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________________ ( २५८ ) ऐसा उनपर दोषारोपण कर फिर भी मैंने आवाज न दी और न दरवाजा खोला । कुछ समय बाद वे मुझे 'तुम तुम' शब्दसे पुकारने लगे तो भी मैंने उन्हें उत्तर न दिया प्रत्युत मैं उनपर अधिक घृणा करती चलीगई और मेरा गर्भ भी बढ़ता चलागया । अंतमें जब सोमशर्मा अधिक घबड़ागये, मेरी ओरसे उन्हें कुछ भी जवाब न मिला तो उन्हें क्रोध आ गया । क्रोधके आवेशमें उन्हें कुछ न सूझा वे मुझै फिर इस रीतिसे पुकारने लगे। ___ अरी तुकारी ! किवाड़ तू क्यों नहिं जल्दी खोलती दरवाजे पर खड़े खड़े हमैं अधिक समय बीत चुका है रात्रिके अधिक व्यतीत होजानेसे हम कष्ट भोग रहे हैं। बस फिर क्या था ! रे भाई जिनदत्त ! ज्योंही मैंने अपने पतिके मुखसे तुंकारी शब्द सुना मेरा क्रोधके मारे शरीर भभक उठा। मेरे पति अर्धरात्रिके वीतने पर घर आये थे इसलिये मैं स्वभावसे ही उनपर कुपित वैठी थी किंतु तुंकारी शब्दने मुझै वेहद कुपित वना दिया । मुझे उससमय और कुछ न सूझा किवाड़ खोल मैं घरसे निकली ओर बनकी ओर चलपड़ी। उससमय रात्रि अधिक वीत चुकी थी।नगरमें चारो ओर सन्नाटा छरहा था उससमय उल्लू चोर आदिक ही आनंदसे जहां तहां भ्रमण करते फिरते थे । और कोई नहिं जागता था । मैं थोडी ही दूर अपने घरसे गई थी । मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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