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पुरके समान उत्तम शोभा धारण करनेवाले उसपुरमें घुसकर वे यह विचारने लगे कि सेठि इन्द्रदत्तका घर कहां ? और किस ओर है ! सुझे किस मार्ग से सेठि इन्द्रद्र के घर जाना चाहिये ? इसीविचारमें वे इधर उधर बहुत घूमे। अनेक घर देखे । बहुतसी गलियों में भ्रमण किया । किं तु इंद्रदत्तके घरका उन्हें पता न लगा अतम घूमते घूमते जब वे श्रांत होगये और ज्योंही उन्होंने श्रम दूर करने के लिये किसी स्थानपर बैठना चाहा त्योंही उन्हें निपुणवती के इशारेका स्मरण आया। वे अपने मन में विचारने लगे कि जिससमय निपुणवती तलाबसे गई थी उससमय मैंने उसे पूछा था कि सेठि इन्द्रदत्तका घर कहां है ? उससमय उसने कुछ भी जबाब नहीं दिया था। किंतु तालवृक्षके पत्तेसे वने हुवे भूषणसे मंडित वह अपना कान दिखाकर ही चली गई थी। इसलिये जान पड़ता है कि जिस घरमें तालका वृक्ष हो नित्संशय बही सेठि इन्द्रदत्तका घर है । अब कुमार तालवृक्ष सहित घरका पता लगाने लगे । लगाते लगाते उन्हे एक ताल वृक्षसे मंडित सतखना महल नजर पड़ा । तथा लालसा पूर्वक वे उसीकी ओर झुक पड़े ।
इधर कुमारके आनेका समय जानकर कुमारको और भी बुद्धिकी परीक्षाकेलिये कुमारी नंदश्रीने द्वारके सामने घोटू पर्यंत कीचड़ डलवा रक्खी थी । और उसमें एक एक पैर के फासलेसे एक एक ईंट भी रखवादीं थी तथा अपनी प्रिय सखां से वह
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