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________________ ( ११८ ) जराभी न डरें। मैं अभी इसका प्रतीकार करता हूं । तथा सव ब्राह्मणोंको इसप्रकार दिलासादेकर कुमारकिसी तलाव के किनारें गये । ताला में कुमारने लकड़ी डाल दी। जिससमय वह लकड़ी अपने मूल भागको आगेकर वहने लगी । शीघ्रही उन्होंने उसका पीछे आगे का भाग समझ लिया । एवं भलेप्रकार परीक्षा कर किसी ब्राह्मणके हाथ उसे महाराज श्रेणिककी सेवामें भेजदिया । लकड़ीको ले ब्राह्मण राजगृह नगर गया । और कुमारकी आज्ञानुसार उसने लकड़ीका नीचा ऊंचा भाग महाराजकी सेवामें विनयपूर्वक जा वताया । जिससमय महाराजने लकड़ी को देखा तो मारे क्रोध से उनका तन वदन जल गया । वे सोचने लगे मैं ब्राह्मणों पर दोष आरोपण करनेके लिये कठिन से कठिन उपाय कर चुका । अभी ब्राह्मण किसीप्रकार दोषी सिद्ध नहीं हुवे हैं । नंदिग्राम के ब्राह्मण बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं । अब इनका दोषी बनाने के लिये कोई दूसरा उपाय सोचना चाहिये । तथा क्षण एक ऐसा विचार कर उन्होंने फिर किसी सेवकको वुलाया | और उसके हाथमें कुछ तिल देकर यह आज्ञा दी कि अभी तुम नंदिग्राम जाओ। और वहांके ब्राह्मणोको तिल देकर यह बात कहो कि महाराजने ये तिल भेजे हैं । जितने ये तिल हैं इनकी वरावर शीघ्रही तेल राजगृह पहुंचा दो । नहीं तो तुम्हारे हकमें अच्छा न होगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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