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( २३५ ) देखा भलेप्रकार मेरा विनय किया । आह्वानन कर काष्टासन पर विठाकर मेरा चरण प्रक्षालन किया। एवं मन और इंद्रियों को भलेप्रकार संतुष्ट करनेवाला मुझै सर्वोत्तम आहार दिया । आहार दतेसमय गरुडदत्ताके हाथसे एक कवल नीचे गिर गया। कवल गिरते ही मेरी दृष्टि भी जमीन पर पडी । ज्योंही मैने गरुडदत्ताके पैरका अगूंठा जमीन पर देखा मुझे चट अपनी प्रियतमा लक्ष्मीमतीके अगूंठेकी याद आई । मेरे मन- अचानक यह विकल्प उठ खडा हुवा । अहा ! जैसा मनोहर अगूंठा रानी लक्ष्मीमतीका था वैसा ही इस गरुडदत्ताका है । वत फिर क्या था ? मेरे मनके चलित हो जानेसे हे राजन् ! आजतक मुझे मनोगुप्तिकी प्राप्ति न हुई । इसलिये मैं मनोगुप्ति रहित हूं। ___ज्यों ही मुनिवर धर्मघोषके मुखसे राजा श्रेणिकने यह बात मुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई। वे अपने मनमें कहने लगेसमस्त पापोंका नाशक जिनेंद्रशासन धन्य है । सत्य वक्ता मुनिवर धर्मघोष भी धन्य हैं। अहा ! जैसी सत्यता जैनधर्ममें है वैसी कहीं नहीं। तथा इसप्रकार मुनिराज धर्मघोषकी बार बार प्रसंशा कर महाराजने मुनिराजको भक्ति पूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनों दंपती वहांसे उठकर मुनिवर जिनपालके पास गये । उन्हें सविनय नमस्कार कर राजा श्रेणिकने पूछा
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