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( २०९ ) चैतन्य स्वरूप है। शरीरमें क्लेश होनेपर भी मेरी आत्मा क्लेशित नहीं बन सकती । यद्यपि यह शरीर अनित्व है. महाअपावन है । मल मूत्रका घर है । घृणित है । तथापि न मालम विद्वान लोग क्यों इसे अच्छा समझते हैं ? । इत्रः फुलेल आदि सुगंधित पदार्थोसे क्यों इसका पोषण करते हैं । यह बात बरावर देखनेमें आती है कि जब आत्माराम इस शरीरसे विदा होता है उससमय कोश दो कोशकी तो बात ही क्या है पग भरभी यह शरीर उसके साथ नहीं जाता । इसलिये यह शरीर मेरा है ऐसा विश्वास सर्वथा निर्मूल है । मनुष्य जो यह कहते हैं कि शरीरमें सुख दुःख होने पर आत्मा सुखी दुखी होता है यहभी बात उनकी सर्वथा नियुक्तिक है क्योंकि जिसप्रकार झोपडेमें अग्नि लगने पर झोपडा ही जलता है तदंतर्गत आकाश नहि जलता उसीप्रकार शारीरिक दुःख सुख मेरी आत्माको दुःखी सुखी नहीं बना सकते । मैं ध्यानवलसे आत्माको चैतन्यस्वरूप शुद्ध निष्कलंक समझता हूं। और मेरी दृष्टिमें शरीर जड, अशुद्ध, चर्मावृत, मल मूत्र आदिका घर, अनेक क्लेश देनेवाला है । मुझे कदापि इसे अपनाना नहीं चाहिये। तथा इसप्रकार भावनाओंका चिंतन करते हुवे मुनिराज, जैसे उन्हें राजा छोडगया था वैसे ही खडे रहे । और गंभीरता पूर्वक परीपह सहते रहे।
सत्य सिद्धांतपर आरुढ रहने पर मनुष्य कहां तक दास
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