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________________ ( २९५ ) का छप्पर लगगया और एक तृण उसके शिरसे चिपटा चला गया । वे कुछ ही दूरगये थे कि वालकने अपना शिर टटोला उसै एक तृण दीख पड़ा । तथा तृण देख मायाचारी वह बालक बाह्मणसे इसप्रकार कहने लगा। गुरो ! चलते समय कुम्हारके छप्परका यह तृण मेरे शिरसे लिपटा चला आया है । मैं इस वहांपर पहुचाना चाहता हूं। उत्तम किंतु कुलीन मनुष्योंको परद्रव्य ग्रहण करना महा पाप है । मैं विना दिये पर पदार्थजन्य पापको सहन नहिं कर सकता कृपाकर आप मुझे आज्ञादें मैं शीघ्र लोटकर आता हूं तथा ऐसा कहता २ चल भी दिया । ब्राह्मणने जब देखा वटुक चला गया तो वहभी आगे किसी नगरमें जाकर ठहर गया उसने किसी ब्राह्मणके घर भोजन किया एवं उस ब्राह्मणको अपने शिप्यकेलिये भोजन रख छोड़नेकी भी आज्ञा देदी । कुछसमय पश्चात् दूड़ता ढाड़ता वह बालकभी सोमशर्मा के पास आपहुंचा । आते ही उसने विनयसे सोमशर्माको नमस्कार किया और सोमशर्माकी आज्ञानुसार वह भोजनको भी चलदिया । वह वटुक चित्तका अति कटुक था इसलिये ज्योंही वह थोड़ी दूर पहुंचा तत्काल उसने ब्राह्मणका धन लेनके लिये वहाना बनाया और पीछे लोटकर इसप्रकार विनय पूर्वक निवेदन करनेलगा। प्रभो! मार्गमें कुत्ते अधिक हैं। मुझे देखते ही वे भोंकते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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