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( ३०५ ) दत्त ! तुम निश्चय समझो जो नीच पुरुष विना विचारे क्रोध मानमाया आदि कर बैठते हैं उन्हें पाछै अधिक पछिताना पड़ता है वे तिर्यंच नरक आदि गतिओंमें जाते हैं । वहां उन्हें अनेक दुम्सह्य वेदनायें सहनी पड़ती हैं । अविचारित काम करनेवाले इसलोकमें भी राजा आदिसे अनेक दंड भोगते हैं उनकी सब जगह निंदा फैल जाती है । परलोकमें भी उन्हें सुख नहि मिलता । अबुद्धिपूर्वक काम करनेवालों की सब जगह हंसी होती है । देखो अनेक शास्त्रोंका भलेप्रकार ज्ञाता, राजा श्रीकृष्णके सन्मानका भाजन वह वैद्य तो कहां ? और कहां अशुभ कर्मके उदयसे उसै वंदरय निकी प्राप्ति ? यह सब फल अज्ञान पूर्वक कार्य करनेका है । जिनदत्त ? यह कथा तुम ध्यान पूर्वक सुन चुके हो तुम्हीं कहो क्या उस बंदरका वह कार्य उत्तम था ? जिनदत्तने कहा
मुनिनाथ ! वह बंदरका अविचारित काम सर्वथा अयोग्य था विना विचारे अभिमानादि वशीभूत हो नीचकामकरने वाले मनुष्योंको ऐसे ही फल मिलते हैं । इसके अनंतर हे मगधदेशके स्वामी राजा श्रेणिक ! सेठि जिनदत्त मेरी कथाके उत्तरमें दूसरी कथा कहनाही चाहता था कि उसके पास उसका पुत्र कुवेरदत्त भी बैठा था और सबवातोंको बराबर सुनरहा था इसलिये उसने विवादकी शांत्यर्थ शीघ्रही वह रत्नभरितघड़ा दूसरीजगहसे निकालकर मेरे देखते २ अपने पिताके
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