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फिरते हैं । वहिन भी धनके चक्रमें फसकर हलाहल विष सरीखी जान पड़ती है । निधन भाईके मारनेमें उसै भी जराभी संकोच नहिं होता । हाय !!! समस्त परिग्रहके त्यागी, आत्मीक रसमें लीन, मुनिराजभी इस दुष्ट धनकी कृपासे चोर वन जाते हैं । इस धनकेलिये पिता अपने प्यारे पुत्रको मार देता है । पुत्रभी अपने प्यारे पिताको यमलोक पहुंचा देता है । धनके पीछे भाई भाईको मार देता है । सेवक स्वामीका प्राणघात करदेते हैं। धनकेलिये जीव अपने शरीरकी भी परवाह नहिं करते । हाय !!! ऐसे धनको सहस्रवार धिक्कार है। यह सर्वथा हिंसामय हैं। इसके चक्रमें फसेहुवे जीव कदापि सुखी नहिं होसकते । तथा इसप्रकार धनकी बार बार निंदा करते हुवे मुझै वह पुनः अपने घर लेगया एवं वहां पहुंचकर यह कहने लगा
नाथ ! कृपाकर मुझे कोई कथा सुनाइये ? मुझे आपके मुखसे कथाश्रवणकी अधिक अभिलाषा है । उसके ऐसे वचन सुन मैंने कहा
जिनदत्त ! तुम्हीं कोई कथा कहो हम तुम्हारे मुखसे ही कथा सुनना चाहते हैं वस फिर क्या था ? वह तो कथा द्वारा अपना भीतरी अभिप्राय जतलाना चाहता ही था इस लिये ज्योंही उसने मेरे वचन सुने वह अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा
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