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( २७ ) कि हे यमदंड यद्यपि तुम क्षत्रिय राजा हो तथापि अव तुम्हारा गृहस्थाचार क्षत्रियोंके समान नहीं रहा है ? और मैं शुद्ध गृहस्थाचारपूर्वक वनेहुवे ही भोजनको खा सकता हूं । पवित्र एवं विशुद्ध ज्ञानी होकर मैं आपके घरमें भोजन नहीं कर सकता।
जिससमय राजा यमदंडने महाराज उपश्रेणिकके इस प्रकारके वचनोंको सुना तो उसने तत्क्षण इसभांति विनय पूर्वक कहा कि हे प्रभो यदि आप ऐसे गृहस्थाचार संयुक्त मेरे धरमें भोजन करना नहीं चाहते हैं तो आप घबड़ायें न गृहस्थाचार पूर्वक भोजनकोलिये मेरे यहां दूसरा उपाय भी मौजूद है । वह उपाय यही है कि मेरे अत्यंत शुभ लक्षणोंको धारणकरनेवाली, भलेप्रकार गृहस्थाचारमें प्रवीण, एक तिलकवती नामकी कन्या है वह कन्या शुद्ध क्रियापूर्वक भोजन पानी
आदिसे आपकी सेवा करेगी ____ भिल्लोंके स्वामी यमदंडके इसप्रकारके विनम्रवचनोंको सुनकर मगधदेशाधिप महाराज उपश्रेणिक अत्यंत प्रसन्न हुवे । और उसी दिनसे अपने पिताकी आज्ञासे कन्या तिलकवतीने भी महाराज उपश्रेणिककी सेवाकरनी प्रारंभ करदी। कभी वह कन्या एक प्रकारका और कभी दूसरे प्रकारका मिष्ट भोजन बनाकर महाराजको प्रसन्न करने लगी । कभी महाराजके रोगको भली भांति पहिचान वह उत्तम औषधियुक्त उनको भोजन
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