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( २६२ ) कर मुझे उज्जयनी लेगया। जिससमय मेरी माता आदि कुटुंबियोंने मुझे देखा उन्हे परम दुःख हुआ । मेरे शरीरकी दशा देख मेरी मा अधिक दुःख मानने लगी मेरे मिलापसे मेरा समस्त बंधुवर्ग अति प्रसन्न हुवा । एवं कुछ दिन बाद मेरा भाई धनदेव मुझै यहां मेरे पतिके घर पहुंचागया ।
प्रिय भाई जबसे मैं यहां आई हूं तबसे मैंने जरा जरासी बात पर क्रोध करना छोड़ दिया है। मैं क्रोधका फल भयंकर चख चुकी हूं इसलिये और भी मै क्रोधकी मात्रा दिनों दिन कमती करती जाती हूं। आप निश्चय समझिये यह धर्म रूपी वृक्ष सम्यग्दर्शनरूपी जड़का धारक, शास्त्ररूपी पीड़ कर युक्त, दानरूपी शाखाओंसे शोभित, अनेक प्रकारके गुणरूपी पत्तोंसे व्याप्त, कीर्तिरूपी पुष्पोंसे सुसज्जित, व्रतरूपी उत्तम आलवालसे मनोहर, मोक्षरूपी फलका देनेवाला, क्षमारूपी जलसे बढ़ाहुवा परम पवित्र है । यदि इसमें किसीरीतिसे क्रोधरूपी अग्नि प्रवेश करजाय तो वह कितनाभी बड़ा क्यों न हो तत्काल भस्म हो जाता है इसलिये जो मनुष्य अपना हित चाहते हैं उन्हें ऐसा भयंकर फल देनेवाला क्रोध सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।। ___ ब्राह्मणी तुंकारीके मुखसे ऐसी कथा सुन सेठि जिनदत्त अति प्रसन्न हुवा । वह तुकारीकी बारबार प्रशंसा करने लगा एवं प्रशंसा करता २ कुछ समय बाद अपने घर आया । लाक्षामूल तेल एवं अन्यान्य औषधियोंसे जिनदत्त मेरी (मुनि
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