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( १४२ ) कुछभी न करै । किंतु मेरी आखोंके सामने प्रतिसमय वना रहे । इसलिये जिससमय सेठानी वसुमित्राने कमार अभयक वचन सुने । मारे भयके उसका शरीर थर्राने लगा । पुत्रके टुकड़े सुन उसके नेत्रोंसे अविरल अश्रुओंकी धारा वहने लगी। उसने शीघ्रही विनय पूर्वक कुमारसे कहा---- ____ महाभाग कुमार ! इसदीन वालकके आप टुकड़े न करैं । आप यह वालक वसुदत्ताको देदें । यह वालक मेरा नहीं वसुदत्ताका ही है । वसुदत्ताका इसमें अधिक स्नेह है। वालककी खास माता वसुमित्राके ऐसे वचन सुन कुमारने चट जान लिया कि इसवालककी मा वमुमित्रा ही है । तथा समस्तमनुष्यों के सामने यह बात प्रकट कर कुमारने सेठीनी वमु. मित्राको वालक देदिया। और वसुदत्ताको राज्यसे निकाल डोड़ी किया। इसप्रकार अपने बुद्धिवलसे नीति पूर्वक राज्यकरने बाले कुमार अभयने महाराज श्रेणिकका राज्य धर्मराज्य वनादिया । और कुमार आनंद पूर्वक रहने लगे।
इसी अवसरमे अतिशय सच्चरित्र कोई वलभद्र नासका गृहस्थ अयोध्यामें निवास करता था। उसकी स्त्री जोकि अतिशय रूपवती चंद्रमुखी तन्वंगी कठिनस्तनी पिकवनी अति मनोहरा थी, भद्रा थी । उसी नगरमें अतिशय धनवान एक वसंत नामका क्षत्रियभी रहता था। उसकी स्त्रीका नाम माधवी था। किंतु वह कुरूपा अधिक थी। कदाचित् भद्रा अपने
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