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राजा सामंत और मंत्रियों से वेष्टित महाराज शीघ्र ही भगवानकी पूजार्थ वनकी ओर चल दिये । मार्ग में घोड़े आदिके पैरोंसे जो धूलि उठती थी वह हाथियोंके मदजलसे शांत होजाती थी । उस समय जीवोंके कोलाहलोंसे समस्त आकाश व्याप्त था, इसलिये कोई किसीकी बात तक भी नहिं सुन सकता था । यदि किसीको किसी से कुछ कहना होता था तो वह उसकी मुहकी ओर देखता था । और बड़े कष्टसे इशारे से अपना तात्पर्य उसै समझाता था | उस समय ऐसा जान पड़ता था मानों बाजोंक शब्दों से सेना दिक्ास्त्रियों को बुला रही है । उस समय सवोंका चित्त कर्मविजयी भगवान महावरिमें लगा था । और छत्रोंका तेज सूर्यतेजकोभी फीका कर रहा था । इस प्रकार चलते २ महाराज समवसरण के समीप जा पहुंचे । समवसरण को देख महाराज शीघ्रही गजसे उत्तर पड़े । मानस्तंभ और प्रतिहायों की अपूर्व शोभा देखते समवसरणमें घुस गये । वहां जिनेंद्र महावीरको विशाल किंतु मनोहर सिंहासनपर विराजमान देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं मंत्रपूर्वक पूजा करना प्रारंभ कर दिया । सबसे प्रथम महाराजने क्षीरोदधि के समान उत्तम और चंद्रमा के समान निर्मल जलसे प्रभूकी पूजा की। पश्चात् चारों दिशामें महकनेवाले चंदनसे और अखंड तंदुलसे जिनेंद्र पूजै । कामबाणके विनाशार्थ उत्तमोत्तम चंपा आदि पुष्प और क्षुधारोग विनाशार्थ उत्तमोत्तम स्वादिष्ट पक्कान चढ़ाये | समस्त
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