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( २३४ ) मैं राजा धर्मघोष था। मेरी पटरानीका नाम लक्ष्मीमती था रानी लक्ष्मीमती अति मनोहरा थी। समस्त रानियोंमें मेरी प्राणवल्लभा थी । चंद्रमुखी एवं काममंजरी थी। हम दोनों दंपतीमें गाढ प्रेम था। एक दूसरेको देख कर जीता था । यहां तक कि हम दोनों ऐसे प्रेममें मस्त थे कि हमको जाता हुआ काल भी नहीं मालूम होता था। ____ कदाचित् मुझै एक दिगंबर गुरुके दर्शनका सौभाग्य मिला । मैंने उनके मुखसे जैनधर्मका उपदेश सुना । उपदेश में मुनिराजके मुखसे ज्यों ही मैने संसारकी अनित्यता,विजलीके समान विषय भोगोंकी चपलता, सुनी मारे भयके मेरा शरीर कप गया। कुछ समय पहिले जो मैं भोगों को अच्छा समझता था वे ही मुझै विष सरीखे जान पड़ने लगे। मैं एक दम संसारसे उदास हो गया। और उन्हीं मुनिराजके चरणकमलोमें चट जैनेश्वरी दीक्षा धारण करली।
इसी पृथ्वीतलमें एक अति मनोहर कौशांवी नगरी है । कौशांबीपुरीके राजाका मंत्री जोकि नीतिकलामें अतिशय चतुर था गरुड़वेग था। मंत्री गरुडवेगकी प्रिय भार्या गरुड़दता थी। गरुड़दत्ता परम सुंदरी चंद्रवदना एवं पति भक्ता थी। किसीसमय विहार करता करता मैं कौशांबी नगरी में जा पहुचा। और वहां किसीदिन मंत्री गरुड वेगके घर आहारार्थ गया। ज्यों ही गरुडदत्ताने मुझे अपने घर आते
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