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( २०६ ) आखोंसे अविरल अश्रुधारा वहने लगी। वह कहने लगी हाय बड़ा अनर्थ होगया । राजन् ! तूने अपनी आत्माको दुर्गतिका पात्र बनालिया। अरे ! अब मेरा जन्म सर्वथा निष्फल है। मेरा राजमंदिरमें भोग भोगना महापाप है। हाय मेरा इस कुमार्गी पतिके साथ क्योंकर संबंध होगया। युवती होनेपर में मर क्यों न गई । अब मैं क्या करूं ; कहां जाऊं ! कहां रहूं ? हाय यह मेरा माण पखेरू क्यों नहीं जल्दी विदा होता । प्रभो ! मैं बड़ी अभागिनी हूं। मेरा अब केसे मला होगा ! बेटे गांव, वन, पर्वतोंमें रहना अच्छा किंतु जिन धर्मरहित अति वैभव युक्त मी इस राजमंदिरमें रहना ठीक नहीं। हाय दुर्दैव ! तूने मुझ अभागिनी पर ही अपना अधिकार जमाया । रानी चेलनाका इसप्रकार रोदन सुन महाराजका पत्थरका भी हृदय मम सरीखा पिघल गया । अव महाराजके चेहरेसे प्रसन्नता कोसों दूर उड़ गई। उससमय उनसे और कुछ न बन सका। वे इसरीतिसे रानीको समक्षाने लगे।
प्रिये! तू इस बात के लिये जराभी शोक न कर वह मुनि गलेसे सर्प फेंक कवका वहांसे चल बसा होगा। मृत्सर्पका गलेसे निकालना कोई कठिन नहीं । महाराजके ये वचन सुन रानीने कहा, नाथ! आपका यह कथन भ्रममात्र है। मेस विश्वास है
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