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भट्टारक शुभचंद्रके विषयमें जो पट्टावली मिली है उसमें भी यह उल्लेख पाया गया है कि भट्टारक शुभचंद्र भट्टारक विजयकीर्तिके ही शिष्य थे एवं भट्टारक शुभचंद्र भगवान् कुंदकुंद पद्मनंदी सकलकीर्ति आदिके आम्नायमें हुए हैं।
उसी प्रकार नीचे लिखी पांडवपुराणकी प्रशस्तिके श्लोकोंसे भी यह बात जानी गई है कि भट्टारक शुभचंद्र भट्टारक विजयकीतिके ही शिष्य और कुंदकुंदादि आचार्योंकी ही आम्नायमें थे।
श्री मूलसंप्रेऽजनि पद्मनंदी तत्पट्टधारी सकलादिकीर्तिः कीर्तिः कृता येन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थकी सकला पवित्रा॥६७।। भुवनकीर्तिरभृद्भवनाद्भूतैर्भुवनभासनचारुमतिः स्तुतः। वरतपश्चरणोद्यतमानसो भवभयाहिखगेट क्षितिवत्क्षमी ॥६८॥ चिद्रूपवेत्ता चतुरश्चिरंतनश्चिद्भू पणश्चर्चितपादपद्मकः सूरिश्च चद्रादिचयेश्चिनोतु वै चारित्रशुद्धिं खलु नः प्रसिद्धिदां ॥६९॥ विजयकीर्तियतिर्मुदितात्मको जितनतान्यमनः सुगतैः स्तुतः। अवतु जैनमतं मुमतो मतो नृपतिभिभवतो भवतो विभुः ॥७॥ पट्टे तस्य गुणांबुधितधरो धीमान् गरीयान् वरः श्रीमच्छ्रीशुभचंद्र एष विदितो वादीभसिंहो महान् । तेनेदं चरितं विचारसुकरं चाकारि चंचद्रुचा पांडोः श्रीशुभसिद्धिसातजनक सिद्धयै रतुतानां सदा ॥७१॥
अर्थः-मूल संघमें मुनि पद्मनंदी हुए और उन्हीके पट्टपर अनेक मुनियों के बाद सकलकीर्ति मुनि हुए । भट्टारक सकलकीर्तिने मर्त्यलोक में शास्त्रके अभिप्रायको भले प्रकार विवेचन करनेवाली समस्त कीर्तिका प्रसार किया ॥६७॥
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