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तथा हे प्रभो ! जिससे किसीप्रकार के जीवोंके प्राणोंको त्रास न हो ऐसा इस जैनसिद्धांत में अहिंसापरमधर्म माना गया है । इसी धर्मकी कृपासे जीवोंका कल्याण हो सकता है । दया सिंधो ! . यह घोड़ासा जैनधर्मका स्वरूप मैंने आपके सामने निवेदन किया है । इसका विस्तारपूर्वक वर्णन सिवाय भगवान केवलके दूसरा कोई नहीं कर सकता । अब आप ही कहैं ऐसे परम पवित्रधर्मका किसरांतिसे परित्याग किया जा सकता है । मेरा विश्वास है जो जीव इस जैनधर्मसे विमुख एवं घृणा करनेवाले हैं। वे कदापि भाग्य शाली नहीं कहे जा सकते ।
रानी चेलनाके मुखसे इसप्रकार जैनधर्मका स्वरूप श्रवण कर महाराज निरुत्तर होगये । उन्होंने और कुछ न कहकर महारानीसे यही कहा -प्रिये ! जो तुम्हें श्रेयस्कर मालूम पड़े वही कामकरो किंतु अपने चित्त पर किसी प्रकारकी ग्लानि न लाओ । मैं यह नहीं चाहता कि तुम किसीप्रकार से दुःखित रहो । महाराज के मुख से ऐसा अनुकूल उत्तर पा रानी खेलना अति प्रसन्न हुई । अव रानी चेलना निर्भय हो जैनधर्मका आराधन करने लगी। कभी तो रानी चेलनाने भक्तिभावसे भग वानकी पूजन करनी प्रारंभ करदी । और कभी वह अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वोंमें उपवास और रात्रिजागरण भी करने लगी । तथा नृत्य और उत्तमोत्तम गद्य पद्यमय गायनांसे भी
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