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श्रीमहाराज!आपने हमें वालकी रम्सीकेलिये आज्ञा दी है। हमैं नहीं मालूम होता हम कैसी रस्सी आपकी सेवामें ला हाजिर करें । कृपया हमें कोई दूसरी वालूकी रम्सीं मिले तो हम वैसी ही आपकी सेवामें लाकर हाजिर कर दें । अपराध क्षमा हो।
विप्रोंकी वात सुन महाराजने उत्तर दिया। हे विप्रो ! मेरे यहां कोई भी वालूकी रस्सी नहीं। वस फिर क्या था ! महाराजके मुखसे शब्द निकलते ही ब्राह्मणोंने एक स्वर हो इस प्रकार निवेदन किया।
हे कृपानाथ । जव आपके भंडारमें भी रम्सी नहीं है तो हम कहांसे वालूकी रम्सी बनाकर ला सकते हैं। प्रभो ! कृपया हम पर ऐसी अलभ्य वस्तु के लिये आज्ञा न भेजा करें । आप की ऐसी कठोर आज्ञा हमारा घोर अहित करने वाली है । हम आपके तावेदार हैं।आप हमारे स्वामी हैं।तथा इसप्रकार विनय पूर्वक निवेदन कर विप्र राज मंदिरसे चले गये। किंतु विप्रोंके विनय करने पर भी महाराजके कोपकी शांति न हुई । विप्रोंके चलेजाने पर उन्हें फिर नंदियामके अपमानका स्मरण आया। उनके शरीरमें फिर क्रोधकी ज्वाला छटकने लगो।
वे विचारने लगें कि ब्राह्मण किसी प्रकार दोषी नही वन पाये हैं। नंदिग्रामके ब्राह्मण बड़े चालाक मालूम पड़ते हैं।अस्तु मैं अब उनके पास ऐसी आज्ञा भेजता हूं। जिसका वे पालन ही
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