SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २४५ ) भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनो दंपती तो कौशांबीपुरीमें आनंदानुभव करने लगे । और मुझे उसी कारण से आज - तक वचनगुप्ति न प्राप्त हुई । मैं अनेक देशों में विहार करता २ राजगृह आया । आज मैं आपके यहां आहारार्थ भी गया किंतु मैं त्रिगुप्तेि पालक था नहीं । इसलिए मैंने आहार न लिया मेरे आहारके न लेनेका अन्य कोई कारण नहीं | विनीत मगधेश ! यह आप निश्चय समझैं जो मुनि मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्तिके पालक होते हैं वे नियमसे अवधिज्ञानके धारक होते हैं। तीनों गुप्तियोंमें एक भी गुप्तिको न रखनेवाले मुनिराज के अवधिज्ञान मनः पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तीनों ज्ञानोंमेंसे एकभी ज्ञान नहीं होता । साधारणजीवोंके समान उनके मति, श्रुति दोही ज्ञान होते हैं । राजन् ! मनमें उत्पन्न खोटे विकल्पोंके निरोधकेलिये मनोगुप्ति का पालन किया जाता है । इस मनोगुप्तिका पालन करना सरल बात नहीं । इस गुप्तिको वे ही पालन कर सकते हैं जो ज्ञान पूजा आदि अष्ट मदोंके विजयी, यतीश्वर होते हैं । और शुभ एवं अशुभ संकल्पोंसे बहिर्भूत रहते । हैं । उसीप्रकार वचनगुप्तिकी रक्षा करना भी अतिकठिन है । जो मुनीश्वर वचन गुप्तिके पालक होते हैं । उन्हें स्वर्गसुखकी प्राप्ति होती है । अनेक प्रकारके कल्याण मिलते हैं । विशेष कहां तक कहा जाय वचनगुप्तिपालक मुनिराज समस्त - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy