम जाज्वल्यमान रहता है वनश्री भी मन्मथजातिके वृक्षों से जहां तहां व्याप्त है पद्मिनी स्त्री जैसी भोरों की जंघारोंसे युक्त रहती है वनश्रीभी भोंरोकी जंघारसे शोभित है स्त्री जैसीहास्य युक्त होती हैं वनश्री भी पुष्परूपी हास्य युक्त है । स्त्री जैसी स्तन युक्त होती है वनश्री भी ठीक उसीप्रकार फलरूपी स्तनोंसे शोभित है । प्रभो ! इससमय नोले आनंदसे सर्पोंके साथ क्रीड़ा कर - I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ― www.umaragyanbhandar.com Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) रहे हैं। बिल्ली वैर रहित मूसोंके साथ खेल रहे हैं । अपनापुत्र समझ हथिनी सिंहनीके बच्चोंको आनंद से दूध पिला रही है और सिंहनी हथिनियों के बच्चों को प्रेमसे दूध पिला रही है । प्रजापालक ! समवसरणके प्रसादसे समस्तजीव वैर रहित होगये हैं मयूरगण सर्पोंके मस्तकोंपर आनंद से नृत्यकर रहे हैं । विशेष कहांतक कहा जाय इससमय नहिं संभव भी काम बड़े २ देवोंसे सेवित महावीर भगवानकी कृपासे होरहे हैं । मालीके इसप्रकार अचिंत्यप्रभावशाली भगवान् महावीरका आगमन सुन मारे आनंदके महाराजका शरीर रोमांचित होगया । उदयादिसे जैसा सूर्य उदित होता है महाराज भी उसीप्रकार शीघ्रहां सिंहासन से उठपड़े। जिस दिशामें भगवानका समवशरण आया था उसदिशा की ओर सात पैंड चलकर भगवानको परोक्ष नमस्कार किया । उस समय जितने उनके शरीर पर कीमती भूषण और वस्त्र थे तत्काल उन्हें मालीको देदिया धन आदि देकर भी मालीको संतुष्ट किया । समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले महाराजने समस्त नगरनिवासियोंके जनानेके लिये बड़ी भक्ति और आ नंदसे नगर में ड्योढ़ी पिटवा दी । ड्योढ़ीकी आवाज सुनतेही नगरनिवासी शीघ्र ही राजमहल के आंगन में आगये उनमें अनेक तो घोड़ोंपर सवार थे और अनेक हाथीपर और रथोंपर बैठे थे । सब नगरनिवासियों के एकचित्त होतेही रानी पुरवासी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१ ) 1 राजा सामंत और मंत्रियों से वेष्टित महाराज शीघ्र ही भगवानकी पूजार्थ वनकी ओर चल दिये । मार्ग में घोड़े आदिके पैरोंसे जो धूलि उठती थी वह हाथियोंके मदजलसे शांत होजाती थी । उस समय जीवोंके कोलाहलोंसे समस्त आकाश व्याप्त था, इसलिये कोई किसीकी बात तक भी नहिं सुन सकता था । यदि किसीको किसी से कुछ कहना होता था तो वह उसकी मुहकी ओर देखता था । और बड़े कष्टसे इशारे से अपना तात्पर्य उसै समझाता था | उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों बाजोंक शब्दों से सेना दिक्ास्त्रियों को बुला रही है । उस समय सवोंका चित्त कर्मविजयी भगवान महावरिमें लगा था । और छत्रोंका तेज सूर्यतेजकोभी फीका कर रहा था । इस प्रकार चलते २ महाराज समवसरण के समीप जा पहुंचे । समवसरण को देख महाराज शीघ्रही गजसे उत्तर पड़े । मानस्तंभ और प्रतिहायों की अपूर्व शोभा देखते समवसरणमें घुस गये । वहां जिनेंद्र महावीरको विशाल किंतु मनोहर सिंहासनपर विराजमान देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं मंत्रपूर्वक पूजा करना प्रारंभ कर दिया । सबसे प्रथम महाराजने क्षीरोदधि के समान उत्तम और चंद्रमा के समान निर्मल जलसे प्रभूकी पूजा की। पश्चात् चारों दिशामें महकनेवाले चंदनसे और अखंड तंदुलसे जिनेंद्र पूजै । कामबाणके विनाशार्थ उत्तमोत्तम चंपा आदि पुष्प और क्षुधारोग विनाशार्थ उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पक्कान चढ़ाये | समस्त ^^^ २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३.२ ) दिशायें प्रकाश करनेवाल रत्नमयी दीपकोंसे और उत्तम धूपसे भी भगवानका पूजन किया । एवं मोक्षफलकी प्राप्तिके लिये उत्तमोत्तम फल और अनर्घपदकी प्राप्त्यर्थ अर्घभी भगवानके सामने चढ़ाये । जब महाराज श्रेणिक अष्टद्रव्यसे भगवानकी पूजा कर चुके तो उन्होंने सानंद हो इसप्रकार स्तुति करना प्रारंभ कर दिया.-- हे समस्त देवोंके स्वामी ! बड़े २ इंद्र और चक्रवर्तियोंसे पूजित आपमें इतने अधिक गुण हैं कि प्रखर ज्ञानके धारक गणधरभी आपके गुणों का पता नहिं लगा सकते । आपके गुणस्तवन करनेमें विशाल शक्तिके धारक इंद्रभी असमर्थ है । मुझे जान पड़ता है कामको सर्वथा आपनेही जलाया है । क्योंकि महादेव तो उसके भयसे अपने अंगमें उसकी विभूति लपेटे फिरते हैं । विष्णु रातदिन स्त्रीसमुदायमें घूसे रहते हैं । ब्रह्माभी चतुर्मुख हो चारों दिशाकी ओर कामदेवको देखते रहते हैं । और सदा भयसे कपते रहते हैं । प्रभो! ऊंचापना जैसा मेरु पर्वतमें है अन्य किसीमें नहिं उसी प्रकार अखंड ज्ञान जैसा आपमें है वसा किसीमें नहिं । दीनबंधो ! जो मनुष्य आपके चरणाश्रित हो चुका है यदि वह मत, और सुगंधिसे आये भोगेकी झंकारसे अतिशय क्रुद्ध महाबली गजके चक्रमें भी आजाय ता भी गज उसका कुछ नहिं कर सकता । जिस मनुष्यक पास आपका ध्यानरूपी अष्टापद मो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२३) जूद है मत्त हाथियोंके गंडस्थल विदारण करनेमें चतुरभी सिंह उसे कष्ट नहि पहुंचा सकता । आपके चरणसेवी मनुष्यका कल्पांतकालीन और अपने फुलिंगोंसे जाज्वल्यमान अमिभी कुछ नहिं कर सकती । महामुने ! जिस मनुष्यके हृदयमें आपकी नाम रूपी नाग दमनी बिराजमान है । चाहै सर्प कैसा भी भयंकर हो उस मनुष्यके देखतेही शीघ्र निर्विष होजाता है। दयासिंघो ! जो मनुष्य आपके चरणरूपी जहाजमें स्थित है चाहै वह वड़वानलसे व्याप्त, ताके मगर आदि जीवोंसे पूर्ण समुद्रमें ही क्यों न जा पड़े बातकी बातमें तैरकर पारपर आ जाता है । जितेंद्र ! जिन मनुष्योंने आपका नामरूपी कवच धारण कर लिया है वे अनेक भाले, बड़ेर हाथियोंके चीत्कारोंसे परिपूर्ण, भयंकर भी संग्राममें देखते२ विजय पालेते हैं। कोढ़ जलोदर आदि भयंकर रोगोसे पीडित भी मनुष्य आपके नामरूपी परमौषधिकी कृपासे शीघ्रही नीरोग होजाता है । गुणाकर ! जिनका भंग संकलोंसे जिकड़ा हुआ है। हाथ पैरोंमें बेड़ियां पडी है यदि ऐसे मनुष्यों के पास आपका नामरूपी अद्भुत खड्ग मोजूद है तो वे शीघ्रही बंधनरहित होजाते हैं । प्रभो ! अनादिकालसे संसाररूपी घरमें मम अनेक दुःखोंका सामना करनेवाले जीवोंके यदि शरण हैं तो तीनों लोकमें आपही हैं। प्रभो ! कथंचित् गणनातीत मैं आपके गुणोंकी गणना करता हूं। कृपानाथ ! गंभीर गणनातीत प्रसन्न परम पसं इतने गुणही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) www.rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr आपमें हैं इनसे अधिक आपमें गुण नहिं । इस लिये हे कल्याणरूप जिनेंद्र ! आपके लिये नमस्कार है । महामुने ! परमयोगीश्वर वीरभगवान् ! आप मेरी रक्षा करें। ___इस प्रकार भगवान महावीरको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर और गातम गणधरको भी भक्तिपूर्वक शिर नवाकर महाराज मनुष्य कोठेमें वैठि गये । एवं धर्मरूपी अमृतपानकी इच्छासे हाथ जोड़कर धर्मकी बाबत कुछ पूछा-महाराज श्रेणिकके इस प्रकार पूछनेपर समस्त प्रकारकी चेष्टाओंसे रहित भगवान | महावीर अपनी दिव्यवाणीसे इस प्रकार उपदेश देने लगे-- राजन् ! सकल भव्योत्तम ! प्रथम ही तुम सात तत्वोंका श्रवण | करो । सातों तत्त्व सम्यग्दर्शनके कारण है और सम्यग्दर्शन मोक्षका कारण है । वे सात तत्त्व जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष हैं । जीवके मूल भेद दो हैं-वस और स्थावर । स्थावर पांच प्रकार हैं-पृथ्वी, अप् , तेज, वायु और वनस्पति । ये पांचो प्रकारके जीव चारों प्राणवाले होते हैं । और इनके केवल स्पर्शन इंद्रिय होती है । ये पांचो प्रकारके जीव सूक्ष्म और स्थूल भेदसे दो प्रकार भी कहे गये हैं और ये सब जीव पर्याप्त अपर्याप्त और लब्धपर्याप्त इस रीतिसे तीन प्रकार भी हैं। पृथ्वीजीव चार प्रकार हैं-पृथ्वीकाय, पृथ्वीजीव, पृथ्वी और पृथ्वीकायिक । इसी प्रकार जलादिके भी चार२ भेद समझ लेना चाहिये । आदिके चार जीव घनांगुलके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) असंख्यातवे भाग शरीरके धारक हैं। वनस्पतिकायके जीवोंका उत्कृष्ट शरीर परिमाण तो संख्यातांगुल है और जघन्य अंगुलके असंख्यात भाग है । शुद्धेतर पृथ्वीजीवोंकी आयु बारह हजार वर्षकी है । जलजीवोंकी बाईस हजार वर्षकी है। तेजकायिक जीवों की सात हजार और तीन वर्षकी है । एवं वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार और वनस्पतिकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु दश हजार वर्षकी है । विकलेंद्रिय जीव तीन प्रकार हैंदोइंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय । संज्ञी और असंज्ञी भेदसे पंचेंद्रिय भी दो प्रकार हैं । पंचेंद्रिय जीव, मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारकी भेदसे भी चार प्रकार है । नारकी सातो नरकमें रहने के कारण सात प्रकार है । तिर्यंचोंके तीन भेद हैं-जलचर, स्थलचर और नभचर । भोगभूमिज और कर्मभूमिज भेदसे मनुष्य दो प्रकारके हैं । जो मनुष्य कर्मभूमिज है वेही मोक्षके अधिकारी हैं। देवभी चार प्रकार हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवनवासी दश प्रकार है, व्यंतर आठ प्रकार, ज्योतिषी पांच प्रकार और वैमानिक दो प्रकार है । इस प्रकार संक्षेपसे जीवोंका वर्णन कर दिया गया। अब अजीवतत्त्वका वर्णन भी सुनिये___अजीवतत्त्वके पांच भेद हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । उनमें धर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशी जीव और पुद्गलके गमनमें कारण, एक, अपूर्व और सत्तारूप द्रव्य लक्षण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) I युक्त है । धर्म द्रव्य भी वैसा ही है किन्तु इतना विशेष है कि यह स्थितिमें सहकारी है । आकाश के दो भेद है - एक लोकाकाश, दूसरा अलोकाकाश । लोकाकारों असंख्यात प्रदेशी है । और अलोकाकाश अनंत प्रदेशी है । लोकाकाश सब द्रव्योंको घरके समान अवगाह दान देने में सहायक है । काल द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी एक और द्रव्य लक्षण युक्त है । यह रत्नोंकी राशिके समान लोकाकाशमें व्याप्त है । और समस्त दव्यों के वर्तना परिणाममें कारण है । कर्म वर्गणा आहार वर्गणा आदि भेदसे पुद्गल द्रव्य अनंत प्रकार है । और यह शरीर और इंद्रिय आदिकी रचना सहकारी कारण है । आस्रव दो प्रकार है - द्रव्यासव और भावासव । दोनों ही प्रकारके आस्रवके कारण मिथ्यात्व,अविरति, प्रमाद आदि हैं । जीव विभाव परिणामोंसे बंध होता है । और उसके चार भेद हैं- प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध | आस्रवका रुकना संवर है । संवरके भी दो भेद हैं- द्रव्यसंवर और भावसंवर। और इन दोनों ही प्रकार के संवरोंके कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि हैं। निर्जरा दो प्रकार है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । सविपाक निर्जरा साधारण और अविपाक निर्जरा तपके प्रभावसे होती है । द्रव्यमोक्ष और भावमोक्षके भेदसे मोक्ष भी दो प्रकार कहागया है । और समस्त कर्मोंसे रहित हो जाना मोक्ष है । मगधेश ! यदि इन्ही I 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nnnnnnn (३२७ ) तत्त्वोंके साथ पुण्य और पाप जोड़ दिये जाय तो येही नव पदार्थ कहलाते है । इस प्रकार पदार्थोंके स्वरूपके वर्णनके अनंतर भगवानने श्रावक मुनिधर्मका भी वर्णन किया। महाराज श्रेणिकके प्रश्नसे भगवानने त्रेसठिसलाका पुरुषोंका चरित्र भी वर्णन किया । जिससे महाराज श्रेणिकके चित्तमें जो जैनधर्म विषयक अंधकार था शीघ्र ही निकल गया। जब महाराज श्रेणिक भगवानकी दिव्यध्वनिसे उपदेश सुन चुके तो अतिशय विशुद्ध मनसे राजा श्रेणिकने गौतम गणध को नमस्कार किया और विनयसे इस प्रकार निवदन करने लगे भगवन् ! पुराणश्रवणसे जैनधर्ममें मेरी बुद्धि दृढ़ है। संसार नाश करनेवाली श्रद्धा भी मुझमें है तथापि प्रभो ! मैं नहिं जान सकता मेरे मनमें ऐसा कोनसा अभिमान वैठा है जिससे मेरी बुद्धि व्रतोंकी ओर नहिं झुकती। मगधेशके ऐसे वचन सुन गणनायक गौतमने कहा: राजन् ! भोगके तीव्र संसर्गसे गाढ़ मिथ्यात्वसे मुनिराजके गलेमें सपे डालनेसे दुश्चरित्रसे और तीव्रपरिग्रहसे तूने पहिले नरकायु बांध रक्खी है इसलिये तेरी परिणति व्रतोंकी ओर नहिं झुकती । जो मनुष्य देवगतिका बंधन बांध चुके हैं। उन्हींकी बुद्धि व्रत आदिमें लगती है। अन्यगतिकी आयु बांधनेवाले मनुष्य व्रतोंकी ओर नहिं झुकते । नरनाथ ! संसारमें तू भव्य और उत्तम है । पुराणश्रवणसे उत्पन्न हुई विशुद्धिसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.rr..........morrrrrrrrrrrrrrr ( ३२८ ) तेरा मन अतिशय शुद्ध है । सात प्रकृतियोंके उपशमसे तेरे औपशमिक सम्यग्दर्शन था। अंतर्मुहूर्तमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाकर उन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे अब तेरे क्षायिक सम्यक्वकी प्राप्ति हो गई है। यह क्षायिक सम्यक्त्व निश्चल अविनाशी और उत्कृष्ट है। भव्योत्तम ! जिनेंद्रद्वारा प्रतिपादित, पूर्वापर विरोधरहित शास्त्रोद्वारा निरूपित निर्दोष सात तत्त्वोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन कहा गया है। इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अतिशय दुर्लभ मानी गई है। संसाररूपी विषवृक्षके जलानेमें सम्यग्दर्शनके सिवाय कोई वस्तु समर्थ नहिं । सम्यग्दर्शनसे वढ़कर संसारमें कोई सुख भी नहिं और न कोई कर्म और तप है । देखो-सम्यग्दर्शनकी कृपासे समस्त सिद्धियां मिलती हैं। सम्यग्दर्शनकी ही कृपासे तीर्थंकरपना और स्वर्ग मिलता है एव संसारमें जितने सुख है वेभी सम्यग्दर्शनकी कृपासे बातकी बातमें प्राप्त हो जाते हैं। राजन् ! इस संम्यग्दर्शनकी कृपासे जीवोंके कुव्रत भी सुव्रत कहलाते हैं और उसके बिना योगियोंके सुव्रत भी कुव्रत हो जाते हैं । भव्योत्तम ! तू अब किसी बातका | भय मत करै । सम्यग्दर्शनकी कृपासे आगे उत्सर्पिणी कामें तू इसी भरतक्षेत्रमें पद्मनाभ नामका धारक तीर्थकर होगा। इसलिये तू आसन्न भव्य है । तू अब निर्भय हो । तूने तीर्थंकर प्रकृतिको कारण भावना भाली हैं। समस्त दोषरहित तूने सम्यग्दर्शन प्राप्त करलिया है। और विनयगुण तुझमें स्वभावसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ ) है । तेरा चित्त भी शीलव्रतकी ओर झुका है। यह शीलवत व्रतोंकी रक्षार्थ छत्रके समान है । मगधेश्वर ! तू अपने चित्तमें संवेगकी भावना करता है । भवभोगसे निवृत्त होनेके लिये तपमें भी मन लगाता है । शक्त्यनुसार धर्मार्थ जिनपूजा आदिमें । तेरा धन भी खर्च होता है । साधुओंका समाधान भी तू आधर्यकारी करता है । शास्त्रानुसार तू योगियोंका वैयावृत्य भी करता है | समस्त कर्म रहित जिनेंद्र भगवान में तेरी भक्ति भी अद्वितीय है । भले प्रकार शास्त्र के जानकार उत्तमोत्तम आचायौंकी उपासना भी तू भक्ति और हर्षपूर्वक करता है । जिनप्रतिपादित शास्त्रोंका तू भक्त भी है । इस समय षट् आवश्यकोंमें तेरी बुद्धि भी अपूर्व है । धर्म के प्रसारके लिये तू जैनमार्गकी प्रभावना भी करता है । जैन मार्गके अनुयायी मनुष्योंमें वात्सल्य भी तेरा उत्तम है । राजन् ! त्रैलोक्य क्षोभका कारण परम पवित्र सोलह भावना भानेसे तूने तीर्थंकरपदका बंध भी बांध लिया है । अब तू प्राणोंका त्यागकर प्रथम नरक रत्नप्रभामें जायगा और वहां मध्य आयुका भोगकर भविष्यत् कालमें नियमसे रत्नधामपुरमें तू तीर्थंकर होगा । मुनिनाथ गौतमके ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिकने कहा : नाथ ! अधोगतिका प्रियपना क्या है ? श्रेणिकका भीतरी भाव समझ गौतम गणाधरने राजा श्रेणिकको कालसूकरकी कथा सुनाई । उसने पहिले अपने पापोदयसे सप्तम नरककी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३०) आयु बांध पुनः किस रीतिसे उसका छेद किया सोभी कह सुनाया । इस प्रकार गौतम गणधरके वचनोंसे अतिशय संतुष्ट अनेक बड़े२ राजाओंसे पूजित महाराजने जिनराजके चरणकमलोंसे अपना मन लगाया और समस्त कल्याणोंसे युक्त हो अपने पुत्र पौंत्रोके साथ शत्रु रहित हो गये । पापोंसे जो पहिले सप्तम नरककी आयु बांध ली थी उस आयुका अपने उत्कृष्ट भावों द्वारा महाराज श्रेणिकने छेद कर दिया तथा तीर्थंकर नाम कर्मकी शुभ भावना भानसे भविष्यतमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध बांधकर अतिशय शोभाको धारण करने लगे । देखो मावोंकी विचित्रता ! कहां तो सप्तम नरककी उत्कृष्ट स्थिति और कहां फिर केवल प्रथम नरककी मध्यम स्थिति ? यह सब धर्मका ही प्रसाद है । धर्मकी कृपासे जीवोंको अनेक कल्याण आकर उपस्थित हो जाते हैं और धर्मकी कृपासे तीर्थंकर पदकी भी प्राप्ति हो जाती है इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि वे निरंतर धर्मका आराधन करें। इस प्रकार भविष्यत कालमें होनेवाले श्रीपद्मनाभ तीर्थंकरके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्रमें महाराज श्रेणिकको क्षायिक सम्यकदर्शनकी उत्पत्ति वर्णन करनेवाला बारहवा सर्ग समाप्त हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) त्रयोदशसर्ग | 100 गणके स्वामी मुनियोंमें उत्तम श्रीगौतम गणधरको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बड़ी विनयसे कुमार अभयने अपने भवों को पूछा - कुमारको इस प्रकार अपने पूर्वभव श्रवणकी अभिलाषा देख गौतम गणधर कहने लगे- कुमार अभय ! यदि तुम्हें अपने पूर्ववृतांत सुननेकी अभिलाषा है तो मैं कहता हूं, तुम ध्यानपूर्वक सुनोः - इसी लोकमें एक वेणातड़ाग नामकी पुरी है । वेणातड्रागमें कोई रुद्रदत्त नामका ब्राह्मण निवास करता था वह रुद्रदत्त बड़ा पाखंडी था इसलिये किसी समय तीर्थाटन के लिये निकल पड़ा और घूमता २ उज्जयनी में जा निकला । उस समय उज्जयनीमें कोई अर्हदास नाम का सेठ रहता था। उसकी प्रियभार्या जनमती थी वे दोनों ही दंपती जैनधर्मके पवित्र सेवक थे । अनेक जगह नगर में फिरता फिरता रुद्रदत्त सेठि अर्हदास के घर आया और कुछ भोजन मागने लगा । वह समय रात्रिका था इसलिये ब्राह्मणकी भोजनार्थ प्रार्थना सुन जिनमतीने कहा यह समय रात्रिका हैं | विप्र ! मैं रात्रिमें भोजन न दूंगी। सेठानी जिनमत के ऐसे वचन सुन रुद्रदत्तने कहाबहिन ! रात्रिमें भोजन देने में और करने में क्या दोष है ? जिससे तू मुझे भोजन नहिं देती ? जिनमतीने कहा- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) 1 प्रिय भव्य ! रात्रि में भोजन करने से पतंग, डांस, मांखी आदि जीवों का घात होता है इसलिये महापुरुषोंने रात्रिका भोजन अनेक पाप प्रदान करनेवाला हिंसामय, घृणित और अनेक दुर्गतियोंका देनेवाला कहा है । यह निश्चय समझो जो मनुष्य रात्रि में भोजन करते हैं वे नियमसे उल्लू वाघ हिरण सर्प वीछू होते हैं और रात्रि भोजियों को बिल्ली और मूसोंकी योनियोंमें घूमना पड़ता है । और सुन - जो मनुष्य रात्रिमें भोजन नहिं करते उन्हें अनेक सुख मिलते हैं । रातमें भोजन न करनेवालोंको न तो इस भव संबंधी कष्ट भोगना पड़ता है और न परभव संबंधी । इसलिये हे वि! मैं तुम्हें रात में भोजन न दूंगी। सवेरा होते ही भोजन दूंगी। जिनमतीकी ऐसी युक्तियुक्त वाणी सुनकर विप्रने शीघ्रही रात्रिभोजनका त्याग किया और सवेरे आनंदपूर्वक भोजनकर सम्यक्त्व गुणसे भूषित किसी जैन मनुष्य के साथ गंगास्नान के लिये चल दिया । मार्ग में चलते२ एक पीपलका वृक्ष, जो कि फलोंसे व्याप्त था लंबी शाखाओंका धारी, भांति भांति के पक्षियोंसे युक्त, और जिसके चौतर्फी बड़े २ पाषाणों के ढेर थे, दीख पड़ा । वृक्षको देखते ही ब्राह्मणका कंठ भक्ति से गद्गद हो गया । उसे देव जान शीघ्र ही उसने नमस्कार किया । गाढ मिथ्यात्व से मोहित हो शीघ्र ही उसकी तीन परिक्रमा दी और वार२ उसकी स्तुति करने लगा । विप्र रुद्रदत्तकी ऐसी चेष्टा देख और उसे प्रबल मिथ्यामती समझ उसके बोधार्थ वह वणिक कहने लगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (३३३ ) विप्रवर ! कृपया कहो यह किस नामका धारक देव है ! और इसका माहात्म्य क्या है ! विप्रने जवाब दिया विष्णु भगवानके वासके लिये यह बाधिकर्म नामका देव | है । यह इच्छानुसार मनुष्योंका बिगाड़ सुधार कर सकता है । | ब्राह्मणके मुखसे वृक्षकी यह प्रशंसा सुन वणिकने शीघ्रही उसमें दो लात मारी और उससे पत्ते तोड़कर उन्हें जमीन पर बिछाकर शीघ्रही उनके ऊपर बैठि गया और विप्रसे कहने लगा प्रियविप्र ! अपने ईश्वरका प्रताप देखो। अरे ! यह वनस्पति मनुप्यों पर क्या रिस खुश हो सकती है ? वणिककी वैसी चेष्टा देख रुद्रदत्तने जवाब तो कुछ नहिं दिया किंतु अपने मनमें यह निश्चय किया कि अच्छा क्या हर्ज है ? कभी मैं भी इसके देवताको देखंगा । इस वणिकने नियमसे मेरा अपमान किया है तथा इस प्रकार अपने मनमें विचार करतार कहने लगा-भाई ! देवकी परीक्षामें किसीको मध्यस्थ करना चाहिये । ब्राह्मण रुद्रदत्तके ऐसे वचन सुन वणिकने उसके अंतरंगकी | कालिमा समझ ली तथा वह वणिक उसै इस रीतिसे समझाने लगा प्रिय मित्र ! यह पीपल एकेंद्रिय जीव है । इसमें न तो मनुष्योंके समान विशेष ज्ञान है न किसी प्रकारकी सामर्थ्य है। यह तो केवल पक्षियोंका घर है । तुम निश्चय समझो सिवाय शुभाशुभ कर्मके यहां किसीमें सामर्थ्य नहिं जो मनुष्योंका बिगाड़ सुधार कर सके । प्रिय भ्राता ! यह निश्चय है जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) मनुष्य धर्मात्मा है बड़े२ देव भी उनके दास बन जाते हैं और पापियोंके आत्मीयजन भी उनसे विमुख हो जाते हैं। इस प्रकार अपनी वचनभंगीसे और जिनेंद्र भगवानके आगमकी कृपासे श्रावक उस वणिकने शीघ्रही ब्राह्मणका मिथ्यात्व दूर कर दिया और वे दोनों स्नेहपूर्वक बातचीत करते हुए आगेको चल दिये। आगे चल कर वे दोनों गंगा नदिके किनारे पहुंचे । वणिक तो भूखा था इसलिये वह खानेको बैठि गया और रुद्रदत्त शीघ्रही स्नानार्थ गंगामें घुस गया। बहुत देर तक उसने गंगामें स्नान किया पानी उछालकर पितरोंको पानी दिया पश्चात् जहां वह जैन श्रावक भोजन कर बैठा था वहीं आया । विप्रको आता देख वाणकने कहा विप्रवर ! यह झूठा भोजन रक्खा है आ खाओ । वणिककी ऐसी वात सुन विप्रने जवाब दिया वणिक सरदार ! यह बात कैसे हो सकती है ? झूठा भोजन खाना किस प्रकार योग्य नहिं । विपके ऐसे वचन सुन वणिकने जवाब दिया ___ भाई, यह भोजन गंगाजल मिश्रित है । इसमें झूठापन कहांसे आया ? तुम निर्भय हो खाओ। गंगाजल मिश्रित होनेसे इसमें जराभी दोष नहिं । यदि कहो की तीर्थ जलसे मिश्रितभी झूठा भोजन योग्य नहिं हो सकता तो तुम्हीं बताओ पाएकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •ww..ww..www.woman.rai.n... ( ३३५) | शुद्धि गंगाजलसे कैसे हो शकती है ? अरे भाई । यदि यह बात | ठीक हो कि स्नानसे शुद्धि हो जाती है तो मछलियां रातदिन गंगाके जलमें पड़ी रहती हैं । धीवर हमेशह न्हाते धोते रहते हैं । उन्हें शुद्ध हो सीधे स्वर्ग चले जाने चाहिये । प्रिय भाई ! तुम निश्चय समझो मीतरी शुद्धि स्नानसे नहिं होती किंतु तप व्रत जप ध्यान क्षमा और शुभभावसे होती है। देखो, शराबका घड़ा । हजारवार धोनेपर भी जैसा शुद्ध नहिं होता उसी प्रकार यह देहभी पापभय है अब्रह्म आदि पापोंसे व्याप्त है । कदापि इस देहकी स्नानसे शुद्धि नहिं हो सकती। किंतु जिन मनुष्योंने ज्ञानतीर्थका अवगाहन किया है-ज्ञानतीर्थमें स्नान किया है वे विना जलकेही घीके घड़ेके समान शुद्ध रहते हैं । वणिकके ऐसे वचन सुन ब्राह्मणने शीघ्रही तीर्थमूढताका त्याग कर दिया। वहीं पर एक तपस्वी भी पंचाग्नितप तपरहाथा। वणिक ब्राह्मण रुद्रदत्तको उसके पास ले गया और जलती हुई अमिमें अनेक प्राणियोंको मरते दिखाया जिससे विप्रसे पाखं. डीतपोमूढ़ता भी छुड़वा दी और यह उपदेशभी दिया कि-- वेदमें जो यह बात बतलाई है हिंसावाक्य भयका देनेवाला होता है। यह पाखंडी तप महान हिंसाका करनेवाला है सो कैसे तुम्हारे मनमें योग्य जच सकता है ! प्रिय विप्र! यदि विना दयाकेभी धर्म कहा जायगा तो विल्ली मूंसे वाघ व्याध आदिको भी धर्मात्मा कहे जायगे । यज्ञमें सफेद छागका मारना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) यदि ठीक है तो धनयुक्त मनुष्यका चोरोंद्वारा मारना भी किसी प्रकार पापप्रद नहिं हो सकता । यदि कहो कि नरमेध और अश्वमेघ यज्ञमें जो प्राणी मरते हैं वे सीधे स्वर्ग चले जाते हैं तो उक्त यज्ञभक्तों को चाहिये कि वे अपने कुटुंबीजनों को भी यज्ञार्थ हनैं । प्रिय रुद्रदत्त ! वेद हो चाहें लोक हो किसी में पापप्रद प्राणीघातसे कदापि धर्म नहिं हो सकता प्राणिघात धर्म मानना बड़ी भारी भूल है । इस प्रकार अपने उपेदशसे वणिकने रुद्रदत्तकी आगम मूढ़ताभी छुड़वादी । सांख्यादि दूसरे २ मतों के सिद्धांतों का खंडन करता हुआ उसै जैन तत्वोंका उपदेश दिया जिससे उस ब्राह्मणने समस्तदोष रहित बड़े २ देवोंसे पूजित सम्यक्त्वमें अपने चित्तको जमाया । जिनोक्त तत्त्वोंमें श्रद्धा की और मिथ्यात्वकी कृपासे जो उसके चित्तमें मूढ़ता थी सब दूर हो गई । कदाचित् श्रावकत्रतों से युक्त सम्यक्त्वके धारी आपसमें परमस्नेही वे दोनों तत्र चर्चा करते हुए मार्गमें जा रहे थे पूर्वपापके उदयसे उन्हें दिशाभूल हो गई । वह वन निर्जन वन था । वहां कोई मनुष्य रास्ता बतलानेवाला न था । इसलिये जब उन दोनोंका संग छूट गया तो ब्राह्मण रुद्रदत्तने शीघ्रही सन्यास लेकर चारों प्रकारके आहारका त्याग करादया और प्रथम स्वर्ग में जाकर देव हो गया। वहांपर बहुत कालतक उसने देवियों के साथ उत्तमोत्तम स्वर्गसुख भोगे । आयुके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७ ) wwwwwwwwwwwwwwww अंतमें मरकर अब तू अभयकुमार नामका धारी राजा श्रेणिकका पुत्र उत्पन्न हुआ और अब जैनशास्त्रानुसार तप कर तू नियमसे सिद्धपदको प्राप्त होगा । इस प्रकार जब गौतम गणधर अभयकुमारके पूर्वभवका वृत्तांत कह चुके तो दंतिकुमारने भी विन. यसे कहा-- प्रभो ! मैं पूर्वभवमें कोन था ? कैसा था ? कृपाकर कहैं। दतिकुमारके ऐसे वचन सुन गौतम भगवानने कहा यदि तुम्हें अपने पूर्वभवके सुननेकी इच्छा है तो मैं कहता हूं तुम ध्यानपूर्वक सुनो-इसी पृथ्वीतलमें एक अनेक प्रकारके वृक्षोंसे मंडित भयंकर दारुण नामका वन है । किसी समय उस वनमें अतिशय ध्यानी सूधर्म नामका योगी तप करता था। और अतिशय निर्मल अपने शुद्धात्मामें लीन था । उस वनका रखवारा दारुणमिल नामका देव था। कार्यवश मुनिराजको विना देखेही उसने वनमें अग्नि लगादी । कल्पांतकालके समान अमिकी ज्वाला धधकने लगी। अमिज्वालासे मुनिराजका शरीर भस्म होने लगा। उनके प्राणपखेरु उडभगे और मरकर मुनिराज अच्युत स्वर्गमें जाकर देव हो गये । जब वनरक्षक देवने मुनिराजका अस्थिपंजर देखा तो उसै परम दुःख हुआ। अपनी वार २ निंदा करता वह इस प्रकार विचारने लगा कि हाय ! ! ! चारित्रसे पवित्र तपसे शोभित विनाकारण मैंने मुनिराज के शरीरको जला दिया। हाय ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३८ ) mmmmmmmmmmmm मुझसे अधिक संसारमें पापी कोई न होगा तथा इस प्रकार विचार करते उसकी आयु समाप्त हो गई और वह मरकर उसी जगह शुभ, विशाल शरीरका धारक उन्नतदंतोंसे शोभित एवं अंजनपर्वतके समान ऊंचा हाथी हो गया। कदाचित् अष्टान्हिका पर्वमें अच्युत स्वर्गका निवासी वह मुनिका जीव देव नंदीश्वर पर्वतकी वंदनार्थ निकला और उसी वनमें उसै वह हाथी दखिपड़ा । अपने अवधिज्ञानबलसे देवने अपनी पूर्व मुनिमुद्रा जानली और पुष्करविमानसे उतर कर उस वनमें उसी प्रकार ध्यानमें लीन होगया। हाथीने जब उसै देखा तो उसै शीग्रही जातिस्मरण हो गया । जातिस्मरण होते ही उसकी आखोंसे अश्रुपात होने लगा। अपने पूर्वभवकी वारवार निंदा करते हुवे शीघ्रही उस देवको नमस्कार किया। देवके उपदेशसे हाथीने सम्यग्दर्शनके साथ शीघ्रही श्रावकव्रत धारण किये । देव वहांसे चला गया हाथी भी प्रासुकजल और पक फलाहारसे श्रावकव्रत पालन करने लगा। अपने आयुके अंतमें सन्यास धारणकर हाथीने समाधिपूर्वक अपना चोला छोड़ा । और अनेक देवोंसे सेवित सहस्रार स्वर्गमें जाकर देव हो गया । जैसे क्षणभरमें आकाशमें मेघसमूह प्रकट हो जाता है उसी प्रकार उत्पादशिलापर उप्तन्न होतेही अंतर्मुहूर्तमें उसे पूर्ण शरीरकी प्राप्ति हो गई उसके कानोंमें कुंडल और केयूर झलकने लगे । वक्षस्थलमें मनोहर विशाल हार और शिरपर मनोहर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३९) रत्नजड़ित मुकुट झिलमिलाने लगा । चारों ओर दिशा सुगंधिसे व्याप्त हो गई । निर्मल ऋद्धियोंकी प्राप्ति हो गई। शरीर दिव्यवस्त्र और आभूषणों शोभित हो गया । तथा नेत्र विशाल और निर्निमेष हो गये । जिस समय देवने अपनी ऐसी सुंदर दशा देखी तो वह विचारने लगा मैं कोंन हूं ? यहां कहांसे आया हूं! मेरा क्या स्थान और क्या गति है ? मनोहर शब्द करनेवालीं ये देवांगना क्यों इस प्रकार मुझे चाहती हुई नृत्यकर रही हैं ! इस प्रकार विचार करते २ अपने अवधिज्ञानबलसे शीघ्रही उसने 'मैं व्रतोंकी कपासे हाथीकी योनिसे यहां आया हूं' इत्यादि वृत्तांत जान लिया। तथा वृत्तांत जानकर और अपनेको स्वर्गस्थ देव समझकर जिनेंद्र आदिको पूजते हुवे उसने धर्ममें मति की। दिव्यांगनाओंके साथ वह आनंद सुख भोगने लगा, नंदीश्वर पर्वतपर जिनमंदिरोंको पूजने लगा । इस रीतिसे वचनागोचर स्वर्ग भोगकर और वहांसे च्युत होकर अब तू रानी चेलनाके गर्भमें आकर उप्तन्न हुआ है। इस प्रकार गौतम गणधरद्वारा अभयकुमार दंतिकुमारका पूर्वभववृत्तांत सुन श्रेणिक आदि प्रधान २ पुरुषोंको अतिशय मानंद हुआ। सवोंने शीघ्रही मुनिनाथको नमस्कार किया। दृढसम्यक्त्वकथासे पूर्ण जिनशासनको स्मरण करते हुवे भगवानके गुणों में दत्तचित्त वे सब प्रीतिपूर्वक नगरमें आगये । और बड़े २ महाराजोंको वशमें कर महाराज श्रोणिकने महामंडलेश्वरपद प्राप्त कर लिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) किसी समय महाराज इंद्र अपनी सभामें अनेक देवों के साथ बैठे थे। अपने वचनोंसे सम्यक्त्वकी महिमा गान करते हुवे वे कहने लगे कि ___ भरतक्षेत्रमें महाराज श्रेणिक सम्यग्दर्शनसे अतिशय शोभित है। वर्तमानमें उसके समान क्षायिक सम्यक्त्वका धारक दूसरा कोई नहि। जिसके सम्यग्दर्शनरुपी विशाल वृक्षको मिथ्यादर्शनरुपी गज तोड़ नहिं सकता और वह वृक्ष महाशास्त्ररुपी दृढमूलका धारक और स्थिर है। कुसंगम कुठार उसै छेद नहिं सकता। कुशास्त्ररुपी प्रबल पवन भी उसै | नहिं चला सकती। उसका सम्यक्त्वरुपी वृक्ष शास्त्ररूपी जलसे सिंचित है और उस सम्यग्दर्शनका दृढभावरूपी महामूल छिन्न नहिं किया जा सकता । महाराज इंद्रद्वारा श्रेणिकके सम्यग्दृष्टिपनेकी इस प्रकार प्रशंसा सुन सभा स्थित समस्त देव आश्चर्य करने लगे एवं अतिशय प्रीतियुक्त किंतु मनमें अति आर्ययुक्त दो देव शीघ्रही महाराज श्रेणीककी परीक्षार्थ पृथ्वीमंडळपर उतरे और कहां तो महाराज श्रेणिक मनुष्य ! और कहां फिर उसकी इंद्रद्वारा तारीफ ? यह भलेप्रकार विचार कर जो महाराज श्रेणिकके आनेका मार्ग था उस मार्ग पर स्थित हो गये । उनमें एक देवने पीछी कमंडलु हाथमें लेकर मुनिरुप धारण किया और दूसरेने अर्यिकाका । वह आर्यिका गर्भवती बन गई और मुनिवेषधारी वह देव मछलियोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ~ (३४१) किसी तालावसे निकाल अपने कमंडलूमें रखता हुआ उस गर्भवती आर्यिकाके साथ रहने लगा। महाराज श्रेणिक वहां आये । उन्हें देख जल्दी घोड़ेसे उतर और भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कारभी कर कहने लगे समस्त मनुष्योंका हास्यास्पद यह दृष्कर्म आप क्या कर रहे हैं ? इस वेषमें यह दुष्कर्म आपको सर्वथा वर्जनीय है। श्रेणिकके ऐसे वचन सुन मायावी उस देवने जवाब दिया राजन् ! गर्भवती इस आर्यिकाको मछलीके मांस खानेकी अभिलाषा हुई है इसलिये इसीके लिये मैं मछलियां पकड़ रहा है। इस कर्मसे मुझै, कोई दोष नहिं लग सकता । देवकी यह बात सुन श्रेणिकने कहा___मुनिवेष धारणकर यह कर्म आपके लिये सर्वथा अयोग्य है । इसमें मुनिलिंगकी बड़ी भारी निंदा है। आपको चाहिये कि इस कामको आप सर्वथा छोड़दें । देवने कहा राजन् । तुम्हीं कहो इस समय हमैं क्या करना चाहिये ! मेरा अनायासही इस निर्जन वनमें इस आर्यिकाके साथ संबंध हो गया इसलिये इसे गर्भोत्पत्ति और मांसाभिलाषा हो गई । मैं इसे अब चाहता हूं इसलिये मेरा कर्तव्य है मैं इसकी इच्छायें पूरण करुं । छली मुनिकी यह बात सुन राजाने कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) तथापि मुने ! इस वेषमें तुम्हारा यह कर्तव्य सर्वथा अयोग्य है | आपको कदापि यह काम नहिं करना चाहिये । राजाके ऐसे वचन सुन देवने कहा- राजन् ! आप क्या विचार कर रहे है ? जितने मुनि और आर्यिकाओंको आप देख रहे हैं वे सब मेरेही समान शुभ कार्य से विमुख हैं । निर्दोष कोई नहिं । महाराज ! जिसकी अंगुली दबती है उसे ही वेदना होती है । अन्य मनुष्य वेदनाका अनुभव नहिं कर सकते वे तो हंसते हैं उसी प्रकार आप हमैं देखकर हंसते हैं । देवकी यह बात सुन श्रेणिकको कुछ क्रोधसा आगया । वे कहने लगे मुने ! तू मुनि नहिं है बड़ा निकृष्ट दयारहित चारित्रविमुख और मूर्ख है । तेरे सम्यग्दर्शन भी नहिं मालूम होता । श्रोणिकके ऐ. वचन सुन देवने जवाब दिया राजन् ! जो मैंने कहा है सो बिलकुल ठीक कहा है । क्या तेरा यह कर्तव्य है कि तू परम योगियोंको गाली प्रदान करें ? हमने समझ लिया कि तुझमें जैनीपना नाम मात्रका 1 यतियोंको मर्मविदारक गाली देनेसे जैनीपनेका तुझमें कोई गुण नहिं दीख पड़ता । देवके ऐसे वचन सुन महाराजने कहा मुने ! संवेगादि गुणोंके व्यभावसे तो तेरे सम्यग्दर्शन नहिं है और दया बिना चारित्र नहिं है। ऐसे दुष्कर्म करनेसे तू बुद्धिमान भी नहिं नीतिमान योगी और शास्त्रवेता भी नहिं । साघो ! यदि त् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) I ऐसा करेगा तो जैनधर्मकी प्रभावनाका नाश हो जायगा । इसलिये तेरा यह कर्तव्य सर्वथा अनुचित है। यदि तू नहिं मानता तो तुझे नियमसे इस दुष्कर्मका फल भोगना पड़ेगा । मुने ! जो तुमने मुझसे दुष्टवचन कहे हैं उनसे तुम कदापि मुनि नहि हो सकते इसलिये तुम शीघ्रही दुष्कर्मका त्याग करो जिससे तुम्हें मुक्ति मिले । अभी तुम मेरे साथ चलो । मैं तुम्हारी सब आशा पूरी करूंगा । और यदि तुम मेरे साथ न चलोगे तो तुम्हें गधेपर चढ़ाकर तुम्हारा हाल बेहाल करूंगा । इसप्रकार साम्य आदि वचनों से मूनिको समाश्वासन दे राजा श्रेणिक उन दोनों को घर ले आये और अपने मंदिरमें लाकर ठहराया । जिस समय मंत्रियोंने राजा श्रेणिकको चारित्रभ्रष्ट मुनि और आर्यिकाके साथ देखा तो वे कहने लगे राजन् ! आप क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आपके संग चारित्रभ्रष्ट इस मुनि आर्यिका युगल के साथ कदापि योग्य नहिं हो सकता । आपको इनका संबंध शीघ्र ही छोड़ देना योग्य है । चारित्रभ्रष्ट मुनि आर्यिका के नमस्कार करनेसे आपके दर्शन में अतिचार आता है | मंत्रियोंके ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणि1 कने जवाब दिया वेषधारी इस मुनिको मैंने वास्तविक मुनि जान नमस्कार किया है इससे मेरे दर्शनमें कदापि अतिचार नहिं आ सकता किंतु चारित्र में अतिचार आता है सो चारित्र मेरे नहिं है इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) | लिये इनको नमस्कार करनेपर भी कोई दोष नहिं । महाराज श्रेणिकका ऐसा पांडित्प देख और इंद्रद्वारा की हुई प्रशंसाको वास्तविक प्रशंसा जान वे दोनों देव अति आनंदित हुए । अपना रूप बदल उन्होंने शीघ्रही आनंदपूर्वक रानी चेलना और महाराज श्रेणिकके चरणोंको नमस्कार किया। सुवर्ण सिंहासनपर बैठाकर दोनों देवोंने भक्तिपूर्वक गंगा सीता आदि नदियों के निर्मल जलसे राजा रानीको स्नान कराया वस्त्र भूषण फूलोंसे प्रशंसापूर्वक उनकी पूजा की। अनेक अन्यान्य गुण और सम्यग्दर्शनसे शोभित उन दोनों दंपतीको नमस्कार कर आकाशमें पुष्पवर्षा के साथ वाद्यनादोंको . कर अतिशय हर्षित और राजा रानीके गुणोंमें दत्तचित्त वे दोनों देव कीर्तिभाजन बने । सो ठीक ही है सम्यग्दर्शनकी कृपासे सम्यग्दृष्टियोंकी बड़े२ देव परमसंतोष देनेवाली पूजन करते हैं और संसारमें सम्यग्दर्श नकी कृपासे इन्द्रोंद्वारा प्रशंसा भी मिलती है। इस प्रकार पद्मनाभ तीर्थकरके पूर्वभवके जीव महाराज श्रेणिकके चरित्रमें देवद्वारा अतिशयप्राप्तिवर्णन करनेवाला तेरहवां सर्ग समाप्त हुवा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ( ३४५ ) चौदहवां सर्ग। कदाचित् महाराज सानंद सभामें विराजमान थे । समस्त | भयोंसे रहित संसारकी वास्तविक स्थिति जाननेवाले कुमार अभय सभामें आये । उन्होंने भक्तिपूर्वक महाराजको नमस्कार किया और सर्वज्ञभाषित अनेक भेदप्रभेदयुक्त वह समस्त सभ्योंके सामने वास्तविक तत्त्वोंका उपदेश करने लगा। तत्त्वोंका व्याख्यान करते २ जब सब लोगों को दृष्टि तत्त्वोंकी ओर झुक गई है तो वह अवसर पाकर अपनी पूर्व भवाबलीके स्मरणसे चित्तमें अतिशय खिन्न हो अपने पितासे कहने लगा पूज्यपिता ! इस संसारसे अनेक पुरुष चले गये । युगकी आदिमें ऋषभ आदि तीर्थकर भरत आदि चक्रवर्ती भी इंच करगये । कृपानाथ ! यह संसार एक प्रकारका विशाल समुद्र है क्योंकि समुद्र में जैसी मछलियां रहती हैं संसाररुपी समुद्रमें भी जन्मरुपी मछलियां हैं । समुद्रमें जैसे भमर पड़ते हैं संसाररुपी समुद्रमें भी दुःखरुपी भमर हैं। समुद्रमें जैसी कल्लोलें होती हैं । संसारसमुद्रमें भी जरारुपी तीव्र कल्लोले मोजूद हैं। समुद्रमें जिस प्रकार कीचड़ होती है संसाररुपी समुद्रमें मी पापरुपी कीचड़ है । जैसा समुद्र तटोंसे भयंकर होता है उसी प्रकार संसाररुपी समुद्र भी मृत्युरुपी तटसे भयंकर है। समुद्रमें जैसा बड़वानल होता है संसारसमुद्रमें भी चतुतिरुप वड़वानल है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) समुद्रमें जैसे कछुवे होते हैं संसारसमुद्रमें भी बेदनारुपी कछुवे मोजूद हैं । समुद्र में जैसे वालूके ढेर होते हैं संसारसमुद्रमें भी दरिद्रतारुपी वालुके ढेर मोजूद हैं । एवं समुद्र जैसा अनेक नदियों के प्रवाहोंसे पूर्ण रहता है संसार भी उसी प्रकार अनेक प्रकारके आत्रवोंसे पूर्ण है। महनीयपिता ! विना धर्मरुपी जहाजके इस संसारसे पार करनेवाला कोई नहिं । यह देह | सप्तधातुमय है । नाक आंख आदि नौ द्वारोंसे सदा मल निकलता रहता है । यह पापकर्ममय पापका उत्पादक और कल्याणका निवारक है। ऐसा कोंन बुद्धिमान होगा जो इंद्रियों के समूहसे देदीप्यमान, मनके व्यापारस परिपूर्ण, विष्टा आदि मलोंसे मंडित इस शरीरमें प्रीति करैगा ? पूज्यपिता ! ज्यों २ इन भोगोंका भोग और सेवन किया जाता है त्यों २ ये तृप्तिको तो नहिं करते किंतु पीकी आहुतिसे जैसी अग्नि प्रवृद्ध होती चली जाती है वैसे ही प्रवृद्ध होते जाते हैं। काष्टसे जैसी अमिकी तृप्ति नहिं होती उसी प्रकार जिन मनुष्योंकी तृप्ति स्वर्गभोग भोगनेसे भी नहिं हुई है उन मनुष्योंकी तृप्ति थोड़ेसे स्त्रियोंके संपर्कसे कैसे हो सकती है ? संसारको इसप्रकार क्षणभंगुर समझ पूज्यपिता ! मुझपर प्रसन्न हाजिये और मनुष्योंको अनेक कल्याण देनेवाली तपस्याके लिये आज्ञा दीजिये। पूज्यपाद ! आपकी कृपासे आजतक मैं राज्य संबंधी सुख और स्त्रीजन्य | मुख खूब भोगचुका । अब मैं इससे विमुख होना चाहता हूं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४७) पुत्रके ऐसे वचन सुन राजा श्रेणिकने अपने कान बंद कर लिये । उनके चित्तपर भारी आघात पहुंचा मूर्छित हो वे शीघ्रही जमीन पर गिरगये और उनकी चेतना थोड़ी देरके लिये एक ओर किनारा कर गई । महाराज श्रेणिककी ऐसी विचेष्टा देख उन्हें शीघ्र सचेतन किया गया। जब वे बिलकुल होशमें आ गये तो कहने लगे प्रिय पुत्र ! तूने यह क्या कहा ! तेरा यह कथन मुझै अनेक भय प्रदान करनेवाला है । तेरे विना नियमसे यह समस्त राज्य शून्य हो जायगा । मैं राज्य करूं और तू तप करै यह सर्वथा अयोग्य है। जिनभगवानके समीप जाकर तुझै चौथेपनमें तप धारण करना चाहिये इस समय तेरी उम्र निहायत छोटी है । कहां तो तेरा रूप ! कहां तेरा सौभाग्य ! राज्ययोग्य तेरी क्रीड़ा कहां? कहां तेरा लावण्य तथा कहां तेरी युक्तियुक्त वाणी और कोमल देह ! तेरी बुद्धि इस समय असाधारण है। बलवानपना वीरता वीर मान्यता जैसी तुझमें है वैसी किसीमें नहिं । प्रिय पुत्र ! अनेक राजा और सामंतोंसे सेवनीय पुण्यवानों द्वारा प्राप्त करने योग्य यह राज्यभार तुम ग्रहण करो और तपका हठ छोड़ो। पिताके ऐसे मोह परिपूर्ण वचन सुन अभयकुमारने कहा____ पूज्य पिता ! संसारमें जितनेभर उत्तमोत्तम सुख मिलते | हैं वे तपकी कृपासे मिलते हैं ऐसा बड़ेर पुरुषोंका कथन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८) आपने जो यह कहा कि तप चौथेपनमें धारण करना चाहिये सौ चौथेपनमें शरीर तपके योग्य रहता ही कहां है ? उस समय तो शरीर मंद पड़ जाता है । इंद्रियां भी शिथिल पड़ जाती हैं। इसलिये स्वस्थ अवस्थामें ही तप महापुरुषोंद्वारा योग्य माना गया है । महनीयपिता ! रूप लावण्य आदि क्षणिक हैं निस्सार हैं। गृहादिकमें संलम जो बुद्धि है सो मिथ्याबुद्धि है और असार है। कृपानाथ ! यह राज्य भी विनाशीक है मैं कदापि इस राज्यको स्वीकार न करूंगा किंतु समस्तपापोंसे रहित मैं निश्चल तप धारण करूंगा। मैंने अनेकवार इस राज्यका भोग | किया है। मेरे सामने यह राज्य अपूर्व नहिं हो सकता । अक्षयसुख मोक्षसुख ही मेरे लिये अपूर्व है । पूज्यवर ! मैंने आपकी आज्ञाका भी अच्छी तरह पालन किया है । अब मैं भविष्यत् कालमें आपकी आज्ञा पालन न कर सकूँगा इसलिये आप कृपाकर मुझै तपके लिये आज्ञा प्रदान करें। पुत्रको तपके लिये उद्यमी देख महाराज श्रेणिकके मुखसे अविरल अश्रुधारा | वहने लगी । तथापि अभयकुमार उन्हें अच्छीतरह समझाकर अपनी माताको भी संबोध कर और अतिशय मनोहरांगी अपनी प्रिय स्त्रियोंको भी समझा कर शीघ्रही घरसे निकले और राजा आदिके रोकेजानेपर गजकुमार आदिके साथ हाथी पर सवार हो विपुलाचलकी ओर चलदिये। उस समय विपुलाचलपर महावीर भगवानका समवसरण बिराजमान था इसलिये ज्योंही अभयकुमार विपुलाचलके पास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४९) पहुचें उन्होंने राजचिन्ह छोड़ दिये गजसे उतर शीघ्रही समवसरणमें प्रवेश किया। समवसरणमें विराजमान महावीरभगवानको देख तीन प्रदक्षिणां दी पूजन नमस्कार और स्तुति की। गौतम गणधरको भी प्रणाम किया और दीक्षार्थ प्रार्थना की। वस्त्रभूषण आदिका त्यागकर बहुतसे कुटुबियों के साथ शीग्रही परम तप धारण किया । तेरह प्रकारका चारित्र पालने लगे एवं ध्यानकतान मुक्तिके अभिलाषी वे परमपदकी आराधना करने लगे । जो अभयकुमार आदि महापुरुष अनेक कोमल २ वस्त्रों से शोभित हंसोंके समान स्वच्छ रुईसे बने मनोहर पलिंगोंपर सोते थे वहीं अब ककरीली जमीनपर सोने लगे । जो शीतकालमें मनोहर २ महलोंमें कामविह्वला रमणियों के साथ सानंद शयन करनेवाले थे वे चौतर्फा अतिशय शीतल पवनसे व्याप्त नदीके तीरोंपर सोते हैं । ग्रीष्मकालमें जो शरीरपर हरिचंदनका लेप करा फुवारासहित महलोंके रहनेवाले थे वही अब अतिशय तीक्ष्ण सूर्यके आतापको झेलते हुऐ पर्वतोंकी शिखरोंपर निवास करते हैं । जो उत्तमपुरुष वर्षाकालमें, जहां किसी प्रकारके जलका संचार नहि ऐसे उत्तमोत्तम घरोंमें रहते थे उन्हें अब जलसे व्याप्त वृक्षों के नीचे रहना पड़ता है। पतले किंतु उत्तम चीनी वस्त्रोंसे सदा जिनके शरीर ढके रहते वेही अब चोहटोमें वस्त्ररहित हो सानंद रहते हैं । जो चित्रविचित्र रत्नोंसे जडित सुवर्णपात्रों में भोजन करते थे उन्हें अब सछिद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) पाणिपात्रोंमें भोजन करना पड़ता है। जो भांति २ के पके अन्न और खीर आदि पदार्थों का भोजन करते थे उन्हें अब पारणा में तेलयुक्त कोदों कंगु आदि पदार्थ खाने पड़ते हैं । जो हाथी घोड़े आदि सवारियोंपर सवार हो जहांतहां घूमते थे बेही अब कंटकाकीर्ण जमीनपर चलते हैं । जो सात२ ड्योढ़ीयुक्त मणिजड़ित महलोंमें सोते थे वेही अब अनेक सर्पोंसे व्याप्त पहाड़ों की गुफा में सोते हैं । राज्यावस्था में जिनकी प्रशंसा पराक्रमी और महामानी बड़े २ राजा करते थे उनकी प्रशंसा अब चारित्रसे पवित्र निरभिमानी बड़े २ मुनिराज करते हैं । राज्य अवस्था में जो रतिजन्य सुखका आस्वादन करते थे वेही अब विषयातीत नित्य ध्यानजन्य सुखका आस्वादन करते हैं। जो राजमंदिरमें कामिनियोंके मुखसे उत्तमोत्तम गायन सुनते थे उन्हें अब श्मसानभूमिमें मृग और शृगालोंके भयंकर शब्द सुनने पड़ते हैं । राजघर में जो पुत्रनातियों के साथ खेल खेलते थे अब वे निर्भय किंतु विश्वस्त मृगों के साथ खेल खेलते रहते हैं । इसप्रकार चिरकालतक घोरतप तपकर परीषह जीतकर और घातिया कर्मों का विध्वंसकर शुक्लध्यानके प्रभावसे मुनिवर अभयकुमारने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया एवं केवलज्ञानकी कृपासे संसार के समस्त पदार्थ जानकर भूमंडलपर बहुतकालतक विहार कर अचित्य अव्याबाध मोक्षसुख पाया । इनसे अन्य और जितने योगी थे वे भी अपने २ कर्मविपाक के अनुसार स्वर्ग आदि उत्तमोत्तम गतियों में गये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) तीनों लोकमें यशस्वी अतिशय संतुष्ट जैनधर्मके माराषक नीतिपूर्वक प्रजाके पालक महाराज आनंदपूर्वक राजगृहीमें रहने लगे । उनका पुत्र वारिषेण अतिशय बुद्धिमान, मनोहर, जैनधर्ममें रति करनेवाला, एवं व्रतरूपी भूषण से मूषित था । कदाचित् राजकुमार वारिषेणने चतुर्दशीका उपवास किया । इधर यह तो रात्रिमें किसी वनमें जाकर कायोत्सर्ग धारण कर ध्यान करने लगा और उधर किसी वेश्याने सेठि श्रीकीर्तिकी सेठानी के गलेमें पड़ा अतिशय देदीप्यमान सुंदर हार देखा और हार देखते ही वह विचारने लगी- इस दिव्य हारके विना संसार में मेरा जीवन विफल तथा ऐसा विचार शीघ्रही उदास हो अपने शयनागार में खाट पर गिर पड़ी । एक विद्युत नामका चोर जो उसका आशक था रात्रिमें वेश्या के पास आया । उसने कईवार वेश्यासे वचनालाप करना चाहा वेश्याने जवाब तक न दिया किंतु जब वह चोर विशेष अनुनय करने लगा तो वह कहने लगी—— प्रिय वल्लभ ! मैंने सेठि श्रीकीर्तिकी सेठानी के गले में हार देखा है । मैं उसै चाहती हूं । यदि मुझे हार न मिला तो मेरा जीवन निष्फल है और तुम्हारे साथ दोस्ती भी किसी कामकी नहिं । वेश्या की ऐसी रुखी वात सुन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५२) memarrrrr...xxx.rrrrrrrrrrr......... .........www.rrrrrrrrrrrm चोर शीघ्रही चला तथा सेठि श्रीकार्तिके घर जाकर और हार चुराकर अपनी चतुरतासे बाहर निकल आया । हार बड़ा चमकदार था इसलिये चोर ज्योंही सड़क पर आया और ज्योंही कोतवालने हारका प्रकाश देखा लेजानेवालको चोर समझ शीघ्रही उसके पाछै धावा किया । चोरको और कोई रास्ता न सूझा वह शीघ्रही भगतार श्मसान भूमिमें घुस गया । जब वह श्मसानभूमिमें घुसा तो उसै आगेको वहां कोई रास्ता न दिखा इसलिये उसने शीघ्रही कुमार वारिषेणके गलेमें हार डाल दिया और आप एक ओर छिप गया । हारकी चमकसे कोतवाल भगता२ कुमारके पास आया। कुमारको हार पहिने देख शीघ्रही दोड़ता२ राजाके पास पहुंचा और कहने लगा-- ___राजन् ! यदि आपका पुत्र ही चोरी करता है तो चोरी करनेसे दूसरोंको कैसे रोका जा सकता है ? राजकुमारका चोरी करना उसी प्रकार है जैसा वाद्वारा खेतका खाना । कोतवालकी बात सुन इधर महाराजने तो इमसानभूमिकी ओर गमन किया और उधर कुमार वारिषेणके व्रतके प्रभावसे हार फूलकी माला बन गया । ज्योंही महाराजने यह दैवी अतिशय सुना तो वे कोतवालकी निंदा करने लगे और कुमारके पास क्षमा कराना चाहा । विद्युत चोर भी यह सब दृश्य देख रहा था उससे ये बातें न देखी गई । वह शीघ्रही महाराजके सम्मुख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३) आया । तथा महाराजसे अभयदानकी प्रार्थना कर और अपना स्वरुप प्रकट कर जो कुछ सच्चा हाल था सारा कह सुनाया । जब महाराजने चोरके मुखसे सब समाचार सुनलिया तो उन्होंने कुमार वारिषेणसे घर चलनेके लिये कहा किंतु कुमारने कहा पूज्यपिता ! मैं पाणिपात्रमें भोजन करुंगा-दिगंबर व्रत धारण करुंगा। यह व्रत मैंने लेलिया है अब मैं घर जा नहि सकता । महाराज आदिने दीक्षासे कुमारको बहुत रोका किंत उन्होंने एक न मानी । वे सीधे सूर्यदेव मुनिराजके पास चलेगये और केशलंचन कर दीक्षा धारण करली । एवं अष्ट अंग सहित सम्यग्दर्शनके धारक बड़े २ देवोंद्वारा पूजित वारिषेणमुनि तेरह प्रकारके चारित्र का पालन करने लगे। वारिषेण मुनिराजके व्रतरहित पुष्पलाड आदि अनेक शिष्य थे उन्हें उपदेश शुभाचार और चातुर्यसे सन्मार्गमें प्रतिष्ठित किया। बहुतकाल पर्यंत भूमंडलपर विहार किया । अनेक जीवोंको संबोधा । आयुके अंतमें रत्नत्रययुक्त हो सन्यास धारण किया भलेप्रकार आराधना आराषीं । एवं समाधिपूर्वक अपना प्राण त्यागकर मुनिवारिषेणका जीव अनेक देवियोंसे व्याप्त महान ऋद्धिका धारक देव हो गया । किसीसमय धर्मसेवनार्थ चिंताविनाशार्थ और सुख| पूर्वक स्थितिके लिये पूर्वजन्म के मोहसे महाराजने समस्त २३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ numaav ( ३५४ ) भूपोंको इकट्ठा किया और उनकी सम्मतिपूर्वक बड़े समारोहके साथ अपना विशाल राज्य युवराज कुणकको दे दिया। अब पूर्वपुण्यके उदयसे युवराज कुणक महाराज कहे जाने लगे । वे नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे और समस्त पृथ्वी उन्होंने चौरादिभय विवर्जित कर दी। कदाचित् महाराज कुणक सानंद राज्य कररहे थे अकस्मात् उन्हें पूर्वभवके वैरका स्मरण हो आया। महाराज मोणकको अपना वेरी समझ पापी हिंसक महा अभिमानी दुष्ट कुणकने मुनिकंठमें निक्षिप्त सर्पजन्यपापके उदयसे शीघ्रही उन्हें काठके पीजरेमें बंद करदिया। महाराज श्रेणिकके साथ कुणकका ऐसा वर्ताव देख रानी चेलनाने उसै बहुत रोका किंतु उस दुष्टने एक न मानी उल्टा वह मूर्ख गालि और मर्मभेदी दुर्वाक्य कहने लगा । खानकेलिये महाराजको वह रुखासुखा कोदोंका अन्न देने लगा और प्रतिदिन भोजन देते समय अनेक कुबचन भी कहने लगा। महाराज श्रेणिक चुपचाप कीलोंयुक्त पीजरेमें पड़े रहते और कर्मके वास्तविक स्वरुपको बानते हुऐ पापके फलपर विचार करते रहते थे। किसी समय दुष्टात्मा पापी राजा कुणक अपने लोकपाल नामक पुत्रके साथ सानंद भोजन कररहाथा । बालकने राजाके भोजनपात्रमें पेशाब करदिया। राजाने बालकके पेशाबकी ओर कुछ भी ध्यान न दिया वह पुत्रके मोहसे सानंद भोजन करने लगा और उसी समय उसने अपनी मातासे कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५५) www.rrrrrrrr. ____माता ! मेरे समान पुत्रका मोही इस पृथ्वीतलमें कोई नहिं, यदि है तो तू कह ! माताने जवाब दिया राजन् ! तेरा पुत्रमें क्या अधिक मोह है ? सबका मोह तीनोंलोकमें बालकों पर ऐसा ही होता है। देख ! ! ! यद्यपि तेरे पिताके अभयकुमार आदि अनेक उत्तमोत्तम पुत्र थे तोभी बाल्य अवस्थामें पिताका प्यारा और मान्य तू था वैसा कोई नहिं था । प्यारे पुत्र ! तेरे पिताका तुझमें कितना अधिक स्नेह था ! सुन, मैं तुझै सुनाती हूं एक समय तेरी अंगुलीमें बड़ाभारी घाव होगया था उसमें पीव पड़ गया था । बहुत दुर्गंध आती थी जिससे तुझे बहुत पीड़ा थी । घावके अच्छे करनेके लिये बहुतसी दवाइयां कर छोड़ी तोभी तेरी वेदना शांत न हुई। उस तेरे मोहसे तेरे पिताने तेरे मुखमें अंगुली देदी और तेरी सब पीड़ा दूर करदी । माता चेलनाकी यह बात सुन दुष्ट कुणकने जवाब दिया ___माता ! यदि पिताका मुझमें मोह अधिक था तो जिस समय मैं पैदा हुआ था उससमय पिताने मुझै निर्जनवनमें क्यों फिकवा दिया था ? माताने जवाब दिया प्रिय पुत्र ! तू निश्चय समझ तेरे पिताने तुझै वनमें नहिं फिकवाया था किंतु तेरी भृकुटी भयंकर देख मैंने फिकवाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) था । तेरा पिता तो तुझै वनसे लेआया, राजा बनानेके लिये सानंद तेरा पालनपोषण किया था । यदि तेरा पिता ऐसा काम न करता तो तुझै राज्य क्यों देता ? पुत्र, तेरे पिताका तुझमें बड़ा स्नेह बड़ा मोह और बड़ी भारी प्रीति थी। तुझसे वे अनेक आशा भी रखते थे इसमें जराभी झूठ नहिं । जैसी वेदनां इससमय तू अपने पिताको दे रहा है 'याद रख ' | तेरा पुत्र भी तझै वेसी ही वेदना देगा । खेतमें जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल.काटा जाता है उसी प्रकार जैसा काम किया जाता है फलभी उसीके अनुसार भोगना पड़ता है। राजन् ! जिसने तुझै राज्य दिया, जन्म दिया और विशेषतया पढ़ा लिखाकर तैयार किया, क्या उस पूज्यपादके साथ तेरा यह क्रूर वर्ताव प्रशंसनीय हो सकता है ? अरे ! जो मनुष्य उत्तम हैं वे अपने पिताकी पूज्य समझ भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं । पितासे भी अधिक राज्य देनेवालेको और उससे भी अधिक विद्या प्रदान करनेवालेको पूजते है । तू यह निकृष्ट काम क्या कररहा है ? जो उपकारका आदर करनेवाला है सज्जन लोग जब उसका भी उपकार करते हैं तो उपकार करनेवालेका तो वे अवश्य ही उपकार करते हैं । जो मनुष्य पर उपकारको नहिं मानते हैं वे नराधम कहलाते हैं और वे नियमसे नर्क जाते हैं । राजन् ! जो किये उपकारका लोप करनेवाले हैं वे संसारमें कृतघ्न कहलाते हैं। किंतु जो कृत उपकारको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) माननेवाले हैं वे कृतज्ञ कहे जाते हैं और सबलोग उनकी मुक्तकंठसे प्रशंसा करते हैं । प्यारे पुत्र ! पिता आदिका बंधन पुत्रके लिये सर्वथा अनुचित है महापापका करनेवाला है इसलिये तू अभी जा और अपने पिताको बंधन रहित कर । माताद्वारा इस प्रकार संबोध पा राजा कुणक मनमें अति खिन्न हुए । अपने दुष्कर्मकी वार२ निंदा कर वे ऐसा विचारने लगेहाय ! मुझ पापात्माने बड़ा निंद्यकाम करपाड़ा । हाय ! अब मैं इस महापापसे कैसे छुटकारा पाऊंगा ? अनेक हित करनेवाले पूज्य पिताको मैं अभी जाकर छुड़ाता हूं। इसप्रकार क्षण एक अपने मनमें विचार कर राजा कुणक महारानको बंधनमुक्त करने चल दिये । ज्योंही राजा कुणक कठेरेके पास पहुचे और ज्योंही क्रूरमूख राजा कुणकको महाराजने देखा देखते ही उनके मनमें यह विचार उठखड़ा यह दुष्ट अभी पीड़ा देकर गया है अब यह क्या करना चाहता है जिससे मेरी ओर आरहा है ? पहिले यह मुझे बहुत संताप दे चुका है अब भी यह मुझे अधिक संताप देगा | हाय ! इस निर्दयीद्वारा दिया दुःख अब मैं सहार नहिं सकता । पस, इसप्रकार अपने मनमें अतिशय दुःखी हो शीघ्रही तलवार की धार पर शिर मारा । तत्काल उनके प्राणपखेरु घर उड़े और प्रथम नर्क में पहुंच गये । पिताको असिधारापर प्राणरहित देख राजा कुणकके होश उड़ गये 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) उस समय उन्हें और कूछ न सुझा । वे चेलना और अंतःपुरक साथ बेहोश हो करुणाजनक इसप्रकार रोदन करने लगे -- हा नाथ ! हा कृपाधीश ! हा स्वामिन् ! हा महामते ! हा विनाकारण समस्त जगतके बंधु ! हा प्रजाधीश ! हा शुभ ! हा तात ! हा गुणमंदिर ! हा मित्र ! हा शुभाकार ! हा ज्ञानिन् ! यह तुमने विना समझे क्या करपाड़ा ? आप ज्ञानी थे। आपको ऐसा करना सर्वथा अनुचित था । महाराजकी मृत्युसे नंदश्री और रानी चेलनाको परमदुःख हुआ । उनकी अखोंसे अविरल अश्रुधारा वह निकली । उन्होंने शीघ्रही अपने केश उपाट दिये छाती कूटने लगी । हार तोड़ दिये । हाथ के कंकण तोडकर फेंक दिये । हाहाकार करती जमीनपर गिरगई और मूर्छित होगईं । शीतोपचार से बड़े कष्टसे रानीको होशमें लाया गया । ज्योंही रानी होश में आई तो उसै और भी अधिक दुःख हुआ । वह पति विना चारों ओर अपना पराभव देख वह इसप्रकार विलाप करने लगी हा प्राणवल्लभ | हा नाथ ! हा प्रिय ! हा कांत ! हा दयाशि ! हा देव ! हा शुभाकार ! हा मनुष्येश्वर ! मुझ पापिनीको छोड़ आप कहां चले गये ? हाय ! मैं अशरण निराधार आपने कैसे छोड़ दी ? रनवासके इसप्रकार रोनेपर समस्त पुरवासी जन और स्त्रियां भी असीम रोदन करने लगीं । पश्चात् राजा कुणकने महाराजका संस्कार किया । रानी चेलना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५९ ) द्वारा रोके जानेपर मी मिथ्यादृष्टि राजा कुणकने " महाराज सीधे मोक्ष जावे " इस अभिलाषासे सर्वथा व्रतरहित ब्राह्मणों के लिये गौ हाथी घोड़ा घर जमीन धन आदिका दान दिया और भी अनेक विपरति क्रिया की। ___कदाचित् रानीचेलना सानंद बैठी थी अकस्मात् उसके चित्तमें ये विचार उठ खडे-कि यह संसार सर्वथा असार है तथा संसारसे सर्वथा भयभित हो वह इसप्रकार सोचने लगा संसारमें न तो पिताका स्नेह पुत्रमें है और न पुत्रका स्नेह पितामें है । समस्त जीव स्वेच्छाचारी हैं और जबतक स्वार्थ रहता है तभीतक आपसमें स्नेह करते हैं। संसारमें संपत्ति यौवन और ऐंद्रियक सुख भी मास्थिर हैं । भोग ज्योर भोगे जाते हैं उनसे तृप्ति तो बिलकुल नहिं होती किंतु काष्टसे आमिज्वाला जैसी बढ़ती चली जाती है उसीप्रकार भोग भोगनसे और भी अभिलाषा बढ़ती ही चली जाती है । कदाचित् वैलसे अमिकी और जलसे समुदकी तृप्ति हो जाय किंतु इंद्रियभोग भोगनेसे मनुष्यकी कदापि तृप्ति नहिं हो सकती। अनेक बड़े२ पुरुष पहिले धनपरिवारका त्यागकर गये । अब आ रहे हैं और जायगे । मैं केवल पुत्रके मोहसे मोहित | हो घरमें कैसे रई ! विषयभोगसे जीव निरंतर पापका उपार्जन करते रहते हैं और उस पापकी कृपासे उन्हें नियमसे नर्क | जाना पड़ता हैं। हजार कंटकोंके धारक प्राणी के स्पर्शसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) | जैसा दुःख होता है उससे भी अधिक जीवोंको नरकमें दुःख | भोगना पड़ता है । संसारमें जो स्त्रियाँ दूसरे मनुष्योंकी आभिलाषा करती हैं नियमसे उन्हें पूर्वपापोदयसे लोहेकी तप्त पुतलियोंसे चिपकाया जाता हैं । जो मनुष्य परस्त्रियों के साथ विषय भोगते हैं उन्हें नरकमें स्त्रीके आकारकी तप्त पुतलियों के साथ मालिंगन कराया जाता है । जो मूर्ख यहां शराब गटकते हैं हाहाकार करते हुए भी उन मनुष्यों को जवरन लोह पिघलाकर पिलाया जाता है। जो यहां विना छने जलमें स्नान करते हैं नारकी उन्हें तप्ततेलकी भरी कढ़ाइयों में जवरन स्नान कराते हैं । जो पापी मोहवश यहां परस्त्रियोंके स्तनमर्दन करते हैं नारकी उन्हें मर्मघाती अनेक शास्त्रोंसे पीड़ा देते हैं। नरकोंमें भनेक नारकी आपसमें लड़ते हैं । अनेक पैने हथियारोंसे और नखोंसे छिन्नभिन्न होते हैं। अनेक अमिमें डालकर मारे नाते हैं। और आपसमें अनेक पीड़ा सहते हैं। नरकमें रातदिन भवनवासी देव भिड़ाते है इसलिये एक नारकी दूसरे नारकीको आपसमें बुरी तरह मारता है । मुष्टियोंसे पीस देता है । इसरीतिसे नारकी सदा पूर्व पापोदयसे नरकोंमें दुःख भोगते रहते हैं। नरकमें जीवितपर्यंत क्षणभर भी सुख नहि मिलता किंतु तीव्र दुःखका ही सामना करना पड़ता है। तिर्यचोंमें भी हमेशह वात टंडी घामका दुःख रहता है । बिचारे तिर्यंचों पर अधिक बोझ लादा जाता है। उन्हें भूखप्याससे वंचित रक्खा जाता है जिससे तियचोंको असह्य वेदना भोगनी पड़ती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१ ) हैं। आपसमें भी तिर्यंच एक दूसरेको दुःख दिया करते हैं। मनुष्योंद्वाराभी वे अनेक दुःख भोगते हैं। एवं जब एक बलवान तिर्यंच दूसरे निर्बल तिर्यचको पकड़कर खाजाता है तब भी उन्हें अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। मनुष्यभवमें भी नब मनुष्यों के माता पिता पुत्र मित्र मरजाते हैं उस समय उन्हें अधिक दुःख होता है धनाभाव दरिद्रता सेवा मादिसे भी अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। देवगतिमें भी अनेक प्रकारके मानसिक दुःख होते हैं। मरणकालमें भी माला सुखजानेसे और देवांगनाके वियोगसे भी देवोंको अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। दुष्ट देवोंद्वारा भी अनेक दुःख सहने पड़ते हैं। इस प्रकार सर्वथा दुःखप्रद चतुर्गतिरूप संसारमें चारों ओर दुःख ही दुःख भरा हुआ है । रंचमात्र भी सुख नहिं । इस रीतिसे चिरकाल पर्यंत विचारकर रानी चेलना भवभोगोंसे सर्वथा विरक्त हो गई और शीघ्रही भगवान महावीरके समवसरणकी ओर चलदी । समवसरणमें जाकर रानीने तीन प्रदक्षिणा दीं, भक्तिपूर्वक पूजा और स्तुति की और यति धर्मका व्याख्यान सुना पश्चात् चंदना नामकी आर्यिका के पास गई । अपनी सासुको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अनेक रानियोंके साथ शीघ्रही संयम धारण करलिया। चिरकाल तक तए किया । मायुके अंतमें सन्यास लेकर और ध्यानबलसे प्राण परित्याग कर निर्मल सम्यग्दर्शनकी कृपासे स्त्रीवेदका त्याग किया और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) महान ऋद्धिकाधारक अनेक देवोंसे पूजित देव हो गया । स्वर्गके अनेक सुख भोग भविष्यत कालमें चेलनाका जीव नियमसे मोक्ष जायगा | रानी चेलनाके सिवाय और जितनी रानियां थी वे भी तपकर और प्राणोंका परित्याग कर यथायोग्य स्थान गई ! इस प्रकार चेलना आदि रानियां समस्त पापका नाश कर और पुंवेद पाकर स्वर्ग गई । और वहां देव हो अनेक मनोहर देवांगनाओंके साथ क्रीड़ाकर भोगभोगने लगीं । महाराज श्रेणिक भी सप्तम नरककी प्रबल आयुका नाशकर रत्नप्रभानामक प्रथम नरकमें गये । तथा वहां पापफलका विचार करते हुए और अपनी निंदा करते हुए रहने लगे । अब वे चौरासी हजार वर्ष नरकदुःख भोगकर और वहांकी आयुको छेदकर भविष्यतकालमें तीर्थंकर होगे और कर्म नाश सिद्धपद प्राप्त करेंगें । । इस प्रकार तीर्थंकर पद्मनाभके पूर्वभवके जीव महाराज श्रेणिक के चरित्रमें श्रेणिक चेलना आदिकी गति वर्णन करनेवाला चौदहवां सर्ग समाप्त हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३) पंद्रहवा सर्ग। समस्त पदार्थोंके प्रकाश करनेमें सूर्यके समान, भावि | तीर्थकर श्री पद्मनाभ भगवानको नमस्कार कर स्वकल्याण सिद्धयर्थ उन्हीं भगवानके आचार्योद्वारा प्रतिपादित पांच कल्याणोंका वर्णन करता हूं। ___उत्मर्पिणीकालके एक हजार वर्ष बाद अतिशय चतुर उत्तम ज्ञानके धारक चौदह कलकर 'मनु' होंगे । और वे अपने बुद्धिबलसे प्रजाको शुभकार्यमें लगावेंगे। उन सबमें शुभकर्ता, अनेक देवोंसे पूजित, अनेक गुणों के आकर, अपनी किरणोंसे समस्त अंधकार नाश करनेवाले गंभीर, अनेक आभरणोंसे शोभित और अतिशय प्रसिद्ध तीर्थंकर पद्मनामके पिता अंतिम कुलकर महापद्म होंगें। कुलकर महापद्म मुखसे चंद्रमाको नेत्रोंसे ताराओंको वक्षःस्थलसे शिलाको दांतोंसे कुंदपुष्पको और बाहुयुग्मसे शेषनागको जीतेंगें । अनेक राजाओंसे वंदित राजा महापद्ममें उत्तमोत्तम गुण, रूप, समस्त कलायें, लि, यश आदि होंगे। महापद्म अपने उत्तम बुद्धिबलसे जीवेंगे। मनोहर रूपसे कामदेवकी तुलना करेंगे । निरंतर विभूतिके प्रभावसे देवतुल्य और अपने शरीरकी कांतिसे सूर्यके समान होंगे। महापद्मके रहने के लिये इंद्रकी आज्ञासे कुबेर अनेक रत्नोंसे जड़ित, मनोहर भूमियोंसे शोभित, अयोध्यानगरीका निर्माण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) करैगा । अयोध्याका परकोटा मनोहर किरणोंसे व्याप्त, मुक्ताफल और भी अनेक रत्नोंसे निर्माण किया स्वर्गकी समताको धारण करैगा । और घर स्वर्गघरों के साथ स्पर्ध करेंगे। अयोध्याके घर विमानोंको जीतेंगे । मनुष्य देवोंको, स्त्रियां देवांगनाओंको, राजा इंद्रोंको और वृक्ष कल्पवृक्षोंको नीचा दिखायगे। अयोध्यामें रहनेवाली कामिनियोंके मुखसे चंद्रमंडल जीता जायगा । नखोंसे तारागण, मनोहर नेत्रोंसे कमल और गमनसे हाथी पराजित होंगे । अयोध्यापुरीके महलोंपर लगी ध्वजा चंद्रमंडलका स्पर्श करेंगी । अयोध्यापुरीका विशेष कहांतक वर्णन किया जाय ! जिनेंद्रके रहनेके लिये कुवेर इंद्रकी आज्ञासे उसै एक ही बनावेगा । और वहां अनेक राजाओंसे पूजित चौतर्फा अपनी कीर्ति प्रसार करनेवाले अतिशय पुण्यवान, चतुर, सुंदर, और सात हाथ शरीरके धारक कुलकर महापद्म रहेंगे । महापद्मकी प्रियभार्या सुंदरी होगी। सुंदरी अतिशय शरीरकी धारक, पद्मके समान सुंदर, रतिके समान होगी। उसके केश अतिशय देदीप्यमान और उत्तम होंगे। मुख कमलकी सुगंघिसे उसके मुखपर भोरे गिरेंगे। और उसके शिरपर रत्नजड़ित देदीप्यमान चूड़ामणि शोभित होगा । अतिशय तिलकसे युक्त उसका भाल अतिशय शोभाको धारण करैगा और वह ऐसा मालूम पड़ेगा मानों त्रिलोककी स्त्रियोंके विजयके लिये विधाताने एक नवीन यंत्र रचा हो । कानोंतक विस्तृत विशाल और रक्त उसके नेत्र होंगे। और वे पद्मदलकी शोभा धारण करेंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५ ) सुंदरीके प्रकुटियोंके मध्य में ओंकार अतिशय शोभाको धारण करैगा' विधाता उसै समस्त जगतको वश करनेके लिये निर्माण करेगा ऐसा मालूम पड़ता है | दांतरूपी अनुपम केसरका घारक नासिका रूपी विशसे मनोहर ओष्ठरूपी पल्लोंसे व्याप्त उसका मुखकमल अतिशय शोभा धारण करेगा । मनोहरकंबुके समान सुंदर, तीन रेखाका धारक, मुखरूपी घरकेलिये खंभे के समान कोकिल ध्वनियुक्त उसकी ग्रीवा अतिशय शोभित होगी । मुक्ताफलसे शोभित भांति २ के रत्नोंसे देदीप्यमान सुंदरीके वक्षःस्थलका हार अतिशय शोभा धारण करैगा । और वह ऐसा जान पड़ेगा मानो विधाताने स्तनकलशोंकी रक्षार्थ मनोहर सर्पका ही निर्माण किया हो । सुदुर्लभ हाररुपी सर्पोंसे शोभित चूचुकरुपी वसे आच्छादित उसके दोनों स्तन मनोहर घड़े के समान जान पड़ेंगे । अंगुलीरूपी पत्तों से व्याप्त, बाहुरूपी दंडों का धारक, कंकणरूपी उन्नत केसर से शोभित उसके दोनों करकमल अतिशय शोभा धारण करेंगे । मनोहरांगी सुंदरीका कामदेवरुपी हाथीसे युक्त मनोहर विखरे हुए केशरूपी पद्मका धारक कामीजनोंकी क्रीड़ाका इष्टस्थल नाभिरुपी तालाव संसार में एक ही होगा । सुंदरीका उन्नत स्तनोंके भार से अतिशय कृश कटिभाग अति शोभित होगा सो ठीक ही है दो आदमियोंके विवाद में मध्यस्थ मारे भयके कृश होही जाता है । सुंदरी के दोनों जानु, कदली स्तंभकं समान शोभा धारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ ) .. | करेंगे । कामीजनोंको वश करनेके लिये वे कामदेवके दो बाण कहलाये जायगे और अनेक शुभ लक्षणों के धारक होंगे । मीन शंख आदि उत्तमोत्तम गुणोंसे उसके दोनों चरण अत्यंत शोमित होंगे । और नखरूपी रत्नोंसे युक्त उसकी अंगुली | होंगी। विधाता सुंदरीका रुप तो अनेक उपायोंसे रचेगा और मुख चंद्रमासे, नेन कमलपत्रोंसे दांत मूगोंसे ओठ पके विवाफलोसे दोनों भुजा शाखाओंसे वक्षःस्थल सुवर्णतटोंसे दोनों स्तन सुवर्णकलशोंसे एवं दोनों चरण कमलपत्रोंसे बनावेगा । माता सुंदरी सरस्वतीके समान शोभित होगी क्योंकि सरस्वती जैसी सालंकृति अलंकारयुक्त होती है सुंदरी भी अनेक भाभरणोंसे युक्त होगी। सरस्वती जैसी सगुणा सर्वगुणयुक्त होती है उसीप्रकार सुंदरी भी सर्वगुणोंसे युक्त होगी । सरस्वती जैसी विदोषा दोष रहत होती है सुंदरी भी निर्दोष होगी। सरस्वती उत्तमरीतिसे देदीप्यमान होती है उसीप्रकार सुंदरी भी अतिशय सुडोल होगी। सरस्वती जैसी अनेकरसोंसे युक्त होती है सुंदरी भी लावण्ययुक्त होगी। सरस्वती जैसी शुभ अर्थयुक्त होती है सुंदरी भी अपने अवयवोंसे सुडोल होगी। माता सुंदरी गति से हथिनी जीतेगी और नयनसे मृगी, वाणीसे कोकिल, रूपसे रति एवं मुखसे चंद्रमा जीतेगी। भगवानके जन्मके छै मास पहिलसे जन्मतक पंद्रहमास पर्यंत कुबेर इंद्रकी आज्ञासे तीनोंकाल अमोघ रत्नोंकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (३६७ ) | वर्षा करैगा । माताकी सेवाके लिये इंद्रकी आज्ञासे छप्पन कुमारी आकर माताकी सेवार्थ आवेंगी और राजा महापद्मको नमस्कार कर राजमहलमें प्रवेश करेंगी। किसीसमय कमलनेत्रा रानी सुंदरी शयनागारमें अपनी मनोहर शय्यापर शयन करेंगी अचानक ही वह रात्रिके पिछले प्रहरमें ये स्वप्न देखेगी । १ जिससे मद चू रहा है ऐसा सफेद हाथी, २ उन्नत स्कंधका धारक नाद करता हुआ बैल, ३ हाथीको विदारण करता बलवान केहरी, ४ दुग्धसे स्नान करती लक्ष्मी, ५ अमरोंसे व्याप्त उत्तम दो माला, ६ संपूर्ण चंद्रमा, ७ अंधकारका नाशक प्रतापी सूर्य, ( जलमें किलोल करतीं दोमछ. लियां, ९ दो उत्तम घड़े, १० अनेक पद्मोंसे व्याप्त सरोवर, ११ रल मीन आदिसे युक्त विशाल समुद्र, १२ मणिजड़ित सोनेका सिंहासन, १३ अनेक देवांगनाओंसे शोभित सुरविमान, ११ नागेंद्रका घर, १५ रत्नोंका ढेर, १६ और निघूमवन्हि । तथा उन्नत देहका धारक पवित्र किसी हाथीको अपने मूखमें प्रवेश करते भी वह सुंदरी देखेगी । प्रातःकालमें वीणा ढका शंख आदिके शब्दोंसे और मागधोंकी स्तुतिके साथ रानी पलंगसे उठाई जायगी और शय्यासे उठते समय वह प्राची दिशासे जैसा सूर्य उदित होता है वैसी शोभा धारण करेगी। महाराणी उठकर स्नान करैगी और शिरपर मुकुट, कंठमें ललित हार, हाथों में कंकण, भुजाओंमें बाजूबंध, कानों में कुंडल, कमरपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) करधनी एवं पेरोंमें नूपुर पहनेगी । तथा अपने स्वामी राजा महापद्मके पास जायगी और सिंहासनपर उनके वामभागमें बैठिकर चित्तमें हर्षित हो इस प्रकार कहैगी स्वामिन् ! रात्रिके पिछले प्रहर मैंने स्पन देखे हैं कृपाकर उनका जैसा फल हो वैसा आप कहैं । रानीके ऐसे वचन सुन राजा महापन इसप्रकार कहेंगे-- प्रिये ! मृगाक्षि ! जो तुमने मुझसे स्वप्नोंका फल पूछा | है मैं कहता हूं तुम ध्यानपूर्वक सुनो जिससे तुम सुख मिलेस्वप्नमें हाथीके देखनेका फल तो यह है कि तेरे पुत्ररत्न उत्पन्न होगा । बैलके देखनेका फल यह है कि वह तीनोंलोकमें अतिशय पराक्रमी होगा । तूने जो सिंह देखा है उसका फल यह है कि तेरा पुत्र अनंतवीर्यशाली होगा और दो मालाओं के देखनेसे धर्मतीर्थका प्रवर्तक होगा । जो तूने लक्ष्मीको स्नान करते देखा है उसका फल यह है कि मेरुपर्वत पर तेरे पुत्र को केजाकर देवगण क्षीरोदधिके जलसे स्नान करावेंगे। चंद्रमाके देखनेसे तेरा पुत्र समस्तजगत्को आनंद प्रदान करनेवाला होगा । सूर्यके देखनेका फल यह है कि तेरा पुत्र अद्वितीय कांतिधारक होगा । कुंभके देखनेसे अगाध द्रव्यका स्वामी होगा। मीनके देखनेसे तेरा पुत्र सुखका भंडार होगा और उत्तमोत्तम लक्षणोंका धारक होगा । समुद्र के देखनेका फल यह है कि तेरा | पुत्र ज्ञानका समुद्र होगा और जो तूने सिंहासन देखा है उससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६९ ) 1 तेरा पुत्र तीनों लोकके राज्यका स्वामी होगा । देवविमानोंके देखनेसे बलवान और पुण्यवान होगा। तूने जो नागेंद्रका घर देखा है उसका फल यह है कि तेरा पुत्र जन्मतेही अवधिज्ञानका धारक होगा | चित्रविचित्र रत्नराशी देखनेसे तेरा पुत्र अनेक गुणका धारक होगा । निर्धूम अभिके देखनेका यह फल है कि तेरा पुत्र समस्त कर्म नाश सिद्धपद प्राप्त करेगा । और तुने जो मुखमें हाथी प्रवेश करते देखा है उसका फल यह है कि तेरे शीघ्र पुत्र होगा । राजाके मुखसे ज्योंही रानी स्वमफल सुन हर्षित होगी त्योंही महान पुण्यका भंडार महाराज श्रेणिकका जीव नरककी आयुका विध्वंसकर रानी सुंदर के शुभ उदरमें जन्म लेगा | तीर्थकर महापद्मका आगमन अवधिज्ञानसे विचार देवगण अयोध्या आवेगे । तीर्थकरके मातापिताको भक्तिपूर्वक प्रणाम करेंगे । उन्हें उत्तमोत्तम वस्त्र पहनांयगे । भगवानका गर्भकल्याण कर सीधे स्वर्ग चले जांयगे और वहां समस्त पुण्यों के भंडार समस्त कर्म नाश करनेवाले भगवान तीर्थंकरकी कथा सुन आनंदसे रहेंगे । छप्पन कुमारियां माताकी भोजनादिसे भक्तिपूर्वक सेवा करेंगी । आज्ञानुसार माताका स्नपन विलेपन आदि काम करेंगी । कोई कुमारी माता के पैर घोयगी। कोई उनके सामने उत्तमोत्तम पुष्प लाकर घरैंगी । कोई माताकी देह से तेल मलैगी । कोई क्षीरोदधिजलसे माताको स्नान करायगी । कोई पूआ मांड लाडू खीर उर्द मूगके स्वाद दूध दही और भी भांतिके व्यंजन माताको देगी । कोई माता के भोजनार्थ उत्तमोत्तम भोजन बनानेके लिये उत्तमो - तम पात्र देगी । कोई २ माता की प्रसन्नता के लिये हावभावपूर्वक नृत्य करैगी । कोई माता की आज्ञानुसार वर्ताव करैगी और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) कोई कुमारिका अपने योग्य वर्तावसे माताके चित्तको अतिशय आनंद देगी। कोई २ कुमारी कत्था चूना सुपारी रखकर सुंदरीको पान देगी। कोई उसके गलेमें अतिशय सुगंधित माला पहनायगी। कोई कोई माताके लिये मनोहर शय्याका निर्माण करैगी और कोई रत्नोंके दिया लगायगी । और कोई२ कुमारी भाताके मस्तकपर मुकुट, कानमें कुंडल, हाथमें कंकण,गलेमें हार, नेत्रमें काजल, मुखमें पान, मस्तकपर तिलक, कमरमें करधनी, नाकमें मोती, कंठमें कंठी, पेरोंमें नू पुर, पामकी अंगुलियों में वीछिये पहिनायगी । जब नौमा महिना पास आजायगा तब कुमारियां माताके विनोदार्थ क्रियागुप्त कर्तृगुप्त कर्मगुप्त मौर प्रहेलिका कहकर माताको आनंद वढायगी। कोई पूछेगी, वता माता-शरीरका ढकनेवाला कौन है ? चंद्रमंडलमें क्या है ? और पापकी कृपासे जीव कैसे होते हैं ? माता उत्तर देगी सभा विभा अभाः कुमारियां फिर पूछेगी-वता माता-जीवोंका अंतमें क्या होता है ! कामी लोग क्या करते है ! ध्यानके बलसे योगी कैसा होता है ? माता उत्तर देगी-विनाश १ विलास २ विपास ३ कोई कुमारी क्रियागुप्त श्लोक कहकर मातासे पूछने लगी, बता माता-- शुभेद्य जन्मसंतानसंभवं किल्विषं घनं । प्राणिनां भ्रूणभावेन विज्ञानशत पारगे । १-हे अनेक विज्ञानोंकी आकर ! शुभे ! गर्भके प्रभावसे जीवोंके अनेक जन्मोंसे चले आये वज्रपापोंका नाश करो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७१ ) इसमें क्रिया कोंन हैं ? कोई कहने लगी, बता माता२आनंदयंतु लोकानां मनांसि वचनोत्करैः। मातः कर्तृपदं गुप्तं वदभ्रूण विभावतः ॥ इसमें ३कर्ता कौन है ? कोई कहने लगी, बता माता४सुधीमनयसंपन्ना लभंते किंनराः कचित् । स्वकर्मवशगा भीमे भवे विक्षिप्त मानसाः॥ इसमें कर्म क्या है? कोई २ कुमारी कहने लगी-माता ! तुम समस्या पूरण करनेमें बड़ी चतुर हो। इस समय तुम गर्भवती भी हो मुनिश्यायते सदा इस समस्याकी पूर्ति करो। माताने जवाब दिया ५नरार्थ लोकयत्येव गृहीत्वार्थ विमुंचति । धत्ते नाभिविकारं च मुनिबेश्यायते सदा ॥ १ इसमें दो अवखंडने धातुका लोटके मध्यम पुरुषका एक बचन 'द्य' क्रियापद है। २-लोगोंके मन, वचनोंसे आनंदको प्राप्त हों । हे माता इसमें कर्तृपद गुप्त है गर्भके प्रभावसे आप कहैं । ३--इस श्लोकमें मनासि कर्ता है। ४ विक्षेप चित्तयुक्त, कोंके वशीभूत और नीतिरहित मनुष्य क्या संसारमें कहीं उत्तम बुद्धिके धारक हो सकते हैं ? कदापि नहिं । इसमें सुपी कर्ता है। ५ जो मुनि परधनकी ओर देखता रहता है, धन लेकर धनीको छोड़ देता है और नाभिविकारखुक्त होता है वह मुनि वेश्याके समान होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) दूसरी कुमारी बोली- माता ! वळी बेश्यायते सदा १ धरायां संगतं नभः । इन दो समस्याओं की पूर्ति जल्द करो । मावाने जवाब दिया - ॥१॥ ॥२॥ १ स्वपुष्पं दर्शयत्येव कुलीना सुपयोधरा । मधुपैश्धुंव्यमानाच वली वेश्यायते सदा पानीये वालिशैर्नूनं घरास्थे प्रतिविम्बितं । दृश्यते च शुभाकारं धरायां संगतं नभः दूरस्थै दूरतो नूनं नरै विज्ञान पारगैः । इष्यते च शुभाकारं धरायां संगतं नभः कोई कुमारी मातासे यह कहैगी, शुभलक्षाणोंकी आकरमृगनयनी । प्रियवादिनि । नियमसे आपके गर्भमें किसी पुण्यवान अवतार लिया है। माता यह झूठ न समझो क्योंकि जो मनुष्य पक्षपाती और पूज्योंका वंचन करते हैं संसारमें वे ॥३॥ 1 १ लता वेश्याके समान आचरण करती है क्योंकि वेश्या जैसी स्वपुष्पं दर्शयति । रजोधर्मयुक्त होती है लता भी पुष्प ( फूल ) युक्त होती है । वेश्या जैसी कुलीना नीच पुरुषोंमें लीन रहती है लता भी कुलीना पृथ्वीमें लीन है । वेश्या जैसी सुपयोधरा उत्तम स्तनयुक्त होती है लता भी उत्तम दुधयुक्त है । वेश्या जैसी मधुपैश्रुंव्यमाना मद्यपजनसे चुंव्यमान होती है लता भी भोरोंसे चुंव्यमान है ॥२॥ मूर्ख लोग भूमिस्थ पानीमें स्पष्टतया आकाशको देखते हैं इसलिये आकाश भूमिपर कहा जाता है || ३ || विज्ञानके वेत्ता पुरुष दूरसे आकाशको पृथ्वीपर रक्खा हुआ समजते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७३ ) अनेक कष्ट भोगते हैं । इसप्रकार समस्त कुमारियां तीनोंकाल हृदयसे माताकी सेवा करेंगी और तीर्थंकर चक्रवर्ती नारायण प्रतिनारायण वासुदेव आदि महापुरुषों की कथा कहकर माताका मन आनंदित करेंगी। प्रायः स्त्रियों के गर्भके समय वृद्धि आलस्य तंद्रा वगेरह हुआ करते हैं किंतु माताके गर्भके समय न तो उदरवृद्धि होगी, न आलस्य और तंद्रा होगी, मुखपर सफेदाई भी न होगी । जब पूरे नौ मास हो जायगे तब उत्तम योगमें और उत्तम दिन चंद्रमा लग्न और नक्षत्रमें माता उत्तम पुत्ररत्न जनेगी । उस समय पुत्रके शरीरकी कांति से दिशा निर्मल हो जायगी । भवनवासियों के घरों में शंखशब्द होने लगेंगे । व्यंतरों के घरों में भेरी बजैंगी। ज्योतिषियोंके घर मेघध्वनि के समान सिंहासन रव और वैमानिक देवोंके यहां घंटा शब्द होंगे । अपने अवधिबलसे तीर्थंकर का जन्म जान देवगण अपने२ वाहनों पर सवार हो अयोध्या आंगे । प्रथम स्वर्गका इंद्र भी अतिशय शोभनीय ऐरावत गजपर सवार हो अपनी इंद्राणी के साथ अयोध्या आयगा । अयोध्या आकर इंद्राणी इंद्रकी आज्ञासे शीघ्रही प्रसूतिघरमें प्रवेश करैगी। वहां तीर्थंकरको अपनी माताके साथ सोता देख उनकी गूढ़भावसे स्तुति करेगी । माताको किसी प्रकारका कष्ट न हो इसलिये इंद्राणी उस समय एक मायामयी पुत्रका निर्माण करेंगी और उसै माताके पास सुलाकर मौर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~~~~~ ~~~~~~~~ ( ३७४ ) भगवानको हाथमें लेकर इंद्रके हाथमें देगी। भगवानको देख इंद्र अति प्रसन्न होगा और शीघ्रही हाथीपर विराजमान करेगा । उस समय ईशान इंद्र भगवानपर छत्र लगायगा । सनत्कुमार और भाहेंद्र दोनों इंद्र चमर ढोरेंगे एवं सबके सब | मिलकर आकाश मार्गसे मेरुपर्वतकी ओर उसी क्षण चलदेंगे । मेरुपर्वतपर पहुंच इंद्र भगवानको पांडुकशिलापर बिठायगा । उस समय देवगण एक हजार आठ कलशोंसे भगवानका अभिषेक करेंगे । इंद्र उसी समय भगवानका नाम पद्मनाभ रक्खेगा । अनेक प्रकार भगवानकी स्तुति करेगा । और उस समय भगवानका रूप देख तृप्त न होता हुआ सहस्राक्ष होगा । बालक भगवानको इंद्राणी अपनी गोदमें लेगी और अनेक भूषणोंसे भूषित करेगी। भूषणभूषित भगवान उस समय सूर्यके समान जान पड़ेंगे और दुंदुभि आनक शंख काहलोंके शब्दोंके साथ नृत्य करते हुए, तालके शब्दोंसे समस्त दिशा पूरण करते हुए, लयपूर्वक रागसहित सरस गान करते हुऐ, और जयर शब्द करते हुए समस्त देव मेरुपर्वतपर भगवानके जन्मकालका उत्सव मनायगे । पश्चात् अनेक देवोंसे सेवित इंद्र भगवानको गोदमें लेकर हाथी पर विराजमान करैगा । अनेक शालि धान्य युक्त, बड़ी२ गलियोंसे व्याप्त ध्वजायुक्त, अनेक | मकानोंसे शोभित अयोध्यापुरीमें भायगा। बड़े २ | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) नेत्रोंसे शोभित भगवानको पिताके सुपुर्द करेगा । मेरुपर्वतपर जो काम होगा इंद्र उस सबको भगवान के पिता महापद्मसे कहूँगा । पितामाता के विनोदार्थ इंद्र फिर नृत्य करेगा एवं भगवानको अनेक भूषण प्रदानकर और भगवानको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर इंद्र समस्त देवों के साथ स्वर्ग चला जायगा । इस प्रकार समस्त देवों से पूजित भांति २ के आभरणयुक्त देहका धारक, अनेक गुणोंका आकर बालक पद्मनाभ दिनोंदिन बढ़ता हुआ पिता माताका संतोषस्थान होगा । पद्मनाभ अमृतसे परिपूर्ण अपने पाँव के अगूठेका चुसेगा और पवित्र देहका धारक शुभ लक्षणका स्थान वह कलाओंसे जैसा चंद्रमा बढ़ता चला जाता । वैसा ही शुभलक्षणों से बढ़ता चला जायगा | अतिशय पुण्यात्मा तीर्थंकर पद्मनाभके शरीरकी उचाई सात हाथ होगी और आयु ११६ एकसो सोलह वर्ष की होगी । तीर्थंकर पद्मनाभकी स्त्रीयां उत्तम अनेक गुणोंसे भूषित सुवर्णके समान कांति की धारक शुभ और यौवनकाल में अतिशय शोभायुक्त होंगी । भगवान ऋषभदेव के जैसे भरत चक्रवर्ती आदि शुभलक्षणों के धारक पुत्र हुए थे वैसेही तीर्थंकर पद्मनाभके भी चक्रवर्ती पुत्र होंगे। तीर्थंकर ऋषभदेव के ही समान तीर्थंकर पद्मनाभ राज्य करेंगे । नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करेंगे और प्रजा वर्गको षटकर्म की ओर योजित करेंगे । तथा देश ग्राम पुर द्रोण आदिकी रचना करायगे । वर्णभेद और नृपवंशभेदका निर्माण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) करेंगे। राजा लोगों को नीत्तिकी शिक्षा देंगे, व्यापारका ढंग सिखलांयगे और भोजनादि सामिग्रीकी शिक्षा प्रदान करेंगे । इस रीति से भगवान पद्मनाभ कुछ दिन राज्य करेंगे पश्चात् कुछ निमित्त पाकर शीघ्रही भवभोगों से विरक्त हो जायगे और सद्धर्मकी ओर अपना ध्यान खीचेंगे। भगवानको भवभोगों से विरक्त जान शीघ्रही लोकांतिक देव आंयगे और महाराजकी वार२ स्तुति कर उन्हें नालिकी बिठा वन ले जायगे । भगवान तप धारण कर और तपके प्रभावसे मन:पर्ययज्ञान प्राप्त करेंगे और पीछे केवलज्ञान प्राप्त करेंगे । भगवानको केवलज्ञानी जान देवगण आयगे और समवसरणकी रचना करेंगे। भगवान समवसरण में सिंहासन पर विराजमान हो भव्यजीवोंको घर्मोपदेश देंगे। जहांतहां विहार भी करेंगे और अपने उपदेश रुपी अमृत से भव्यजीवोंके मन संतुष्ट कर समस्त कर्मों का नाश निर्वाणस्थान चलेजांयगेजिस समय भगवान मोक्ष चले जांयगे उससमय देव उनका निर्वाणकल्याण मनांयगे तथा सानंद अपनी देवांगनाओंके साथ स्वर्ग चले जायगे और वहां आनंदसे रहेंगे । इसप्रकार भगवान पद्मनाभ के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिकके चरित्र में भविष्यत काल में होनेवाले भगवान पद्मनाभके पंच कल्याण वर्णन करनेवाला पंद्रहवां सर्ग समाप्त हुआ । ॥ समाप्तोऽयं ग्रंथ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि गणाधर. महावीर कर्मरूपी वेष्ठित राज्यये घोड़ा वरैका धरमें स्तमरूषी. समझिली उतम श्रेणिक लाता हूं पके हुवे श्रेणिको मिश्चित उयाय शुद्धि अशुद्धि पत्र । शुद्धि गणधर महावीर कर्मरूपी वेष्टित राज्यमें घोड़ा वैरकाः घरमें स्तनरूपी समक्षली उत्तमः उपश्रेणिक लाता है पके हुवे ऑणिकको ver मिश्रित तरंग उपाय तरंग श्रेणिकको ९४ उपश्रेणिको १०० १७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगांके अमना परिश्रन उसका विवाह नियंच (२) मृगांकके अपना परिश्रम वह तिर्यच १५९ १० मी भी. १७७ १७८ यिचारी घोड़ासा बौषधर्मको वैरके विचारी थोडासा बौद्धधर्मको वैरका आहार वड़ा अहार वदा om ~ ~ ~war » . - - १ शूठ झूठ विकल्प २०३ १ २२२ १३ २५७ ११ २८७ २८८ ४ ३०१ ३०१ २० ३२१ ३२३ निकल्प . सकताहूं अहानन .. प्रतिहार्य ताके तेजकायिक दव्योंके वृतांत सकता है आहानन प्रातिहार्य नोक तेजःकायिक द्रव्योंके वृत्तांत मनुष्योंपर नदीके ३२६: ७ ३३१ ५. ३३३ ९ मनुप्योपर नदिके - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस मीतरी नरमेष अश्वमेघ सूधर्म शास्त्ररुपी आश्रर्य दूर्म आपके सौ मुखसे रुखी दिखा पिताकी रानीको वह इसप्रकार भयभित विपास शुभलक्षाणों की नीचिकी ( ३ ) पाठक सुधारलेवे। किसी भीतरी नरमेध अश्वमेघ सुधर्म शास्त्ररूपी आश्चर्य दुष्कर्म आपका सो नेत्रों से रूखी दीखा पिताको चलना रानीको इसप्रकार भयभीत विपाश शुभलक्षणों की नीतिश्री ३३४ १६ ३३५ ५ ३३६ २ ३३६ ३ ३३७ ३४० ८ ३४० ३४१ ३४३ ३४८ ३४८ ३५२ ३५२ ३५६ ३१८ १५ ५ १३ २ १५ २१ < १३ १३ ३५८ ३५९ ७ ३७० १७ ३७२ १० ३७६ २५७ से २७२ तक की पृष्ठसंख्या छपने में गलती हुई है सोभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ના થા . alchbllo 16111 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com