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( ३०६ ) सामने रखदिया। और विनयपूर्वक इसप्रकार प्रार्थना करने लगा। __ प्रभो ! समस्त जगतकेतारक स्वामिन् ! मेरे पिताने बड़ा अनर्थ करपाड़ा । इस दुष्टधनके फंदेमें फंसकर आपको भी चोर बना दिया। हाय इसधनकेलिये सहस्रवार धिक्कार है । दीनबंधो ! यह वात सर्वथा सत्य जान पड़ती है संसारमें जो घोरसे घोर पाप होते हैं वे लोभसे ही होते हैं । संसारमें यदि जीवोंका परम अहित करनेवाला है तो यह लोभ ही है। प्रभो ! किसी रीतिसे अब मेरा उद्धार कीजिये । मुक्तिमें असाधारण कारण 'मुझे जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये। अब मैं क्षणभरभी भोग भोगना नहिं चाहता।
जिनदत्तभी रत्नोंके घड़ाको और पुत्रको संसार से विरक्त देख अतिदुःखित हुआ अपने अविचारितकामपर उसे बहुत लज्जा आई संसार को असार जान उसने भी धनसे संबंध छोड़दिया । अपनी बार वार निंदा करनेवाले समस्त परिग्रह से विमुख उनदोनों पितापुत्रने मुझसे जैनेश्वरी दक्षिा धारण करली । एवं अतिशयनिर्मलचित्तके धारक, भले प्रकार उत्तमोत्तमशास्त्रोंके पाठी, परिग्रहसे सर्वथा निस्पृह, मनोगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्तिके धारक वे दोनों दुर्धर तप करने लगे।
इसप्रकार हे मगधदेशके स्वामी श्रेणिक ! अनेकदेशोंमें विहार करते २ हम तनिों मुनि राजगृहमें भी आये उक्त दो मुनियोंके समान मैं त्रिगुप्ति पालक न था मेरे अभीतक
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