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है । तेरा चित्त भी शीलव्रतकी ओर झुका है। यह शीलवत व्रतोंकी रक्षार्थ छत्रके समान है । मगधेश्वर ! तू अपने चित्तमें संवेगकी भावना करता है । भवभोगसे निवृत्त होनेके लिये तपमें भी मन लगाता है । शक्त्यनुसार धर्मार्थ जिनपूजा आदिमें । तेरा धन भी खर्च होता है । साधुओंका समाधान भी तू आधर्यकारी करता है । शास्त्रानुसार तू योगियोंका वैयावृत्य भी करता है | समस्त कर्म रहित जिनेंद्र भगवान में तेरी भक्ति भी अद्वितीय है । भले प्रकार शास्त्र के जानकार उत्तमोत्तम आचायौंकी उपासना भी तू भक्ति और हर्षपूर्वक करता है । जिनप्रतिपादित शास्त्रोंका तू भक्त भी है । इस समय षट् आवश्यकोंमें तेरी बुद्धि भी अपूर्व है । धर्म के प्रसारके लिये तू जैनमार्गकी प्रभावना भी करता है । जैन मार्गके अनुयायी मनुष्योंमें वात्सल्य भी तेरा उत्तम है । राजन् ! त्रैलोक्य क्षोभका कारण परम पवित्र सोलह भावना भानेसे तूने तीर्थंकरपदका बंध भी बांध लिया है । अब तू प्राणोंका त्यागकर प्रथम नरक रत्नप्रभामें जायगा और वहां मध्य आयुका भोगकर भविष्यत् कालमें नियमसे रत्नधामपुरमें तू तीर्थंकर होगा । मुनिनाथ गौतमके ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिकने कहा :
नाथ ! अधोगतिका प्रियपना क्या है ? श्रेणिकका भीतरी भाव समझ गौतम गणाधरने राजा श्रेणिकको कालसूकरकी कथा सुनाई । उसने पहिले अपने पापोदयसे सप्तम नरककी
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