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ही देखता था । मैंने आजतक कभी आपके चित्तपर ग्लानि न देखी । और समय तुम मेरा पूरापूरा सन्मान भी करती थी । आज तुमने मेरा सन्मानभी विसार दिया। आजतक मैंने तुम्हारा कोई कहना भी न डाला । जिससमय मैं तुम्हारा किसी कामकेलिये आग्रह देखता था फौरन करता था तथापि यदि मुझसे तुम्हारी अवज्ञा होगई हो तो क्षमा करो अब तुम्हारी अवज्ञा न की जायगी । मैं तुम्हारा अब कहना मानूंगा । यदि राजमंदिरम किसीने तुम्हारा अपराध किया है । तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी है । सोभी मझै कहो मैं अभी उसै दंड देनेकेलिये तयार हूं । शुभे ! मुझसे थोड़ासी तो वात चीतकरो। मैं तुम्हारी ऐसी दशा देखनेकेलिये सर्वथा असमर्थ हूं । तुम्हारी इस अवस्थाने मुझे अर्धमृतक वनादिया है । तुम्हें मैं अपने आधे प्राण समझता हूं । तू मेरे जीवनरूपी घरकलिये विशाल स्तंभ है । शुभानने ! तेरी दुःखमय अवस्था मुझे भी दुःखमय बना रही है ! तेरे दुखित होनेपर यह समत्त राजमंदिर मुझै दुःखमय ही प्रतीत होरहा है । पूचंद्रानने ! तू शीव्र अपने दुःखका कारण कह । शीघ्र ही अपनी मनोमलिनता दूरकर ! और जल्दी प्रसन्न हो।। ___महाराज श्रेणिकके ऐसे मनोहरवचन सुनकर भी प्रथम तो रानी चलनाने कछभी जवाव न दिया। किंतु जब उसने महाराजका प्रेम एवं आग्रह अधिक देखा तब वह कहने लगो___ जीवननाथ ? इससमय जो आप मुझे चिंतायुक्त देख रहे हैं।
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