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________________ ( २६३ ) राजकी) परिचर्या करने लगा। कुछ दिन बाद मेरे रोगकी शांति हई । मुझे नीरोग देख जिनदत्तको परम संतोष हुवा । मेरी नीरोगताकी खशीमें जिनदत्त आदि सेठोंने अति उत्सव मनाया । जहां तहां जिनमंदिरोंमें विधान होने लगे। एवं कानों को अति प्रिय उत्तमोत्तम बाजे भी बजने लगे। राजन् श्रेणिक : इधर तो मैं नारोग हुवा और उधर वर्षाकालभी आगया । उससमय आनंदसे वृष्टि होने लगी। जहां तहां विजली चमकने लगी। एवं प्रत्येक दिशामें मेघध्वनि सुन पड़ी । उससमय हरित वनस्पतिसे आच्छादित, जलवृंदोंसे व्याप्त, पृथ्वी अति मनोहर नजर आने लगी । जैसे हरित कांतमणिपर जड़े हुवे सफेद मोती शोभित होते हैं हरी वनस्पतिपर स्थित जल वृंदे उससमय ठीक वैसी ही शोभाको धारण करती थीं। उससमय मयूर चारो ओर आनंद शब्दकरते थे । विरहिणी कामिनियोंके लिये वह मेघमाला जलती हुई अग्नि ज्वालाके समान थी । और अपनी प्राण वल्लभाके अधरामृत पानके लोलुपी, क्षणभरभी उसके विरहको सहन न करनेवाले कामियोंके मार्गको रोकनेवाली थी। जिससमय विरहिणी स्त्रियां अपने २ घोंसलोंमें आनंद पूर्वक प्रेमालिंगन करते हुवे वगलीवगलोंको देखती थीं उन्हें परम दुःख होता था । वे अपने मनमें ऐसा विचार करती थीं । हाय !!! यह पतिविरह दुःख हमपर कहांसे टूट पड़ा। क्या यह दुःख हमारे ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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