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( ३४६ ) समुद्रमें जैसे कछुवे होते हैं संसारसमुद्रमें भी बेदनारुपी कछुवे मोजूद हैं । समुद्र में जैसे वालूके ढेर होते हैं संसारसमुद्रमें भी दरिद्रतारुपी वालुके ढेर मोजूद हैं । एवं समुद्र जैसा अनेक नदियों के प्रवाहोंसे पूर्ण रहता है संसार भी उसी प्रकार अनेक प्रकारके आत्रवोंसे पूर्ण है। महनीयपिता ! विना धर्मरुपी जहाजके इस संसारसे पार करनेवाला कोई नहिं । यह देह | सप्तधातुमय है । नाक आंख आदि नौ द्वारोंसे सदा मल निकलता रहता है । यह पापकर्ममय पापका उत्पादक और कल्याणका निवारक है। ऐसा कोंन बुद्धिमान होगा जो इंद्रियों के समूहसे देदीप्यमान, मनके व्यापारस परिपूर्ण, विष्टा आदि मलोंसे मंडित इस शरीरमें प्रीति करैगा ? पूज्यपिता ! ज्यों २ इन भोगोंका भोग और सेवन किया जाता है त्यों २ ये तृप्तिको तो नहिं करते किंतु पीकी आहुतिसे जैसी अग्नि प्रवृद्ध होती चली जाती है वैसे ही प्रवृद्ध होते जाते हैं। काष्टसे जैसी अमिकी तृप्ति नहिं होती उसी प्रकार जिन मनुष्योंकी तृप्ति स्वर्गभोग भोगनेसे भी नहिं हुई है उन मनुष्योंकी तृप्ति थोड़ेसे स्त्रियोंके संपर्कसे कैसे हो सकती है ? संसारको इसप्रकार क्षणभंगुर समझ पूज्यपिता ! मुझपर प्रसन्न हाजिये और मनुष्योंको अनेक कल्याण देनेवाली तपस्याके लिये आज्ञा दीजिये। पूज्यपाद !
आपकी कृपासे आजतक मैं राज्य संबंधी सुख और स्त्रीजन्य | मुख खूब भोगचुका । अब मैं इससे विमुख होना चाहता हूं।
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