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( १५३ ) सुनो भाई दोनों बलभद्रो ! तुम दोनोंमेंसे कोठके छिद्र से न निकल कर जो इस तूंबाके छिद्रसे निकलेगा । वही असली बलभद्र समझा जायगा । और उसे ही भद्रा मिलेगी।
कुमारकी यह बात सुन असली वलभद्रको तो बड़ा दुःख हुवा । उसै विश्वास होगया कि भद्रा अब मुझे नहीं मिल सकती। क्योंकि मैं तूंबीके छेदसे निकल नहीं सकता। किंतु जो नकली वलभद्र था कुमारके वचनसे मारे हर्षके उसका शरीर रोमांचित होगया। उसने चट तूंबीके छिद्रसे निकल आनंद पूर्वक भद्राका हाथ पकड़ लिया ।
नकली बलभद्रकी यह दशा देख सभाभवनमें बड़े जोर शोरसे हल्ला होगया । सबके मुखसे येही शब्द निकलने लगेकि यही नकली वलभद्र है। असली बलभद्र तो कोठरीके भीतर बैठा है । एवं अपनी विचित्र बुद्धिसे कुमार अभयने नकली वलभद्रको मार पीटकर नगरसे बाहिर भगा दिया । और असली बलभद्रको कोठेसे बाहर निकाल एवं उसे भद्रा देकर अयोध्या जानेकी आज्ञा दी।
इसप्रकार पक्षपात रहित न्याय करनेसे कुमार अभय की चारो ओर कोर्ति फैलगई । उनकी न्याय परायणता देख समस्त प्रजा मुक्त कंठसे तारीफ करने लगी । एवं कुमार अभय आनंदसे राजगृहमें रहने लगे।
किसी समय महाराज श्रेणिककी अगूंठी किसी कूवमें
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