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( २१४ ). कुछभी भक्ति भी न की। तोभी मुनिराजका भाव हमदोंनोपर समान ही प्रतीत होरहा है । हाय ! में बड़ा नीच नराधम हूं जोकि मैंने एसे परमयोगी की यह अवज्ञा की । देखो कहां तो परमपवित्र यह मुनिराजका शरीर ! और कहां में इसका विघातेच्छु ? हाय मुझ सहस्रवार धिक्कार है । संसारमें मेरे समान कोई बज्रपापी न होगा । अरे अज्ञानवश मैने ये क्या अनर्थ कर पाडे ? अब कैसे इनपापांसे मेरा छुटकारा होगा ;। हाय मुझे अब नियमसे नरक आदि घोर दुर्गतिओंमें जाना पड़ेगा। अब नियमसे वहांके दुःख भोगने पड़ेंगे । अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? इस कमाये हुवे पापका पश्चात्ताप कैसे करूं : अब पाप निवृत्त्यर्थ मेरा उपाय यही श्रेयस्कर होगा कि मैं खड्गसे अपना शिर काटूं और मुनिराजके चरणांमें गिर समस्त पापोंका शमन करूं । कृपासिंधो ! मेरे अपराध क्षमा करिये । मुझे दुर्गतिसे वचाइये। तथा इसप्रकार विचार करते करते मारे लज्जाके महाराजका मस्तक नत हो गया । मारे दुःखके उनकी आंखोसे अविंदू टपक पडी! ____ मुनिराज परमज्ञानी थे उन्होंने चट राजाके मनका तात्पर्य समझ लिया । एवं महाराजको सांत्वना देते हुवे वे इसप्रकार कहने लगे। __ नरनाथ ! तुम्हें किसीप्रकारका विपरीत विचार नहीं करना चाहिये। पापविनाशार्थ जो तुमने आत्महत्याका
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