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( २१.३ ) इसप्रकार भविष्यत् कालमें होनेवाले श्री पद्मनाम तीर्थंकर के भवांतरके जीव महाराज श्रेणिकको मुनिराजका समागम वर्णन करनेवाला
नवमा सर्ग
समाप्त हुवा ।
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दशमासर्गः ।
समस्त मुनिओंके स्वामी, कर्मरहित निर्मल आत्माके ज्ञाता, समस्त कर्मोंके नाशक, मनुष्येश्वर महाराज श्रेणिक द्वारा पूजित, मैं श्री यशोधर मुनिको नमस्कार करता हूं ।
ज्योंही महाराज श्रेणिकका इस ओर लक्ष्य गया कि मुनि यशोधरने हम दोनोंको समान रीतिसे ही धर्म वृद्धि दी है । धर्मवृद्धि देते समय मुनिराजने शत्रुभित्रका कुछभी विभाग नहीं किया है । इनकी हम दोनोंपर कृपा भी एकसी जान पडती है । महाराज एकदम अवाक् रहगये । तत्काल उनका मन संकल्प विकल्पोंसे व्याप्त होगया । वे खिन्न हो ऐसा विचारने लगे
मुनि यशोधरको धन्य है । गलेमें सर्प पडनेपर अनेक पीडा सहन करते भी इन्होंने उत्तमक्षमाको न छोडा । रामीचेलनाने गलेसे सर्प निकाल इनकी भक्तिभाव से सेवा की। और मैंने इनके गमें सर्पडाला। इनकी अनेक प्रकारसे हंसीकी । एवं इनकी
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