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(२७६ ) जायगी । दुष्टोंपर उपकार करनेसे कुछ फल नहीं मिलता।
धनमित्रका काल शिर पर छारहा था । उसने छोटे भाई धनचंद्र की जरा भी बात न मानी और तत्काल व्याघ्रको सूझता वनानेकेलिए तत्पर होगया । जब धनचंद्रने देखा कि धनमित्र मेरी बात को नहीं मानता है तो वह शीघ्र ही समीपवर्ती किसी वृक्ष पर चढ़ गया और पत्तियोंसे अपने को छिपाकर सब दृश्य देखने लगा।
धनमित्र व्याघकी आखोंकी दवा करने लगा औषधियों के प्रभावसे वातकी बातमें धनमित्रने उसे सूझता वना दिया किंतु दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते ज्यों ही व्याघ सूझता होगया उसने तत्काल ही धनमित्र को खालिया और आनंदसे जहां तहां घूमने लगा। इसलिये हे प्रभो मुने ! क्या व्याघ को यह उचित था जो कि वह अपने परमोपकारी दुःख दूर करनेवाले धनमित्रको खागया? कृपया आप मुझे कहैं ? सेठि जिनदत्तके मुखसे ऐसी कथा सुन मुनिराजने कहा
जिनदत्त ! व्याघ्र बड़ा कृतघ्नी निकला निस्संदेह उसने परमोपकारी जिनदत्तके साथ अनुचित वर्ताव किया, तुम निश्चय समझो जो मनुप्य कृत उपकारका खयाल नहीं करते वे घोर पापी समझे जाते हैं संसारमें उन्हें नरक आदि दुर्गतिओंके फल भोगने पड़ते हैं । मैं तुम्हारी कथा सुन चुका अव तुम मेरी कथा सुनो जिससे संशय दूर हो ।
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