________________
( ११२ ) राजाधिराज ! नंदिग्रामके ब्राह्मण वाबड़ी लाये हैं । अब उन्हें जो आज्ञा हो सो करें।
उससमय महाराजके ऊपर निद्रादेवीका पूरा पूरा प्रभाव पड़ा हुवा था। निद्राके नशेमें उन्हें अपने तन बदनका भी होश हवास नहीं था। इसलिये जिससमय ऊन्होंने ब्राह्मणोंके वचन सुने, तो वेसुधमें उनके मुखसे धीरेसे ये ही शब्द निकल गये कि--जहांसे वावड़ी लाये हो, वहीं पर वावड़ी लेजाके रख दो। और राजमंदिरसे शीघ्रही चले जाओ । वस फिर क्या था, ब्राह्मण तो यह चाहते ही थे कि किसीरीतिसे महाराजके मुखसे हमारे अनुकूल वचन निकलैं । जिससमय महाराजसे उन्हें अनुकूल जवाव मिला तो मारे हर्षके उनका शरीर रोमांचित होगया। वे उछलते कूदते तत्कालही नांदिग्रामको लोटगये । और वहां पहुंचकर, विघ्नकी शांतिसे अपना पुनर्जीवन समझ, वे सुख सागरमें गोता मारने लगे। तथा अभयकुमारके चातुर्य पर मुग्ध होकर उनके मुखसे खुले मैदान ये ही शब्द निकलने लगे कि कुमार अभय की बुद्धि अत्युत्तम और आश्चर्य करनेवाली है । इनका हर एक विषयमें पांडित्य सबसे चढ़ा वढ़ा है । सौजन्य आदिगुण भी इनके लोकोत्तर हैं इत्यादि ।
इधर अपने भयंकर विघ्नकी शांति होजानेसे विप्रतो नंदिग्रामम सुखानुभव करने लगे। उधर राजगृह नगरमें महाराज श्रेणिककी निद्राकी समाप्ति होगई। उठते ही उनके मुंहसे यही
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com