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( ७४ ) यों अपना विचार प्रकटकर कह रहीथी कि हे आलि अव मैं कुमारकी बुद्धिकी परीक्षा जव स्वयं अपने नेत्रोंसे करलूंगी तव मैं उस कुमारके साथ अपने विवाहकी प्रतिज्ञा करूंगी। नंदश्रीकी यहवातसुनकर कुमारकें बुद्धिचातुर्यके देखनेकेलिये वह निपुअवती सुंदरीभी उसके पासवैठिगई । इसप्रकार अनेक कथा कौतूहलोंको करतीहुईं वे दोनों कुमारके आगमनका इंतजार करही रहीं थी कि इतने में कुमार श्रेणिकभी दरवाजेके पास आ पहुंचे। आतेही जव उन्होंने द्वारपर घोंट्रपर्यंत भरीहुई कीचड़ देखी
और उसकीचड़के ऊपर एक एक पैरके फासलेसे रक्खीहुई ईंटे भी जब उनके नजर पड़ी तो यह विचित्रदृश्य देखकर वे एकदम दंग रहगये! और अपनेमनमें विचारनेलगे कि बड़े आश्चर्यकी बात है कि नगरभरमें और कहींपर भी कीचड़ देखने में नहीं आई। कीचड़ वर्षा कालमें होता है । वर्षांका मोसमभी इससमय नहीं । फिर इस द्वारके सामने कीचड़ कहांसे आई ? । मालूम होता है नंदश्रीने मेरी बुद्धिकी परीक्षाकेलिये यह द्वारपर कीचड़ भरवाई है। और कीचड़के मध्यमे ईंटे रखवाई हैं। दूसरा कोईभी प्रयोजन नजर नहीं आता। मुझे अब इसघरके भीतर जाना आवश्यकीय है यदि मैं इनईटोंपर पांवरखकर भीतर जाता हूं तो अवश्य गिरता हूं।
और कीचड़मे गिरनेपर मेरी हंसी होती है । हंसी संसारमें अत्यंत दुःखकी देनेवाली है । इसलिये मुझै कीचड़में होकरही जाना चाहिये यदि मेरे पांव कीचड़में जानेसे लिथड़ भी जाय तो
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