SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४२ ) तथापि मुने ! इस वेषमें तुम्हारा यह कर्तव्य सर्वथा अयोग्य है | आपको कदापि यह काम नहिं करना चाहिये । राजाके ऐसे वचन सुन देवने कहा- राजन् ! आप क्या विचार कर रहे है ? जितने मुनि और आर्यिकाओंको आप देख रहे हैं वे सब मेरेही समान शुभ कार्य से विमुख हैं । निर्दोष कोई नहिं । महाराज ! जिसकी अंगुली दबती है उसे ही वेदना होती है । अन्य मनुष्य वेदनाका अनुभव नहिं कर सकते वे तो हंसते हैं उसी प्रकार आप हमैं देखकर हंसते हैं । देवकी यह बात सुन श्रेणिकको कुछ क्रोधसा आगया । वे कहने लगे मुने ! तू मुनि नहिं है बड़ा निकृष्ट दयारहित चारित्रविमुख और मूर्ख है । तेरे सम्यग्दर्शन भी नहिं मालूम होता । श्रोणिकके ऐ. वचन सुन देवने जवाब दिया राजन् ! जो मैंने कहा है सो बिलकुल ठीक कहा है । क्या तेरा यह कर्तव्य है कि तू परम योगियोंको गाली प्रदान करें ? हमने समझ लिया कि तुझमें जैनीपना नाम मात्रका 1 यतियोंको मर्मविदारक गाली देनेसे जैनीपनेका तुझमें कोई गुण नहिं दीख पड़ता । देवके ऐसे वचन सुन महाराजने कहा मुने ! संवेगादि गुणोंके व्यभावसे तो तेरे सम्यग्दर्शन नहिं है और दया बिना चारित्र नहिं है। ऐसे दुष्कर्म करनेसे तू बुद्धिमान भी नहिं नीतिमान योगी और शास्त्रवेता भी नहिं । साघो ! यदि त् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035265
Book TitleShrenik Charitra Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadhar Nyayashastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1914
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy