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नेके लिये आज्ञा मांगी। एवं चलनेकेलिये तयार भी होगये। महाराज श्रेणिकने उन्हे जाते देख उनके साथ बहुत कुछ हित जनाया। और उन्हें सन्मान पूर्वक विदा करदिया । तथा स्वयं भी विद्याधर जंबुहुमारके साथ राजगृह आगये । राजगृह आकर महाराज श्रेणिकने विद्याधर जंबुकमारका बड़ा भारी सन्मान किया। और नवोढ़ा तिलकवतीके साथ अनेक भोग भोगते हुवे वे सुखपूर्वक रहने लगे।
किसीसमय महाराज आनंदमें बैठे हुवे थे। अकस्मात् उहें नंदिग्रामके निवासी विप्र नंदिनाथका स्मरण आया। महाराज श्रेणिकका जो कुछ पराभव उसने किया था, वह सारा पराभव उन्हे साक्षात्सरीखा दीखने लगा। वे मनमें ऐसा विचार करने लगे-देखो नंदिनाथकी दुष्टता नचिता एवं निर्दय पना? राजगृहसे निकलते समय जब मैं नंदिग्राममें जा निकला याउससमय विनयसे मागने पर भी उसने मुझे भोजनका सामान नहीं दिया था । यदि मैं चाहता तो उससे जवरन खाने पीनेके लिये सामान ले सकता था। किंतु मैंने अपनी शिष्टतासे वैसा नहीं किया था । और दीन वचन ही वोलता रहा था। मुझे जान पड़ता है जब उसने मेरे साथ ऐसा कस्ताका वर्ताव किया है, तब वह दूसरोंकी आवरू उतारनेमें कव चूकता होगा ? राज्य की ओरसे जो उसै दानार्थ द्रव्य दिया जाता है नियमसे उसे | वही गटक जाता है। किसी को पाई भरभी दान नहीं देता।।
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