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________________ (३५९ ) द्वारा रोके जानेपर मी मिथ्यादृष्टि राजा कुणकने " महाराज सीधे मोक्ष जावे " इस अभिलाषासे सर्वथा व्रतरहित ब्राह्मणों के लिये गौ हाथी घोड़ा घर जमीन धन आदिका दान दिया और भी अनेक विपरति क्रिया की। ___कदाचित् रानीचेलना सानंद बैठी थी अकस्मात् उसके चित्तमें ये विचार उठ खडे-कि यह संसार सर्वथा असार है तथा संसारसे सर्वथा भयभित हो वह इसप्रकार सोचने लगा संसारमें न तो पिताका स्नेह पुत्रमें है और न पुत्रका स्नेह पितामें है । समस्त जीव स्वेच्छाचारी हैं और जबतक स्वार्थ रहता है तभीतक आपसमें स्नेह करते हैं। संसारमें संपत्ति यौवन और ऐंद्रियक सुख भी मास्थिर हैं । भोग ज्योर भोगे जाते हैं उनसे तृप्ति तो बिलकुल नहिं होती किंतु काष्टसे आमिज्वाला जैसी बढ़ती चली जाती है उसीप्रकार भोग भोगनसे और भी अभिलाषा बढ़ती ही चली जाती है । कदाचित् वैलसे अमिकी और जलसे समुदकी तृप्ति हो जाय किंतु इंद्रियभोग भोगनेसे मनुष्यकी कदापि तृप्ति नहिं हो सकती। अनेक बड़े२ पुरुष पहिले धनपरिवारका त्यागकर गये । अब आ रहे हैं और जायगे । मैं केवल पुत्रके मोहसे मोहित | हो घरमें कैसे रई ! विषयभोगसे जीव निरंतर पापका उपार्जन करते रहते हैं और उस पापकी कृपासे उन्हें नियमसे नर्क | जाना पड़ता हैं। हजार कंटकोंके धारक प्राणी के स्पर्शसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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