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(१६२ ) महाराज उससमय अनेक मगधदेशके बड़े बड़े पुरुषोंके साथ सिंहासन पर विराजमान थे । उनके चारो ओर कामिनी चमर ढोल रही थी। बंदी जन उनका यशोगान कररहे थे । ज्योंही महाराज की दृष्टि चेलनाके चित्रपर पड़ी। एक दम महाराज चकित रह गये । चेलनाको सुव्यक्त तसवीर देख उनके मनमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प उठने लगे । वे विचारने लगे--इस चेलनाका केश वेश ऐसा जान पड़ता है मानों कामी पुरुषों के लिये यह अद्भुत जाल है । अथवा यों कहिये चूड़ामणि युक्त यह केशवेश नहीं है। किंतु उत्तम रत्नयुक्त, समस्तजीवोंको भयका करनेवाला, यह काला नाग है । एवं जैसा चंद्रमा युक्त आकाश शोभित होता है उसीप्रकार गांगेय तिलकयुक्त चेलनाका यह ललाट है । और यह जो भ्रभंगसे इसके ललाट पर ओंकार बनगया है वह ओंकार नहीं है जगद्विजयी कामदेवका वाण है । तथा गायन जिसप्रकार मृग को परवश बनादेता है । उसीप्रकार इसका कटाक्षविक्षेप कामीजनोंको परवश करने वाला है । अहा ! इस चलनाके कानाम जो ये दो मनोहर कुंडल हैं सो कुंडल नहीं किंतु इसकी सेवार्थ दो सूर्य चंद्र है । मृगनयनी इसचेलनाके ये कमलके समान फूले हुवे नेत्र ऐसे जान पड़ते हैं मानो कामीजनोंको वश करनेवाल मंत्र है । इस मृगाक्षी चेलनाका मुख तो सर्वथा आकाश ही जान पड़ता है क्योंकि आकाशमें जैसी वादलकी ललाई चंद्र
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