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( १३४ ) होता । अवके राजाने कुमारको बुलाया यह बड़ा अनर्थ किया । हे ईश्वर ! हमने किस भवमें ऐसा प्रवल पाप किया था । जिसका फल हम दुःखही दुख भोग रहे हैं । ईश्वर ! अव तो हमारी रक्षाकर । तथा इसप्रकार रोते विल्लाते हुवे वे समस्त ब्राह्मण कुमार अभयकी सेवा में गये । और उच्चैः स्वरसे उनके सामने रोने लगे । विप्रोंकी ऐसी दुःखित अवस्था देख कुमार ने कहा ।
ब्राह्मणो ! आप क्यों इतना व्यर्थ खेद करते हो । राजाने जिस आज्ञासे मुझे बुलाया है । मैं वैसे ही जाऊंगा । मैं आपलोगोंका पूरा पूरा खयाल रक्खूंगा । किसी तरह की आप चिंता न करें । तथा विप्रोंको इसप्रकार धैर्य बंधाकर कुमारने शीघ्र ही एक रथ मगवाया । और उसके मध्यमें एक छींका बधवाकर तयार करवादिया ।
जिससमय दिन समाप्त होगया । दिनका अंत रातका प्रारंभ संध्याकाल प्रकट होगया । कुमारने राजगृहकी ओर रथ हंकवा दिया । चलते समय रथका एक चक्र ( पय्या ) मार्गमें चलाया गया और दूसरा उन्मार्गमें । कुमारने चलते समय ( हारिमथक ) चनाका भोजन किया । एवं छीकें पर सवार हो कुमार अनेक विप्रोंके साथ आनंद पूर्वक राजगृह नगर जापहुंचे ।
महाराज श्रेणिकके पुत्र कुमार अभय राजगृह आगये ।
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