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(१७७ ) होवे धन न होवे तो धर्मके सामने धनका न होना तो अच्छा किंतु विना धर्मके अतिशय मनोहर, सांसारिक मुखका केंद्र, चक्रवर्तीपना मी अच्छा नहीं । संसारमें मनुष्य विधवापनेको बुरा कहते हैं । किं तु यह उनकी बड़ी भारी भूल है । विधवापना सर्वथा बुरा नहीं । क्योंकि पति यदि सागगामी हो और वह मरजाय तवतो विधवापना वुरा । किंतु पति जीता हो और वह हो मिथ्यामार्गी तो उस हालतमें विधवापना सर्वथा वुरा ही है । संसारमें बांज रहना अच्छ। भयंकर वनका निवास भी उत्तम । अनिमें जलकर और विष खाकर मरजानाभी अच्छा । तथा अजगरके मुखमें प्रवेश और पर्वतसे गिरकर मरजाना भी अच्छा । एवं समुद्रमें डूबकर मरजानेमें भी कोई दोष नहीं। किंतु जिनधर्म रहित जीवन अच्छा नहीं । पति चाहैं अन्य उत्तमोतम गुणोंका भंडार हो। यदि वह जिनधर्मी न हो तो किसी कामका नहीं । क्योंकि कुमार्गगामी पति के सहवाससे, उसके साथ भोग भोगनेसे दोनों जन्ममें अनेक प्रकारके दुःख ही भोगने पड़ते हैं। हाय बड़ा कष्ट है । मैंन पूर्वभवमें ऐसा कौंन घोर पाप किया था । जिससे इसभवमें मुझे जैनधर्मसे विमुख होना पड़ा । हाय अव मेरा एकप्रकारस जैनधर्मसे संबंध छूटसा ही गया । हे दुर्दैव! तूने कब कवके मुझसे दाये लिये । पुत्र अभयकुमार ! क्या मुझै भोली वातों में फसाकर ऐसे घोर संकटमें डालना आपको योग्य था ? अथवा कवियोंने जो स्त्रियोंको अवला कहकर पुकारा है सो
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