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( १९३ ) प्रश्न निकला कि-नंदिग्रामके ब्राह्मण जो वावड़ी लायेथे वह वावड़ी कहां है ? शीघ्र ही मेरे सामने लाओ--
महाराजके वचन सुनते ही पहरेदारने जवाव दिया महाराजाधिराज : नंदिग्रामके ब्राह्मण रातको चावड़ी उठाकर लायथे। जिससमय उन्होंने आपसे यह निवेदन किया था कि वावड़ी कहा रखदी जाय ! उससमय आपने यही जवाव दिया था कि 'जहांसे लाये हो वहीं लेजाकर रखदो और शीघ्र राजमंदिरसे चले जाओ । इसलिये हे कृपानाथ ? वे वावडीको पछेि ही लोटा ले गये ।
दरम्यानाके ये वचन सुन मारे क्रोधके महाराज श्रेणिकका शरीर भवकने लगा । वे वारवार अपने मनमें ऐसा विचार करने लगे कि-संसारमें जैसी भयंकर चेष्टा निद्राकी है, वैसी भयंकर चेष्टा किसी की नहीं । यदि जीवोंके सुखपर पानी फेरनेवाली है तो यह पिशाचिनी निद्रा ही है । परमर्षियोंने जो यह कहा है कि जो मनुष्य हितके आकांक्षी हैं-अपनी आत्माका हित चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे इस निद्राको अवश्य जीतें सो वहुत ही उत्तम कहा है। क्योंकि जिससमय पिशाचिनी यह निद्रा जीवोंके अंतरगमें प्रविष्ट होजाती है।उससमय विचारे प्राणी इसके वश हो अनेक शुभ अशुभ कर्म संचय कर मारते हैं । और अशुभ कर्मोकी कृपासे उन्हें नरकादि घोर दुःखोंका सामना करना पड़ता है । वास्तवमें यह निद्रा क्षुधाके समान है। क्यों
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