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( २२२ ) विचार नहीं रखते । वे मुनि नहीं जिहाके लोलुपी हैं। एवं बज्र मूर्ख हैं । हां यदि मेरे योग्य जैनशास्त्रसे आवरुद्ध कोई काम हो तो मैं कर सकता हूं। मुनिराजकी दृष्टि सांसारिक कामसे ऐसी उपेक्षायुक्त देख राजा सुमित्रने कुछभी जवाव न दिया। उसने शीघ्र ही मुनिराजके चरणोंको नमस्कार किया । एवं हताश हो चुपचाप राजमंदिरकी ओर चलादया।
यद्यपि राजा सुमित्र हताश हो राज मंदिरमें तो आगये । किंतु उनका सुषेणविषयक मोह कम न हुवा। उनके मनमें मोहका यह अंकुर खडा ही रहा कि किसीरीतिसे मुनि सुषण राज मंदिरमें आहार लें। इसलिये ज्यों ही वह राज मंदिरमें आया। शीघ्र ही उसने,यह समझ कि मुनि सुषेणको जब अन्यत्र आहार न मिलैगा तो मेरे यहां जरूर लेंगे। नगरमें यह कडी आज्ञा कर दी कि, सुषेण मुनिको कोई अहार न दे। और प्रतिदिन मुनि सुषेणकी राह देखता रहा।
कई दिन वाद मुनिराज सुषेण दो पक्षकी पारणाकेलिये नगरमें आहारार्थ आये । वे विधिपूर्वक इधर उधर ग्रहस्थोंके घर गये। किंतु राजाकी आज्ञासे किसीने उन्हें आहार न दिया । अंतमें सम्यग्दर्शनादिगुणोंसे भूषित, विद्वान् आहारके न मिलने पर भी प्रसस्त्रचित्त, मुनि सुषेण जूरा प्रमाण भूमिको निरखते राज मंदिरकी ओर आहारार्थ चल दिये ।
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