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कि हे श्रेष्ठिन् जल्दी वताइये इस हलपर हलके स्वामी कितने है ।
तथा आगे बढ़कर एक वदरी वृक्ष, दृष्टि गोचर हुवा उसै देखकर फिर भी कमारने सेठि इन्द्रदत्तसे पछा कि हे मातुल कृपाकर मुझै बताइये कि इस वेरिया के पेड़में कितने कांटे हैं।
इसप्रकार कुमार श्रेणिक तथा सेठि इद्रदत्त दोनों जनों की जिह्वारथ, जूता, छत्री, ग्रामका निश्चय, स्त्री, मुर्दा, शालिक्षेत्र, हल, कांटेके विषयमें बातचीत हुईं । पुण्यके फलसें अत्यंत विशदबुद्धिके धारक कुमार श्रेणिकने अपने स्नेह युक्त बचनों से, शब्दोके अर्थको भली भांति नहीं समझने वाले भी सेठि इन्द्रदत्तके कानोंको तृप्तकर दिया । और उत्तम बुद्धिको प्रकट करनेवाले बचन कहे । तथा नानाप्रकारकी शास्त्र कथाओंमें प्रवीण, चंद्रमाके समान शोभा को धारण करनेवाला, तेजस्वी, लक्ष्मीवान, अपने पुण्यसे जितेन्द्रिय पुरुषोंको भी अपने अधीन करनेवाला, पृथ्वीमें सुंदर, कुमार श्रेणिकने सेठि इन्द्रदत्तके साथ उत्तमोत्तम तलावोंसे शोभित वेणपद्म नगरमें प्रवेश किया। देखो कर्मका फल कहां तो मगधदेश? कहांराजगृहनगर ? और नंदिग्राम कहां ! तथा कहां बौद्धमतका सेवन ? और कहां सेठि इन्द्रदत्तके साथ मित्रता ! संसारमें कर्मोंका फल विचित्र
और अलक्ष्य है, किंतु यह नियम है कि जीवोंके समस्त अशुभ कार्योका नाश धर्मसे ही होता है, धर्मसे ही शुभ कर्मोको प्राप्ति
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