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( ३०१ ) प्रसन्न किया । अनेक नगरनिवासियोंके साथ चतुरंग सेनासे मंडित महाराजने वनकी और प्रस्थान करदिया । वनमें आकर मुनिराजको देख भाक्त पूर्वक नमस्कार किया । और कुछ उपदेश श्रवणकी इच्छासे मुनिराजके पास भूमिमें वैठि गये । उससमय मुनिराजका शरीर व्याधिग्रस्त था इसलिये उस व्याधिके दूरकिरणार्थ राजाने यही प्रश्न किया।
प्रभो ! इसरोगकी शांतिका उपाय क्या है। किस औषधिके सेवन करनेसे यह रोग जा सकताहूं कृपया मुझै शीघ्र वता राजा श्रीकृष्णके ऐसे वचन सुन मुनिराजने कहा
नरनाथ ? यदि रत्नकापिष्ट ( ? ) नामका प्रयोग कियाजाय तो यह रोग शांत हो सकता है और इसरोगकी शांतिका कोई उपाय नहिं । मुनिराजके मुखसे औषधि सुन राजा श्रीकृष्णको परम संतोष हुआ। मुनिराजको विनयपूर्वक नमम्कार कर वे द्वारावतीमें आगये और मुनिराजके रोग दूरकरनेकेलिये उन्होंने सर्वत्र आहारकी मनाई करदी।
दूसरे दिन वे ही ज्ञानसागर मुनि आहारार्थ नगरमें आये। विधिके अनुसार वे इधर उधर नगरमें धूमें किंतु राजाकी अज्ञानुसार उन्है किसीने आहार न दिया । अंतमें वे राजमंदिरमें अहारार्थ गये । ज्योंही राजमंदिरमें मुनिराजने प्रवेश किया रानी रुक्मिणीने उनका विधिपूर्वक अहानन किया पड़िगाहन आदि कार्य कर भाक्त पूर्वक आहारभी दिया । रत्नकापिष्ट
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