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परमपवित्र तीन मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आये । ज्योंही महाराजकी दृष्टि मुनिओपर पडी वे शीघ्र ही रानके पास गये । और कहने लगे- प्रिये ! मुनिराज राजमंदिर में आहारार्थ आ रहे हैं। जल्दी तयार हो उनका पड़िगाहन कर । तथा स्वयं भी मुनिओं के सामने आकर खडे होगये ।
मुनिराज यथास्थान आकर ठहर गये । ज्योंही रानीने मुनिराजोंको देखा विनम्र मस्तक हो उन्हें नमस्कार किया । तथा महाराजद्वारा की हुई परीक्षा से जैनधर्म पर कुछ आघात न पहुंचे यह विचार रानीने शीघ्र ही विनयसे कहा :
हे मनोगुप्ति आदि त्रिगुप्ति पालक, परसोत्तम, मुनिराजो ! आप आहारार्थ राजमंदिर में तिष्ठे ।
उनमें से कोई भी मुनि त्रिगुप्तिका पालक था नहीं । सब दो दो गुप्तिओं के पालक थे । इसलिये ज्योंही रानीके वचन सुने उन्होंने शीघ्र ही अपनी दो दो अंगुलियां उठा दी । तथा दो अगुलियोंके उठाने से रानीको यह जतलाकर कि हे रानी ! हम दो दो गुप्तियोंके ही पालक हैं, शीघ्र वनकी ओर चल दिये ।
उसीसमय कोई गुणसागर नामके मुनिराज भी पुरमें आहारार्थ आये । मुनिगुणसागरको अवधिज्ञानके वलसे राजाका भीतरी विचार विदित हो गया था। इसलिये वे सीधे राजमंदिर में ही घुसे चले आये । मुनिराजपर रानीकी दृष्टि पडी । उन्हें
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