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श्रमण-सूत्र
डाँस, विच्छू, चाँचड़, टीड, पतंग आदि) चतुरिन्द्रिय जीव; स्पर्शन, रसन, घ्राण, चहु और श्रोत्र उक पाँच इन्द्रिय वाले ( मछली, मेंढक
आदि सम्मूछन तथा गर्भज तियंच मनुष्य प्रादि) पन्चेन्द्रिय जोव; इस प्रकार किसी भी प्राणी की मैंने विराधना की हो। - [किस तरह की विराथना की हो ? ] सामने आते हुओं को रोक कर स्वतंत्र गति में बाधा डाली हो, धूल श्रादि से ढंके हों, भूमि
आदि पर मसले हों, समूह रूप में इकट्ठ कर एक दूसरे को आपस में टकराया हो, छूकर पीड़ित किए हों, परितापित-दुःखित किए हों, मरणतुल्य अधमरे से किए हों, त्रस्त = भयभीत किए हों, एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर रखे हों-बदले हों, किंबहुना, प्राण से रहित भी किए हों, तो मेरा वह सब अतिचारजन्य पाप मिथ्या हो, निष्फल हो!
विवेचन मानव-जीवन में गमनागमन का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह वह क्रिया है, जो प्रायः सब क्रियाओं से पहले होती है, और सर्वत्र होती है। विहार करना हो, गोचरी जाना हो, शौच जाना हो, लघुशंका करनी हो, थूकना हो, अर्थात् कुछ भी इधर-उधर का काम करना हो तो पहले गमनागमन की ही क्रिया होती है। शरीर की जो भी स्पन्दन या कम्पन रूप क्रिया है, वह सब गमनागमन में सम्मिलित हो जाती है। अतएव प्रतिक्रमण-साधना में सर्वप्रथम गमनागमन के प्रतिक्रमण का ही विधान किया गया है।
जब तक यह शरीर चैतन्य-सत्ता से युक्त है, तब तक शरीर को मांस पिंड बनाकर एक कोने में तो नहीं डाला जा सकता है यदि कुछ दिन के लिए ध्यान लगाकर बैठे, योगसाधना की समाधि लगाले, तब भी कितने दिन के लिए ? भगवान् महावीर छह-छह मास का कायोत्सर्ग करके पत्थर की चट्टान की तरह निःस्पन्द खड़े हो जाते थे; परन्तु आखिर
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