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६६४ ) लिये था ! हम कैसे इस दुःखको सहन करें । इसप्रकार जीवोंको स्वभावसे ही सुखदुःखके देनेवाले वर्षाकालके आजानेसे जिनदत्त आदिने चतुर्मास के लिये मुझे उस नगर में ही रहने के लिये आग्रह किया इसलिये मैं वहीं रहगया एवं ध्यान में दत्तचित्त, जीवोंको उत्तम मार्गका उपदेश देता हुवा मैं सुख पूर्वक जिनदत्त के घर में रहने लगा ।
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सेठि जिनदत्तका पुत्र जोकि अति व्यासनी और दुर्घ्य नी था कुवेरदत्त था । कुवेरदासे जिनदत्त धन आदि के विषयमें सदा शंकित रहता था । कदाचित् सेठि जिनदत्तने एक तामेके घड़ेको रत्नोंसे भरकर और मेरे सिंहासन के नीचे एक गहरा गढ़ा खोदकर चुपचाप रखदिया किंतु घड़ा रखते समय कुवेरदत्त मेरे सिंहासनके नीचे छिपा था इसलिये उसने यह सब दृश्य देख लिया । और कुछ दिन बाद वहांसे उस घड़ेको उखाड़ कर अपने परिचित स्थान पर उसने रख दिया ।
कुछ दिन वाद चतुर्मास समाप्त होगया । मैंने भी अपना ध्यान समाप्त करदिया । एवं हेयोपादेय विचार में तत्पर, ईर्या समिति पूर्वक मैं वहांसे निकला और वनकी ओर चलदिया |
मेरे चले जानेके पश्चात् सेठि जिनदत्तको अपने धन की याद आई । जिस स्थान पर उसने रत्न भरा घड़ा रक्खा
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