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कि उत्तमतपकी कृपासे मनुष्योंको स्वर्ग मोक्ष सुख मिलते हैं । इसीकी कृपासे राज्य, उत्तमोत्तम विभूतियां, उत्तम यश एवं उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं । मुनिराज सुषेणके मुख से ये वचन सुन राजा सुमित्र और तो कुछ न कहा किं तु इतना निवेदन और भी किया ।
मुनिनाथ ! यदि आप तप छोडना नहीं चाहते तो कृपाकर आप मेरे राजमंदिर में भोजनार्थ जरूर आवे । और मेरे ऊपर कृपाकरें । राजाके ये वचनभी मोह परिपूर्ण जान मुनिवर सुषेणने कहा :
नरनाथ ! मैं इस काम करनेके लिये भी सर्वथा असमर्थ हूं । दिगंबर मुनिओंको इसबातकी पूर्णतया मनाई है । वे संकेतपूर्वक आहार नहीं ले सकते । आप निश्चय समझिये जो भोजन मन वचन कायद्वारा स्वयं किया, एवं परसे कराया गया, वा परको करते देख 'अच्छा है' इत्यादि अनुमोदनापूर्वक, होगा दिगंबर मुनि उस भोजनको कदापि न करेंगे। किंतु उनके योग्य वही भोजन हो सकता है जो प्रासुक होगा। उनके उद्देश से न बना होगा। और विधिपूर्वक होगा । राजन् ! दिगंबर मुनि अतिथि हुवा करते हैं । उनके आहारकी कोई तिथि निश्चित नहीं रहती । मुनि निमंत्रण आमंत्रण पूर्वक भी भोजन नहीं कर सकते। आप विश्वास रखिये जो मुनि निश्चित तिथि में निमंत्रण पूर्वक आहार करनेवाले हैं । कृत कारित अनुमोदनाका कुछ भी
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