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न कर । यह कोंन बुद्धि मानी थी कि मंडपमें आग लगा तूने उन विचारोंके प्राण लेने चाहे । कांते ! जो तू अपनेको जैनी. समझ जैनधर्मकी डींग मार रही है । सो वह तेरी डींग. अब सर्वथा व्यर्थ मालूम पड़ती है । क्योंकि जैनसिद्धांतमें धर्म दयाप्रधान माना गया है । दया उसीका नाम है जो एकेंद्रिय से पंचेद्रि पर्यंत जीवोंकी प्राणरक्षा की जाय। किंतु तेरे इस दुष्ट वर्ताव से उस दयामय धमका पालन कहां होसका ? तूने एकदम पचेंद्रियजीवों के प्राण विघातकेलिये साहस कर पाड़ा यह बड़ा अनर्थ किया । अब तेरा हम जैन हैं हम जैन बड़ा हैं यह कहना आलाप मात्र है । इस दुष्टकर्मसे तुझे कोई जैनी नहीं वतला सकता । महाराजको इसप्रकार अभि कुपित देख रानी चेलनाने बड़ी विनय एवं शांति से इसप्रकार निवेदन किया—
कृपानाथ ! आप क्षमाकरें । मैं आपको एक विचित्र आख्यायिका सुनाती हूं । आप कृपया उसे ध्यान पूर्वक सुनें । आर मेरा इस कार्यमें कितने अंश अपराध हुवा है । उस पर विचार करैं ।
इसी जंबूद्वीपमें मनोहर मनोहर गांवोंमे शोभित, धनिक एवं विद्वानोंसे भूषित, एक वत्स देश है । वत्सदेशमें एक कौशांबी नगरी है । जो कोशांबी उत्तमोत्तम वाग वगीचोंसें, देवतुल्य मनुष्योंसे स्वर्गपुरीकी शोभाको धारण करती है ।
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