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केरला नगरी चलें। और न वह महाराजको लिवानेकेलिये राज गृह आया ही था । किं तु उसका उद्देश केवल महाराजकी विवाह स्वीकारताका था । जिससमय उसने महाराजको सर्वथा चलनेकेलिये तयार देखा तो वह इसरीतिसे विनयसे कहने लगा - हे महाराज ! कहां तो आप ? और कहां केरला नगरी ? आप... भूमिगोचरी हैं। वहां आपका जाना कठिन है । आप यहीं रहैं | मुझे जल्दी जानेकी आज्ञादें । तथा ऐसा कहकर वह शीघ्र ही आकाश मार्गसे चलदिया। और बातकी बात में केरला नगरीमें जा दाखिल हुवा |
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इधर महाराज श्रेणिकने भी केरला नगरी जाने के लिये प्रस्थान करदिया । एवं ये तो कुछदिन मंजल दरमंजलकर विंध्याचलकी अटवीमें पहुंच कुरलाचलके पास ठहरगये । उधर विद्याधर जंबु - कुमारने केरला नगरी में पहुंचकर रत्नचूलकी सेनाको ज्योंकी त्यों नगरी घेरे हुवे देखा । और किसीकार्यके वहानेसे रत्नचूल के पास जा उसने यह प्रतिपादन किया ।
हे राजन् रत्नचूल ! यह विलासवतीतो मगधेश्वर महाराज उपश्रेणिको दी जा चुकी है । आप न्यायवान होकर क्यों राजा मृगांक से विलासवतीकेलिये जोरावरी कर रहे हैं। आपसरीखे नरशोंका ऐसा वर्ताव शोभा जनक नहीं ।
रत्नचूलका काल तो शिर पर मड़रा रहा था । भला वह नीति एवं अनीति पर विचार करने कब चला । उसने जंबूक
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