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( २११ ) पूजाकर अपने पापकी शांतिके लिये वह इसप्रकार स्तुति करने लगी। ___प्रभो! आप समस्त संसारमें पूज्य हैं। अनेक गुणोंके भंडार हैं। आपकी दृष्टि शत्रु मित्र बरावर है । दीनबंधो ! सुमार्गसे विमुख जो मनुष्य आपके गलेमें सर्प डालने वाले हैं। और जो आपको फूलोंके हार पहिनाने वाले हैं आपकी दृष्टिमें दोनों ही समान है । कृपासिंधो ! आप स्वयं संसार समुद्रके पार पर विराजमान हैं । एवं जो जीव दुःखरूपी तरंगोंसे टकराकर संसाररूपी वीचसमुद्रमें पडे हैं। उन्हें भी आप ही तारने वाले हैं। जीवोंके कल्याणकारी आप ही हैं । करुणासिंधो ! अज्ञानवश आपकी जो अवज्ञा और अपराध बन पडा है आप उसै क्षमा करें। कृपानाथ ! यद्यपि मुझे विश्वास है आप राग द्वेष रहित हैं । आपसे किसीका अहित नहीं हो सकता । तथापि मेरे चित्तमें जो अवज्ञाका सकल्प बैठा है । वह मुझै संताप देरहा है। इसीलिये यह मैंने आपकी स्तुति की है । प्रभो! आप मेष तुल्य जीवोंके परोपकारी हैं। आप ही धीर और वीर हैं । एवं शुभ भावना भावने वाले हैं। इसप्रकार रानी द्वारा भलेप्रकार मुनिकी स्तुति समाप्त होनेपर राजा रानीने भक्तिपूर्वक फिर मुनिराजके चरणोंको नमस्कार किया। और यथास्थान बैठिगये ।। एवं मुनिराजने भी. अतिशय नम्र दोनों · दंपती को समान भावसे धर्मवृद्धि दी। तथा इसप्रकार उपदेश देनेलगे ।
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