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तथापि मुने ! इस वेषमें तुम्हारा यह कर्तव्य सर्वथा अयोग्य है | आपको कदापि यह काम नहिं करना चाहिये । राजाके ऐसे वचन सुन देवने कहा-
राजन् ! आप क्या विचार कर रहे है ? जितने मुनि और आर्यिकाओंको आप देख रहे हैं वे सब मेरेही समान शुभ कार्य से विमुख हैं । निर्दोष कोई नहिं । महाराज ! जिसकी अंगुली दबती है उसे ही वेदना होती है । अन्य मनुष्य वेदनाका अनुभव नहिं कर सकते वे तो हंसते हैं उसी प्रकार आप हमैं देखकर हंसते हैं । देवकी यह बात सुन श्रेणिकको कुछ क्रोधसा आगया । वे कहने लगे
मुने ! तू मुनि नहिं है बड़ा निकृष्ट दयारहित चारित्रविमुख और मूर्ख है । तेरे सम्यग्दर्शन भी नहिं मालूम होता । श्रोणिकके ऐ. वचन सुन देवने जवाब दिया
राजन् ! जो मैंने कहा है सो बिलकुल ठीक कहा है । क्या तेरा यह कर्तव्य है कि तू परम योगियोंको गाली प्रदान करें ? हमने समझ लिया कि तुझमें जैनीपना नाम मात्रका 1 यतियोंको मर्मविदारक गाली देनेसे जैनीपनेका तुझमें कोई गुण नहिं दीख पड़ता । देवके ऐसे वचन सुन महाराजने कहा
मुने ! संवेगादि गुणोंके व्यभावसे तो तेरे सम्यग्दर्शन नहिं है और दया बिना चारित्र नहिं है। ऐसे दुष्कर्म करनेसे तू बुद्धिमान भी नहिं नीतिमान योगी और शास्त्रवेता भी नहिं । साघो ! यदि त्
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