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ज्योंही उन्होंने मुझे देखा बड़ी भक्तिसे नमस्कार किया । तीन प्रदक्षिणा दी। एवं राजा चंडप्रेद्योतनने बड़ी विनयसे यह कहा--
समस्त विज्ञानोंके पारगामी, भव्योंको मोक्षसुख प्रदान करनेवाले, अतिशय कठिन किंतु परमोत्तम व्रतके धारक, शत्रुमित्रोंको समान समझनेवाले, प्रभो ! क्या यह आपको योग्य था कि एकको अभयदान देना और दूसरेका अनिष्ट चिंतन करना । कृपानाथ ! प्रथम तो मुनियोंकेलिये ऐसा कोई अवसर नहीं आता । यदि किसीप्रकारका अवसर आकर उपस्थित भी हो जाय तो आप सरीखे वीतराग मुनिगण उससमय ध्यानका अवलंबन करलेते हैं। भली बुरी कैसी भी सम्मति नहिं देते । राजा चंडप्रद्योतनके ऐसे वचन सुन हे राजन श्रेणिक ! मैंने तो कुछ जवाब न दिया। किंतु रानी वसुकांता कहने लगी!
नाथ ! मेरे पिताके शुभोदयसे उसससय किसी वनरक्षिका देवीने वह आशीर्वाद दिया था। मुनिराजने कुछ भी नहिं कहा था। आप इस अंशमें मुनिराजका जरा भी दोष न समझें।
बस फिर क्या था ? राजन् ! ज्योंही राजा चंडप्रद्योतनने रानी वसुकांताके वचन सुने मारे हर्षके उसका कंठ गदगद होगया । कुछ समय पहिले जो उसके हृदयमें मेरे विषयमें कालुप्य बैठा था तत्काल वह निकल भागा। दोनों दंपतीने मुझे
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