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( ५८ ) जूता पहिने ही नदीमें प्रवेश किया मालूम होता है कि यह साधारण मूर्ख नहीं वड़ा भारी मूर्ख है - इसप्रकार विचार करने २ सेठि इन्द्रदत्त फिर कुमार श्रेणिक के पीछे पीछे आगे चले । कुछ दूर चलकर उन्होंने अत्यंत शीतल छाया युक्त एक वृक्ष देखा मार्गमें धूप आदिसे अतिशय श्रांत कुमार श्रेणिक और सेठि इन्द्रदत्त दोनो ही उस वृक्षके पांस पहुंचे । कुमार श्रेणिक तो उस वृक्षकी छाया में अपने शिरपर छत्री तानकर बैठे और सेठि इंद्रदत्त त्री बंदकर । कुमारको छत्री ताने हुवे बैठा देखकर सेठि इंद्रदत्त फिर भी मनमें गहरा विचार करनेलगे कि संसारमें और और मनुष्य तो छत्रीको धूपसे बचनेके लिये शिरपर लगाते हैं किंतु यह कुमार अत्यंत शीतल वृक्षकी छायामें भी छत्री लगाये बैठा है यह तो बड़ा मूर्ख मालून पड़ता है ॥
इसप्रकार विचार करते करते फिरभी सेठि इन्द्रदत्त कमारके साथ - आगे चले आगे चलकर उन्होंने अनेकप्रकास्के उत्तमाधमनुष्योंसे व्याप्त, अनेकप्रकारके हाथी घोड़ा आदि पशुओसे भराहुवा अतिशय मनोहर, एक नगर देखा । नगरको देखकर कुमारश्रेणिकने सेठि इन्द्रत्तसे पूछा कि हे मामा कृपाकर कहैं यह उत्तम नगर वसाहुवा है कि उजड़ाहुवा ? कुमारके इन बचनोंको सुनकर सेठि इन्द्रदत्तने उत्तर नहीं दिया किंतु अति शय चतुर कुमारोणिक और इन्द्रदत्त फिरभी आगेको चलदिये
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